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मैडम

MORE BYसरवर जमाल

    मैडम ने भी क्या अ'जीब तबीयत पाई है। घड़ी में तोला घड़ी में माशा कभी हंसी का पिटारा बनी ख़ुद क़हक़हा लगा रही हैं और दूसरों को भी क़हक़हे लगाने की दा'वत-ए-आ'म दे रही हैं, कभी संजीदगी के ऐसे गहरे लबादे में कि मुस्कुराहट तक मुँह पर नहीं आती। मूड में आएँ तो एक दिन में घर के कई फेरे कर लिये, घर घेर डाला, कभी महीनों ख़बर ली, कभी तो आप से अपनी, अपने बच्चों की, अपने घर की ता'रीफ़ में क़सीदे सुनने की ख़्वाहाँ, कभी आपने उनकी किसी चीज़ की ता'रीफ़ कर दी तो झट बोल पड़ीं;

    “लाहौल-वला-क़ुव्वत। या'नी कि ये आपको पसंद है, मुझे तो बिल्कुल पसंद नहीं।”आप ये सुनकर जल तो जाएंगी, लेकिन ये हर्गिज़ कह सकेंगी कि “पसंद तो मुझे भी नहीं, महज़ आपका दिल रखने को कह दिया था।” क्योंकि मैडम का मिज़ाज भी तो आख़िर कोई चीज़ है।

    मैडम के यहाँ खाना कोई नहीं खाता, फिर भी खाना पकता है, और वो भी ऐसा वैसा नहीं, ऐसा कि शायद किसी के यहाँ पकता हो, उनके यहाँ खाना पकना फ़ैशन है और खाना खाने का प्रोपेगंडा इससे भी बड़ा फ़ैशन, और उसी फ़ैशन के तहत वो खाना खातीं नहीं, बल्कि चखती हैं, इसके बावजूद अगर आप उनका तन-व-तोश देख लें, तो मुँह से बेसाख़्ता निकल जाए, माशाअल्लाह!

    मैडम को बहस करने पर उ'बूर हासिल है, वो हर बहस में जीत जाती हैं। बहस किसी तरह की हो वो उसमें हिस्सा ज़रूर लेती हैं, ज़ेर-ए-बहस मौज़ू कोई भी हो, कशाकश ज़माने पर हो या रोज़-अफ़्ज़ूँ महंगाई पर, तारीख़ पर हो कि हालत-ए-हाज़रा पर, तजरीदी आर्ट पर हो, कि अ'लामती अफ़सानों पर, सियासत पर हो कि अदब पर, मैडम उसमें ज़रूर कूद पड़ेंगी। इससे भी कोई ग़रज़ नहीं कि वो बहस लैटिन ज़बान के पेच-व-ख़म पर हो रही है, या फ़्रैंच अदब पर।मैडम बोलेंगी ज़रूर और सिर्फ़ बोलेंगी, बल्कि बड़े ज़ोर-शोर से बहस करेंगी, इस ज़ोर से कि वहाँ बैठे तमाम आ'लिम-व-फ़ाज़िल हार जाएँगे क्योंकि वो बेचारे इतना तो ज़रूर जानते हैं कि कहाँ ख़ामोश हो जाना चाहिए।

    मैडम कभी-कभी बड़ी अ'जीब-व-ग़रीब मिसालें पेश करती हैं। कहने लगीं,“ख़वातीन में हिस्स-ए-मज़ाह की कमी होती है।”

    पूछा, “वो कैसे?”

    उन्होंने एक मिसाल दी।

    “फ़र्ज़ करो, बाज़ार में एक शख़्स जा रहा है और वो फिसल कर गिर पड़ा, वहाँ मौजूद तमाम लोग हँस देंगे, लेकिन अगर दस भैंसें कहीं जा रही हों और उनमें से एक भैंस गिर पड़े तो बाक़ी नौ भैंसें उस पर हर्गिज़ नहीं हँसेंगी।”

    मैं उनकी इस अ'जीब-व-ग़रीब मिसाल पर ज़ोर से हँस पड़ी और बोली;

    “क्या पता भैंसें भी हँसती हों, लेकिन ये तो बताओ, इस मिसाल से औरतों की हिस्स-ए-मज़ाह की कमी का पहलू किधर से निकलता है।”

    “बिल्कुल साफ़ निकलता है।” वो हस्ब-ए-आ'दत अपनी बात पर ज़ोर दे कर बोलीं।“ ये तो तुम्हें मानना पड़ेगा कि हँसता वही है, जिसमें कुछ अ'क़्ल-व-श'ऊर हो, या बात को समझता हो, या समझने की कोशिश करता हो, उन्हें कैसी ही मज़ेदार बात सुनाओ, लतीफ़ा या मज़ाहिया कलाम सुनाओ, क्या मजाल कि टोके बगै़र ध्यान से पूरी बात सुन लें, या अपनी टाँग अड़ाएँ। ”मैं देर तक उनसे बहस करती रही कि ये कमी मर्द और औरत दोनों में यकसाँ तौर पर पाई जाती है। ऐसे मर्दों की भी कमी नहीं जो लतीफ़ा सुनकर पूछते हैं,

    “उसके बाद क्या हुआ?”

    या “ऐसा हो ही नहीं सकता। नामुमकिन!”

    या “किसी की मौत या नुक़्सान पर हँसना बुरी बात है।”

    वग़ैरा वग़ैरा। लेकिन हस्ब-ए-आ'दत मैडम ने मेरी एक सुनी और अपनी बात पर अड़ी रहीं।

    मैडम पर कभी-कभी सय्याहत का मूड नहीं बल्कि भूत सवार होता है, और जब ऐसा होता है तो वो हफ़्तों क्या महीनों के लिए ग़ायब हो जाती हैं, पिछले दिनों काफ़ी दिनों बाद उनसे मुलाक़ात हुई, मा'लूम हुआ जहानाबाद गई थीं।

    “पूछा कैसा शहर है?”

    बोलीं, “बहुत अच्छा। वहाँ की औरतें बड़ी शर्म-व-हया वाली और शरीफ़ हैं।”

    पूछा,“क्या पर्दे का रिवाज बहुत है।”

    बोलीं,“नहीं!आँखों का पर्दा ज़्यादा है वहाँ। मर्द हमेशा नज़रें झुका कर बातें करते हैं, औरतें ढकी ढकाई रहती हैं,मसलन वहाँ की औरतें पच्चास सेंटीमीटर में अपना बलाउज़ सीती हैं जिसकी वजह से उ'रयानियत बहुत कम हो गई। गिरेबान भी यहाँ वालियों से कम खुला होता है और ब्लाउज़ के गले पर चाक-ए-गिरेबाँ का धोका नहीं होता।अक्सर लड़कियाँ गले में दुपट्टा डाले भी नज़र आती हैं।

    पूछा,“और मर्दों की शराफ़त का क्या हाल है?”

    बोलीं, “मर्द तो मर्द, वहाँ के लड़के निहायत शरीफ़, लड़कियों से भी ज़्यादा शर्मीले, ज़रा ज़रा सी बात पर हाय अल्लाह कहकर सर झुका लेने वाले। फिर पहनावा तो उनका ऐसा शरीफ़ाना कि बयान नहीं कर सकती, खुली मोहरी की ग़रारा को मात कर देने वाली पतलूनें, बंद गले और पूरी आस्तीन की जुमिया नुमा क़मीज़, कहीं-कहीं तो झालरदार क़मीज़, लैस टके हुए स्वेटर और जैकेट के नमूने भी दिखाई दिए, यहाँ वालों की तरह बालों की चोटियाँ नहीं गूँधते और रिबन ही बालों में डालते हैं सीधे सादे पट्टे होते हैं। हाँ ज़रा लॉकेट वग़ैरा पहनने के शौक़ीन हैं। ग़र्ज़ ये कि शर्म-व-हया और तौर तरीक़ों में उन्होंने लड़कियों को कोसों पीछे छोड़ दिया है।”

    कहा,“ख़ैर, ये तो हुई वहाँ के लोगों की शराफ़त की बातें, कुछ शहर का भी हाल बताओ।”

    बोलीं,“शहर! अब शहर की पूछ। जन्नत है जन्नत।

    कम से कम अपने शहर के मुक़ाबले में तो जन्नत ही है। यहाँ खाने पीने की चीज़ें बहुत अच्छी और ख़ालिस मिलती हैं, मिलावट तो बस पच्चास फ़ीसद होती है। इसके अ'लावा यहाँ असली घी, दूध, मक्खन वग़ैरा पछत्तर फ़ीसद मिलावट के साथ मिल जाता है। वनस्पति, तेल वग़ैरा कभी गोदामों में पूरे के पूरे बंद नहीं होते, कुछ कुछ मार्केट में ज़रूर रहते हैं...हर चीज़ आसानी से मिल जाती है...हर आदमी खाता पीता ख़ुशहाल है।”

    कहा, “भई आख़िर वहाँ कुछ ग़रीब लोग भी तो होंगे।”

    जवाब दिया, “हैं क्यों नहीं, लेकिन जब वो कुछ करना ही नहीं चाहते तो ग़रीब तो रहेंगे ही, वहाँ एक तबक़ा ऐसा है, जो बस हर वक़्त ईमान, मज़हब, अख़लाक़ वग़ैरा के गीत गाता रहता है, अब तुम ही बताओ, इनसे कहीं पेट भरता है।आज के ज़माने में ऐसी आउट आफ़ डेट बातें।”

    पूछा, “शहर की आब-व-हवा कैसी है?”

    बोलीं, “अरे उसकी पूछो। एक दम फर्स्ट क्लास। वहाँ के मकान तो ये बड़े बड़े और खुले। तुम्हें ये सुन कर तअ'ज्जुब होगा, कि वहाँ मकानों में लेट्रिन के अलावा गुसलख़ाना और बावर्चीख़ाना होता है और वो भी अलग अलग...अक्सर घरों में मैंने बरामदे भी देखे हैं। कमरा तो वहाँ भी एक होता है, लेकिन बरामदा और किसी किसी घर में आँगन जैसी अ'न्क़ा चीज़ भी नज़र गई। बा'ज़ घरों में खिड़कियाँ और रोशनदान तक नज़र आए, उन्हें दिन में लाइट भी जलाना नहीं पड़ती।

    अब तो यहीं वाला है, या'नी पाइप का, जिसमें कभी नीला, कभी हरा, कभी पीला पानी आता है, बिल्कुल यहीं जैसा,

    लेकिन हवा बहुत अच्छी होती है गैस, गर्द-व-ग़ुबार और धुँए की परसंटेज बहुत कम।

    अब तुमसे क्या बताऊँ कैसा शहर है। अगर अपने शहर के बलवे, फ़ितने फ़साद स्ट्राइकें जलसे जुलूस और हंगामे याद आते, तो फिर किस कमबख़्त का दिल यहाँ आने को चाहता। हाय रे अपने वतन की मोहब्बत,हाय री मजबूरी।

    स्रोत:

    मुफ़्त के मश्वरे (Pg. 47)

    • लेखक: सरवर जमाल
      • प्रकाशक: बिहार-ए-उर्दू अकादमी, पटना
      • प्रकाशन वर्ष: 1981

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