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इश्तेहारात 'ज़रूरत नहीं है' के

इब्न-ए-इंशा

इश्तेहारात 'ज़रूरत नहीं है' के

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    एक बुज़ुर्ग अपने नौकर को फ़हमाइश कर रहे थे कि तुम बिल्कुल घामड़ हो। देखो मीर साहिब का नौकर है, इतना दूर अँदेश कि मीर साहिब ने बाज़ार से बिजली का बल्ब मंगाया तो उसके साथ ही एक बोतल मिट्टी के तेल की और दो मोमबत्तियां भी ले आया कि बल्ब फ़्युज़ हो जाये तो लालटेन से काम चल सकता है। उसकी चिमनी टूट जाये या बत्ती ख़त्म हो जाये तो मोमबत्ती रोशन की जा सकती है। तुमको टैक्सी लेने भेजा था, तुम आधे घंटे बाद हाथ लटकाते आगए। कहा कि जी टैक्सी तो मिलती नहीं, मोटर रिक्शा कहिए तो लेता आऊँ। मीर साहिब का नौकर होता तो मोटर रिक्शा ले के आया होता, ताकि दुबारा जाने की ज़रूरत न पड़ती।

    नौकर बहुत शर्मिंदा हुआ और आक़ा की बात पल्ले बांध ली। चंद दिन बाद इत्तफ़ाक़ से आक़ा पर बुख़ार का हमला हुआ तो उन्होंने उसे हकीम साहिब को लाने के लिए भेजा। थोड़ी देर में हकीम साहिब तशरीफ़ लाए तो उनके पीछे पीछे तीन आदमी और थे जो सलाम करके एक तरफ़ खड़े हो गए। एक की बग़ल में कपड़े का थान था। दूसरे के हाथ में लोटा और तीसरे के कंधे पर फावड़ा। आक़ा ने नौकर से कहा, ये कौन लोग हैं। मियां नौकर ने तआरुफ़ कराया कि जनाब, वैसे तो हकीम साहिब बहुत हाज़िक़ हैं। लेकिन अल्लाह के कामों में कौन दख़ल दे सकता है। ख़ुदा-ना-ख़ासता कोई ऐसी वैसी बात हो जाएगी तो मैं दर्ज़ी को ले आया हूँ और वो कफ़न का कपड़ा साथ लाया है। ये दूसरे साहिब ग़स्साल हैं और तीसरे गोरकन। एक साथ इसलिए ले आया कि बार-बार भागना न पड़े।

    ऐसे ही एक बुज़ुर्ग हमारे हलक़ा-ए-अहबाब में भी हैं। गली से रेड़ी वाला हाँक लगाता गुज़र रहाथा कि अंगूर हैं चमन के, पपीते हैं पेड़ के पके हुए। उन्होंने लड़का भेज कर उसे बुलाया और कहा, मियां जी माफ़ कीजिए, हमें ज़रूरत नहीं है, फल वाला चला गया तो हमने अर्ज़ किया कि इस ज़हमत की क्या ज़रूरत थी। वो तो जा ही रहा था, उसे रोकना क्या ज़रूर था। बोले, एहतियात का तक़ाज़ा था कि उस पर बात वाज़ह कर दी जाये और माज़रत भी की जाये क्योंकि बेचारा इतनी दूर से उम्मीद लेकर फल बेचने आता है। दूसरे ये कि उसे ये गुमान न गुज़रे कि इस घर में शायद बहरे रहते हैं जो उसकी आवाज़ नहीं सुन पाते।

    यही हमारे दोस्त एक रोज़ कार में हमारे साथ गोलीमार से गुज़र रहे थे। एक जगह लिखा है तशरीफ़ लाइए। रबड़ी, क़ुलफ़ी और लस्सी तैयार है। उन्होंने फ़ौरन कार ठहराई और दूकानदार से कहा कि पहली बात तो ये कि हमारे पास फ़ुर्सत नहीं, हम ज़रूरी काम से जा रहे हैं। दूसरे क़ुलफ़ी और रबड़ी हम नहीं खाते और लस्सी का भला ये कौन सा मौसम है? बहरहाल तुम्हारी पेशकश का शुक्रिया। वो तो बैठा सुना किया और न जाने क्या समझा किया। कार में वापस बैठते हुए हमारे दोस्त ने वज़ाहत की कि यहां के लोग इन आदाब को क्या जानें। यहां तो दावतनामा आता है और उसके नीचे RSVP लिखा होता है कि जवाब से मुत्तला फ़रमाईए। जिनको शरीक नहीं होना होता वो भी चुप बैठ रहते हैं। मेज़बान को मुत्तला करना ज़रूरी नहीं समझते कि बंदा हाज़िर होने से माज़ूर है। उस बेचारे का खाना ज़ाए जाता है।

    हमने ग़ौर किया तो मालूम हुआ कि हम ख़ुद उन्ही आदाब से बे-बहरा लोगों में से हैं। लोग अख़बारों में तरह तरह के इश्तिहार छपवाते हैं कि हम पढ़ कर उनकी तरफ़ मुतवज्जा हों लेकिन हम उन्हें पढ़ कर एक तरफ़ डाल देते हैं। कोई हमारे लिए ठेके का बंदोबस्त करता है और टेंडर नोटिस शाया करता है। किसी को हमारे हाथ प्लाट या मकान बेचना होता है। कोई हमें ये इत्तिला देता है कि उसने अपने नालायक़ फ़र्ज़ंद को जायदाद से आक़ कर दिया है। कहीं किसी की कोशिश होती है कि हम उनकी फ़र्ज़ंदी क़बूल करलें। और ज़ात पात, तालीम और तनख़्वाह की शर्तें मन-ओ-एन वही रखी जाती हैं, जो हम में हैं। कोई हमें घर बैठे लाखों रुपये कमाने का लालच देता है। कोई शॉर्ट हैंड सिखाने की कोशिश करता है। बहुत से कॉलेज मुश्ताक़ हैं कि हम उनके हाँ दाख़िले लें और बा’ज़ अपनी कारें और रेफ्रीजरेटर माक़ूल क़ीमत पर हमारी नज़र करने की फ़िक्र में रहते हैं। समझ में नहीं आता कि इन सब ज़रूरतमंदों से आदमी कैसे ओहदा बर आ हो। बहुत सोचने के बाद ये तरकीब हमारी समझ में आई है कि जहां हम ज़रूरत है, का इश्तिहार छपवाते हैं वहां हम ज़रूरत नहीं है का इश्तिहार छपवा दें। हमारी दानिस्त में इन इश्तिहारात की सूरत कुछ इस क़िस्म की होनी चाहिए।

    किराए के लिए ख़ाली नहीं है
    400 गज़ पर तीन बेडरूम का एक हवादार बंगला नुमा मकान, जिसमें नलका है और ऐन दरवाज़े के आगे कारपोरेशन का कूड़ा डालने का ड्रम भी। किराए पर देना मक़सूद नहीं है, न उसका किराया तीन सौ रुपये माहवार है और न छः माह पेशगी किराए की शर्त है। जिन साहिबों को किराए के मकान की ज़रूरत हो वो फ़ोन नंबर34567 पर रुजू न करें क्योंकि इसका कुछ फ़ायदा नहीं।

    इत्तिला-ए-आम
    राक़िम मुहम्मद दीन वल्द फ़तह दीन किरयाना मरचेंट ये इत्तिला देना ज़रूरी समझता है कि उसका फ़र्ज़ंद रहमत उल्लाह न नाफ़रमान है न ओबाशों की सोहबत में रहता है, लिहाज़ा उसे जायदाद से आक़ करने का कोई सवाल पैदा नहीं होता। आइन्दा जो साहिब उसे कोई उधार वग़ैरा देंगे, वो मेरी ज़िम्मेदारी पर देंगे।

    ज़रूरत नहीं है
    कार मार्स माइनर मॉडल 1959 बेहतरीन कंडीशन में। एक बेआवाज़ रेडियो निहायत ख़ूबसूरत कैबिनेट, एक वेस़्पा मोटर साईकल और दीगर घरेलू सामान पंखे, पलंग वग़ैरा क़िस्तों पर या बग़ैर क़िस्तों के हमें दरकार नहीं। हमारे हाँ ख़ुदा के फ़ज़ल से ये सब चीज़ें पहले से मौजूद हैं। औक़ात मुलाक़ात 3बजे ता 8 बजे शाम।

    अदम-ए-ज़रूरत-ए-रिश्ता
    एक पंजाबी नौजवान, बरसर-ए-रोज़गार, आमदनी तक़रीबन पंद्रह सौ रुपये माहवार के लिए बासलीक़ा, ख़ूबसूरत, शरीफ़ ख़ानदान की तालीम याफ़्ता दोशीज़ा के रिश्ते की ज़रूरत नहीं है क्योंकि लड़का पहले से शादीशुदा है। ख़त-ओ-किताबत सीग़ा-ए-राज़ में नहीं रहेगी। इसके अलावा भी बेशुमार लड़के और लड़कियों के लिए रिश्ते मतलूब नहीं हैं। पोस्ट बक्स कराची।

    दाख़िले जारी न रखिए
    कराची के अक्सर कॉलेज आजकल इंटर और डिग्री क्लासों में दाख़िले के लिए अख़बारों में धड़ा धड़ इश्तिहार दे रहे हैं। ये सब अपना वक़्त और पैसा ज़ाए कर रहे हैं। हमें उनके हाँ दाख़िल होना मक़सूद नहीं। हमने कई साल पहले एम.ए पास कर लिया था।

    स्रोत:

    Khumar-e-Gandum (Pg. 50)

    • लेखक: इब्न-ए-इंशा
      • प्रकाशक: लाहौर अकेडमी, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 2005

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