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अहमद फ़राज़: अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं

फ़राज़ की शायरी जिन दो मूल भावनाओं, रवैयों और तेवरों से मिल कर तैयार होती है वह प्रतिरोध और रूमान हैं। उनकी शायरी से एक रुहानी, एक नौ-क्लासिकी और एक बाग़ी शायर की तस्वीर बनती है। उन्होंने इश्क़ मुहब्बत और महबूब से जुड़े हुए ऐसे बारीक एहसासात और भावनाओं को शायरी की ज़बान दी है जो एक अर्से तक अनछुए थे। आइए और इस कलेक्शन में फ़राज़ की शायरी के विभिन्न रंगो के ज़रीए अपनी कल्पना में रंग भरिए।

किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल

कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा

अहमद फ़राज़

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें

जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

अहमद फ़राज़

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम

तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए

अहमद फ़राज़

हम को अच्छा नहीं लगता कोई हमनाम तिरा

कोई तुझ सा हो तो फिर नाम भी तुझ सा रक्खे

अहमद फ़राज़

शिकवा-ए-ज़ुल्मत-ए-शब से तो कहीं बेहतर था

अपने हिस्से की कोई शम्अ' जलाते जाते

अहमद फ़राज़

अगर तुम्हारी अना ही का है सवाल तो फिर

चलो मैं हाथ बढ़ाता हूँ दोस्ती के लिए

अहमद फ़राज़

कितना आसाँ था तिरे हिज्र में मरना जानाँ

फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते

अहमद फ़राज़

दिल भी पागल है कि उस शख़्स से वाबस्ता है

जो किसी और का होने दे अपना रक्खे

अहमद फ़राज़

अब तक दिल-ए-ख़ुश-फ़हम को तुझ से हैं उमीदें

ये आख़िरी शमएँ भी बुझाने के लिए

अहमद फ़राज़

चला था ज़िक्र ज़माने की बेवफ़ाई का

सो गया है तुम्हारा ख़याल वैसे ही

अहमद फ़राज़

अब तिरे ज़िक्र पे हम बात बदल देते हैं

कितनी रग़बत थी तिरे नाम से पहले पहले

अहमद फ़राज़

तू सामने है तो फिर क्यूँ यक़ीं नहीं आता

ये बार बार जो आँखों को मल के देखते हैं

अहमद फ़राज़

कौन ताक़ों पे रहा कौन सर-ए-राहगुज़र

शहर के सारे चराग़ों को हवा जानती है

अहमद फ़राज़

आज हम दार पे खींचे गए जिन बातों पर

क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें

अहमद फ़राज़

अभी तो जाग रहे हैं चराग़ राहों के

अभी है दूर सहर थोड़ी दूर साथ चलो

अहमद फ़राज़

मैं रात टूट के रोया तो चैन से सोया

कि दिल का ज़हर मिरी चश्म-ए-तर से निकला था

अहमद फ़राज़

ये कौन फिर से उन्हीं रास्तों में छोड़ गया

अभी अभी तो अज़ाब-ए-सफ़र से निकला था

अहमद फ़राज़

अब तो ये आरज़ू है कि वो ज़ख़्म खाइए

ता-ज़िंदगी ये दिल कोई आरज़ू करे

अहमद फ़राज़

देखा मुझे तो तर्क-ए-तअल्लुक़ के बावजूद

वो मुस्कुरा दिया ये हुनर भी उसी का था

अहमद फ़राज़

जाने किस आलम में तू बिछड़ा कि है तेरे बग़ैर

आज तक हर नक़्श फ़रियादी मिरी तहरीर का

अहमद फ़राज़
बोलिए