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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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नितिन नायाब

1981 | अलीगढ़, भारत

नितिन नायाब के शेर

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कहीं से कर कुछ लहरों ने डुबो ही डाला था और फिर

कहीं से कर किसी ने मेरी जान बचाई पानी में

ऐसा क्या 'इश्क़ जो रुस्वाई 'अता कर सके

ऐसी किस काम की रुस्वाई कि शोहरत भी नहीं

ज़ख़्म नहीं मा'लूम चला पर दाग़ कहाँ खो सकता है

दर्द उसी के आस-पास है और कहाँ हो सकता है

ख़्वाब में कोई तो मंज़िल उन्हें दिखती होगी

जाते तो होंगे कहीं नींद में चलने वाले

गली के मोड़ पे बेवा है बद-नसीब कोई

सुहागनों के लिए चूड़ियाँ बनाती है

तुम्हारे हिज्र को वो कम-नसीब क्या समझे

जिसे ख़बर ही नहीं किस क़दर हसीं हो तुम

मुस्तक़बिल अब के तेरे त'आक़ुब की रौ में देख

माज़ी तो क्या मैं हाल से आगे निकल गया

किसी समंदर से एक क़तरा अगर निकल कर नदी की जानिब

क़दम उठा ले तो वो सफ़र इक मिसाल होगा कमाल होगा

ख़ुश्क गुल फिर भी किताबों में भले लगते हैं

ज़ंग लग जाए तो तलवार बुरी लगती है

तुझ को इस जिस्म की रौनक़ पे भला क्यों है ग़ुरूर

जिस की ज़ौ क़ब्र की मिट्टी के बराबर भी नहीं

इस तबस्सुम ने तो बाज़ी ही पलट कर रख दी

अब मुझे देख के रोते हैं रुलाने वाले

'इश्क़ की चादर लाया हूँ और ख़ास बात ये है इस में

जितने पैर पसारो ये उतनी लम्बी हो जाती है

सर यूँ झुकते चले जाते हैं कि गिर ही पड़ें

ऐसी 'इज़्ज़त मिरे सरकार बुरी लगती है

दुख के बाज़ार में हम ज़ब्त कमाने वाले

अश्क को आँख का नुक़्सान कहा करते हैं

गए बरस तो सुनो कि सूरज ने इतनी शिद्दत से आग उगली

कि छाओं देने के वास्ते जो शजर उगाए थे जल गए सब

बरसों से क़तरा क़तरा जो हो रही थी यकजा

वो मुंतशिर ख़मोशी अब शोर हो गई है

दिल वो पर्वत कि जो इक सम्त झुका जाता है

ग़म वो दरिया कि जो रहता है रवाँ एक तरफ़

सर्द हवाओं का क़ब्ज़ा था सागर के उस टापू पर

मैं ने अपना अश्क गिरा कर आग लगाई पानी में

हम अपने पैरों का एक काँटा निकालने के लिए रुके थे

बस इतने लम्हे का बीतना था कि हम से आगे निकल गए सब

हम लोगों को समझे और लोगों ने हम को समझा

हम लोगों को और हम को समझा समझा कर हारे लोग

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