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आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में...!

शुऐब शाहिद

आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में...!

शुऐब शाहिद

MORE BYशुऐब शाहिद

    यूँ तो दुनिया को अहद-ए-हाज़िर में सैकड़ों मसाइल दर-पेश हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग, मसला-ए-पोपूलेशन और मसला-ए-आब-ओ-हवा तो बहर-हाल फ़ेहरिस्त में हैं ही। एटमी और मसाइल-ए-जंग-ओ-जदल भी अहमियत के हामिल हैं। लेकिन फ़िल-वक़्त उस अज़ीम मसअला-ए-दीगर से रु-ब-रू कराना हमारा मक़सूद है जिसका तअल्लुक़ छोटे शहरों में बसने वाली अवामुन्नास है। दर-असल हमारी मुराद मसअला-ए-इश्तिहार से है।

    यक़ीनन आपको इस पर हैरानी हुई होगी। लेकिन हमें यक़ीन-ए-क़ामिल है कि ज़रा तवक़्क़ुफ़ ही से सही आपको इस राय से इत्तिफ़ाक़ करना पड़ेगा। कि इस वक़्त दुनिया को दर-पेश मसाइल में सर-ए-फ़ेहरिस्त मसअला-ए-इश्तिहार आपकी ख़ास तवज्जोह का हामिल है।

    इन इश्तिहारों की तीन अक़्साम हैं। पहली क़िस्म के इश्तिहार उमूमन शहरों से बाहरी हिस्से से तअल्लुक़ रखते हैं। खेती की ज़मीनों को घेरने की गरज़ से बनाई गई दीवारों पर रक़म होते हैं। पोशीदा अमराज़ के ऐसे नायाब जुमले इन दीवारों पर रक़म किए जाते हैं कि हमारी नाक़िस राय में इन फ़िक़रों पर ग़ालिब का वो मिसरा सादिक़ आता है,

    “आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में!”

    अभी परसों-तरसों की बात है। शहर के एक हाजी साहब अपने नौ-बियाहता दामाद को अपने खेत दिखाने ले गए। तो दूर सड़क पर खड़े-खड़े हाथ के इशारे से फ़रमाया कि वो जो सामने ‘‘बाँझपन’’ की दीवार दिखती है, उसके पीछे से वो, वहाँ, उस कोठड़ी तक की सारी ज़मीन हमारी है। हाजी साहब का इशारा उस कोठड़ी की तरफ़ था कि जिस पर मायूस होने की अपील की गई थी।

    ये तो चलें दामाद का मामला ठहरा लेकिन हमारी अस्ल हमदर्दी से तो उन शोरफ़ा के साथ है कि जिनके बच्चे ने अभी-अभी स्कूल जाना शुरू किया है और सफ़र में रास्ते भर मील के पत्थरों, ट्रकों पर लिखे ज़र्रीं अक़्वाल और दीवारों पर कमज़ोरियों के हवाले से गुज़ारिश-नामे पढ़ता है और घर के बुज़ुर्गों से उनकी वज़ाहत चाहता है। और जो नस्ल-ए-नौअ-ए-इंसानी इस तफ़क्कुर-ए-आम्मा की ज़र्ब से बच निकले तो उनका मुहासरा वो दूसरी क़िस्म के इश्तिहार कर लेते हैं जो उमूमन शहर के हाशिए पर आबाद घरों की दीवारों से तअल्लुक रखते हैं। अव्वल तो इस दौरा-ए-दिल-फ़िगारों में कौन किसी का पता बताता है। या गूगल के पेश-ए-नज़र ये जुमला भी मुनासिब होगा कि ‘‘आज-कल पता पूछता भी कौन है?’’

    लेकिन अगर इत्तिफ़ाकन किसी का पता दरयाफ़्त करने की मौक़ा भी जाए तो जवाब मिलता है कि फ़ुलाँ साहब तो वो पतंजलि वाले मकान में रहते हैं। या यूँ कि वो सामने वैगन आर वाली दीवार फ़ुलाँ साहब ही की है। शर्मा जी की दुकान को अल्ट्राटेक ने रंग छोड़ा है। और वो वकील साहब की छत पर लगे अमूल माचो के होर्डिंग से कपड़े सुखाने का काम लिया जाता है।

    तीसरी और सबसे बे-ज़ुबान नस्ल जिन इश्तिहारों के ज़ेर-ए-असर पलती और जवान होती है वो इश्तिहार दीवारों पर लगे पोस्टरों की शक्ल में होते हैं। घरों की दीवार पर लगे तमाम इश्तिहारात के सबब वुसूक़ से नहीं कहा जा सकता कि घर किस रंग का है? अलबत्ता उन दीवारों का हाल येलो पेजेस का सा नज़र आता है। जिस पर हर तरफ़ सैकड़ों नम्बर लिखे हैं। लीजिए दरवाज़े के ठीक ऊपर कोई मेहनती और इनामदार...नहीं! ईमानदार!

    जाने किस इन्तिख़ाब के उम्मीदवार मुस्कुरा रहे हैं। जो आपकी तवज्जोह और वोट के मुश्ताक़ हैं। खिड़की की दायीं सम्त डॉक्टर साहब बिना तकलीफ़ के दाँत और दाढ़ उखाड़ने की नियत रखते हैं। इन पोस्टरों का एक कमाल ये है कि अगला पोस्टर लगाने से पहले माक़ूल जगह तलाश करना और सबिक़ इश्तिहार को उखाड़ फेंकना ख़िलाफ़-ए-शरीअत अमल माना जाता है। उधर, ऊपर पतनाले के पास तल्ले-ऊपर किसी तअ्लीमी इदारे का और सर्कस के पोस्टर चस्पा हैं।

    पतनाले से गिरने वाले पानी से आधा पोस्टर गल कर गिर गया और दोनों इश्तिहारात की मुश्तर्का इबारत यूँ बनी, ‘‘मुल्क की फ़लाह-ओ-बहबूद के लिए अपने नौनिहालों को... (धुल गया...) बनाएँ तीन नाक वाला जोकर।

    इसी तरह चारों तरफ़ आधे अधूरे दो, तीन, और कभी कभी तो चार-चार इशतिहारों की मुश्तर्का इबारतों से आप ब-यक-वक़्त इस्तिफ़ादा कर सकते हैं।

    मसलन, ‘‘पेट क़ब्ज़ के मरीज़ अब परेशान हों, शिरकत करें इस अजीमुशशान मशायरे में।’’

    ‘‘हुकूमत-ए-वक़्त के तशद्दूद के ख़िलाफ़ चाँदनी बाई का रंगीला चित्रहार (चार गानो पर)’’

    ‘‘अर्निया का ऑपरेशन के लिए तशरीफ़ लाएँ और नए बेंच में एड्मीशन लेने वालो के लिए एक लैपटोप फ़्री!’’

    ‘‘इस अज़ीमुश्शान जलसे में फ़ुलाँ-फ़ुलाँ आलिम की मौजूदगी में बाँझपन का शर्तिया इलाज।’’

    दीवारों पर इश्तिहारों का आलम ये है कि उन पर क़सम खाने भर की गुंजाइश मौजूद नहीं। गो कि दरवाज़ा, चौखट, पतनालों के पाइपों और खिड़कियों तक पे इन पोस्टर वालों का कारनामा-ए-दिल-फ़रेबा चस्पा है। मगर इस वाज़ेह हरम-ज़दगी पर क्या कहिए कि एक पोस्टर वाला एक्ज़ोस्ट फ़ैन वाले रौशन-दान पर इस तरह से चिपका कर गया है कि रहे नाम मालिक का।

    माहिरीन को अंदेशा लाहक़ है कि दुनिया का ख़ात्मा इंसानों की कसीर तादाद या पानी के घटने से नहीं, बल्कि इन इश्तिहारों की कसरत से होगा। जबकि कुछ मुफ़क्कीरीन का इस पर भी इत्तिफ़ाक है कि तीसरी जंग-ए-अज़ीम की वुजूहात में इसका भी कुछ रोल होगा।

    लेकिन हम देखते हैं कि हमारा मौलवी इस पर चुप है। फ़ाज़िल-ए-वक़्त इस पर कुछ नहीं कहता। वो ये सोच कर परेशान है कि उसकी रिवायतों में क़ुर्ब-ए-क़यामत की ये वजह भला कैसे छूट गई?

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