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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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सरदार जाफ़री के अनुसार जोश मलीहाबादी की इस नज़्म में स्वतंत्रता आन्दोलन का जज़्बा झलकता है।

जोश मलीहाबादी

जोश मलीहाबादी

क्या हिन्द का ज़िंदाँ काँप रहा है गूँज रही हैं तक्बीरें

उकताए हैं शायद कुछ क़ैदी और तोड़ रहे हैं ज़ंजीरें

दीवारों के नीचे कर यूँ जम्अ हुए हैं ज़िंदानी

सीनों में तलातुम बिजली का आँखों में झलकती शमशीरें

भूखों की नज़र में बिजली है तोपों के दहाने ठंडे हैं

तक़दीर के लब को जुम्बिश है दम तोड़ रही हैं तदबीरें

आँखों में गदा की सुर्ख़ी है बे-नूर है चेहरा सुल्ताँ का

तख़रीब ने परचम खोला है सज्दे में पड़ी हैं तामीरें

क्या उन को ख़बर थी ज़ेर-ओ-ज़बर रखते थे जो रूह-ए-मिल्लत को

उबलेंगे ज़मीं से मार-ए-सियह बरसेंगी फ़लक से शमशीरें

क्या उन को ख़बर थी सीनों से जो ख़ून चुराया करते थे

इक रोज़ इसी बे-रंगी से झलकेंगी हज़ारों तस्वीरें

क्या उन को ख़बर थी होंटों पर जो क़ुफ़्ल लगाया करते थे

इक रोज़ इसी ख़ामोशी से टपकेंगी दहकती तक़रीरें

संभलों कि वो ज़िंदाँ गूँज उठा झपटो कि वो क़ैदी छूट गए

उट्ठो कि वो बैठीं दीवारें दौड़ो कि वो टूटी ज़ंजीरें

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