Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

जुनून-ए-लतीफ़ा

सरवर जमाल

जुनून-ए-लतीफ़ा

सरवर जमाल

MORE BYसरवर जमाल

    लतीफ़े का जुनून भी क्या जुनून होता है साहब। माफ़ कीजिएगा, लतीफ़ा का नहीं लतीफ़ा-गोई का जुनून-ए-लतीफ़ा के मरीज़ की पहचान ये है कि वो ख़ुद कोई लतीफ़ा सुन्ना पसंद नहीं करता। फ़र्ज़-ए-मुहाल अगर उसने एक लतीफ़ा जबरन-क़हरन सुन भी लिया तो उसके बदले बिला मुबालिग़ा आपको सत्तर लतीफे सुनाएगा। अक्सर का जुनून तो इस हद तक बढ़ जाता है कि वो दूसरे के मुँह से लतीफ़े छीन लेते हैं और बड़ी तेज़ रफ़्तारी के साथ उगलने लगते हैं, फ़र्ज़ कीजिए आपने किसी महफ़िल में लतीफ़ा सुनाने से पहले अज़राह-ए-अख़लाक़ पूछा, “आप लोगों ने वो लतीफ़ा सुना है?”

    “कौन सा?”

    “वो रीछ और कम्बल वाला।”

    “अरे हाँ, वो लतीफ़ा भी ख़ूब है।”

    ये कह कर जुनून-ए-लतीफ़ा में गिरफ़्तार साहब फ़ौरन वो लतीफ़ा पूरे का पूरा सुना देंगे और आप “वाह” की जगह “आह” करके रह जाएँगे।

    एक महफ़िल में एक साहब एक लतीफ़ा सुना रहे थे।

    “एक बार तीन अमरीकन एक होटल की सबसे निचली मंज़िल में खाना खाने के बाद पंद्रहवीं फ़्लोर पर अपने कमरे में जाने लगे। इत्तिफ़ाक़ से लिफ़्ट ख़राब थी, लिहाज़ा वो ज़ीना तय करके जा रहे थे। उनमें से एक अमरीकन एक ज़ीना तय करता और हँसने लगता। कई बार कई अमरीकनों ने पूछा कि क्या बात है, लेकिन हर बार वो हँसते हुए कहता ऊपर चल कर बताऊँगा तब मज़ा आएगा।”

    “आगे मैं बताता हूँ।”

    एक साहब तड़प कर बोले और शुरू हो गए सौ अलफ़ाज़ फ़ी सेकेण्ड के हिसाब से।

    “जब वो पंद्रहवीं फ़्लोर पर ढाई तीन सौ ज़ीने तय करके तक़रीबन ग़शी की हालत में निढाल पहुँचे, तो तीसरा अमरीकन पेट पकड़ कर हँसते हुए बोला;

    “चाबी तो हम नीचे खाने की मेज़ पर ही भूल आए।”

    एक साहब ने जो फ़न-ए-लतीफ़ा गोई पर उ'बूर रखते हैं। एक बार बताया;

    “साहब, अब तो आ'लम ये है कि लोग हमारा ही लतीफ़ा ये कह कर कि “जनाब आप का वो लतीफ़ा ख़ूब था” मिन-व-अ'न सुना देते हैं। फिर दाद तलब नज़रों से देखते हुए मेरे हँसने की उम्मीद रखते हैं, लेकिन वो ये नहीं जानते कि मैं अपने ही लतीफ़े पर दाद दूँ, हंसूँ या रोऊँ।”

    बदक़िस्मती से अगर कोई अफ़्सर लतीफ़ा-गोई का बीमार हुआ तो समझ लीजिए कि बेचारे मातहतों की मुसीबत गई, क्योंकि साहब के रूखे फीके, घिसे-पिटे लतीफ़ों (जिस पर हंसना तो हंसना, रोना भी सके) को सुन कर इन बेचारों को अपनी नौकरी बरक़रार रखने के लिए दीवार-ए-क़हक़हा बनना पड़ता है, एक दफ़्तर के हाकिम-ए-आ'ला भी इस मर्ज़ में मुब्तिला थे और अक्सर अपने मातहतों को बोर किया करते थे। एक दिन इसी तरह लतीफ़ा गोई हो रही थी और अफ़्सर साहब के बुलंद-व-बांग क़हक़हों के साथ उनके अस्सिटेंट साहिबान भी क़हक़हे में क़हक़हा मिला रहे थे लेकिन एक साहिब ग़ैरमा'मूली तौर पर बिल्कुल ख़ामोश और बे तवज्जो बैठे रहे। किसी ने पूछा आप क्यों ख़ामोश हैं? वो साहब बरजस्ता बोल पड़े;

    “मैं क्यों हंसूँ, मैं तो कल से रिटायर हो रहा हूँ।”

    बोर करने की कहिए, वो अनाड़ी लतीफ़ागो हज़रात भी कुछ कम बोर नहीं करते, जो कोई बहुत ही पुराना लतीफ़ा अपनी बीती के तौर पर आप को सुनाते हैं मसलन एक बड़े ही मिस्कीन शक्ल वाले साहब मसमसा सा सूखा चेहरा बना कर कहते हैं;

    “जनाब कल एक दिलचस्प वाक़िया हो गया। मैं अपनी टूटी घड़ी लेकर घड़ी-साज़ के यहाँ गया, वो उसमें एक मरे हुए मच्छर को देख कर बे-साख़्ता बोल पड़ा, अरे इसका ड्राईवर तो मर गया है, ये चले कैसे?” अब आप के साथ बदक़िस्मती ये होगी, कि आप उनको ये कह कर बोर भी नहीं कर सकते, कि ये लतीफ़ा बचपन से आज तक सदहा बार सुन चुके हैं क्योंकि वो साहब आप के बुज़ुर्ग हैं।

    लेकिन इन बातों से आप ये समझ लीजिएगा, कि सिर्फ़ लतीफ़ा सुनाने वाले ही आप को बोर करते हैं, मेरा तजुर्बा तो ये है कि बा'ज़ औक़ात सुनने वाले कुछ ज़्यादा ही बोर करते हैं, आपने ये तो सुना होगा, कि एक बेवक़ूफ़ एक लतीफ़ा सुन कर तीन बार हँसता है, एक बार तमाम लोगों के साथ, दूसरी बार उसे समझ कर और तीसरी बार अपनी बेवक़ूफ़ी को याद करके (अच्छा, आप बिला शरमाए बताइए कि एक लतीफ़े पर आप कितनी बार हँसते हैं) उसकी तो ये ख़ुशक़िस्मती है कि एक ही लतीफ़े पर वो तीन बार हँस लेता है, लेकिन अपना ये आ'लम है कि किसी बेवक़ूफ़ को लतीफ़ा सुना कर तीन ही बार नहीं,बल्कि ज़िंदगी भर रोने को जी चाहता है, अगर आप लतीफ़ा-गो हैं,तो आप को मालूम होगा कि रोना कब आता है और हँसना कब।

    एक दफ़ा का ज़िक्र है कि मैंने चंद बुज़ुर्गों के सामने एक लतीफ़ा सुनाना शुरू किया, लतीफ़ा था:

    “एक बार इसकॉट एक बस में एक बहुत बड़ा थैला लेकर सवार हुआ, कंडक्टर ने उस थैले का भी टिकट ख़रीदने को कहा। वो साहब पहले तो कंडक्टर से झगड़ते रहे, फिर बड़ी मुश्किल से निस्फ़ टिकट ख़रीदने पर राज़ी हुए लेकिन जब कंडक्टर किसी तरह राज़ी हुआ तो उन्होंने थैला खोल दिया और बोले,

    “बेगम बाहर निकल आओ। अगर पूरा टिकट ही ख़रीदना पड़े, तो फिर थैले में बंद रहने की क्या ज़रूरत है।”

    लतीफ़ा सुनाने के बाद कमरा क़हक़हों या हँसी की आवाज़ से नहीं, बल्कि ए'तिराज़ात की गोला बारी से गूँज उठा।

    —ये लतीफ़ा सिरे से ग़लत है, क्योंकि किसी इंसान को थैले में बंद करके इतनी देर तक नहीं रखा जा सकता, उसका दम घुट जाएगा।

    —एक दो ढाई मन की औरत को कंधे पर उठाए रखना सिर्फ़ मुश्किल नहीं बल्कि नामुमकिन है।

    —अक्सर देखा गया है कि लोग बक्स या बिस्तर वग़ैरा लेकर बस में सफ़र करते हैं, इसलिए कंडक्टर का बहस करना ही फ़ुज़ूल था,वग़ैरा वग़ैरा।

    बुज़ुर्गों की एक ख़ास किस्म वो होती है जो लतीफ़ा सुन लेने के बाद हँसने या महज़ मुस्कुरा देने की बजाए संजीदगी से पूछते हैं “फिर क्या हुआ” या “उफ़, उसको ऐसा करना चाहिए था या ये कि “ग़लती उसी की थी।”

    एक बार ऐसे ही एक ख़तरनाक बुज़ुर्ग की मौजूदगी में, मैं एक लतीफ़ा सुना रही थी:

    “एक किसान की भैंस बीमार हो गई, वो दूसरे किसान के पास गया और पूछा,...पार-साल तुम्हारी भैंस बीमार हुई थी, तो तुमने उसको क्या दवा दी थी?”

    दूसरे किसान ने जवाब दिया “मैं ने अपनी भैंस को भला वह कूट कर खिला दिया था।”

    पहला किसान घर गया और अपनी भैंस को भला वह कूट कर खिला दिया। भला वह खाते ही उसकी भैंस तड़पने लगी और तड़प-तड़प कर मर गई। इस पर उस किसान को बहुत ताव आया, वो उसी वक़्त दूसरे किसान के पास गया और बिगड़ कर बोला;

    “तुमने अच्छी दवा बताई, मेरी भैंस भला वह खाते ही मर गई।”

    “मर तो मेरी भी गई थी।” दूसरा किसान बोला।

    “फिर तुमने मुझे बताया क्यों नहीं।” पहले ने शिकायत की।

    “तुमने पूछा कब था? पूछते तो बता देता।” दूसरा मासूमियत से बोला। लतीफ़ा निहायत ग़ौर से सुनने के बाद ठंडी आह भरते हुए उन बुज़ुर्ग ने फ़रमाया;

    “अफ़सोस! किसान की बेवक़ूफ़ी से एक बे-ज़बान की जान गई।”

    एक दफ़ा का ज़िक्र है कि ख़वातीन के एक मजमे में मुझे एक लतीफ़ा सुनाने का मौक़ा मिला, हाल में ख़वातीन की पुरशोर बातों की आवाज़ से कान पड़ी आवाज़ नहीं सुनाई दे रही थी, गले लाऊड स्पीकर बने हुए और हर मुअ'ज़्ज़ज़ ख़ातून अपनी आवाज़ को दूसरी ख़ातून की आवाज़ पर हावी करने के लिए पुरज़ोर आज़माई कर रही थी, ऐसे में मेरी रग-ए-लतीफ़ा फड़की, और अपनी बग़ल में बैठी अपनी अ'ज़ीज़ दोस्त यास्मीन को लतीफ़ा सुनाने लगी। सुन कर वो ज़ोर से हँस पड़ीं। उनकी बग़ल में बैठी हुई एक फ़ैशनेबल ख़ातून शमीम बेगम ने पूछा, “क्यों ,क्या हुआ, काहे की हँसी हो रही है?”

    यास्मीन बोलीं, “इन्होंने एक लतीफ़ा सुनाया था।”

    “अच्छा, मुझे भी तो सुनाइए।”

    “सुनिए: एक बार एक महफ़िल में एक बाई जी.....!”

    “किस बाई का ज़िक्र हो रहा है, मैं भी तो सुनूँ।” दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई।

    “जी! ये एक लतीफ़ा है।”

    “अच्छा! अच्छा!! हमें भी तो सुनाइए!”

    “जी हाँ! तो मैं कह रही थी...एक बार एक महफ़िल में एक बाई जी ढेर सा ज़ेवर पहने...”

    “अरे, ये कहीं नज़ीर बाई का ज़िक्र तो नहीं, जिनके जे़वरात एक शादी से वापसी में लूट लिए गए।” एक कोने से ज़ोरदार सी आवाज़ आई।

    “जी नहीं, ये एक बाई जी का लतीफ़ा है....”

    “ओह! अच्छा तो फिर क्या हुआ?”

    “हाँ तो वो गा रही थीं...मैं बन में अकेली फिरती थी।”

    “बहुत ख़ूब! आगे क्या क़िस्सा हुआ?”

    “फिर ये हुआ कि एक पेशावरी ख़ान दहाड़ें मार-मार कर रोने लगा।”

    “मैं झिल्लाकर बोली

    “अरे ये क्यों?...चच चच...उस पर क्या बीपता पड़ी?”

    “च च”की आवाज़ें दो-तीन तरफ़ से उभरीं, और इस हाय-वाय के माहौल में लतीफ़े के ख़ात्मे से पहले ही पोस्टमार्टम हो गया।

    एक बार एक महफ़िल में एक साहब एक लतीफ़ा सुना रहे थे।

    एक दौलतमंद की बीवी ने अपने शौहर के मर जाने के फ़ौरन बाद अपने माली को पलंग पर लिटा कर उस पर चादर डाल दी। फिर अपने वकील को बुलवा कर उसकी वसीअ'त लिखवाने लगी।

    माली ने कराहते हुए धीमी आवाज़ से कहा;

    “मैं अपनी जायदाद का निस्फ़ हिस्सा अपनी प्यारी बीवी को देता हूँ।”

    फिर वकील ने पूछा,

    “और बाक़ी निस्फ़?”

    “वो अपने वफ़ादार माली को।”

    “अ'जीब-अ'जीब!”

    एक फ़लक शिगाफ़ आवाज़ कमरे में गूँज उठी।

    “ऐसा कभी नहीं हो सकता। आप निसाइयत की भरपूर तौहीन कर रहे हैं। एक औरत कभी ऐसी गिरी हुई हरकत नहीं कर सकती।”

    पूरी महफ़िल इस लतीफ़े की बजाए उस आवाज़ की तरफ़ मुतवज्जे हो गई, जो एक भारी भरकम ख़ातून की ज़बान से निकल रही थी। सारी ख़वातीन और चंद बुज़ुर्ग साहिबान उन भारी भरकम ख़ातून के हमनवा बन गए। आज कल के नौजवानों की ख़ूब मज़म्मत की गई। ग़रज़ ये कि उस महफ़िल की दो पार्टीयाँ हो गईं। एक पार्टी औरत की वफ़ादारी की हिमायत में, और दूसरी पार्टी बे-वफ़ाई की हिमायत में।

    मुझे तो अब ये डर लग रहा है, कि क़ारईन कहीं इस ख़ाकसार को भी जुनून-ए-लतीफ़ा का बीमार समझ बैठें, क्योंकि बातों ही बातों में मैंने भी बहुत से लतीफ़े सुना दिए आप कहीं ये कह बैठें, कि लतीफे सुनाने की अच्छी तर्कीब निकाली, ठीक उसी लतीफ़े की तरह:

    एक साहब के बच्चे हिसाब पढ़ने से बहुत भागते थे। उन्होंने कई टयूटर रखे, लेकिन हिसाब पढ़ाने में कोई भी कामयाब हो सका। आख़िर एक माहिर-ए-नफ़सियात ने दावा किया कि वो उन्हें पढ़ा देंगे।

    दोनों लड़के बाग़ में खेल रहे थे, कि ये साहब पहुँचे। बच्चों के दिल से ख़ौफ़ दूर करने के लिए वो इधर-उधर की बातें करने लगे।

    फिर उन्होंने पूछा, “अच्छा बच्चो! तुम कितने भाई बहन हो?”

    एक ने बताया, “सात।”

    फिर उन्होंने पूछा,“कितनी बहनें हैं?”

    वो बोला, “तीन।”

    “और कितने भाई हैं?”

    “उसने जवाब दिया चार”

    दूसरा लड़का जो ख़ामोशी से ये सवाल-जवाब सुन रहा था, चुपके से पहले लड़के के कान में बोला;

    “अरे भागो, ये तो बातों ही बातों में हमें हिसाब पढ़ा रहा है!”

    “लिहाज़ा पेश्तर इसके कि आप भागें, मुझे रुख़्सत हो जाना चाहिए।

    स्रोत:

    मुफ़्त के मश्वरे (Pg. 65)

    • लेखक: सरवर जमाल
      • प्रकाशक: बिहार-ए-उर्दू अकादमी, पटना
      • प्रकाशन वर्ष: 1981

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए