एक शहर-ए-नापैद का मर्सिया
मक्खियों और लोगों की कसरत से आठों पहर गूँजता मेरा शहर है
मेरी आँखें इसी की हवा में खुलीं
और इस की फ़सीलों पे फिरते हुए
मैं ने आँखों से ओझल
मनाज़िर को सोचा
जिन्हें देखने के लिए ज़िंदगी भर सफ़र का जहन्नुम सहा
यहीं मैं ने सीखे मोहब्बत के मा'नी
यहीं पर नफ़स के पस-ओ-पेश का फ़र्क़ जाना
यहीं मैं ने देखा कि कैसे घरों से बिछड़ने का ग़म
आदमी को ज़मीं की तहों में छुपे 'आलमों की तरह रोलता है
इसी शहर में मुझ को वालिद ने चीज़ों की पहचान दी
और दिखाए मुझे
दश्त में रक़्स करते सराबों के चक्कर
लपकती हुई आग दरिया उमंडती घटाओं के लश्कर
नफ़ी और इसबात का फ़र्क़ नीले समुंदर के बे-अंत मंज़र
ये बताया मुझे
किस तरह सब्र करते हैं कैसे बुज़ुर्गों की पाकीज़ा रूहों से मिलता है फ़ैज़ान
उसी रौशनी का
बहारों की निखरी हुई ताज़गी का
जो अब तक निगाहों में उतरी नहीं
आस्तीन-ए-ज़मीं में या बत्न-ए-सदफ में कहीं दफ़्न है
उस मसीहा-सिफ़त के लिए मुंतज़िर
जो उसे खोज कर
दहर की तीरगी को नवेद-ए-मसर्रत से रौशन करेगा
मिरे बाप ने मुझ को दिन रात के इंतिज़ार-ए-मुसलसल से वाक़िफ़ किया
और दुनिया के नक़्शे पे उस शहर को ढूँडने की लगन
दिल को दी
वो तिलिस्मात का शहर-ए-नापैद जो
हू-ब-हू
मेरे इस शहर का 'अक्स है
उस की आँखों का रंग और फीकी हँसी भी इसी शहर सी है
मगर उस के तन पर जो बे-हुनर वहशियों का ठिकाना नहीं
जो न इन चीथड़ा-पोश आवारा-गर्दों की वहशत सरा है
न गर्मी के मौसम में डसती हुई मक्खियों और लोगों की कसरत से
आठों पहर गूँजता है
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