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हिल स्टेशन

MORE BYमुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी

    उन दिनों मिर्ज़ा के आसाब पर हिल स्टेशन बुरी तरह सवार था। लेकिन हमारा हाल उनसे भी ज़्यादा ख़स्ता था। इसलिए कि हम पर मिर्ज़ा अपने मुतास्सिरा आसाब और हिल स्टेशन समेत सवार थे। जान ज़ैक़ में थी। उठते-बैठते सोते जागते उसी का ज़िक्र, उसी का विर्द।

    हुआ ये कि वो सरकारी ख़र्च पर दो दिन के लिए क्वेटा हो आए थे और अब इस पर मचले थे कि हम बिला तनख़्वाह रुख़सत पर उनके साथ दो महीने वहां गुज़ार आएं जैसा कि गर्मियों में शोरफ़ा अमाइदीन-ए-कराची का दस्तूर है। हमने कहा सच पूछो तो हम इसीलिए वहां नहीं जाना चाहते कि जिन लोगों के साये से हम कराची में साल भर बचते फिरते हैं वो सब मई-जून में वहां जमा हो जाते हैं।

    बोले, ठीक कहते हो, मगर बंदा-ए-ख़ुदा अपनी सेहत तो देखो। तुम्हें अपने बाल- बच्चों पर तरस नहीं आता? कब तक हकीम-डाक्टरों का पेट पालते रहोगे? वहां पहुंचते ही बग़ैर दवा के चाक़-ओ-चौबंद हो जाओगे। पानी में दवा की तासीर है और (मुस्कुराते हुए) किसी किसी दिन मज़ा भी वैसा ही। यूं भी जो वक़्त पहाड़ पर गुज़रे, उम्र से मिनहा नहीं किया जाता।

    मक्खी-मच्छर का नाम नहीं। कीचड़ ढ़ूंढ़े से नहीं मिलती। इसलिए कि पानी की सख़्त क़िल्लत है। लोगों की तंदुरुस्ती का हाल तुम्हें क्या बताऊं, जिसे देखो गालों से गुलाबी रंग टपका पड़ रहा है। अभी पिछले साल वहां एक वज़ीर ने अस्पताल का इफ़्तिताह की, तो तीन दिन पहले एक मरीज़ को कराची से बुलवाना पड़ा और उसकी निगरानी पर चार बड़े डाक्टर तैनात किए गए कि कहीं वो रस्म-ए-इफ़्तिताह से पहले ही सेहतयाब हो जाये।

    हमने कहा, आब-ओ-हवा अपनी जगह मगर हम दवा के बग़ैर अपने तईं नॉर्मल महसूस नहीं करते।

    बोले, उसकी फ़िक्र करो। क्वेटा में आँख बंद कर के किसी भी बाज़ार में निकल जाओ, हर तीसरी दुकान दवाओं की मिलेगी और हर दूसरी दुकान तनूरी रोटियों की।

    पूछा, और पहली दुकान?

    बोले, उसमें उन दुकानों के लिए साइनबोर्ड तैयार किए जाते हैं।

    हमने कहा, लेकिन कराची की तरह वहां क़दम क़दम पर डाक्टर कहाँ? आजकल तो बग़ैर डाक्टर की मदद के आदमी मर भी नहीं सकता।

    कहने लगे, छोड़ो भी! फ़र्ज़ी बीमारियों के लिए तो यूनानी दवाएं तीर हदफ़ होती हैं।

    हमारे बेजा शकूक और ग़लत-फ़हमियों का इस मुदल्लिल तरीक़े से अज़ाला करने के बाद उन्होंने अपना वकीलों का सा लब-ओ-लहजा छोड़ा और बड़ी गर्मजोशी से हमारा हाथ अपने हाथ में लेकर, “हम नेक-ओ-बद हुज़ूर को समझाए जाते हैं” वाले अंदाज़ में कहा, “भई, अब तुम्हारा शुमार भी हैसियत दारों में होने लगा, जभी तो बंक को पाँच हज़ार क़र्ज़ देने में ज़रा पस-ओ-पेश हुआ। वल्लाह मैं हसद नहीं करता। ख़ुदा जल्द तुम्हारी हैसियत में इतनी तरक़्क़ी दे कि पच्चास हज़ार तक मक़रूज़ हो सको। मैं अपनी जगह सिर्फ़ ये कहना चाहता था कि अब तुम्हें अपने (इन्कम ब्रैकट) मुसावी आमदनी वालों की तरह गर्मियां गुज़ारने हिल स्टेशन जाना चाहिए। ये नहीं तो कम अज़ कम छुट्टी लेकर घर ही बैठ जाया करो। तुम्हारा यूं खुले आम सड़कों पर फिरना किसी तरह मुनासिब नहीं।

    मेरी सुनो,1956 की बात है, गर्मियों में कुछ यही दिन थे। मेरी बड़ी बच्ची स्कूल से लौटी तो बहुत रूहांसी थी। कुरेदने पर पता चला कि उसकी एक सहेली जो वादी स्वात जा रही थी, ताना दिया कि क्या तुम लोग नादार हो, जो साल भर अपने ही घर में रहते हो। साहिब वो दिन है और आज का दिन, मैं तो हर साल मई-जून में छुट्टी लेकर मअ अह्ल-ओ-अयाल “अंडर ग्राउंड” हो जाता हूँ।

    फिर उन्होंने कराची के और भी बहुत से ज़मीन दोज़ शोरफ़ा के नाम बताए जो उन्ही की तरह साल के साल अपनी इज़्ज़त-ओ-नामूस की हिफ़ाज़त करते हैं। अपना ये वार कारगर होता देखा तो “नाक आउट” ज़रब लगाई।

    फ़रमाया, “तुम जो इधर दस साल से रुख़सत पर नहीं गए तो लोगों को ख़्याल हो चला है कि तुम इस डर के मारे नहीं खिसकते कि दफ़्तर वालों को कहीं ये पता चल जाये कि तुम्हारे बग़ैर भी बख़ूबी काम चल सकता है।”

    क़िस्सा हातिमताई में एक तिलिस्माती पहाड़ का ज़िक्र आता है। कोह-ए-निदा उस का नाम है, और यह नाम यूं पड़ा कि क़ुल्ला-ए-कोह से एक अजीब-ओ-ग़रीब आवाज़ आती है कि जिस किसी को ये सुनाई दे वो जिस हालत में, जहां भी हो, बे इख़्तियार उसी की तरफ़ दौड़ने लगता है। फिर दुनिया की कोई ताक़त, कोई रिश्ता नाता, कोई बंधन उसे रोक नहीं सकता।

    अब लोग उसे क़िस्सा कहानी समझ कर मुस्कुरा देते हैं, हालाँकि सुनने वालों ने सुना है कि ऐसी आवाज़ अब हर साल हर पहाड़ से आने लगी है। मिर्ज़ा का कहना है कि ये आवाज़ जब तुम्हें पहले-पहल सुनाई दे तो अपनी मुफ़लिसी को अपने और पहाड़ के दरमियान हाइल होने दो।

    लिहाज़ा तय पाया कि सेहत और ग़ैरत का यही तक़ाज़ा है कि हिल स्टेशन चला जाये। ख़्वाह मज़ीद क़र्ज़ ही क्यों लेना पड़े। हमने दबे लहजे में याद दिलाया कि क़र्ज़ मिक़राज़-ए-मुहब्बत है।

    मिर्ज़ा बोले, देखते नहीं लोग इस मिक़राज़ को कैसी चाबुकदस्ती से इस्तेमाल कर के अपनी मुश्किलात दूसरों को मुंतक़िल कर देते हैं? साहिब हुनर-मंद के हाथ में औज़ार भी हथियार बन जाता है। यहां ये वज़ाहत ग़ालिबन बेमहल होगी कि क़र्ज़ के बाब में मिर्ज़ा का पंद्रह-बीस साल से वही अक़ीदा है जो मौलाना हाली का इल्म-ओ-हुनर के बारे में था, यानी हर तरह से हासिल करना चाहिए।

    जिससे मिले, जहां मिले, जिस क़दर मिले

    लेकिन हमने इतनी शर्त ज़रूर लगा दी कि प्रोफ़ेसर क़ाज़ी अब्दुल क़ुद्दूस साथ हों तो ज़रा दिल्लगी रहेगी और ज़रगौस भी साथ चलेंगे बल्कि हम सब उन्ही की चमचमाती ब्यूक कार में चलेंगे।

    प्रोफ़ेसर क़ाज़ी अब्दुल क़ुद्दूस ज़रीफ़ सही, ज़राफ़त के मवाक़े ज़रूर फ़राहम करते रहते हैं। मगर उन्हें साथ घसीटने में तफ़न्नुन-ए-तबा के इलावा उनकी दुनिया-ओ-आक़िबत संवारने का जज़्बा भी कारफ़रमा था। वो यूं कि क़स्बा चाकसू से कराची वारिद होने के बाद वो पंद्रह साल से रेल में नहीं बैठे थे और अब ये आलम हो गया था कि कभी म्युंसिपल हदूद से बाहर क़दम पड़ जाये तो अपने को ग़रीब-उल-वतन महसूस करने लगते।

    आख़िर किस बाप के बेटे हैं। उनके वालिद बुजु़र्गवार मरते मर गए मगर फ़िरंगी की रेल में नहीं बैठे और आख़िर दम तक इस अक़ीदे पर बड़े इस्तिक़लाल से क़ायम रहे कि दूसरे कस्बों में चांद उतना बड़ा हो ही नहीं सकता जितना कि चाकसू में।

    मुनाज़िर-ए-क़ुदरत के शैदाई हैं। ख़ुसूसन दरयाए सिंध के। कहते हैं कि ख़ुदा की क़सम इससे ख़ूबसूरत दरिया नहीं देखा। वो क़सम खाएं तब भी ये दावा हर्फ़ हर्फ़ सही है। इसलिए कि उन्होंने वाक़ई कोई और दरिया नहीं देखा। ख़ुदा जाने कब से उधार खाए बैठे थे। बस टोकने की देर थी, कहने लगे ज़रूर चलूँगा। कराची तो निरा रेगिस्तान है, बारिश का नाम नहीं। दो साल से कान पर नाले की आवाज़ को तरस गए हैं। मैं तो सावन-भादो में रात को ग़ुस्ल-ख़ाने का नल खुला छोड़कर सोता हूँ ताकि ख़्वाब में टप-टप की आवाज़ आती रहे।

    मिर्ज़ा ने टोका कि क्वेटा में भी बरसात में बारिश नहीं होती।

    पूछा, क्या मतलब? बोले जाड़े में होती है।

    ताहम “पाक बोहेमियन कॉफ़ी हाऊस” में कई दिन तक क़यास-आराइयाँ होती रहीं कि प्रोफ़ेसर क़ुद्दूस साथ चलने के लिए इतनी जल्दी कैसे आमादा हो गए और क्वेटा का नाम सुनते ही मुल्तान की कोरी सुराही की तरह क्यों सनसनाने लगे।

    मिर्ज़ा ने कुछ और ही तावील की। फ़रमाया, क़िस्सा दर असल ये है कि प्रोफ़ेसर के एक दोस्त उनके लिए पैरिस से समूर के दस्ताने तोहफ़तन लाए हैं, जिन्हें पहनने के चाव में वो जल्द अज़ जल्द किसी हिल स्टेशन जाना चाहते हैं क्योंकि कराची में तो लोग दिसंबर में भी मलमल के कुरते पहन कर आइसक्रीम खाने निकलते हैं। इस हुस्न-ए-ताअलील की तसदीक़ एक हद तक उस सूटकेस से भी हुई जिसमें प्रोफ़ेसर ये दस्ताने रखकर ले गए थे। उस पर यूरोप के होटलों के रंग बिरंगे लेबल चिपके हुए थे। वो उसे कभी झाड़ते पोंछते नहीं थे कि कहीं वो उतर जाएं।

    अब रहे ज़रगौस। तो रस्मी तआरुफ़ के लिए इतना काफ़ी होगा कि पूरा नाम ज़िरग़ाम-उल-इस्लाम सिद्दीक़ी एम.ए,एल एल.बी. सीनियर ऐडवोकेट है। हमारे यूनीवर्सिटी के साथी हैं। उस ज़माने में लड़के बर बनाए इख़लास-ओ-इख़्तिसार उन्हें ‘ज़रगौस’ कहते थे। इन मुख़लिस हलक़ों में आज भी इसी मुख़फ़्फ़फ़ नाम से पुकारे और याद किए जाते हैं।

    अक्सर नावाक़िफ़ एतराज़ कर बैठते हैं, भला ये भी कोई नाम हुआ। लेकिन एक दफ़ा उन्हें देख लें तो कहते हैं, ठीक ही है।

    प्रोफ़ेसर ने उनकी शख़्सियत का तजज़िया बल्कि पोस्टमार्टम करते हुए एक दफ़ा बड़े मज़े की बात कही। फ़रमाया, उनकी शख़्सियत में से “बैंक बैलेंस” और “ब्यूक” निकाल दें तो बाक़ी क्या रह जाता है?

    मिर्ज़ा ने झट से लुक़मा दिया, एक बदनसीब बीवी! सैर-ओ-सयाहत के रसिया, लेकिन ज़रा खुरच कर देखिए तो अंदर से ठेठ शहरी। ऐसा शहरी जो बड़ी मेहनत, बड़ी मशक़्क़त से जंगलों को ख़त्म कर के शहर आबाद करता है और जब शहर आबाद हो जाते हैं तो फिर जंगलों की तलाश में मारा मारा फिरता है। बड़े वज़ादार आदमी हैं और उस क़बीले से हैं जो फांसी के तख़्ते पर चढ़ने से पहले अपनी टाई की गिरह दुरुस्त करना ज़रूरी समझता है। ज़्यादातर कार से सफ़र करते हैं और उसे भी कमरा-ए-अदालत तसव्वुर करते हैं। चुनांचे कराची से अगर काबुल जाना हो वो अपने महल्ले के चौराहे से ही दर्रा ख़ैबर का रास्ता पूछने लगेंगे।

    दो साल पहले मिर्ज़ा उनके हमराह मरी और वादी काग़ान की सैर कर आए थे और उनका बयान है कि कराची म्युंसिपल कारपोरेशन के हदूद से निकलने से पहले ही वो पाकिस्तान का 'मैप' (सड़कों का नक़्शा सीट पर फैला कर बग़ौर देखने लगे। मिर्ज़ा ने कहा तुम्हें बग़ैर नक़्शा देखे भी ये मालूम होना चाहिए कि कराची से निकलने की एक ही सड़क है। बक़ीया तीन तरफ़ समुंदर है।

    बोले, इसीलिए तो सारा तरद्दुद है।

    उसी सफ़र की यादगार एक तस्वीर थी जो ज़रग़ौस ने कोह शोगरां पर एक पेंशन याफ़्ता टट्टू पर बहालत रुकूअ खिंचवाई थी। उस तस्वीर में वो दुम के इलावा टट्टू की हर चीज़ पर सवार नज़र आते थे। लगाम इतने ज़ोर से खींच रखी थी कि टट्टू के कान उनके कानों को छू रहे थे और चारों कानों के बीच में टट्टू की गर्दन पर उनकी सह मंज़िला ठोढ़ी की क़लम लगी हुई थी।

    अपना सारा वज़न रिकाब पर डाले हुए थे ताकि टट्टू पर बोझ पड़े। मिर्ज़ा कहते हैं कि खड़ी चढ़ाई के दौरान कई मर्तबा ऐसा हुआ कि टट्टू कमर लचका कर रानों के नीचे से सटक गया और ज़रग़ौस खड़े के खड़े रह गए। दुश्वर गुज़ार ढलवानों पर जहां पगडंडी तंग और दाएं-बाएं हज़ारों फुट गहरे खड होते वहां वो ख़ुद टांगें सीधी कर के खड़े रह जाते। कहते थे, अगर मुक़द्दर में गिर कर ही मरना लिखा है तो मैं अपनी टांगों को लग़्ज़िश से मरना पसंद करूँगा, टट्टू की नहीं।

    ये तस्वीर तीन चार हफ़्ते तक उनके दफ़्तर में ‘रिश’ लेती रही। बाद अज़ां दूसरे वकीलों ने समझा-बुझा कर उतरवा दी कि अंजुमन इंसिदाद-ए-बेरहमी जानवरान वालों में से किसी ने देख ली तो खटाक से तुम्हारा चालान कर देंगे।

    2

    चार दरवेशों का ये क़ाफ़िला कार से रवाना हुआ। रेगिस्तान का सफ़र और लू का ये आलम कि पसीना निकलने से पहले ख़ुश्क! जैकब आबाद से आगे बढ़े तो मिर्ज़ा को बड़ी शिद्दत से चनों की कमी महसूस होने लगी। इसलिए कि अगर वो पास होते तो रेत में बड़े ख़स्ता भूने जा सकते थे। दोपहर के खाने के बाद उन्होंने सुराही में पत्ती डाल कर चाय बनाने की तजवीज़ पेश की जो बिला शुक्रिया इस लिए रद्द कर दी गई कि सड़क से धुआँ सा उठ रहा था और थोड़ी थोड़ी देर बाद ज़रगौस को यही गर्म पानी गर्मतर टायरों पर छिड़कना पड़ता था।120 दर्जा गर्मी से पिघले हुए तारकोल की छींटें उड़ उड़ कर कार के शीशे को दाग़दार कर रही थीं। इस छलनी में से झाँकते हुए हमने उंगली के इशारे से प्रोफ़ेसर को सात-आठ साल की ब्लोच लड़की दिखाई जो सर पर ख़ाली घड़ा रखे, सड़क पर नंगे-पाँव चली जा रही थी। जैसे ही उस पर नज़र पड़ी, प्रोफ़ेसर ने बर्फ़ की डली जो वो चूस रहे थे फ़ौरन थूक दी।

    इस पर ज़रगौस कहने लगे कि वो एक दफ़ा जनवरी में कराची से बरफ़बारी का मंज़र देखने गए तो मरी के नवाह में बर्फ़ पर पैरों के निशान नज़र आए, जिनमें ख़ून जमा हुआ था। होटल गाईड ने बताया कि ये पहाड़ियों और उनके बच्चों के पैरों के निशान हैं। प्रोफ़ेसर के चेहरे पर दर्द की लहर देख कर ज़रगौस तसल्ली देने लगे कि ये लोग तो 'लैंड एस्केप' ही का हिस्सा होते हैं,उनमें एहसास नहीं होता।

    प्रोफ़ेसर ने कहा, ये कैसे हो सकता है? हॉर्न बजाते हुए बोले, एहसास होता तो नंगे-पाँव क्यों चलते?

    रास्ते की रूदाद जो रास्ते ही की तरह तवील और दिलचस्प है, हम अलाहदा रिपोर्ताज़ के लिए उठा रखते हैं कि हर संग-ए-मील से एक यादगार हिमाक़त वाबस्ता है।

    सर-ए-दस्त इतना इशारा काफ़ी होगा कि प्रोफ़ेसर और मिर्ज़ा के लुत्फ़-ए-सोहबत ने छः सौ मील की मुसाफ़त और तकान को महसूस होने दिया। पहाड़ी रास्तों के उतार-चढ़ाव प्रोफ़ेसर के लिए नई चीज़ थी।

    बतौर-ए-ख़ास हमें मुख़ातिब कर के फ़रमाया, वल्लाह ये सड़क तो हार्ट-अटैक के कार्डियो ग्राम की मानिंद है, हर नागहानी मोड़ पर उन्हें बेगम की मांग उजड़ती हुई दिखाई देती और वो मुड़ मुड़ के सड़क को देखते जो पहाड़ के गिर्द साँप की तरह लिपटती, बल खाती चली गई थी।

    ज़रगौस ने कार को एक सुरंग में से पिरोकर निकाला तो मिर्ज़ा अंग्रेज़ इंजीनियरों को याद करके एक दम जज़्बाती हो गए। दोनों हाथ फैला कर कहने लगे ये हिल स्टेशन अंग्रेज़ की देन हैं। ये पहाड़ अंग्रेज़ की दरयाफ़्त हैं।

    प्रोफ़ेसर क़ुद्दूस ने दाएं कनपटी खुजाते हुए फ़ौरन तरदीद की। फ़रमाया, तारीख़ कहती है कि इन पहाड़ों पर अंग्रेज़ों से पहले भी लोग रहते थे। मिर्ज़ा ने कहा, बजा मगर उन्हें ये मालूम नहीं था कि पहाड़ पर रह रहे हैं। बिलआख़िर नोक-झोक और पहाड़ों का सिलसिला ख़त्म हुआ और साँप के फन पर एक हीरा दमकता हुआ दिखाई दी EUREKA! EUREKA!

    शहर में दाख़िल होते ही हम तो अपने आपको मक़ामी आब-ओ-हवा के सुपुर्द कर के बेग़म हो गए लेकिन मिर्ज़ा की बाछें कानों तक खिल गईं और ऐसी खिलीं कि दहाने पर तरबूज़ की क़ाश फ़िट आजाए। सड़क के दोनों तरफ़ देव क़ामत चनार देखकर उन्ही की तरह झूमने लगे। बोले, इसको कहते हैं आलम-आराई। एक पेड़ के नीचे पूरी बरात सो जाये।

    यूं होने को लाहौर में भी दरख़्त हैं। एक से एक तनावर,एक से एक छतनार। मगर जून-जुलाई में पत्ता तक नहीं हिलता। मालूम होता है, सांस रोके फ़ोटो खिंचवाने खड़े हैं।

    हम बढ़कर बोले, लेकिन कराची में तो चौबीस घंटे फ़रहत बख्श समुंदरी हवा चलती रहती है।

    फ़रमाया, हाँ! कराची में पीपल का पत्ता भी हिलने लगे तो हम उसे यके अज़ अजाइबात-ए-क़ुदरत जान कर म्युंसिपल कारपोरेशन का शुक्र अदा करते हैं जिसने ये बेल-बूटे उगाए। मगर यहां इस 'नेचुरल ब्यूटी’ की दाद देने वाला कोई नहीं। हाय ये मंज़र तो बिल्कुल 'क्रिस्मस कार्ड’ की तरह है।

    हम तीनों ये 'क्रिस्मस कार्ड’ देखने के बजाय प्रोफ़ेसर को देख रहे थे और वो 'ज़िंदा' दरख़्तों को उंगलियों से छू छू कर अपनी नज़र की तसदीक़ कर रहे थे। दर असल वो ख़ूबानियों को फल वालों की दुकानों में रंगीन काग़ज़ों और गोटे के तारों से सजा सजाया देखने के इस क़दर आदी हो गए थे कि अब किसी तरह यक़ीं नहीं आता था कि ख़ूबानियाँ दरख़्तों में भी लग सकती हैं।

    फ़ाज़िल प्रोफ़ेसर ता देर उस रूह परवर मंज़र से महज़ूज़ होते रहे बल्कि उसके कुछ लज़ीज़ हिस्से तनावुल भी फ़रमाए।

    3

    पहला मसला रिहायश का था। उसका इंतिख़ाब-ओ-इंतिज़ाम प्रोफ़ेसर की नाक़िस राय पर छोड़ दिया गया मगर उनकी नज़र में कोई होटल नहीं जचता था। एक 'अल्ट्रा माडर्न’ होटल को इसलिए नापसंद किया कि उसके ग़ुस्ल-ख़ाने बड़े कुशादा थे मगर कमरे मूज़ी की गौर की तरह तंग। दूसरे होटल को इसलिए कि वहां मुआमला बरअकस था और तीसरे होटल को इस वजह से कि वहां दोनों चीज़ें एक ही डिज़ाइन पर बनाई गई थीं।

    यानी... आप समझ ही गए होंगे। चौथे आलीशान होटल से इस बिना पर भाग लिये कि बंदा किसी ऐसे होटल में ठहरने का रवादार नहीं जहां के बैरे मुसाफ़िरों से ज़्यादा स्मार्ट हों। फिर कार पांचवें होटल के पोर्च में जा कर रुकी जहां एक साइनबोर्ड दो दो फुट लंबे हुरूफ़ में दावत-ए-तआम-ओ-क़ियाम दे रहा था,घर की सी ग़िज़ा और फ़िज़ा।

    अब की दफ़ा मिर्ज़ा बिदक गए। कहने लगे, “साहिब मैं एक मिनट भी ऐसी जगह नहीं रह सकता जहां फिर वही...”

    जुमला मुकम्मल होने से पहले हम उनका मतलब समझ कर आगे बढ़ गए।

    छटा नंबर “जन्नतान” होटल का था। अंग्रेज़ों के वक़्तों की ये तरशी तरशाई सी इमारत सफेदे के चिकने चिकने तनों की ओट से यूं झिलमिला रही थी जैसे सालगिरह का केक देखते ही सब लोट हो गए। प्रोफ़ेसर ने आगे बढ़कर उसके अज़कार-ए-रफ़्ता ऐंगलो इंडियन मैनेजर से बाद मुसाफ़ा किराया दरयाफ़्त किया।

    जवाब मिला, सिंगल रुम,पचपन रुपये यौमिया, डबल रुम, मियां-बीवी के लिए, पछत्तर रुपये। सब सन्नाटे में आगए। ज़रा औसान दुरुस्त हुए तो मिर्ज़ा ने सूखे मुँह से पूछा, “क्या अपनी ज़ाती बीवी के साथ भी पछत्तर रुपये होंगे?”

    बारे रहने का ठिकाना हुआ तो सैर सपाटे की सूझी। प्रोफ़ेसर को क्वेटा बहैसियत मजमूई पसंद आया। ये 'बहैसियत मजमूई' की पख़ हमारी नहीं, उन्हीं की लगाई हुई है। दिल में वो इस शहर-ए-निगाराँ इस सैर गाह मग़रूरां की एक एक अदा, बल्कि एक एक ईंट पर निसार थे लेकिन महफ़िल में खुल कर तारीफ़ नहीं करते थे, मबादा लोग उन्हें टूरिस्ट ब्यूरो का अफ़सर समझने लगें।

    चार-पाँच रोज़ बाद हमने तख़लिए में पूछा, “कहो हिल स्टेशन पसंद आया?”

    बोले, हाँ! अगर ये पहाड़ हों तो जगह अच्छी है।

    पूछा, पहाड़ों से क्या हर्ज है?

    बोले, बक़ौल मजाज़, दूसरी तरफ़ का मंज़र नज़र नहीं आता। दर असल उन्हें बेबर्ग-ओ-गयाह पहाड़ देखकर क़दरे मायूसी हुई।

    चुनांचे एक दिन कहने लगे, “मिर्ज़ा ये पहाड़ तुम्हारे सर की तरह क्यों हैं?”

    “एक ज़माने में ये भी देवदारों और सनोबरों से ढके हुए थे। परबत-परबत हरियाली ही हरियाली थी। मगर बकरीयां सब चिट कर गईं। इसीलिए हुकूमत ने बकरीयों के इस्तीसाल के लिए एक महाज़ बनाया है और पूरी क़ौम ख़ंजर-ब-कफ़ हुकूमत के साथ है।”

    “मगर हमें तो यहां कहीं बकरीयां नज़र नहीं आईं आएं।”

    “उन्हें यहां के बाशिंदे चट कर गए।”

    “लेकिन मुझे तो गली कूचों में यहां के असली बाशिंदे भी दिखाई नहीं देते।”

    “हाँ वो अब सबी में रहते हैं।”

    (सबी: क्वेटा से कोई सौ मील दूर एक इंतहाई गर्म 115-120 डिग्री मक़ाम, जिसे क्वेटा का दरवाज़ा कहना चाहिए, क्योंकि हर राह जो उधर को जाती है सबी से गुज़र कर जाती है।)

    हमने उन दोनों को समझाया, आज दरख़्त नहीं हैं तो क्या। महकमा जंगलात सलामत है तो क्या नहीं हो सकता। इरशाद हुआ, साहिब, महकमा जंगलात है तो हुआ करे। इन “क्लीनशेव” पहाड़ों में उसके ग़ालिबन दो ही फ़राइज़ होंगे जो अफ़ग़ानिस्तान में बहरी बेड़े के।

    प्रोफ़ेसर ये संगलाख़ पहाड़ देखकर कहा करते थे कि ऐसे ख़ालिस पहाड़, जिनमें पहाड़ के इलावा कुछ हो, दुनिया में बहुत कम पाए जाते हैं।

    मिर्ज़ा ने बहतेरा समझाया कि पहाड़ और अधेड़ औरत दर असल ऑयल पेंटिंग की तरह होते हैं... उन्हें ज़रा फ़ासले से देखना चाहिए। मगर प्रोफ़ेसर दूर के जल्वे के क़ाइल नहीं। बेशजर पहाड़ों से उनकी बेज़ारी कम करने की ग़रज़ से मिर्ज़ा ने एक दिन ग़ुरूब-ए-आफ़ताब के वक़्त कोह-ए-मुर्दार के सिलसिले की वो मशहूर सुरमई पहाड़ी दिखाई, जिसके ‘सलोट’ (सलोट चेहरे के एक रुख की आउट लाईन, जिसमें सियाह-रंग भरा हो) को देखने वाला अगर नज़र जमा कर देखे तो ऐसा मालूम होता है जैसे एक नाज़ुक इंदाम नाज़नीन मुर्दा पड़ी है। उसके पीछे को फैले हुए बाल, कुशादा पेशानी, चेहरे का तीखा तीखा प्रोफ़ाइल और सीने का तिकोन ग़ौर से देखने पर एक एक कर के उभरते चले जाते हैं।

    मिर्ज़ा उंगली पकड़ के प्रोफ़ेसर को उस तस्वीर के हिज्जे कराते गए। मौसूफ़ अपनी आँखों पर दाएं हाथ का छज्जा बना कर बग़ौर देखते रहे और उस हसीन-ओ-हज़ीं मंज़र से सिर्फ़ मुतास्सिर हुए बल्कि बाद मुआइना, ऐलान फ़रमाया कि नाज़ुक इंदाम नाज़नीन मरी नहीं, सिर्फ़ बेहोश है।

    पहाड़ों की तही दामनी से गिला दो दिन बाद दूर हुआ, जब सब मंज़िलें मारते क़ाइद-ए-आज़म के महबूब हिल स्टेशन ज़ियारत (आठ हज़ार फुट) पहुंचे। जहां तक प्रोफ़ेसर की ऐनक काम करती थी, हरा ही हरा नज़र रहा था।

    बिस्तरबंद खुलने से पहले फ़ाज़िल प्रोफ़ेसर ने एक पहाड़ी सर कर डाली और उसकी चोटी पर पहुंच कर तस्वीरें भी उतरवाईं, जिनमें उनके होंटों पर वो फ़ातिहाना मुस्कुराहट खेल रही थी, जो नवाबीन-ओ-महा राजगान के चेहरों पर मुर्दा शेर के सर पर राइफ़ल का कुंदा रखकर फ़ोटो खिंचवाते वक़्त हुआ करती थी।

    वो उस सरकश चोटी की बुलंदी आठ हज़ार पच्चास फिट बताते थे और उसमें क़तई मुबालग़ा था। इसलिए कि सतह-ए-समुंदर से उसकी बुलंदी उतनी ही थी, गो कि ज़मीन की सतह से सिर्फ़ पच्चास फुट बुलंद हो पाई थी।

    झूट-सच का हाल अल्लाह जाने, मगर मिर्ज़ा का हलफ़िया बयान है कि कोह मफ़्तूहा की चोटी पर क़दम रखने के पाँच मिनट बाद तक फ़ातिह प्रोफ़ेसर के हांपने की आवाज़ पच्चास फुट नीचे 'कैंप' में साफ़ सुनाई देती थी, जहां ज़रगौस मूवी कैमरा लिए शाम की नारंजी रोशनी में उस तारीख़ी मंज़र को फिल्मा रहे थे। मज़कूरा मुहिम के आख़िरी मराहिल में प्रोफ़ेसर ने ये ख़्याल भी ज़ाहिर किया कि ऐसे पहाड़ों पर हुकूमत बिजली की लिफ़्ट लगा दे तो मुल्क में कोह-ए-पैमाई का शौक़ पैदा हो जाएगी।

    इस तन-आसानी पर मिर्ज़ा ने ताना दिया कि हमारी क़ौम का एक फ़र्द ज़हीर उद्दीन बाबर कि जिसके घोड़ों की टापों से ये कोह-ओ-दमन, ये दश्त-ओ-जबल कभी गूँजे थे, दो क़वी-उल-जुस्सा मुग़ल सिपाहियों को बग़ल में दबा कर क़िले की फ़सील पर बे-तकान दौड़ता था।

    ये सुनते ही प्रोफ़ेसर चश्मे के पास सुस्ताने बैठ गए। उसके साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ पानी से हाथ-पांव धोए और गले में लटकी हुई छागल से मेरी बियर उंडेलते बोले, मगर हमारी तारीख़ बाबर पर ख़त्म नहीं सरकार! आप ये कैसे भूल गए कि वाजिद अली शाह, ताजदार-ए-अवध जब ज़ीने पर लड़ खड़ाते हुए चढ़ते तो सहारे के लिए (उस ज़माने में लकड़ी की 'रेलिंग' ईजाद नहीं हुई थी) हर सीढ़ी पर जी हाँ हर सीढ़ी पर दोनों तरफ़ नौख़ेज़ कनीज़ें खड़ी रहती थीं, मुग़लों की तलवार की तरह ख़मीदा-ओ-बेनियाम।

    प्रोफ़ेसर ने जुग़राफ़ियाई दुशवारियों पर इस तरह क़ाबू पाने के और भी कई तारीख़ी तरीक़े बयान किए, जिनके मोतबर होने में शुबहा हो तो हो, नुदरत में कलाम नहीं, लेकिन चोटी सर करने के बाद जब वो सँभल-सँभल कर घुटनियों उतर रहे थे तो बराबर की चोटी पर एक मुहीब परछाईं नज़र आई।

    पहाड़ों में सूरज जल्दी डूब जाता है और उस वक़्त मंज़र की जुज़इयात पर रात का काजल फैलता जा रहा था। सन्नाटा ऐसा मुकम्मल, ऐसा शफ़्फ़ाफ़ और आर-पार कि कलाई अपने कान से लगा कर सुनें तो नब्ज़ की धक धक साफ़ सुनाई दे दफ़अतन पुरअसरार परछाईं ने हरकत की।

    प्रोफ़ेसर के मुँह से बेइख़्तियार एक चीख़ निकली और निकलती चली गई। और जब वो निकल चुकी तो 'रीछ' कह कर वहीं सज्दे में चले गए।

    मिर्ज़ा को भी हिदायत की कि जहां हो, वहीं बैठ जाओ और सिगरेट बुझा दो। मिर्ज़ा पहले ही बर्फ़ानी रीछों के क़िस्से सुन चुके थे। यूं भी सीधे-सादे मुसलमान हैं। लिहाज़ा हिदायत पर आँख बंद कर के अमल किया, बल्कि अमल के बाद भी आँख बंद ही रखी।

    लेकिन कुछ देर बाद जी कड़ा कर के उसे खोला तो पूछने लगे, “मगर ये ‘में में’ क्यों कर रहा है?”

    प्रोफ़ेसर ने सज्दे ही में ज़रा देर कान लगा कर सुना और फिर उछल कर खड़े हो गए, फ़रमाया, “अरे साहिब, आवाज़ पर जाईए ये बड़ा मक्कार जानवर होता है!”

    4

    ज़रगौस जिस एहतिमाम-ओ-इंसिराम से सफ़र करते हैं, वो दीदनी है। मुहम्मद शाह रंगीले के मुताल्लिक़ तो सुना ही सुना था जब उसकी फ़ौज ज़फ़र मौज नादिर शाह दुर्रानी से लड़ने निकली तो जरनैल हस्ब-ए-मनासिब छोटी, बड़ी, मंझोली पालकियों में सवार अहकाम सादर करते जा रहे थे और आगे आगे ख़िदमत गारान की आबदार तलवारें उठाए चल रहे थे, मिनजुम्ला दीगर साज़-ओ-सामान हरब के कई छकड़े मेहंदी से लदे जलौ में थे ताकि सिपाही और सिपहसालार अपने हाथ पैरों और बालों को रन में जाने से पहले शाह पसंद रंग में रंग सकें।

    मिर्ज़ा से रिवायत है कि सफ़र तो ख़ैर सफ़र है। ज़रगौस शहर में भी इतनी वज़ादारी बरतते हैं कि उनका बड़ा लड़का क्रिकेट खेलता है तो चपरासी छतरी लगाए साथ साथ दौड़ता है। ग़ालिब की तरह ज़रगौस तेग़-ओ-कफ़न ही नहीं, तख़्ता-ए-ग़ुस्ल और काफ़ूर तक बांध कर ले जाने वालों में से हैं।

    लिहाफ़ और मलमल का कुर्ता, नमक और कोकाकोला, ताश कैसानोवा (उनका कुत्ता) डिनर जैकेट और “पक वक पेपरज़”, बंदूक़ और फ़र्स्ट ऐड का बड़ा बक्स, ग़रज़ कि कौनसी ग़ैर ज़रूरी चीज़ है जो दौरान-ए-सफ़र उनकी ज़ंबील में नहीं होती?

    अलबत्ता इस मर्तबा वापसी पर उन्हें ये क़लक़ रहा कि सफ़र यूं तो हर लिहाज़ से कामयाब रहा मगर फ़र्स्ट ऐड का सामान इस्तेमाल करने को काई मौक़ा नहीं मिला।

    उनके अंदर जो शहरी बसा हुआ है वो किसी तरह और किसी लम्हे उनका पीछा नहीं छोड़ता और उनका हाथ पकड़ कर कभी बादाम के तने पर चाक़ू की नोक से अपना नाम और तारीख़ आमद लिखवाता है और कभी पहाड़ी चकोर के शोख़ रंगों की दाद बाइस बोर की गोली से देता है। कभी गूँजते-गरजते आबशारों के दामन में “राक ऐंड रोल” और “ट्विस्ट” के रिकार्ड बजा कर सीटियों से संगत करता है और कभी जंगलों की सैर को यूं निकलता है गोया “एल्फी” (एलफ़िंस्टन स्ट्रीट, कराची) या “माल” पर शाम के शिकार को निकला है।

    मिर्ज़ा ने बारहा समझाया, देखो, पहाड़ों, जंगलों और देहातों में जाना हो तो यूं निकला करो। यू डी क्लोन लगाए, सिगार मुँह में, हर सांस बियर में बसा हुआ, बातों में ड्राइंगरूम की महक, उससे देहात की भीनी भीनी खूशबूएं दब जाती हैं। वो सहमी सहमी खूशबूएं जो याद दिलाती हैं कि यहां से देहात की सरहद शुरू होती है, वो सरहद जहां सदा ख़ुशबुओं की धनक निकलती रहती है।

    कच्चे दूध और ताज़ा कटी हुई घास की मीठी मीठी बॉस, छप्परों, खपरैलों से छन-छन कर निकलता हुआ उपलों का कड़वा कड़वा धुआँ, घुमर घुमर चलती चक्की से फिसलते हुए मकई के आटे की गर्म-गर्म सुगन्द के साथ “वो कंवार पत्ते की तेज़ महक” जोहड़ की काई का भीगा छिछलांदा झोंका, सरसों की बालियों की कटीली महकार, भेड़-बकरीयों के रेवड़ का भबका, अंगारों पर सेंकती हुई रोटी की सीधी मेदे में घुस जाने वाली लपट और उन सब में रची हुई, उन सब में घुली हुई खेतों और खलियानों में ताँबा से तपते हुए जिस्मों की हज़ारों साल पुरानी महक। ये ज़मीन के वहशी सांस की ख़ुशबू है।

    ज़मीन को सांस लेने दो। उसकी ख़ुशबू के सोते ख़ून से जा मिलते हैं। उसे मसामों में सहज सहज जज़्ब होने दो। उसे हवाना सिगार और “डेविड वरंट” (क़ुदरती बू को ज़ाइल करने वाली दवाएं से मारो कि ये एक दफ़ा जिस बस्ती से रूठ जाती है, फिर लौट कर नहीं आती। तुमने देखा होगा, छोटे बच्चों के जिस्म से एक पुरअसरार महक आती है, कच्ची कच्ची,कोरी कोरी, जो बड़े हो कर अचानक ग़ायब हो जाती है। यही हाल बस्तीयों का है। शहर अब बूढ़े हो चुके हैं। उनमें अपनी कोई ख़ुशबू बाक़ी नहीं रही।

    प्रोफ़ेसर क़ुद्दूस को ऐसी बातों में ''लादे इक जंगल मुझे बाज़ार से” वाला फ़लसफ़ा नज़र आता है। जो सफ़ेद कालर वालों की खुशबूदार फ़रारियत की पैदावार है। कहते हैं, शहरी ग़ज़ालों का नाफ़ा उनके सर में होता है। हमने देखा है कि बहस में चारों तरफ़ शह पड़ने लगे तो वो मिर्ज़ा ही के किसी नीम फ़लसफ़ियाना फ़िक़रे की फ़सीलों के पीछे दुबक जाते हैं और इस लिहाज़ से उनका रवैय्या ठेठ प्रोफ़ेसराना होता है।

    यानी असल मतन के बजाय महज़ फ़ुट नोट पढ़ना कार-ए-सवाब समझते हैं। लेकिन ज़रगौस का अमल सेहतमंदाना सही, सेहत अफ़ज़ा ज़रूर होता है। वो इस तरह कि वो मुनाज़िर-ए-क़ुदरत की दाद अपने मेदे से देते हैं। जहां मौसम ख़ुशगवार और मंज़र ख़ुश आइंद हो, और उनकी समझ में इससे लुत्फ़ अंदोज़ होने का एक यही तरीक़ा आया कि डट कर खाया जाये और बार-बार खाया जाये और इस ख़ुशगवार शग़ल से जो थोड़ा सा वक़्त बच रहे उसमें रमी खेली जाये।

    यहां बदकिस्मती से मौसम हमेशा अच्छा रहता था। इसलिए रोज़ाना खाने के दरमियानी वक़्फ़ों में रमी की बाज़ी जमती। मुख़लिस दोस्तों ने इस तरह पूरे छः हफ़्ते एक दूसरे को कंगाल बनाने की मुख़लिसाना कोशिशों में गुज़ार दिए। ज़रगौस तो आँख बचा कर पत्ता बदलने में भी मुज़ाइक़ा नहीं समझते। इसलिए कि ये करें तो भी प्रोफ़ेसर हर जीतने वाले को बेईमान समझते हैं।

    बहरसूरत हमने तो ये देखा कि अनगिनत शादाब लम्हे, जो चीड़ और चनार के नज़्ज़ारे में सर्फ़ हो सकते थे, वो दोनों के चिड़िया के ग़ुलाम और पान के चोई पर नज़रें जमाए गुज़ार दिए और भी पलट कर पुरहैबत पहाड़ों के डूबते सूरज और चढ़ते चांद का जलाल नहीं देखा और कभी आँख उठा कर उस रूप नगर की आन देखी, जिसके सर से ज़लज़ले की क़ियामत गुज़र गई, मगर जहां आज भी गुलाब दहकते हैं, रहगुज़ारों पर भी और रुख़्सारों पर भी।

    उनकी कनपटियों पर अब रूपहली तार झिलमिलाने लगे हैं, मगर वो अभी इस लज़्ज़त-ए-आवारगी से आश्ना नहीं हुए जो एक पल में एक जग का रस भर देती है। अभी उन्होंने हर फूल, हर चेहरे को यूं जी भर के देखना नहीं सीखा, जैसे आख़िरी बार देख रहे हों, फिर देखना नसीब होगा।

    ऐसे ही कोहसारों और वादीयों से गुज़रते हुए बाबर ने अपनी तुज़्क में कितनी मायूसी के साथ लिखा है कि जब हम किसी दरिया के किनारे पड़ाव डालते हैं तो हम और हमारी मुग़ल फ़ौज अपने ख़ेमों का रुख दरिया के दिलकश मंज़र की तरफ़ रखते हैं लेकिन हमारी हिन्दी फ़ौज अपने ख़ेमों की पीठ दरिया की तरफ़ कर लेती है।

    यहां ज़रगौस की कम निगही दिखानी मक़सूद नहीं। ईमान की बात ये है कि कराची पहुंच कर उन्होंने अपनी खींची हुई रंगीन फिल्में स्क्रीन पर देखीं तो दंग रह गए। कहने लगे यार, कमाल है, इनसे तो मालूम होता है कि क्वेटा ख़ूबसूरत जगह है।

    5

    ज़रगौस ख़ुद को ह्वेन सांग और ऐडमंड हिलेरी से कम नहीं समझते। बईं इद्दआ-ए- सय्याही कैफ़ियत ये है कि एक दिन मिर्ज़ा ने पूछा, यार कंचन चंगा भी देखी?

    इरशाद हुआ, नहीं। हम चीनी फिल्में नहीं देखते। मगर कौन सी फ़िल्म में काम कर रही है? मिर्ज़ा भी उनके हमराह दूसरी मर्तबा अपना मुल्क दरयाफ़्त करने निकले थे, मगर जहां गए, जिधर गए, ख़ुद ही को मुक़ाबिल पाया। आख़िर दो महीने जुग़राफ़िया में सवानिह उम्री का रंग भर के लौट आए। कहना पड़ेगा कि एक का दिल और दूसरे की आँखें शहरी हैं और इसकी तसदीक़ क़दम क़दम पर पिछले सफ़र की रूदाद से होती है। आप भी सुनिए कभी उनकी, कभी उनकी ज़बानी।

    ज़रगौस का बयान है कि त्योरस के साल मिर्ज़ा वादी काग़ान में ग्यारह हज़ार फुट की बुलंदी पर फ़ीरोज़ी रंग की मुंजमिद झील, मीलों तक फैले हुए ग्लेशियर और बर्फ़पोश पहाड़ देखकर बहुत हैरान हुए, वो सोच भी नहीं सकते थे कि मलाई की बर्फ़ के इलावा भी कोई बर्फ़ हो सकती है और वो भी मुफ़्त!

    कम-ओ-बेश उतनी ही शिद्दत का आलम जज़्ब-ए-दरयाए कन्हार देखकर उन्होंने अपने ऊपर तारी कर लिया। उस तिलमिलाती, झाग उड़ाती, काहिसतानी नदी के पुल पर देर तक दम साधे दरयाए हैरत में ग़ोता-ज़न रहे। आख़िर एक दर खोश-ए- आब लेकर उभरे। फ़रमाया, किस क़दर ख़ूबसूरत झाग हैं। बिकुल्ल लक्स साबुन जैसे। हाज़िरीन ने इस इश्तिहारी तशबीह का मज़ाक़ उड़ाया तो तुनुक कर बोले, साहिब मैं तो जब जानूं कि वर्डज़वर्थ को दरमियान में लाए बग़ैर आप नेचर पर दो जुमले बोल कर दिखा दें।

    मिर्ज़ा बतौर जवाब आँ ग़ज़ल, उसी मक़ाम और उसी घड़ी का एक और समाअ खींचते हैं, जिससे पता चलता है कि मरदान-ए-ख़ुशऔक़ात किस-किस तरह मुनाज़िर-ए-क़ुदरत की मंज़िलत बढ़ाते हैं (तस्वीर में जगह जगह ज़रगौस ने भी शोख़ रंग लगा दिए हैं)। ये मक़ाम बाला कोट के दामन में उस किनारे पर वाक़ा है, जहां नदी दो भारी पहाड़ों के दरमियान नर्तकी की कमर की तरह बल खा गई है। इससे ये करामत मंसूब है कि जहांगीर के हमराह इस रास्ते से कश्मीर जाते हुए नूरजहां की आँखों में सोज़िश हुई। जहांगीर को रात-भर नींद आई। शाही तबीब के सुर्मा-ओ-कुहल-ओ-ज़माद से कोई इफ़ाक़ा नहीं हुआ। नागाह एक दरवेश बा-सफ़ा का उधर से गुज़र हुआ। उसने कहा, जैसे ही चांद उस सनोबर के ऊपर आए, मलिका नदी का पानी अंजल में भरके उसमें अपना चेहरा देखे और इसी से सात दफ़ा आँखें धोए। मौला अपना फ़ज़ल करेगा। नूरजहां ने ऐसा ही किया और तारा सी आँखी हो गईं। उस दिन से उस मक़ाम का नाम नैन-सुख हो गया और उधर से गुज़रते हुए आज भी बहुत से हाथ मोती सा पानी चुल्लू में भर के इस अलबेली मलिका की याद ताज़ा करजाते हैं।

    हाँ तो ये मक़ाम था और शुरू बरसात की रात सुबह उसी जगह एक तारीख़ी फ़िल्म की शूटिंग के दौरान मेरी हीरोइन के पैर में मोच गई थी और चिराग़ जले तक वादी बालाकोट का हर वो बाशिंदा जो उस दिन साहिब-ए-फ़राश नहीं था, उस घोड़े को देखने आया, जिससे हीरोइन गिरी या गिराई गई थी और उस वक़्त जब रात की जवानी अभी नहीं ढली थी, यहां इसी फ़िल्म के प्रोडयूसर (जिनका मुक़द्दमा मजिस्ट्रेटी सेशन जजी और सेशन जजी से हाईकोर्ट और हाईकोर्ट से सुप्रीमकोर्ट तक ज़रगौस ने बिला मेहनताना-ओ-मेहनत लड़ा और हारा था।) ज़रगौस की ख़ातिर तवाज़ो में बिछे जा रहे थे।

    साथ शहद जैसी रंगत के बालों वाली हीरोइन भी थी, जो ट्रांज़िस्टर रेडियो पर “चाचाचा” की धुन पर बैठे ही बैठे अपनी ग़ैर माऊफ़ टांग थिरका रही थी और मिर्ज़ा के अलफ़ाज़ में “ओपन एयर होस्टस” के फ़राइज़ बड़ी तनदेही से अंजाम दे रही थी। ज़रगौस फ़ीरोज़े की अँगूठी से ''पक वक पेपरज़” की जिल्द पर ताल दे रहे थे। रेडियो पर कोई गर्म गीत आता तो सब के सब सुर मिला कर इतने ज़ोर से डकराने लगते कि असल गाना ज़रा सुनाई देता। सिर्फ़ नापसंदीदा गाने ख़ामोशी और तवज्जो से सुने गए।

    अलबत्ता मिर्ज़ा सर-ए-शाम ही से बवजह संजीदगी-ओ-सर्दी ख़ामोश थे। उन्हें जब ज़्यादा सर्दी महसूस होने लगती तो बेइख़्तियार उन मुहीब मशालों को टकटकी बांध कर देखने लगते, जो बीस मील दूर पहाड़ों पर एक महीने से रात होते ही रोशन हो जाती थीं। एक महीने से काग़ान के जंगल धड़ धड़ जल रहे थे और दूर दूर से सय्याह सनोबरों की आग देखने लाए जा रहे थे लेकिन यहां चारों तरफ़ तह दर तह तारीकी थी, जिसमें पहाड़ी जुगनू जा-ब-जा मुसलमानों की उम्मीदों की तरह टिमटिमा रहे थे।

    मिर्ज़ा नज़रें नीची किए रस भरी गंडेरियां चूसते रहे। थोड़े थोड़े वक़फ़े से ज़रगौस अपनी कार की हेडलाइट जला देते और साँवली रात अपने राज़ सुपुर्द करके चंद क़दम पीछे हट जाती। उनके सोने के दाँत से शुआएं फूटने लगतीं और केसानोवा की शब ताब आँखों के चराग़ जल उठते। कुछ और पैकर भी जिन्हें रोशनी ने रात की चट्टान चीर कर तराशा था नज़र के सामने कौंद जाते।

    चेहरा फ़रोग़-ए-मय से गुलिस्ताँ किए हुए

    उस कौंदे में नदी झमाझम करने लगती, जैसे टिशू की सारी। (माफ़ कीजिए, ये तीर भी उसी तरकश का है।)

    सामने मिर्ज़ा ख़ामोश ज़ानुए तलज्ज़ुज़ तह किए बैठे थे। कुछ बर्फ़ानी हवा, कुछ गँडेरी का असर। उनका हाथ अपनी नाक पर पड़ा तो ऐसा लगा जैसे किसी दूसरे की है। फिर नदी के पानी में हाथ डाला तो महसूस हुआ, गोया पिघली हुई बर्फ़ है और ये इसलिए महसूस हुआ कि वो वाक़ई पिघली हुई बर्फ़ थी जिससे फ़ायदा उठाने के लिए ब्लैक ऐंड व्हाइट की दूसरी बोतल की गर्दन मिर्ज़ा की टाई से बांध कर नदी में डाल दी गई थी।

    अभी कुछ देर पहले प्रोडयूसर साहिब को एक शम्पेन गिलास के किनारे पर लिपस्टिक का गुमान गुज़रा तो इतना हिस्सा अपने दाँतों से तोड़ कर कटर कटर चबाने लगे और अब वो अंधेरे में सिगरेट का कश लेते तो दहाने के दोनों कोनों पर जीते जीते ख़ून की धारें चमक उठतीं थीं। गँडेरियों से फ़ारिग़ हो कर मिर्ज़ा इस मंज़र को आँखों से पीए जा रहे थे, जिनमें अब गुलाबी डोरे उभर आए थे, जो ग़ालिबन नींद के होंगे। इसलिए कि गँडेरी में अगर नशा होता तो मौलवी गन्ने लेकर गंडेरे खाने वालों के पीछे पड़ जाते।

    उनके तौर बेतौर होते देखे तो ज़रगौस ने शाने झिंझोड़ कर पूछा, मिर्ज़ा! तुमने कभी व्हिस्की पी है?

    ख़ुमारआलूद आँखें खोलते हुए बोले, पी तो नहीं मगर बोतल से ऐसी बू आती है जैसी उनके मुँह से, बिल्कुल टिंक्चर आइडीन जैसी। ये कह कर तसदीक़ तलब नज़रों से प्रोडयूसर को देखने लगे, जो उस टिंक्चर आइडीन से अपने मुँह और दिल के ज़ख़्मों को डिस इन्फेक्ट कर रहे थे। ये शग़ल उस वक़्त तक जारी रहा जब तक पीने वालों ने नींद से बेहाल हो कर औल फौल बकना शुरू कर दिया और अवाख़िर माह की चांदनी में फ़राज़ बाला कोट पर उस मक़बरे के खुतूत दमकने लगे जहां सवा सौ साल पहले उसी वादी उसी रुत और उतरते चांद की उऩ्ही तारीख़ों में एक जियाले (हज़रत शाह शहीद) ने अपने ख़ून से अपनी क़ौम के दाग़ों को धोया था और जहां आज भी ख़ुदा के सादा-दिल बंदे नसवार की नज़र चढ़ा कर मुरादें मांगते नज़र आते हैं।

    6

    बात एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर जा पहुंची। दिखाना सिर्फ़ ये था कि पहाड़ पर ज़िंदगी हर ढंग और हर ढब से गुज़ारी जा सकती है। हंस कर, रोकर या अक्सरियत की तरह सो कर। मिर्ज़ा किसी घर बंद नहीं। कुछ नहीं तो चोरी चोरी बेगम ज़रगौस के मुहब्बत और इमला की ग़लतियों से भरे हुए ख़त ही पढ़ते रहते। मगर एक दिन एक अजीब रंग में पाए, बल्कि पकड़े गए।

    देखा कि मुख़्तलिफ़ रंगों और ख़ुशबुओं के टूथपेस्ट से कैरम बोर्ड पर कुछ पेंट कर रहे हैं। ख़ैर, टूथपेस्ट के इस्तेमाल पर तो हमें कोई अचम्भा नहीं हुआ। इसलिए कि सुन चुके थे की ऐब्सट्रैक्ट आर्टिस्ट (मुसव्विर) तस्वीर पर नेल पालिश और फिनाइल तक लगाने से नहीं चूकते और एक साहिब ऐसे भी गुज़रे हैं, जिन्होंने कैनवस पर घोड़े का नाल, अपने कटे हुए नाख़ुन और इकलौती पतलून के सातवाँ बटन, मॉडल की चूसी हुई गम से चिपकाकर बग़दादी जिमखाना प्राइज़ हासिल किया था।

    कहने का मतलब ये कि आर्टिस्टों की सोहबत में रहते रहते हम ऐसी बातों के आदी हो चुके हैं। ठटेरे का कबूतर तालियों से नहीं उड़ता लेकिन उस वक़्त परेशानी जो हुई तो इस बात से कि हमारे रस्मी तारीफ़ को सच समझ कर वो हमीं से उस ख़ुश-ज़ाएक़ा तस्वीर का उनवान पूछने लगे।

    “उनवान में क्या रखा है। असल चीज़ तो तस्वीर होती है तस्वीर!” हमने टालना चाहा।

    “फिर भी, क्या नज़र आता है तुम्हें?” वो भला छोड़ने वाले थे।

    “नज़र तो आता है, मगर समझ में नहीं आता।”

    “पिकासो से भी किसी ने कहा था कि साहिब आपकी तस्वीरें समझ में नहीं आतीं। उसने बड़ा प्यारा जवाब दिया। कहने लगा, चीनी ज़बान आपकी समझ में नहीं आती, मगर पच्चास करोड़ आदमी उसे बोलते हैं,समझे?”

    “लेकिन ये तस्वीर तो पिकासो को भी समझ में नहीं सकती।” हमने कहा।

    “बला से आए। एक रक़्क़ासा अपने हुस्न-ओ-कमाल की दाद लेने दूसरी रक़्क़ासा के पास नहीं जाती। दाद तो तमाशाइयों से मिलती हैं।” मिर्ज़ा ने कहा।

    उन्होंने बक़ौल शख़से आलम-ए-बाला की बात को बाला ख़ाने तक पहुंचा कर दम लिया।

    ज़रगौस की तरह मिर्ज़ा भी हिल स्टेशन को एक पैदाइशी शहरी की प्यार भरी नज़र से देखते हैं और नज़र भी ऐसे शहरी की जिसकी विलादत और पहली अलालत की तारीख़ एक ही हो। ख़ैर मिर्ज़ा तो हमारे हम जलीस-ओ-दमसाज़ ठहरे, जिनके रग-ओ-रेशे से हम इस तरह वाक़िफ़ हैं जैसे अपनी हथेली से। लेकिन इस दफ़ा हमें ज़रगौस और हिल स्टेशन दोनों को बहुत क़रीब से देखने का इत्तफ़ाक़ हुआ, और हम इस नतीजे पर पहुंचे कि ख़ुदा अगर आँखें दे तो उन्हें इस्तेमाल करने के मवाक़े भी दे। वर्ना हैफ़ है ऐसी ज़िंदगी पर, लेकिन हिल स्टेशन पर, ख़्वाह वो मरी हो या मसूरी, ऊटकमंड हो या क्वेटा।

    ज़िंदगी हमारी आपकी तरह बेमक़्सद नहीं होती। इसका एक मक़सद एक मुतमहे नज़र होता है। वो ये कि सदा सुहागन सड़कों पर वो फ़ैशन परेड देखी जाये जिसमें हर साल आसूदा हाल घरानों की ना-आसूदा बहू-बेटियां, धन और तन की बाज़ी लगा देती हैं।

    उन्ही सड़कों पर काली काफ़ी और आलू की हवाइयों पर गुज़ारा करने वाले अदीब बेगमाती ज़बान में एक दूसरे को ख़ूनीं इन्क़लाब पर उक्साते हैं। उन्ही सड़कों पर अपने गुलदान में बरगद उगाने वाले इंटेलेक्चुअल किसी ख़ूबसूरत लड़की को शरफ़-ए-ज़ौजियत बख़शने की घात में लगे रहते हैं। उधर ख़ूबसूरत लड़की चराग़-ए-रुख़-ए-ज़ेबा लिये इस तलाश में सरगर्दां कि जल्द अज़ जल्द किसी बूढ़े लखपति की बेवा बन जाये!

    ये स्वयंबर, ये सुहाग रात हर हिल स्टेशन पर हर साल मनाई जाती है और इससे पहले कि सब्ज़ा-ए-नौरस्ता बर्फ़ का कफ़न पहन कर सो जाये, चनारों की आग सर्द और क़हवा ख़ाने वीरान हो जाएं। मवेशी मैदानों में उतरने लगें और सड़कों पर कोई ज़ी-रूह नज़र आए, बजुज़ टूरिस्ट के।

    इस से पहले कि मौसम-ए-गुल बीत जाये बहुत से हाथों की तीसरे उंगली में अँगूठियां जगमगाने लगती हैं। अगरचे ज़रगौस के सेहरे के फूल दो दफ़ा खुलना क्या, मुरझा चुके हैं, मगर अब भी सड़क पर ढेर सारे हसीन चेहरे देखकर उनका हाल ऐसा होता है जैसा खिलौनों की दुकान में यतीम बच्चे का!

    इस स्वयंबर के पहलू पहलू हिल स्टेशन पर सारे मुल्क के ला-इलाज रूअसा और मुतमव्विल लाग़रों का अज़ीमुश्शान सालाना मेला लगता है, जिसमें वसीअ पैमाने पर तबादला-ए-अमराज़ होता है। आपने शायद सुना हो कि बनारस में जो अपनी सुबह और सारियों के बावजूद एक पवित्र स्थान की हैसियत से भी मशहूर है, सारे हिन्दोस्तान के ज़ईफ़ एतिक़ाद बूढ़े मरने के लिए खिंच खिंच कर आते हैं और बहुत जल्द दिली मुराद पाते हैं, जो बीमार अपनी क़ुव्वत-ए-इरादी की कमज़ोरी के सबब ख़ुद को मरने के लिए तैयार नहीं कर पाते वो क़रीब तरीन हिल स्टेशन का रुख़ करते हैं।

    हमारे मिर्ज़ा साहिब का सानी-उल-ज़िक्र (बिरादरी) से कितना देरीना ताल्लुक़ है, इस का अंदाज़ा इस वाक़े से लगाया जा सकता है कि बीस बरस पहले आई सी एस के मुक़ाबले के इम्तिहान में अव्वल आने के बाद उनका डाक्टरी मुआइना हुआ तो पता चला कि दाँतों के इलावा और कोई चीज़ ठीक नहीं। गो कि बिरादरी के रुक्न की हैसियत से हम ख़ुद भी अपनी सेहत की तरफ़ से एक लहज़ा ग़ाफ़िल नहीं, ताहम अभी ये नौबत नहीं आई कि विटामिन की गोली हलक़ से उतरते ही अपने बाज़ू की मछलियाँ फुला फुला कर देखने लगें।

    लेकिन मिर्ज़ा का ये रोज़मर्रा का मामूल सा हो गया कि दवाएं हज़म करने के लिए शाम को मांगे ताँगे की छड़ी घुमाते हुए निकल जाते। दस्तानों की तरह ये सुडौल छड़ी भी प्रोफ़ेसर के दोस्त पैरिस से लाए थे। इस पर फ़्रैंच एक्ट्रेस बर्ज़ेत बारोद की टांग का बालाई हिस्सा बतौर दस्ता लगा हुआ था। उसी के सहारे प्रोफ़ेसर ने वो टीला “फ़तह” किया, जिसकी सरकोबी का मुफ़स्सिल हाल पहले चुका है।

    उसी के ज़रिये वो अँधेरी रातों में अपने और गुस्ताख़ कुत्तों के दरमियान एक बावक़ार फ़ासिला क़ायम रखते हैं और अब उसी को हिलाते सहलाते हुए मिर्ज़ा जिन्ना रोड की हर तीसरी दुकान में (जो दवाओं की थी) दर्राना घुसते चले जाते। काउंटर के पास इस्तादा मशीन में खोटी इकन्नी डाल कर अपना वज़न लेते और औंस दो औंस के इज़ाफे़ पर मुक़ामी आब-ओ-हवा की शान में क़सीदे पढ़ते लौटते।

    एक दिन हमने कहा, देखो, दवाओं की ये दुकान कितनी चलती है। सुबह से रात गए तक ख़ुशपोश ख़वातीन का तांता बंधा रहता है, मगर तुम्हें यहां तुलते कभी नहीं देखा।

    कहने लगे तौबा कीजिए साहिब! मालूम होता है इसकी मशीन ख़ास तौर पर औरतों के लिए बनवाई गई है। एक दिन तौला तो कुल चालीस पौंड उतरा। धक से रह गया। सेठ से जाकर शिकायत की, “ये क्या ज़्यादती है?”

    ख़ुदा की क़सम खा के बोला, आपके साथ दुश्मनी थोड़ा ही है। सभी को पच्चास पौंड कम बताती है! उसके बाद उस बेईमान ने खोटी इकन्नियों की ढेरी में से मिर्ज़ा को एक इकन्नी वापस करनी चाही, जिसे उन्होंने अज़ राह-ए-अख़लाक़ क़बूल करने से इनकार कर दिया।

    भला मिर्ज़ा ऐसी दुकान में जा कर सेरों बल्कि मनों मायूसियाँ क्यों मोल लेने लगे। वो तो उन सेहत पसंदों में से हैं जो टहलने निकलें तो क़दमों की गिनती रखते हैं और मुक़व्वी लुक़मा लेने से पहले उस ख़ून के एक एक क़तरे का हिसाब लगा लेते हैं जो उससे बनना चाहिए, मगर नहीं बनता।

    उनके तग़ज़ियाती पैमाने की रू से काले हिरन की कलेजी में एक सालिम ऊंट की ग़िज़ाईयत होती है और एक पहाड़ी चकोर में हिरन के बराबर, लेकिन क्वेटा की एक ख़ूबानी पूरे तीन चकोरों के बराबर होती है। अली हज़ा अल-क़यास।

    एक दिन अपने हिसाबों डेढ़ दो दर्जन सालिम ऊंट दरख़्त से तोड़ कर कचर कचर खाए और झूमते झामते हमारे पास आए। कहने लगे, साहिब ये शहर तो इस क़दर पुरफ़िज़ा है कि खा खा के अपना तो दिवाला निकला जा रहा है। खाना हलक़ से उतरा नहीं कि हज़म।

    हमने कहा, इससे फ़ायदा? बोले, देखते नहीं? टूरिस्ट भी यहां बेकारी से बचने के लिए दिन-भर जो स्वेटर सटा सट बुनती रहती हैं, वो तैयार होने से पहले तंग हो जाते हैं। शाम को चाय और चिलगोज़े के साथ ग़ीबत बड़ा मज़ा देती है। फिर हर चीज़ अर्ज़ां, हर चीज़ ख़ालिस। हद ये है कि “स्कैंडल” में भी झूट की मिलावट नहीं। कराची में ख़ालिस दूध तो बड़ी बात है, पानी भी ख़ालिस नहीं मिलता। उसमें भी दूध की आमेज़िश होती है। मगर यहां दुकानदार आदतन सच बोलते और सस्ता बेचते हैं। इसीलिए बाज़े टूरिस्ट समझते हैं कि छोटा शहर है।

    फिर वह क्वेटा की फ़ौक़ियत यके बाद दीगरे दुनिया के दूसरे शहरों पर साबित करने लगे, “लाहौर?”

    “कैलेंडर से अप्रैल, मई, जून, जुलाई, अगस्त, सितंबर के महीने हमेशा के लिए ख़ारिज कर दिए जाएं, तो वल्लाह लाहौर का जवाब नहीं!”

    “रोम?”

    “एक हसीन क़ब्रिस्तान ज़मीन के नीचे की आबादी, ऊपर की आबादी से कहीं ज़्यादा है। रहे तारीख़ी खंडर, सो उनमें चमगादड़ें और अमरीकी टूरिस्ट बसेरा करते हैं। जेम्स ज्वाइस ने झूट नहीं कहा था कि रोम की मिसाल एक ऐसे शख़्स की सी है जो अपनी नानी की लाश की नुमाइश कर के रोज़ी कमाता है।”

    “मरी, मलिका-ए-कोहसार, मरी?”

    “साहिब जलवागरी में क्वेटा से कम नहीं, वही नक़्शा है वले इस क़दर आबाद नहीं।”

    “और दिल्ली?”

    “शहर बुरा नहीं, मगर ग़लत मुल्क में आबाद है।”

    “जिनेवा, सेहत गाह-ए-आलम?”

    “साहिब मरने के लिए इससे ज़्यादा पुरफ़िज़ा मक़ाम रू-ए-ज़मीन पर नहीं।”

    “कराची के मुताल्लिक़ क्या राय है हुज़ूर की?”

    “बहुत अच्छी अगर आप सर के बल खड़े हो कर देखें तो कराची की हर चीज़ सीधी नज़र आएगी।”

    “यार तुम कराची के साथ सरीहन ज़्यादती करते हो।”

    “हरगिज़ नहीं, मैं कराची के हुक़ूक़ के लिए हमेशा लड़ता रहूँगा। इसीलिए मैं अहलियान-ए-कराची के इस मुतालिबे की शद-ओ-मद से हिमायत करता हूँ कि मलेयर के पुल और सड़क की मरम्मत होनी चाहिए। ज़रूर होनी चाहिए और जल्द होनी चाहिए ताकि कराची से निकलने में आसानी रहे।”

    “यही बात है तो तुम वापस क्यों जा रहे हो?”

    “मगर (अंगुश्त-ए-शहादत उठाते हुए) एक बात है, कराची वाले आगे हो कर कराची की बुराई करते हैं, लेकिन कोई और उनकी हाँ मैं हाँ मिला दे तो ख़फ़ा हो जाते हैं। बस इसी अदा पे प्यार आता है।”

    फिर क्वेटा की बरतरी साबित करते करते बेध्यानी में कहने लगे, “हाय, ये अज़ीम शहर अगर कराची में होता तो क्या बात थी!”

    मिर्ज़ा ने इतना कहा और दायाँ हाथ फैला कर अपना सीना फुलाया और फिर अव्वल-उल-ज़िक्र को आख़िर-उल-ज़िक्र पर मारा। एक आह-ए-सर्द खींची और ख़ामोश हो गए।

    उनके रुख़्सारों पर ख़ून सालिह के वो चंद क़तरे चमक रहे थे जिन्हें आतिश-ए- रोज़गार ने बहुत जल्द ख़ुश्क कर दिया।

    स्रोत:

    ख़ाकम बदहन (Pg. 128)

    • लेखक: मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी
      • प्रकाशक: पाक पब्लिकेशन्स, कराची
      • प्रकाशन वर्ष: 1970

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