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रुबाई से रिकाबी तक

इब्न-ए-इंशा

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    क्या मर्द वाक़ई सुस्त और बेसलीक़ा होते हैं? हमारे इससे इख़तिलाफ़ या इत्तफ़ाक़ राय करने से कुछ नहीं होता क्योंकि उमूमी राय यही मालूम होती है। इसी सफ़े पर आप एक कार्टून देखेंगे। मियां ने लंबे डंडे वाले झाड़ू से फर्शों की सफ़ाई करने के बाद बावर्चीख़ाने में बहुत सी प्लेटें धुली हैं, लेकिन अभी कुछ बाक़ी भी हैं। ऐसा लगता है कि इसमें मियां ने कुछ ज़्यादा देर लगादी है क्योंकि बीबी पहले अपने कमरे में बैठी रेडियो सुनती रहीं, फिर ड्राइंगरूम में रिसालों में तस्वीरें देखती रहीं। आख़िर इससे भी उकता गईं। कार्टून में वो मियां से कह रही हैं, “ज़रा जल्दी काम किया करो जी, मेरा भी कुछ ख़्याल है? कितनी देर से अकेली बैठी बोर हो रही हूँ।”

    ये मसला बहुत से घरों का है। मर्द लोग घर की सफ़ाई, चाय बनाने, बर्तन धोने वग़ैरा में इतनी देर लगा देते हैं कि बीवियां आजिज़ जाती हैं। अक्सर देखा है, सुबह का वक़्त है, बीवी बिस्तर में पड़ी हैं, मियां चाय दानी भर कर उनके बिस्तर के पास की मेज़ पर रख तो गए लेकिन फिर जाकर फ़र्श रगड़ने लगे या नाशतादा बनाने लगे। इतना ख़्याल नहीं कि चाय बना कर भी देनी है। उधर बीवी एक हाथ से अख़बार थामे उसे पढ़ रही हैं, दूसरे से सर खुजा रही हैं। उनका कोई हाथ ख़ाली होता तो शायद ख़ुद ही बना लेतीं। मियां साहिब नाशता बना कर बच्चों को नहलाने और कपड़े बदलने में जुट जाऐंगे, और फिर अपने और बीवी के जूते पालिश करने के बाद उनको दफ़्तर जाने की जल्दी पड़ जायेगी। शाम को आते ही बावर्चीख़ाने में जा घुसेंगे या ग़ुस्लख़ाने में बैठ कर बच्चों के कपड़े धोयेंगे। उससे फ़ारिग़ हुए तो कुछ सिलाई का काम ले बैठेंगे। क़मीसों के बटन टांक रहे हैं, जुराबें रफ़ू कर रहे हैं। गुलदान सजा रहे हैं, गोया हर चीज़ का ख़्याल है। नहीं ख़्याल तो बीवी का जो अपने कमरे में पड़ी बराबर रेडियो सुन रही हैं या मुअम्मे हल कर रही हैं और बोर हो रही हैं। मियां से इतना भी नहीं होता कि आकर उनके पांव ही दाब दे।

    एक साहिबा ने पिछले दिनों एक मज़मून में इस बात की तरफ़ तवज्जो दिलाई थी और इशारतन कहा था कि मर्दों को ख़ाना-दारी की तर्बीयत हासिल करनी चाहिए। उनका कहना था कि शौहर साहिब अली अल-सुबह बीवी को बिस्तर में ही चाय की एक गर्मा गर्म प्याली बना कर दे दिया करें तो ये मामूली सी बात बाहमी मुहब्बत में इज़ाफे़ का मूजिब हो सकती है। उन्होंने इस बात का शिकवा भी किया कि बहुत से मर्दों को स्वेटर बुनने नहीं आते। हालाँकि यूरोप में चंद सदी पेशतर ये काम मर्द ही अंजाम दिया करते थे। इसके उन्होंने कई फ़ायदे भी गिनवाए थे कि स्वेटर बुनने से सिगरेट पीने की आदत छूट जाती है। वो यूं कि सिगरेट का गुल झाड़ने के लिए हर बार सलाईयाँ हाथ से रखनी पड़ती हैं और ये सलाईयाँ चलाना इतना दिलचस्प शुग़ल है कि चंद दिन के बाद मर्द सिगरेट पर लानत भेज देगा कि इससे स्वेटर बुनने का मज़ा किरकिरा होता है।

    हमारी राय में मर्दों के लिए शुरू ही में इस क़िस्म की तर्बीयत का बंदोबस्त हो तो अच्छा है। मसलन उनकी तालीम में ख़ाना-दारी का मज़मून ज़रूर होना चाहिए और स्कूलों में उन्हें आटा गूंधना, रोटी पकाना, तरह तरह के सालन तैयार करना, बच्चों की निगहदाश्त, घर की सफ़ाई वग़ैरा सिखाने का अमली इंतज़ाम ज़रूर हो, ताकि शादी के बाद घर सँभाल सकें। इस ख़्याल में नहीं रहना चाहिए कि पढ़ लिख के ग्रेजुएट हो गए हैं और बरसर-ए-रोज़गार हैं तो लड़कियों के वालदैन उनके घर के चक्कर काटने शुरू कर देंगे।

    अब तो ये ज़रूरत रिश्ता के इश्तिहार में भी ये क़ैद लगा दी जाएगी कि लड़का क़बूल सूरत और पाबंद सोम सलात होने के अलावा घरदारी का सलीक़ा रखता हो। सीना-पिरोना जानता हो, आठों गाँठ कमीयत हो। जहेज़ की कोई क़ैद नहीं, जितना ज़्यादा ला सके, ले आए। लड़की की वालिदा जब लड़के को देखने आयेंगी तो लड़के वाले इस अमर का एहतिमाम करेंगे कि उस वक़्त लड़का हया की सुर्ख़ी चेहरे पर लिए बावर्चीख़ाने में बैठा आलू गोश्त पका रहा हो और आटा गूँध कर एक तरफ़ रख छोड़ा हो। लड़के की वालिदा बहाने बहाने अपनी होने वाली या होने वाली समधन को बताएगी कि ये सारी चादरें और ग़लाफ़ मेरे बेटे ने काढ़ रखे हैं। अपने कॉलेज में कढ़ाई सिलाई में हमेशा अव्वल आता रहा है। खाना पकाने की तर्बीयत भी हमने अच्छी दिलाई है। छः महीने तो उसने शहर के मशहूर मुस्लिम काली होटल में ख़ानसामां का काम किया है और ब्याह शादियों में देगें पकाने भी जाता रहा है।

    उधर समधन अपनी बेटी के गुण गाएँगी कि बहुत ख़लीक़ और हँसमुख हैं। अपनी सेहत का बहुत ख़्याल रखती हैं इसलिए सहेलियों को लिये अक्सर बाग़ों की सैर करती रहती हैं। तस्वीरें भी बनाती हैं, आर्ट कौंसिल की नुमाइश में पहला इनाम उन्ही को मिला। वो यूं कि उन्होंने तोता बनाया था, किसी ने उसे घोड़ा बताया, किसी ने दरख़्त, किसी ने आटा पीसने की चक्की। सही कोई बता सका। फ़िल्म कोई नहीं छोड़ी और मुताले का ऐसा शौक़ है कि पाकिस्तान का कोई फ़िल्मी रिसाला नहीं जो मंगाती हों। गाती भी हैं, टिकट जमा करने और क़लमी दोस्ती का शौक़ है। हमने इस बात की एहतियात रखी है कि खाने पकाने और सफ़ाई धुलाई से इसके इन अश्ग़ाल में हर्ज वाक़े हो। यूं भी उनके अब्बा पुरानी वज़ा के हैं। इन उमूर में औरतों का अमल दख़ल पसंद नहीं करते। अब मैं मुतमइन हूँ कि जैसा बर मैं चाहती थी, वैसा अल्लाह ने दे दिया।

    स्रोत:

    Khumar-e-Gandum (Pg. 102)

    • लेखक: इब्न-ए-इंशा
      • प्रकाशक: लाहौर अकेडमी, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 2005

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