मैं, अम्मी और फ़ेसबुक
कहा जाता है कि पहली औलाद के हिस्से में वालिदैन की मुहब्बतें दूसरे बच्चों के मुक़ाबले में ज़ियादा आती हैं। हमारा ज़ाती तजुर्बा ज़रा मुख़्तलिफ़ है। पहली अवलाद होने के नाते मुहब्बतें तो ख़ूब मिलीं लेकिन तर्बीयत के सारे फ़ार्मूले हर्बों की तरह हम पर इस्तिमाल किए गए। क्या ये नहीं हो सकता था कि कुछ हर्बे आगे आने वाले बच्चों पर इस्तिमाल कर लिए जाते ? वैसे वालिदैन लिखना ग़लत होगा। वालिद का इस मिलिट्री नुमा तर्बीयत में कोई रोल नहीं था। सिर्फ़ अम्मी ही थीं जो हर वक़त हिटलर बनी रहती थीं। वो तो शुक्र है कि हमें दादी दादा की मुहब्बत भरी आग़ोश मुयस्सर थी। बिल-ख़ुसूस दादा का कमरा हमारी पनाह-गाह था जहाँ बैठ कर हम अपने दल के दर्द आज़ादी से उनके सामने बयान कर सकते थे। वैसे देखा जाए तो इस में अम्मी का भी कोई क़ुसूर न थ। हमारी शक्ल-ओ-सूरत से मायूस हो कर वो हमें तालीम-ओ-तर्बीयत के साथ ज़िन्दगी के हर मैदान में नक सक से दरुस्त देखना चाहती थीं। क़ुसूर शायद हमारा ही था कि हमारी कोई कल सीधी ही न थी, इसलिए अम्मी को हमारे साथ ज़ियादा मशक़्क़त करना पड़ती थी। एक तो हमारे दिमाग़ में सवाल बहुत उठते थे, दूसरे ख़ामोश रहना हमारी फ़ित्रत में न था। उधर अम्मी थीं कि हमारे हल्के सवालों का जवाब अपनी घूरती हुई आँखों से देती थीं। सवाल अगर पेचीदा होता तो हाथ की सफ़ाई ऐसे दिखातीं कि आँखों के आगे तारे नाच जाते और हमें मानना पड़ता कि ''मुस्तनद है उनका फ़रमाया हुआ''। ऊपर से अम्मी का रोब-ए-हुस्न भी ऐसा था कि सामने वाला उनकी ग़लत बात पर भी दाम में आ जाता था। जैसे-तैसे बचपन और लड़कपन गुज़रा, जवानी आई तो तर्बीयती कोर्स और सख़्त हो गया। हमारी आज़ादी की सरहदें घर से कॉलेज और कॉलेज से घर तक मह्दूद हो गईं। हमें अच्छी तरह मालूम था कि बॉर्डर लाईन क्रॉस करने पर बतौर-ए-सज़ा ये सरहद घर से घर तक ही मह्दूद हो सकती थी, सो हमने कभी इस सीमा रेखा को लाँघने की कोशिश नहीं की। ग्रेजुएशन मुकम्मल होते होते अम्मी ने हमारी रस्सी हमारे नए मालिक यानी हमारे शौहर के हाथ में पकड़ा दी, मगर मज़े की बात ये रही कि रस्सी की लंबाई ख़ुद अम्मी ने ही तै की मगर ख़ुश-क़िस्मती से हमारे शौहर बहुत नर्म-ख़ू और मुख़लिस तो थे ही होिशयार भी इस बला के निकले कि हमें भी ख़ूब ख़ूब आज़ादी अता फ़रमाई और अम्मी की गुड बुक में रहने के लिए उन्हें भी ये एहसास दिलाते रहे कि आपकी हिदायत के मुताबिक़ ही सब कुछ चल रहा है।
शादी के बाद भी हमारी ज़िन्दगी में अम्मी का अमल दख़ल पूरा पूरा था, मसलन हमारी सहेलियाँ कौन हैं ? हम जाते कहाँ कहाँ हैं? मिलते किस-किस से हैं? घर गृहस्ती में लापरवाही तो नहीं करते, शौहर को जवाब तो नहीं देते हैं। फ़ुज़ूलख़र्ची और बेजा फ़रमाइशें करके शौहर के नाक में दम तो नहीं करते हैं? एक एक बात पर उनकी नज़र रहती थी। हम भी उनकी ही औलाद थे। उनको भनक भी न लगने दी कि अब तक जो पत्ते हमने सँभाल कर रखे थे शादी के बाद खोले हैं। हमने भी अपने घर में ''मुस्तनद है मेरा फ़रमाया हुआ' का उसूल नाफ़िज़ कर दिया है। दरअसल हम उन बद-क़िस्मत औरतों में अपना शुमार नहीं करवाना चाहते थे जो हर छोटी बड़ी बात या काम के लिए अपने शौहरों के आगे हाथ बाँधे खड़ी हुई उनकी ‘‘हाँ’’ या ‘‘ना’ के इन्तिज़ार में ज़िन्दगी गुज़ार देती हैं।
हमारी अम्मी हमें ख़ुदा और मजाज़ी ख़ुदा दोनों से ये कह कर डराया करती थीं कि ज़िन्दगी में मजाज़ी ख़ुदा के और बाद मरने के हक़ीक़ी ख़ुदा के क़ब्ज़े में ही जान जानी होती है सो बहुत देख-भाल कर हर क़दम उठाना चाहिए। मगर ख़ुश-क़िसमती थी हमारी कि दादा अब्बा ने वक़्त रहते अल्लाह के रहीम-ओ-करीम होने वाला तसव्वुर हमारे दिल में डाल दिया था और समझाया था कि बन्दे को अपने रब से ख़ौफ़-ज़दा होने की उतनी ज़रूरत नहीं है जितना ज़रूरी उस से मुहब्बत करना और उस का शुक्रगुज़ार होना है। इबादत भी शुक्र-गुज़ारी ही तो है फिर शुक्र-गुज़ारी में डर कैसा? वैसे भी जहाँ ख़ौफ़ हो वहाँ मुहब्बत ख़त्म हो जाती है। ख़ुदा की मुहब्बत हमेशा दिल में रहना चाहिए। दादा का ये फ़ार्मूला हमने गिरह में बाँध लिया और दोनों ख़ुदाओं से जम कर मुहब्बत की।
अम्मी अब बूढ़ी हो चली थीं, बहुत सारी बातें हम सब बहन भाई अब उनसे छुपा जाते थे मगर कोशिश यही होती थी कि उनको ये एहसास न हो कि उनसे कुछ छुपाया जा रहा है। लेकिन अम्मी की छटी हिस बहुत तेज़ थी वो समझ जाती थीं कि कुछ ऐसा है जिससे वो वाक़िफ़ नहीं हैं। ये दो हज़ार सतरह की बात है, गर्मियों के दिन थे, मैं अम्मी के पास कुछ दिन रहने के इरादे से गई थी। अम्मी इशा की नमाज़ से फ़ारिग़ हो कर जल्दी सो जाने की आदी और वालिद साहब का शौक़ देर रात तक मुतालिआ या टैलीविज़न पर ख़बरें सुनना है, दोनों के नंबर नहीं मिलते सो दोनों के कमरे अलग थे। मैंने अम्मी के कमरे में उनके ही बेड पर अपना बिस्तर जमाया कि कुछ बातें वग़ैरा भी करना थीं। अब रोज़ाना का रूटीन हो गया कि बातें करते करते अम्मी सो जातीं। मुझे इतनी जल्दी सोने की आदत नहीं थीं, सो नींद नहीं आती थी। लाईट जलाने पर अम्मी की आँख खुल जाने की वजह से मैंने उन दिनों बजाय कुछ पढ़ने के मोबाइल का सहारा लिया और फ़ेसबुक और व्हाट्सएप पर अपनी मौजूदगी ख़ूब ख़ूब दर्ज कराई। फ़ेसबुक पर अफ़्साना फ़ोरम्ज़ में जाकर अफ़्साने पढ़े। शायरी के फ़ोरम्ज़ पर ग़ज़लों, नज़मों से लुत्फ़ लिया। यूट्यूब पर पाकिस्तानी ड्रामे देखे। व्हाट्सएप पर ख़ूब ख़ूब गप्पें लगा दीं।
मुझे नहीं मालूम था कि एक दिन अम्मी के हाथों मेरी शामत आनी है। अम्मी हस्ब-ए-मामूल सो चुकी थीं। मैं मोबाइल पर प्रोफ़ेसर इमरान से चैटिंग कर रही थी। वो बहुत दिनों के बाद फ़ेसबुक पर नज़र आए थे। मैंने सोचा सलाम करलूँ और ख़ैिरयत भी पूछूँ कि इतने दिनों से गैर-हाज़िर क्यों थे ? अम्मी ने करवट बदली मोबाइल के रौशन स्क्रीन का अक्स चेहरे पर पड़ने से उनकी आँख खुल गई। पूछने लगीं।
‘‘ये इतनी रात को मोबाइल पर क्यों लगी हो तुम?’’ मैं थोड़ा घबराई फिर रसान से अम्मी को समझाने की कोशिश की।
‘‘अम्मी ज़रूरी बात कर रही हूँ, बस पाँच मिनट में फ़ारिग़ होती हूँ।’’
‘‘अच्छा बग़ैर बोले भी बात हो जाती है तुम्हारे मोबाइल पर?' मैंने सटपटाकर जवाब दिया ''जी हो जाती है बात बग़ैर बोले भी। मैसेज लिख कर बात होती है मोबाइल पर अम्मी।’’ ये सुनकर एक लंबी सी ''हूँ’’ की आवाज़ निकाली उन्होंने और कहने लगीं।’’अच्छा ये तो बताओ कि किस से बात कर रही थीं और साथ साथ मुस्कुरा क्यों रही थीं?' मुझे महसूस हुआ कि अम्मी मुझे काफ़ी देर से देख रही थीं। मैंने बात ख़त्म करने की ग़रज़ से जल्दी से प्रोफ़ेसर इमरान को मैसेज टाइप किया कि ''अम्मी की आँख खुल गई है वो डिस्टर्ब हो रही हैं। इन्शा अल्लाह कल बात करूँगी आपसे। ख़ुदा-हाफ़िज़ जवाबी मैसेज में एक मुस्कुराहट की इमोजी के साथ मैसेज आया ''अच्छा तो आजकल आप अम्मी के यहाँ आई हुई हैं!' मैंने जल्दी से ''जी’’ टाइप किया। इतने में प्रोफ़ेसर इमरान का फिर एक मैसेज आ गया ''अम्मी की ख़िदमत में मेरा भी सलाम अर्ज़ कर दीजिएगा और दुआओं में मुझ हक़ीर फ़क़ीर को भी याद रखिएगा। ख़ुदा-हाफ़िज़ जवाब में मैंने जल्दी से ख़ुदा-हाफ़िज़ लिख कर मोबाइल ऑफ़ किया और बिस्तर पर अम्मी के और क़रीब सरक गई। मैंने सोचा पहले अम्मी को फ़ेसबुक के बारे में समझा दूँ। मैंने बात शुरू की, वो ख़ामोशी से सुनती रहीं। फ़ेसबुक को वो कितना समझ पाईं मालूम नहीं उनकी सुई तो वहीं अटकी हुई थी कि मैं बात किस से कर रही थी? लेटे लेटे एक लंबी साँस लेकर उन्होंने फिर पूछा।
‘‘तुमने बताया नहीं कि मोबाइल पर किस से बातें कर रही थीं?’’
मैंने रसान से जवाब दिया ‘‘अम्मी प्रोफ़ेसर इमरान से बात कर रही थी। आपको भी सलाम कह रहे थे।’’
मेरी बात पर उन्होंने चौंक कर मुझे देखा और बोलीं।
‘‘मुझे क्यों सलाम कह रहे थे? वो मुझे क्या जानें?' वो हैरान थीं।’’
‘‘मैंने ही बताया था उनको कि अम्मी के घर पर हूँ।’’ अम्मी ने अजीब नज़रों से मुझे घूरा।
‘‘हूँ तो यहाँ तक राज़-ओ-नियाज़ होते हैं ग़ैर मर्दों से कि कहाँ हो कहाँ नहीं!’’
अम्मी के सवालों के जवाब मुझे नहीं सूझ रहे थे और वो सवाल पर सवाल किए जा रही थीं।
‘‘कितनी उम्र है उस प्रोफ़ेसर की?’’ अम्मी ने फिर मुझे कुरेदा।
‘‘रिटायर्ड हैं। पैंसठ वेंसठ के होंगे मैंने सटपटा कर जवाब दिया।’’
‘‘यानी बुड्ढे हो गए हैं मगर हरकतें नहीं गईं? उनकी अपनी बुढ़िया नहीं है जो यूँ आधी रात को लगे हुए हैं तुम्हारे साथ बातों में।’’
अब मुझे अम्मी की बातों पर कुछ-कुछ ग़ुस्सा आ रहा था’’ अम्मी ऐसे तो न कहें प्लीज़ बहुत अच्छे इन्सान हैं वो। पुर-वक़ार शख़्सियत, क़ाबिल और ज़हीन अफ़्साना-निगार भी हैं। कई मजमुए आ चुके हैं उनके अफ़्सानों के।’’
मैंने अम्मी के सामने प्रोफ़ेसर इमरान के ख़साइस गिनवाए। ‘‘ख़ामोश होजा लड़की और मुझे ये सब मत बता मैं सब जानती हूँ। ये रातों को मोबाइल पर चुपके रहने वाले मर्द-ओ-औरत कैसे होते हैं?’’ अम्मी वो जहाँ रहते हैं वहाँ इस वक़्त रात नहीं दिन है। हमारे यहाँ रात हो रही है।’’
‘‘चाँद पे रहता है वो?, अपनी हँसी को दबाते हुए मैंने उनको बताया।’’
‘‘कनाडा में रहते हैं वो, टोरोंटो में पहले इंडिया में ही थे। मुलाज़िमत से सुबुक-दोश होने के बाद बेटे बहू के पास शिफ़्ट हो गए हैं।' मैंने विज़ाहत दी।’’
‘‘बीवी है?' अम्मी ने फिर पूछा। हैं ना बहुत प्यारी और नफ़ीस ख़ातून हैं, बेटा और बहू और पोती भी है माशा अल्लाह।
‘‘फिर भी ये रात को उल्लूओं की तरह जागता रहता है, अपनी बीवी से क्यों नहीं सर खपाता?'
‘‘अम्मी क्या हो गया है? अभी तो बताया थ मैंने आपको कि वहाँ रात क्या अभी शाम भी नहीं हुई है, दोपहर ढली है बस''। मुझे अन्दर से ग़ुस्सा आने लगा। ''पीछे ही पड़ जाती हैं आप तो और हाँ मैंने ही आवाज़ दी थी उनको, उन्होंने नहीं। वो बहुत रख-रखाव वाले शख़्स हैं।’’
‘‘अच्छा!' अम्मी ने एक लंबी साँस खींची तो दामन पीछे से फटा है बेचारे का।’’
‘‘उफ़फ़ अम्मी क्या कह रही हैं आप? मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है।’’
‘‘लेकिन मेरी समझ में सब कुछ आ रहा है। कितने दोस्त हैं तुम्हारे फ़ेसबुक पर?’’
‘‘अम्मी ठीक से नहीं मालूम, होंगे कोई तीन हज़ार या कुछ कम ज़ियादा सात साल हो गए हैं मुझे फ़ेसबुक ज्वाइन किए हुए।’’
तीन हज़ार सुनते ही अम्मी एक दम से उठकर बैठ गईं।
‘‘हैं...तीन हज्ज़ाररर तो उन सबसे तेरी ऐसी ही बातें होती हैं रातों को?’’
‘‘अरे नहीं अम्मी कुछ ही ख़वातीन-ओ-हज़रात हैं जिनसे कभी-कभार बात हो जाती है, वो भी अदब के हवाले से, लिखने पढ़ने की बात होती है तो ख़ैर ख़ैरियत भी मालूम कर लेते हैं एक दूसरे की। बस इस से ज़ियादा कुछ नहीं। इंटरनेट ने हज़ारों मील की दूरी को समेट दिया है। बस इसीलिए राबिता हो जाता है वर्ना कहाँ मुम्किन था किसी दूसरे मुल्क में बैठे शख़्स से बातचीत करना!' मालूम नहीं अम्मी मुतमइन हुईं या नहीं। मैंने उनको ब-मुशकिल तमाम ये कह कर दुबारा लिटाया कि इस सिलसिले में सुब्ह बात करेंगे आराम से और अब मुझे भी नींद आ रही है, आप भी सो जाएँ।’’
‘‘अम्मी की बातों से दिल ख़राब सा हो गया था मेरा, नींद भी नहीं आ रही थी। मैंने ख़ामोशी से उनके बराबर लेट कर आँखें बन्द कर लीं। मगर अम्मी भी अपने में एक ही थीं। लेटे लेटे मुझे मुख़ातब करते हुए बोलीं ''बी-बी सुब्ह अपने मियाँ को फ़ोन करके बुलाओ, बात करना है उनसे। ज़रा उनसे भी पूछूँ कि उनको तुम्हारे ये लच्छन मालूम हैं या छूट दे रखी है उन्होंने? और हाँ याद आया, वो तुम्हारी बचपन की सहेली क़ुदसिया है ना उस की अम्मी का इन्तिक़ाल हो गया है पिछले माह। इन तीन हज़ार दोस्तों से अगर फ़ुर्सत मिल जाये तो कल चली जाना उस के घर। कुछ वक़्त गुज़ार लेना उस के साथ। कोई दिलासा तसल्ली दे देना उस को भी!’’
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