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अदब में इंसान दोस्ती का तसव्वुर एक सियाह हाशिए के साथ

शमीम हनफ़ी

अदब में इंसान दोस्ती का तसव्वुर एक सियाह हाशिए के साथ

शमीम हनफ़ी

MORE BYशमीम हनफ़ी

    बीसवीं सदी तारीख़ की सबसे ज़ियादा पुर-तशद्दुद सदी थी। इक्कीसवीं सदी के शानों पर इसी रिवायत का बोझ है। जिस्मानी तशद्दुद से क़त’-ए-नज़र, बीसवीं सदी ने इंसान को तशद्दुद के नित-नए रास्तों पर लगा दिया। तहज़ीबी, लिसानी, सियासी, जज़्बाती तशद्दुद के कैसे-कैसे मज़हर इस सदी की तह से नुमूदार हुए। हद तो ये है कि इस सदी की इज्तिमाई ज़िंदगी के आ’म असालीब तक तशद्दुद की गिरफ़्त से बच सके। इस अ’हद की रफ़्तार, इसकी आवाज़, इसके आहंग और फ़िक्र, हर सत्ह पर तशद्दुद के आसार नुमायाँ हैं। मीलान कंडेरा का ख़याल है कि ये सदी धीमेपन (Slowness) का जादू सिरे से गँवा बैठी है

    आर्ट और अदब का अँखुवा ख़ामोशी और तन्हाई और धीमेपन की शाख़-ए-ज़रीं से फूटता है और हर बड़ी तख़्लीक़ी रिवायत का ज़हूर फ़न-काराना ज़ब्त और ठहराव और तहम्मुल की तह से होता है। एक बे-क़ाबू और बे-लगाम मुआ’शरे में जो अपनी रफ़्तार, अपनी आवाज़, अपने आसाब और हवास को सँभालने की ताक़त से महरूम हो चुका हो, आर्ट और अदब एक तरह के दिफ़ाई मोर्चे की हैसियत रखते हैं।

    इस मुज़ाकरे का मौज़ू’, अपने आप में, हमारे ज़माने, हमारी इज्तिमाई ज़िंदगी के लिए एक सवालिया निशान और एक संदेसे के तौर पर भी देखा जा सकता है। इस Hyper-mercantile अ’हद में आर्ट और अदब और फ़लसफ़ा तारीख़ के हाशिए पर चले गए हैं। तख़्लीक़ी सरगर्मी एक फ़ालतू या बे-ज़रर और बे-असर सरगर्मी बन चुकी है, कहीं अदब में इंसान-दोस्ती का तसव्वुर सिर्फ़ एक आज़माईशी तसव्वुर तो नहीं है?

    लेकिन इस मौज़ू’ के साथ, कुछ और सोचने से पहले, मेरे ज़हन में ये सवाल पैदा होता है कि क्या दुनिया की कोई अदबी रिवायत इंसान-दुश्मन भी हो सकती है? और किसी भी ज़माने या ज़बान का अदीब, इंसान-दोस्ती के एक गहरे एहसास के बग़ैर क्या अपने हक़ीक़ी मंसब की अदायगी कर सकता है?

    आंद्रे मालरो ने कहा था, अगर हमें फ़िक्र का एक गहरा, बा-मअ’नी, मुसबत और इंसानी ज़ाविया इख़्तियार करना है तो ला-मुहाला हमें दो बातों पर इन्हिसार करना होगा। एक तो ये कि ज़िंदगी बिल-आख़िर हमारे अंदर एक तरह का अलमियाती एहसास पैदा करती है और इसकी वज्ह ये है कि हम अपनी तमाम फ़िक्री और माद्दी कामरानियों के बावुजूद ये समझने से क़ासिर हैं कि हम कहाँ जा रहे हैं। दूसरे ये कि हमें बहर-हाल इंसान-दोस्ती के तसव्वुर का सहारा लेना होगा क्योंकि हम ये भी जानते हैं कि हमने अपना सफ़र कहाँ से शुरू’ किया था और हम बिल-आख़िर कहाँ पहुँचना चाहते हैं। गोया कि इंसान-दोस्ती का एहसास तख़्लीक़ी तजरबे की बुनियाद में शामिल है। ख़ास तौर पर मशरिक़ की अदबी रिवायत तो अपनी तारीख़ के किसी दौर में सिर्फ़ ज़बान-ओ-बयान की ख़ूबियों की पाबंद नहीं रही। हर ज़माने में यहाँ बुलंद तहज़ीबी और अख़्लाक़ी क़द्रें बड़ी शाइ’री के लिए ज़रूरी समझी जाती रहीं। मग़रिबी तहज़ीब की बुनियादें और उस तहज़ीब का परवर्दा तसव्वुर-ए-हक़ीक़त मुख़्तलिफ़ सही लेकिन मशरिक़-ओ-मग़रिब की अदबी सक़ाफ़त में बहुत कुछ मुश्तरक भी है। फ़ोरस्टर ने एक सीधी-सादी बात ये कही थी कि अदब और आर्ट हमें जानवरों से अलग करते हैं और तरह-तरह की मख़लूक़ात से भरी हुई इस दुनिया में हमारे लिए एक बुनियादी वज्ह-ए-इम्तियाज़ पैदा करते हैं। यही इम्तियाज़ अदब और आर्ट को इस लाइक़ बनाता है कि उसे उसकी ख़ातिर पैदा किया जाए। फ़ोरस्टर ने इसी ज़िम्न में ये भी कहा था कि एक ऐसी दुनिया जो अदब और आर्ट से ख़ाली हो मेरे लिए ना-क़ाबिल-ए-क़ुबूल है और मुझे उस दुनिया में अपने दिन गुज़ारने का कोई तलब नहीं है। गोया कि इंसानी तअ’ल्लुक़ात के एहसास और सरोकारों के बग़ैर आर्ट, अदब और ज़िंदगी सभी बे-मअ’नी और खोखले हैं।

    साईंसी और समाजी उ’लूम के बर-अ’क्स, अदबी रवायात की पाएदारी और इस्तिहकाम का एक सबब ये भी है कि इंसानी तजरबे के जिन अ’नासिर से ये रिवायतें माला-माल होती हैं, वो नई दरियाफ़्तों और नए नज़रियात के चलन की वज्ह से कभी नाकारा नहीं होने पातीं। बहुत महदूद सत्ह पर सही लेकिन अदब और आर्ट की रिवायतें इज्तिमाई ज़िंदगी के इर्तिक़ा में अपना रोल अदा करती रहती हैं। ब-क़ौल इलियट, एक अनोखा इत्तिहाद इंसानी तारीख़ के मुख़्तलिफ़ ज़मानों से तअ’ल्लुक़ रखने वाली रूहों को एक सफ़ में यकजा कर देता है। ब-ज़ाहिर अजनबी और पुरानी आवाज़ों में नए इंसान को अपनी रूह का नग़्मा भी सुनाई देता है। रूमी और हाफ़िज़ और शेक्सपियर और ग़ालिब और इक़बाल और टैगोर एक साथ सफ़-बस्ता हो जाते हैं।

    लेकिन यहाँ तारीख़ी ए’तिबार से अदब में इंसान-दोस्ती के तसव्वुर पर गुफ़्तगू से पहले हमारे अपने अ’हद के सियाक़ में इंसान-दोस्ती के मुज़्मरात पर कुछ मा’रूज़ात पेश करना ज़रूरी है। हमारे दौर में बद-क़िस्मती से इंसान-दोस्ती ने एक ना’रे की हैसियत भी इख़्तियार कर ली है। अक़वाम-ए-मुत्तहिदा की इ’मारत के बाब-ए-दाख़िला पर शेख़ सा’दी का ये मिसरा कि “बनी-आदम आज़ाए यक दीगर अंद” इसी रवैये का पता देता है। इसके इ’लावा अपने मक़बूल-ए-आ’म मफ़हूम और मुसल्लमा औसाफ़ के बावुजूद इंसान-दोस्ती हमारे ज़माने में ख़सारे का सौदा भी बन चुकी है। और नौ-आबादियाती (कोलोनियल) मक़ासिद में यक़ीन रखने वालों या नस्ल-परस्ताना अ’ज़ाइम इख़्तियार करने वालों ने इंसान-दोस्ती के तसव्वुर को एक सियासी हरबे, एक आ’ला कार के तौर पर भी इस्ति’माल किया है। इराक़, अफ़्ग़ानिस्तान और फ़िलिस्तीन की मिसालें हमारे सामने हैं।

    अस्ल में तारीख़ की एक अपनी माबा’द-उल-तबीआ’त भी होती है और मुख़्तलिफ़ अदवार या इंसानी सूरत-ए-हाल के मुख़्तलिफ़ दायरों में मा’रूफ़ इस्तिलाहात के मअ’नी भी बदल जाते हैं। इंसान-दोस्ती के तसव्वुर की भी कई सत्हें हैं, मज़हबी, समाजी, सियासी। अदब में इंसान-दोस्ती का तसव्वुर इनमें से किसी भी सत्ह का ताबे’ नहीं हो सकता। सियासी, समाजी, मज़हबी निज़ाम के तहत इंसान-दोस्ती का तसव्वुर किसी किसी मरहले में एक तरह की बराह-ए-रास्त या बिल-वास्ता मस्लेहत का शिकार भी हो सकता है जहाँ उसे वो आज़ादी, वो खुलापन हरगिज़ मयस्सर सकेगा जिस तक रसाई सिर्फ़ अदब के वास्ते से मुम्किन हो सकती है। इसी तरह कोलोनियल अ’हद की इंसान-दोस्ती और पोस्ट-कोलोनियल अ’हद की इंसान-दोस्ती का ख़मीर भी यकसाँ नहीं हो सकता।

    अदब और आर्ट की दुनिया में इंसान-दोस्ती की रिवायत बहर-हाल कुछ सेक्युलर क़द्रों की तर्जुमान होती है। अदब हमें बताता है कि इंसान की रुहानी तलब सिर्फ़ मरई, ठोस और माद्दी चीज़ों तक महदूद नहीं होती। अदब हमें ये भी बताता है कि इंसान ऐसी चीज़ें समझना चाहता है जो ब-ज़ाहिर काम की नहीं होतीं और जिनसे रोज़मर्रा ज़िंदगी में हमारी किसी ज़रूरत की तकमील मुम्किन नहीं, मसलन फ़लसफ़ा और नफ़सियात। और इंसान इज़हार की ऐसी हैअतें भी वज़्अ’ करना चाहता है, “चीज़ें” बनाना चाहता है जो मुबहम, मर्मूज़ और मंतिक़ से मावरा होती हैं, मसलन अदब और आर्ट। बजा-ए-ख़ुद अदब एक तरह का बातिनी और रुहानी तशद्दुद भी है जो ब-क़ौल वैलेस स्टीवन्स (Wallaes Stevenes) ख़ारिजी दुनिया में वाक़े’ होने वाले तशद्दुद से मुज़ाहम होता है और हमें उसकी गिरफ़्त से बचाए रखता है।

    कामू के एक सवानह-निगार ने उसे इंसान-दोस्ती या इंसानी (हम-दर्दी) के जज़्बों की सियासत से ता’बीर किया है और इस सिलसिले में कामू की उन तक़रीरों का हवाला दिया है जिनमें कामू ने 1957 के दौरान इस वाक़िए’ पर बार-बार ज़ोर दिया था कि हमारा अ’हद इन्क़िलाबी क़द्रों के इन्हितात और इब्तिज़ाल का अ’हद है। लेकिन ये इन्हितात-ओ-इब्तिज़ाल इन्क़िलाबी क़द्रों के बाज़-याबी में हमारे यक़ीन को कमज़ोर नहीं कर सकता और हम उन अक़दार से बे-नियाज़ी के मुतहम्मिल नहीं हो सकते। अपने सवानह-निगार फ़िलिप थोडी (Philip Thody) की इत्तिला के मुताबिक़ उस वक़्त कामू की तमाम ज़हनी सरगर्मियों का नुक्ता इर्तिकाज़ उसका इंसान-दोस्ती का तसव्वुर था और इंसानी अलमियों और अज़ीयतों का शदीद एहसास। उस वक़्त कामू ने किसी सियासी तहरीक में शुमूलियत के बग़ैर अदबी और अदब के इंसानी सरोकारों पर जिस तरह ज़ोर दिया था उससे एक सियासी जिहत भी ख़ुद-ब-ख़ुद नुमूदार हो जाती हैं।

    कामू की इंसानी हम-दर्दियाँ और तर्जीहात उस वक़्त बिल्कुल वाज़ेह थीं और उनसे उसके मौक़िफ़ की साफ़ निशान-देही होती थी। कामू हर तरह की नज़रियाती और फ़िक्री मुतलक़ियत का मुख़ालिफ़ था और ये समझता था कि मुतलक़ियत या मन्सूबा-बंद और मुतअ’य्यन मक़ासिद जिन इंसानी आ’लाम को आसान करने के मुद्दई’ हैं उनमें कोई भी इंसानी अलम बजा-ए-ख़ुद मुतलक़ियत से बड़ा और उससे ज़ियादा मोहलिक नहीं है। या’नी के ज़ाब्ता-बंद अ’क़ीदे (मज़हब), नज़रिए (आईडियोलौजी), उ’लूम (साईंस) की रोशनी में मुरत्तब किया जाने वाला इंसान-दोस्ती का कोई भी तसव्वुर कामू के तसव्वुर से मुनासिबत नहीं रखता और उनमें से कोई भी उस पुर-पेच और कुशादा इंसानी एहसास और उस ला-ज़वाल तजरबे की अहाता-बंदी का अहल नहीं है जिसकी नुमूद अदब और आर्ट की ज़मीन पर होती है, उसी तरह जैसे आर्ट और अदब की ख़ामोश सरगर्मी से पैदा होने वाला अख़्लाक़, रस्मी और रिवायती अख़्लाक़ से मुख़्तलिफ़ होता है, ब-क़ौल-ए-शख़्से अदब बजा-ए-ख़ुद अख़्लाक़ से ज़ियादा बा-अख़्लाक़ शय है या ये कि (More moral than morality itself) फ़िराक़ ने कहा था,

    ख़ुश्क आ’माल के ऊसर से उगा कब अख़्लाक़

    ये तो नख़्ल-ए-लब-ए-दरिया-ए-मआ’सी है फ़िराक़

    एक अदीब और आर्टिस्ट जिस इंसानी सरोकार और अख़्लाक़ी मलाल के साथ अपनी तख़्लीक़ात वज़्अ’ करता है, उसका मफ़हूम सिर्फ़ मुरव्वजा समाजी ज़ाब्तों और मेया’रों की मदद से मुतअ’य्यन नहीं किया जा सकता। गहरी इंसानी दोस्ती का तसव्वुर अदीब या आर्टिस्ट की अपनी तख़्लीक़ी आज़ादी के शऊ’र से पैदा होता है ऐसी सूरत में कि उसके दिल-ओ-दिमाग़ पर किसी बैरूनी जब्र का दबाव हो। वो अपने ज़मीर की अ’दालत में अपने आपको आज़ाद महसूस करे, वो अपनी बात किसी मस्लेहत, किसी ख़ौफ़, अंदेशे या लालच के बग़ैर कह सके। किसी पार्टी लाइन या किसी मुनज़्ज़म मन्सूबा बंद नज़रिए, किसी इदारे के अहकामात की बजा-आवरी और तख़्लीक़ी आज़ादी या ज़मीर की आज़ादी का इज़हार एक साथ हमेशा मुम्किन नहीं हो सकता, ता-वक़्तिया के अदीब अपनी सलाहियतों को, एहसासात को और अपने ही तसव्वुर की तरह, इंसानी हम-दर्दी के तसव्वुर को भी दूसरों का मुतीअ’-ओ-मातहत बना दे। मुआ’शरे में अदीब और आर्टिस्ट के रोल की वज़ाहत करते हुए कामू ने कहा था कि सिर्फ़ मुज़ाहमत या तसादुम से आ’ला अदब नहीं पैदा होता। बल्कि आ’ला अदब हमारे अंदर मुज़ाहमत का रास्ता इख़्तियार करने और इक़्तिदार से दो-दो हाथ करने की इस्तिदाद पैदा करता है। ऐडवर्ड सईद ने इंसान-दोस्ती के तसव्वुर की तशकील और तहफ़्फ़ुज़ के लिए रैडिकलइज़्म (Radicalism) और इक़्तिदार के तईं आज़ादाना तन्क़ीद के रवैये को ना-गुज़ीर बताया था। और कामू ने अपनी नोबेल इनआ’म की तक़रीर (1957) के दौरान कहा था,

    “ब-तौर एक फ़र्द मैं अपने आर्ट के बग़ैर नहीं रह सकता। लेकिन मैंने कभी भी अपने आर्ट को ज़िंदगी की दूसरी तमाम अश्या से बरतर नहीं समझा। इसके बर-अ’क्स, आर्ट मेरे लिए इतना ना-गुज़ीर इसलिए है कि ये मुझे किसी से भी अलग नहीं होने देता और मुझमें ये सलाहियत पैदा करता है कि अपनी बिसात के मुताबिक़ (अपने आर्ट की मदद से) ख़ुद को दूसरों की सत्ह पर ला सकूँ। मेरे लिए आर्ट (की तख़्लीक़) तन्हाई का जश्न नहीं है मेरे लिए ये इंसानों की बड़ी से बड़ी ता’दाद के लिए, अपने मुशतर्का दुख और सुख की एक इस्तिसनाई शबीह के वास्ते से, उनके दिलों को छू लेने का वसीला है।”

    अदब और आर्ट में ऐसी तमाम इस्तिसनाई शबीहें, हुजूम के सुर में सुर मिलाने से नहीं बल्कि तख़्लीक़ करने वाली रूह के सन्नाटे, उसकी मुक़द्दस तन्हाई और ख़ामोशी के बत्न से जनम लेती हैं। अदीब के लिए उसकी वज़्अ’-कर्दा ये शबीहें, आ’म इंसानी मुक़द्दरात की नक़ाब-कुशाई का एक ज़रीआ’ भी हैं। वो किसी तरह के फ़िक्री, नज़रियाती, समाजी, मज़हबी जब्र की परवाह किए बग़ैर अपने एहसासात पर वारिद होने वाली तख़्लीक़ी सच्चाइयों को दूसरों तक पहुँचाना चाहता है। इसके लिए ज़रूरी है कि वो अपनी सलाहियतों को उ’मूमीयत-ज़दा मसअलों और आ’मियाना बातों में ज़ाए’ करे और अपनी पूरी तवज्जोह अदब या आर्ट पर मर्कूज़ रखे। अपनी तख़्लीक़ी सरगर्मी का सौदा करे और हर क़ीमत पर फ़न की हुर्मत और फ़न की तशकील के अ’मल की हिफ़ाज़त करे। आ’म मक़बूलियत के फेर में पड़े। ऐसी बातें कहे जिनका मक़सद सब को ख़ुश करना हो। उसे अपनी तर्जीहात का पता होना चाहिए। रोज़मर्रा की सियासत और समझौतों से बचना चाहिए और उस वक़्त जब सच को ख़तरा लाहक़ हो, उसकी हिफ़ाज़त के लिए खुल कर सामने जाना चाहिए या फिर अपने अख़्लाक़ी मलाल और एहतिजाज को सामने लाने का एक तरीक़ा जो ब-ज़ाहिर तजरीदी है, एक लंबी गहरी ख़ामोशी के तौर पर रू-नुमा होता है। (ब-क़ौल मुनीर नियाज़ी)

    “इसके बा’द एक लंबी चुप और तेज़ हवा का शोर!”

    हमारी इज्तिमाई तारीख़ में 1857 के हंगामों के बा’द की फ़िज़ा में ग़ालिब का शाइ’री से तक़रीबन दस्त-कश हो जाना इसी क़िस्म की एक सूरत-ए-हाल का पता देता है। 1857 के आस-पास के माहौल में तख़्लीक़ी इज़हार से ज़ियादा एक वाज़ेह मैलान और सत्ह रखने वाली इ’ल्मी और कारोबारी नस्र, या फिर सरीहन मक़सदी और इफ़ादी पहलू रखने वाली जदीद नज़्म से बढ़ता हुआ आ’म शग़फ़, अंजुमन पंजाब का क़याम, नई नज़्म का वो मंशूर जो आज़ाद ने ईल केकचर के तौर पर पेश किया था 1874 या फिर1893में मुक़द्दमा-ए-शे’र-ओ-शाइ’री की इशाअ’त और क्लासिकी अदबी अस्नाफ़ की खुली हुई बे-तौकीरी का सिलसिला... ये तमाम वाक़िआ’त ऐसे ही मक़बूल और मुरव्वज रवय्यों की निशान-देही करते हैं। ग़ालिब उस वक़्त हमारी मजमूई’ तख़्लीक़ी रिवायत के औसाफ़ और मुहासिन के सबसे बड़े तर्जुमान थे। लेकिन इफ़ादियत और मक़सद के शोर-ए-बे-अमाँ में उनकी शाइ’री उस दौर में पस-ए-पुश्त जा पड़ी थी। ज़ाहिर है कि कोई भी सियासी और समाजी निज़ाम, उस निज़ाम की परवर्दा कोई भी बोतीक़ा हर शाइ’र को तो ग़ालिब नहीं बना सकती। उसी तरह, जैसे कि ब-क़ौल-ए-पाऊंड, कोई भी बैरूनी हिदायत हर नक़्शा-नवीस को पिकासो के औसाफ़ से आरास्ता नहीं कर सकती। अल्जीरियाई मसअले के हल लिए 1958 के दौरान कामू ने अ’मली सियासत से अपने आपको जो ला-तअ’ल्लुक़ रखा तो इसीलिए कि उसे ब-हैसियत-ए-अदीब अपने हुदूद का और उस दौर के हंगामा-ख़ेज़ माहौल में अदीब की ख़ामोशी से रू-नुमा होने वाले मौक़िफ़ का अंदाज़ा अपने सरगर्म मुआ’सिरीन की ब-निस्बत शायद ज़ियादा था। कामू की हादिसाती मौत के बा’द अपने ता’ज़ियती मज़्मून में सार्त्र ने लिखा था... (1960)

    “बा’द के इन बरसों में उसकी ख़ामोशी का भी एक मुसबत पहलू था... एक मुहमलीयत-ज़दा (लग़्व) माहौल के इस कारतीसी (Cartesian) नुमाइंदे ने अपनी अख़्लाक़ियत की मख़सूस रविश को छोड़ने से इनकार कर दिया और एक ग़ैर-यक़ीनी रास्ते को, जो इ’ल्मी सरगर्मी का तक़ाज़ी था, हरगिज़ इख़्तियार किया। हम ये महसूस करते हैं कि (कामू) के इस रवैये का सबब हम जानते हैं और उस कश्मकश को भी समझ सकते हैं जिसे कामू ने छिपा रखा था। क्योंकि अगर हम अख़्लाक़ियत और सिर्फ़ अख़्लाक़ियत का तज्ज़िया करें तो ये समझ सकते हैं कि ब-यक-वक़्त बग़ावत का मुतालिबा भी करती है और इसकी (बे-असरी के बाइ’स) मज़म्मत भी करती है।”

    ख़ुद कामू ने ये बात कही थी कि “मा’दूद चंद लोग इस सच्चाई को समझने की अहलियत रखते हैं कि इनकार का एक तरीक़ा वो भी होता है जो तर्क या त्याग का मफ़हूम नहीं रखता...” कामू के इंतिक़ाल 1960 से तक़रीबन नौ बरस पहले लिखे जाने वाले मज़्मून में (इशाअ’त न्यूयार्क टाईम्स मैगज़ीन, 16 दिसंबर 1951) बर्ट्रेंड रसल ने दस ऐसे नकात की निशान-देही की थी जिन्हें इंसानी सरोकार पर मबनी एक ज़ाती मंशूर के तौर पर देखा जा सकता है। उसने कहा था,

    (1) कोई भी हक़ीक़त मुतलक़ नहीं है

    (2) सच्चाई को छुपाना ना-मुनासिब है क्योंकि सच्चाई बिल-आख़िर सामने ही जाती है।

    (3) हर मसअले पर आज़ादाना फ़िक्र ज़रूरी है और सही नतीजे तक पहुँचने का यही एक तरीक़ा है।

    (4) इख़्तिलाफ़ात पर क़ाबू पाने के लिए ज़ोर-ज़बरदस्ती से काम लेना ग़लत है। ताक़त पर मबनी कामयाबी मौहूम होती है।

    (5) कोई भी मर्कज़-ए-इक़्तिदार इस लाइक़ नहीं कि उसकी पर्वा की जाए।

    (6) किसी भी ज़ाविया-ए-नज़र को पसपा करने की जद्द-ओ-जहद फ़ुज़ूल है और इस मुआ’मले में ताक़त का इस्ति’माल यकसर ग़लत है।

    (7) अपने ख़यालात और रवय्यों के मुनहरिफ़-उल-मर्कज़ होने या सनकी कहे जाने से डरो। हर ख़याल जिसे अब क़ुबूल किया जा चुका है, कभी ग़लत या मुनहरिफ़-उल-मर्कज़ भी समझा गया था।

    (8) मजहूल इक़रार की ब-निस्बत सोचा-समझा इनकार ज़ियादा बा-मअ’नी है।

    (9) सच्चाई का रास्ता चाहे जितना दुशवार हो, उसको तर्क करना तकलीफ़ और शर्मिंदगी का बाइस होगा।

    (10) ऐसों की मुसर्रत पर हसद करो जो अहमक़ों की जन्नत में बसते हैं। सिर्फ़ अहमक़ ही ये समझेगा कि ये दुनिया या दौर हमें मसर्रत दे सकता है।

    बर्ट्रेंड रसल ने अपने इस मज़्मून को “इआ’दियत का बेहतरीन जवाब, रवादारी” का उ’नवान दिया था और उसे इन्फ़िरादियत के तहफ़्फ़ुज़ और ज़हनी आज़ादी के एक मंशूर की सी शक्ल दी थी। यहाँ ये ग़लत-फ़हमी पैदा हो सकती है कि ज़हनी आज़ादी और मुज़ाहमत से मुतअ’ल्लिक़ जो बातें पिछले चंद सफ़्हों में कही गई हैं उनका तअ’ल्लुक़ तख़्लीक़ी अदब या आर्ट से कम और समाजी फ़िक्र या मौजूदा अ’हद में दानिश्वरी के मुज़्मरात से ज़ियादा है। इस ज़िम्न मेरे मा’रूज़ात मुख़्तसरन ये हैं कि एक तो कोई भी तख़्लीक़ी सरगर्मी एक फ़आ’ल ज़हनी उं’सुर और दिफ़ाई अ’मल के बग़ैर तो शुरू’ होती है जारी रह सकती है।

    आर्ट और अदब का ऐसा एक भी नमूना पैदा करना या ढूँढ निकालना मुश्किल है जिसको किसी किसी तसव्वुर की ताईद हासिल हो, ट्रस्टन ज़ारा का वो तारीख़ी मज़्मून जिसे दादाइज़्म के दस्तूर-उल-अ’मल की हैसियत हासिल है और जिसे डब्लयू, वारेन वेगरे ने बीसवीं सदी की इंसानी सूरत-ए-हाल के तनाज़ुर ‘इंसान, अ’क़ीदत और साईंस’ की एक सह-रुख़ी उसूली और नज़रियाती कश्मकश के तौर पर पेश किया था, उससे मेरे इस मा’रूज़े की तस्दीक़ होती है। यही वाक़िआ’ उन्नीसवीं सदी के अवाख़िर से लेकर हमारे अपने ज़माने तक रू-नुमा होने वाली तमाम अदबी और तख़्लीक़ी थ्योरीज़ के सिलसिले में सामने आया है। रूमानियत, इज़हारीयत, तअस्सुरियत, हक़ीक़त-पसंदी, मावरा-ए-हक़ीक़त-पसंदी, मकाबियत, तजरीदियत के मज़ाहिर अदब और आर्ट के तमाम शो’बों में अपनी-अपनी मख़सूस फ़िक्री असास और इस्तिदलाल के साथ हुए।

    इसके इ’लावा दूसरी अहम बात इस ज़िम्न में ये है कि रौशन ख़याली और अक़्लियत की सदियों के साथ, जिन्हें हम हिन्दोस्तान की तारीख़ के सियाक़ में जदीद निशात-ए-सानिया की तशकील का दौर कहते हैं, आर्ट और अदब की सत्ह पर मुनज़्ज़म सोच-बिचार का एक मुस्तक़िल सिलसिला जारी रहा है, मुल्की और आ’लमी दोनों सत्हों पर। लिहाज़ा अदब और आर्ट में इंसान-दोस्ती का तसव्वुर भी चौधवीं-पंद्रहवीं सदी की इतालवी निशात-ए-सानिया के साये में एक नए फ़िक्री दस्तूर-उल-अ’मल के तौर पर जुहूर-पज़ीर हुआ और इसके आ’लमगीर असरात से अदब और आर्ट की कोई भी रिवायत ला-तअ’ल्लुक़ रह सकी। एक तारीख़ी जाइज़े पर मबनी इत्तिला के मुताबिक़ इंसान-दोस्ती की तो 1808 में एक जर्मन मुअ’ल्लिम (F.J Niethemmer) ने वज़्अ’ की थी। और उसका मक़सद एक ऐसे मुतालआ’ती प्रोग्राम की वज़ाहत और मंसूबा-बंदी थी जो साईंसी और टैक्नोलौजिकल ता’लीमी प्रोग्रामों से अलग अपना तशख़्ख़ुस क़ाइम कर सके। लेकिन इंसानी उ’लूम के सियाक़ में और इस तरह अदब और आर्ट के हवाले से, इंसान-दोस्ती का तसव्वुर चौदहवीं और पंद्रहवीं सदी ईसवी के दौरान बा-ज़ाब्ता तौर पर रिवाज पा चुका था और उ’लूम के उस दायरे में जिसे Studia humanitatis या इंसानी मुतालआ’त का नाम दिया गया, ये तसव्वुर ना-मानूस और अजनबी नहीं था। दूसरे अल्फ़ाज़ हम इस बात को यूँ भी कह सकते हैं कि हर इ’ल्मी, अदबी, तहज़ीबी, तख़्लीक़ी रिवायत के मर्कज़ में इंसान-दोस्ती के उं’सुर को एक बुनियादी मुहर्रिक की हैसियत हासिल रही है।

    ये सही है कि इस तसव्वुर को एक तहरीक की शक्ल निशात-ए-सानिया की मग़रिबी रिवायत ने दी। आर्ट, अदब और उ’लूम की दुनिया में इस तहरीक का मक़सद इंसानी वक़ार की बहाली और अ’हद-ए-वुस्ता के ज़ुल्मत-कदे से इंसानी शरफ़ और फ़ज़ीलत के तसव्वुर को नजात दिलाना भी था। इ’लावा-अज़ीं, इस तहरीक का एक और मक़सद कश्फ़ और विज्दान पर तअ’क़्क़ुल की बरतरी का इस्बात भी था। पुराने मुतून की बहाली और एक नए लिसानी मेया’र की तलाश भी था। शायद इसीलिए अदब और आर्ट की दुनिया में कोरी तअ’क़्क़ुल-पसंदी के ख़िलाफ़ रद्द-ए-अ’मल की सूरतों भी बहुत जल्द नुमूदार हुईं और इंसान-दोस्ती के तसव्वुर को एक वसीअ’-तर और पेचीदा-तर सियाक़ में देखा जाने लगा। अदब और आर्ट की दुनिया में ये तसव्वुर हमें ज़ियादा लोच-दार, कुशादा और बसीत इसीलिए दिखाई देता है कि ये हर तरह की मज़हबी और नज़रियाती मुतलक़ियत के चंगुल से आज़ाद होता है और इंसान को उसकी हस्ती के तमाम असरार, और तज़ादात और हुदूद और कमज़ोरियों और ताक़तों के साथ समझने पर इसरार करता है।

    ऐडवर्ड सईद ने इज्तिमाई ज़िंदगी में दानिश्वर के रोल और तन्क़ीदी शऊ’र की मा’नवियत का तज्ज़िया करते हुए 13 दिसंबर1997 जामिआ मिलिया इस्लामिया, दिल्ली में डाक्टरेट की ए’ज़ाज़ी डिग्री क़ुबूल करते वक़्त अपने लैक्चर में बा’ज़ बुनियादी उमूर की तरफ़ तवज्जोह दिलाई थी। उन्होंने कहा था कि इ’ल्म की जुस्तजू दर-अस्ल इंसानी ज़िंदगी में एक ला-मुख़्तम तलाश, एक मुस्तक़िल तश्कीक के एहसास से शख़्सी तअ’ह्हुद का नाम है। कोई भी तसव्वुर जो हमें अपने माज़ी से विरसे में मिला है या अपनी रिवायत और ज़हनी तरबियत के नतीजे में जिसे ख़ुद हमने ख़ल्क़ किया है, उसे उ’बूर करना और उससे आगे जाने की हिम्मत पैदा करना ही सही दानिश्वराना इक़दाम है। ये तो एक कभी बुझने वाली प्यास है। जब तक हमारी जुरअत फ़िक्र, तसव्वुरात की आ’म सत्ह में इर्तिआ’श पैदा नहीं करती, पहले से मा’लूम और मानूस नतीजों से आगे नहीं जाती, सोचते रहने की अज़ीयत नहीं झेलती, और अपनी इन्फ़िरादियत के दिफ़ा’ की ख़ातिर ख़तरे नहीं उठाती, हम सच्ची दानिश्वरी के रोल को अदा करने से क़ासिर रहेंगे। आर्ट और अदब की तख़्लीक़ करने वाला हर शख़्स भी ब-क़ौल ग्रामची, बुनियादी तौर पर एक दानिश्वर होता है लेकिन हर दानिश्वर मुआ’शरे में अपनी दानिश का रोल निभाने की अहलियत नहीं रखता ता-वक़्तिया के वो सवाल पूछते रहने पर क़ादिर हो, मुसल्लमात से इनकार का हौसला रखता हो, अपनी दुनिया में बेगाने की, एक Outsider की ज़िंदगी गुज़ारने, अपने ज़मीर को हर तरह के ख़ौफ़, मस्लेहत और तरग़ीब से महफ़ूज़ रखने का आदी हो। ऐडवर्ड सईद का कहना था कि दानिश्वर सिर्फ़ एक शख़्स नहीं होता। उसकी हैसियत एक अंदाज़-ए-नज़र, एक रवैये, इज्तिमाई ज़िंदगी में ताक़त और तवानाई की एक लहर की भी होती है। रिवायत और क़ौमियत के आ’मियाना तसव्वुर का बोझ ज़हनी तख़्लीक़ी आज़ादी और दानिश्वरी के रासे की सबसे बड़ी रुकावट है। रिवायत को इस हक़ से ज़ियादा देना अपनी आज़ादी और इन्फ़िरादियत का सौदा करना है।

    इसी तरह किसी अदीब या आर्टिस्ट के लिए अपनी सरगर्मी के दायरे को महदूद और मुख़तस कर लेना या अदबी और फ़न्नी अक़दार के नाम पर एक मजहूल क़िस्म के झूटे पिंदार और नख़वत पर मबनी हदें क़ाइम कर लेना भी उसके सामने कुछ मजबूरियाँ खड़ी कर देता है, जो उसकी तख़्लीक़ी सरगर्मी और उसके मजमूई’ शऊ’र पर-असर अंदाज़ होती हैं। ऐडवर्ड सईद ने अपने लैक्चर के दौरान, वियतनाम की जंग के ज़माने में अपने एक हम-अ’स्र और हम-पेशा दोस्त से मकालमे का तज़्किरा किया। किसी तालिब-ए-इ’ल्म के इस सवाल पर कि एक ऐसे वक़्त में जब शुमाली वियतनाम, लाओस और कमबोडिया के बे-क़ुसूर अ’वाम पर साठ हज़ार फुट की बुलंदी से बमबारी हो रही है, क्या वो एक एहतिजाज अ’र्ज़ दाश्त पर दस्तख़त करना चाहेंगे, उनका जवाब ये था कि, “नहीं! मैं अदब का प्रोफ़ैसर हूँ, मैं शेक्सपियर और मिल्टन के बारे में लिखता हूँ, मुझे इस बमबारी से क्या लेना देना, और फिर में उसे समझता भी नहीं।”

    ऐसा एक वाक़िआ’ हल्क़ा-ए-अर्बाबए-ज़ौक़ के एक मुम्ताज़ शाइ’र क़य्यूम नज़र के साथ आया था जो पैरिस में सार्त्र से मुलाक़ात के मुतमन्नी हुए। सार्त्र के इस सवाल पर कि अल-जज़ाइर के मसअले पर उनका मौक़िफ़ किया है? उनका जवाब ये था कि, “मैं तो शाइ’र हूँ, इस मसअले से मेरा क्या तअ’ल्लुक़?”

    ज़ाहिर है कि सार्त्र ने उनसे गुफ़्तगू इसी नुक़्ते पर मुनक़ते’ कर दी।

    ये मज़हका-ख़ेज़ इख़तिसास जो शऊ’र के गिर्द संगीन फ़सीलें खड़ी कर दे, इज्तिमाई ज़िंदगी के लिए कितना मोहलिक हो सकता है और इससे इंसान-शनासी की किस जिहत का इज़हार होता है, इसकी बाबत किसी तफ़्सील में जाने का ये मौक़ा’ नहीं है। ऐडवर्ड सईद का ख़याल है कि इस नौ’ की ज़हनी ला-तअ’ल्लुक़ी से जब्र और इस्तिहसाल और बदी हम-नवाई का एक पहलू निकलता है जो दानिश्वराना ताक़त और दियानत-दारी का दुश्मन है। गोया कि इंसान-दुश्मन है।

    इसीलिए दानिश्वराना जिहत रखने वाली किसी भी अदीब या आर्टिस्ट के लिए ना-गुज़ीर हो जाता है कि वो ताक़त और इक़्तिदार के मराकिज़ से अपने आपको दूर रख सके। सियासी मुरातिब और मनासिब का तलबगार हो। इस तरह के मनासिब शऊ’र की आज़ादी के हरीफ़ होते हैं। सईद के यादगार में,

    “I’m not saying that independence in itself is a virtue, because so many times you may be wrong, but if you are not independent, you cannot even be wrong.”

    सियासी क़द्रों के ज़वाल ने अदब और आर्ट की दुनिया में भी एक हौलनाक दरबारी कल्चर को फ़रोग़ दिया है और “अदब और आर्ट की तख़्लीक़ का जोखम उठाने वालों” के ज़मीर को दाग़-दार किया है। इनआ’मात, ए’ज़ाज़ात, मनासिब, मुराआ’त, अदब और आर्ट की तरक़्क़ी और नुमाइंदगी के लिए ऊपर से बुझाए हुए रास्तों पर और मुअ’य्यना मक़ासिद के साथ दूर-दराज़ मुल्कों के दौरे, ये तमाम बातें अदीब और आर्टिस्ट की बसीरत के गिर्द लकीरें खींचने वाली हैं, उसके शऊ’र को महदूद करने वाली और अदब या आर्ट के मुक़द्दस और पाकीज़ा मक़ासिद से तवज्जोह हटाने वाली हैं।

    इस क़िस्म की मुराआ’त और सहूलतें क़ुबूल करने में हमेशा किसी जाने-अनजाने रास्ते से ज़हनी गु़लामी के दर आने का अंदेशा होता है। और ज़हनी गु़लामी चाहे किसी फ़र्द की हो या इदारे या नज़रिए की, इंसानी ज़मीर और तख़्लीक़ी इज़हार को हमेशा रास नहीं आती। आर्ट और अदब की दुनिया में इस तरह के मसमूआ’ मुआमलात इंसान-दोस्ती के उस अ’ज़ीम तसव्वुर को भी रास नहीं आते जिसकी ता’मीर और तरवीज का क़िस्सा, तहज़ीब-ओ-तारीख़ की कई सदियों से फैला हुआ है। अपने शऊ’र और हाफ़िज़े की झुटला कर अदब और आर्ट की बा-मअ’नी तख़्लीक़ मुम्किन नहीं और ये मअ’नी बहर-हाल इंसान शनासी और इंसान-दोस्ती के दायरे में ही गर्दिश करते हैं।

    अब मैं इस मज़्मून या अपनी गुफ़्तगू के इख़ततामी हिस्से की तरफ़ आता हूँ जिसकी असास मैंने मंटो के “सियाह हाशिए” पर क़ाइम की है और जिसे आप इन मा’रूज़ात का हाशिया भी कह सकते हैं। यहाँ मेरा इशारा मंटो की उन तख़्लीक़ात की तरफ़ है जिन्हें हम अपनी इज्तिमाई ज़िंदगी के एक दिल-दोज़ वाक़िए’ और चाहें तो आ’म इंसानी मुआ’शरे में इज्तिमाई दीवानगी के एक लम्हे का तख़्लीक़ी इशारिया भी समझ सकते हैं। ये इशारिया हमें अदब और आर्ट में इंसान-दोस्ती के तसव्वुर से मुतअ’ल्लिक़ कुछ बुनियादी सवालों तक ले जाता है। इस तसव्वुर को एक नए मफ़हूम से हम-कनार करता है।

    हिन्दोस्तान और पाकिस्तान की तमाम इ’लाक़ाई ज़बानों की ब-निस्बत 1947 की तक़सीम, फिर उसके नतीजे में वाक़े’ होने वाली और इंसानी तारीख़ की सत्ह पर अपने इज्तिमाई अलमिए और अपनी ता’दाद के लिहाज़ से शायद सबसे बड़ी और वहशत-आसार हिजरत के तजरबे, मज़ीद बर-आँ-फ़सादाद और इंसानी दरिंदगी के वाक़िआ’त का अहाता उर्दू नज़्म-ओ-नस्र, ख़ासकर फ़िक्शन में, बहुत गैर-मा’मूली दिखाई देता है। हिन्दोस्तान और पाकिस्तान दोनों मुल्कों में तक़सीम, हिजरत और फ़सादाद के पस-ए-मंज़र में मिक़दार और मेया’र, दोनों के लिहाज़ से उर्दू में जो फ़िक्शन लिखा गया, बे-मिसाल है। फ़िक्शन के इस ज़ख़ीरे में अच्छी-बुरी हर तरह की चीज़ें मिल जाती हैं। उर्दू फ़िक्शन की पहली बड़ी नक़्क़ाद मुम्ताज़ शीरीं ने फ़सादाद के अदब पर अपने एक मा’रूफ़ मज़्मून का आग़ाज़ क्रिस्टोफ़रा शेरवुड के फ़िक्शन की एक मिसाल से किया है, जिसमें एक अंग्रेज़ सहाफ़ी ऑस्ट्रिया के एक किरदार (मैन) से, ऑस्ट्रिया की इज्तिमाई वारदात के सियासी पहलू की बात शुरू’ करता है, तो अपने हम-वतनों के ग़म में खोया हुआ ‘बर्गमैन’ बे-ताब हो कर चीख़ उठता है और कहता है

    “उसे सियासत से कोई वास्ता नहीं। उसका तअ’ल्लुक़ इंसानों से है, इंसानों से, इंसानी ज़िंदगी से, ज़िंदा हक़ीक़ी मर्दों और औरतों से, गोश्त और ख़ून से।”

    मंटो ने हिन्दोस्तान पाकिस्तान के बटवारे और फ़सादाद के हवाले से तक़रीबन बीस कहानियाँ लिखीं। इनमें सबसे ज़ियादा शुहरत खोल दो, ठंडा गोश्त, मूत्री, टेटवाल का कुत्ता, गुरूमुख सिंह की वसीयत, मोज़ील और टोबा टेक सिंह को मिली। मुल्की और ग़ैर-मुल्की बहुत सी ज़बानों में इनके तर्जुमे हो चुके हैं। इनमें से कुछ पर पाकिस्तान की अ’दालतों में मुक़द्दमे भी चले। इन हालात में मंटो के दिल-ओ-दिमाग़ पर जो कुछ गुज़रा उसकी तफ़्सील हौलनाक है और फ़िर्का-वाराना दरिंदगी और मज़हबी जुनून से बोझल फ़िज़ा में एक इंसान दोस्त अदीब के मौक़िफ़ की शायद सबसे अनोखी मिसाल है। अपने एक मज़्मून या रिपोर्ताज़ “ज़हमत-ए-महर-ए-दरख़्शाँ” में मंटो ने अपनी हालत का नक़्शा कुछ इस तरह खींचा है,

    “तबीअ’त में उकसाहट पैदा हुई कि लिखूँ। लेकिन जब लिखने बैठा तो दिमाग़ को मुंतशिर पाया। कोशिश के बावुजूद हिन्दोस्तान को पाकिस्तान से और पाकिस्तान को हिन्दोस्तान से अ’लैहिदा कर सका। बार-बार दिमाग़ में उलझन पैदा करने वाला सवाल गूँजता। क्या पाकिस्तान का अदब, अ’लैहिदा होगा... ? अगर होगा तो कैसे होगा। वो सब कुछ जो सालिम हिन्दोस्तान में लिखा गया था, उसका मालिक कौन है? क्या उसको भी तक़सीम किया जाएगा। क्या हिंदोस्तानियों और पाकिस्तानियों के बुनियादी मसाइल एक जैसे नहीं।

    फ़ज़ा पर मुर्दनी तारी थी। जिस तरह गर्मियों का आग़ाज़ में आसमान पर बे-मक़्सद उड़ती हुई चीलों की चीख़ें उदास होती हैं उसी तरह,

    “पाकिस्तान ज़िंदाबाद” और “क़ाईद-ए-आ’ज़म” ज़िंदाबाद के ना’रे भी कानों को उदास-उदास लगते थे।

    मैं अपने अ’ज़ीज़ दोस्त अहमद नदीम क़ासमी से मिला। साहिर लुधियानवी से मिला। इनके इ’लावा और लोगों से मिला। सब मेरी तरह ज़हनी तौर पर मफ़लूज थे। मैं ये महसूस कर रहा था कि ये जो इतना ज़बरदस्त भूंचाल आया है शायद इसके कुछ झटके आतिश-फ़िशाँ पहाड़ में अटके हुए हैं। बाहर निकल आएँ तो फ़िज़ा की नोक-पलक दुरुस्त होगी। फिर सही तौर पर मा’लूम हो सकेगा कि सूरत-ए-हालात क्या है।”

    छोटे छोटे वक़ूओं’ (Happenings), लतीफों की बैरूनी परत रखने वाले अफ़सांचों पर मुश्तमिल मजमूआ’ “सियाह हाशिए” के नाम से अक्तूबर 1948 में शाए’ हुआ था। पाकिस्तान में इक़ामत इख़्तियार करने के बा’द मंटो ने जो पहली कहानी लिखी ‘ठंडा गोश्त’ थी जिस पर मंटो से मुआ’शरती और सरकारी दोनों सत्हों पर बाज़-पुर्स की गई। पाकिस्तान में लिखा जाने वाला दूसरा अफ़साना ‘खोल दो’ था। हुकूमत के नज़दीक ये अफ़साना अम्न-ए-आ’मा के मुफ़ाद के मुनाफ़ी था लिहाज़ा इसकी इशाअ’त के जुर्म में नुक़ूश की इशाअ’त छ: महीने के लिए बंद कर दी गई। उस वक़्त तक फ़सादाद ठंडे पड़ चुके थे और पाकिस्तानी मुआ’शरे पर ज़हनी ए’तिबार से तअत्तुल की एक कैफ़ियत तारी थी। मंटो ने फ़सादाद पर मबनी ये तमाम तख़्लीक़ात बाहर की दुनिया में तारी तअत्तुल की उसी फ़िज़ा में वज़्अ’ की थीं, जब वो इस सारी वारदात को ज़रा दूर से देख सकता था, क्योंकि तूफ़ान सर से गुज़र चुका था और वो क़द्र-ए-ग़ैर-जज़्बाती अंदाज़ में अपने तजरबे का तज्ज़िया कर सकता था। इन तहरीरों में जो संगीनी और एक गहरी रची हुई तख़्लीक़ी मा’रूज़ियत का उं’सुर है वो उसी सूरत-ए-हाल का पैदा-कर्दा है।

    “सियाह हाशिए” पर हाशिया-आराई करते हुए मुहम्मद हसन अ’सकरी ने लिखा है कि, “अदब से हम उस क़िस्म के सच-झूट का मुतालिबा नहीं करते जो हम तारीख़, मआ’शियात या सियासियात की किताबों से करते हैं। अदीब से हम किसी नज़रिए या ख़ारिजी दुनिया के बारे में सच बोलने का इतना मुतालिबा नहीं करते जितना अपने बारे में सच बोलने का। अपने अंदर जो सच झूट भरा हुआ है उससे चश्म-पोशी करके सच्चा अदब पैदा नहीं किया जा सकता।”

    और ये कि, “जब तक हमें किसी फ़े’ल का इंसानी पस-ए-मंज़र मा’लूम हो, महज़ ख़ारिजी अ’मल का नज़ारा हमारे अंदर कोई देर-पा, ठोस और गहरे मा’नवियत रखने वाला रद्द-ए-अ’मल पैदा नहीं कर सकता।”

    हिन्दोस्तान में भागलपुर के फ़सादाद के दौरान कही जाने वाली कुछ नज़्मों की अपनी किताब एक शाइ’र ने मुझे इस वज़ाहत के साथ भेजी कि, “उस वक़्त जब शहर जल रहा था मैं अपने कमरे में बैठा ये नज़्में लिख रहा था।”

    ज़ाहिर है कि मेरा पहला रद्द-ए-अ’मल यही था कि आस-पास आग लगी हो तो नज़्में कहने के बजाए पहले उस आग को बुझाने की फ़िक्र करनी चाहिए और मैंने वो किताब बग़ैर पढ़े रख दी थी। इंसानी सरोकारों पर मबनी तजरबे का बा-मअ’नी बयान, इंतिशार और तशद्दुद और अबतरी के माहौल से निकलने के बा’द ही मुम्किन है। लिहाज़ा अदब में इंसान-दोस्ती के मुज़्मरात का जाएज़ा लेते वक़्त सहाफ़ती या हंगामी अदब और मुस्तहकम या पाएदार क़द्रों के हामिल अदब में फ़र्क़ को भी पेश-ए-नज़र रखना ज़रूरी है। जंग के ज़माने का अदब, ब-क़ौल-ए-औरवेल, सहाफ़त होती है। आंद्रे ज़ेद ने कहा था, “ऐसा आदमी जो अपनी शख़्सियत की ख़ातिर नौ’-ए-इंसानी का त्याग करता है बिल-आख़िर एक बुल-अ’जब, ऊट-पटांग और ना-मुकम्मल आदमी बन कर रह जाता है।”

    और ज़ाहिर है कि ना-मुकम्मल आदमी किसी आफ़ाक़ी इंसानियत सदाक़त तक नहीं पहुँच सकता।

    मंटो की ये तख़्लीक़ात (ठंडा गोश्त, खोल दो, सियाह हाशिए), जिनका ज़िक्र ऊपर किया गया सिर्फ़ फ़सादाद के बारे में नहीं हैं बल्कि इंसानों के बारे में हैं। इस फ़र्क़ को समझना यूँ ज़रूरी है कि मिसाल के तौर पर नज़रियाती या मज़हबी असास रखने वाली जंगें, नज़रियों और मज़ाहिब के माबैन होती हैं, इंसानों के माबैन नहीं होतीं क्योंकि बिल-उ’मूम, मुख़्तलिफ़ गिरोहों में बटे हुए इंसानों के मसअले बेशतर मुश्तर्क होते हैं, एक से दुख-सुख, एक सी उम्मीदें और मायूसियाँ, एक से ख़्वाब और एक सी हज़ीमतें। दूसरी आ’लमी जंग के दौरान की हिन्दुस्तानी सूरत-ए-हाल का ज़िक्र करते हुए मुम्ताज़ शीरीं ने लिखा है कि उस वक़्त कुछ लोगों ने हमारे अदीबों की ख़ामोशी और जंग से ला-तअ’ल्लुक़ी पर सवालिया निशान तो क़ाइम किया लेकिन ये हक़ीक़त भुला दी कि, “हमारे अदीब ख़ामोश सिर्फ़ इसलिए नहीं थे कि उनके ज़हनों में शुकूक और उलझनें थीं बल्कि इसलिए कि दूसरी जंग-ए-अ’ज़ीम कुर्रा-ए-अर्ज़ में लड़ी जाने के बावुजूद हिन्दोस्तान से दूर थी और अदीब के मॉडल, या’नी इंसानी ज़िंदगी... अपने गिर्द-ओ-पेश की इंसानी ज़िंदगी में कोई हलचल तो क्या, एक हल्के से तमव्वुज की कैफ़ियत भी पैदा नहीं हुई थी।”

    लेकिन फ़सादाद तो हमारे आस-पास की दुनिया में हो रहे थे और हमारे अदीबों के लिए ये मौज़ू’ अजनबी या ना-मानूस नहीं था। तक़सीम के अलमिए का जो असर आ’म इंसानी ज़िंदगी पर पड़ रहा था उसकी आँच हम सब महसूस कर रहे थे। इसमें आ’म और ख़ास का फ़र्क़ था और इस अलमिए का बुनियादी तक़ाज़ा ये था कि नज़रियाती या मज़हबी पोज़ीशन लेने के बजाए सीधी-सादी आ’म इंसानी सत्ह पर उसके बख़्शे हुए दर्द का इदराक किया जाए। लेकिन ज़ियादा-तर अफ़साने उजलत में लिखे गए और उनमें तख़्लीक़ी सत्ह पर किसी गहरे रद्द-ए-अ’मल से ज़ियादा इज़हार ऐसे जज़्बों का हुआ जो हंगामी और सहाफ़ियाना नौइ’यत के हामिल थे।

    मंटो और उसके हम-अ’स्रों की कहानियाँ एक साथ सामने रखी जाएँ तो उनका फ़र्क़ और मंटो का इम्तियाज़ समझ में आता है। अपने मुआ’सिरीन के बर-अ’क्स, मंटो ने फ़ार्मूला कहानी लिखने से गुरेज़ किया। इस क़िस्म के मसअले कि अंग्रेज़ी हुकूमत ने फ़सादाद का बीज बोया था या ये कि तक़सीम और हिजरत फ़सादाद की जड़ हैं या ये कि हिंदू, सिख, मुसलमान, सब के सब यकसाँ तौर पर क़ुसूरवार हैं इसलिए इस मौज़ू’ पर लिखते वक़्त सब का सब बराबर रखना चाहिए, ये मंटो के मसअले नहीं थे। मंटो ने तो इज्तिमाई वहशत और दीवानगी के इस माहौल में हिंदू मुसलमान से बे-नियाज़ हो कर इंसानों को समझने की कोशिश की। इस हक़ीक़त के बावुजूद कि तक़सीम के सानिहे का असर बराह-ए-रास्त मंटो की ज़िंदगी पर भी गहरा पड़ा, उसने अपनी हालत और उस फ़ज़ा में अपने बातिन की ज़मीन पर उठने वाले सवालों का अहाता इन लफ़्ज़ों में किया है,

    “अब मैं सोचता हूँ कि मैं क्या हूँ। इस मुल्क में जिसे दुनिया की सबसे बड़ी इस्लामी मम्लिकत कहा जाता है, मेरा क्या मुक़ाम है। मेरा क्या मसरफ़ है। आप इसे अफ़साना कह लीजिए। मगर मेरे लिए ये एक तल्ख़ हक़ीक़त है कि मैं अभी तक ख़ुद को अपने मुल्क में जिसे पाकिस्तान कहते हैं और जो मुझे बहुत अ’ज़ीज़ है, अपना सही मुक़ाम तलाश नहीं कर सका। यही वज्ह है कि मेरी रूह बेचैन रहती है। यही वज्ह है कि मैं कभी पागलखाने और कभी हस्पताल में होता हूँ।”

    “सियाह हाशीए पर हाशिया-आराई” के उ’नवान से इज़हार-ए-ख़याल करते हुए मुहम्मद हसन अ’सकरी ने एक बुनियादी सच्चाई की तरफ़ भी इशारा किया है कि मंटो को इन अफ़्सानों के असरात के बारे में ग़लत-फ़हमियाँ हैं, उन्होंने ऐसी ज़िम्मेदारी अपने सर ली जो अदब पूरी कर ही नहीं सकता। उन्होंने ज़ालिमों पर ला’नत भेजी मज़लूमों पर आँसू बहाए। उन्होंने तो ये तक नहीं कहा कि ज़ालिम लोग बुरे हैं या मज़लूम अच्छे हैं।”

    उनका नुक़्ता-ए-नज़र सियासी है, उ’मरानी, अख़्लाक़ी बल्कि अदबी और तख़्लीक़ी। मंटो ने सिर्फ़ ये देखने की कोशिश की है कि ज़ालिम या मज़लूम की शख़्सियत के मुख़्तलिफ़ तक़ाज़ों से ज़ालिमाना फ़े’ल का क्या तअ’ल्लुक़ है। ज़ुल्म करने की ख़्वाहिश के इ’लावा ज़ालिम के अंदर और कौन-कौन से मैलानात कार-फ़रमा हैं। इंसानी दिमाग़ में ज़ुल्म कितनी जगह घेरता है, ज़िंदगी की दूसरी दिलचस्पियाँ बाक़ी रहती हैं या नहीं, मंटो ने तो रहम के जज़्बात भड़काए हैं ग़ुस्से के नफ़रत के वो तो आपको सिर्फ़ इंसानी दिमाग़, इंसानी किरदार और शख़्सियत पर अदबी और तख़्लीक़ी अंदाज़ से ग़ौर करने की दा’वत देते हैं। अगर कोई जज़्बा पैदा करने की फ़िक्र में हैं तो सिर्फ़ वही जज़्बा जो एक फ़नकार को जाइज़ तौर पर पैदा करना चाहिए... या’नी ज़िंदगी के मुतअ’ल्लिक़ बे-पायाँ तहय्युर और इस्तिजाब। फ़सादाद के मुतअ’ल्लिक़ जितना भी लिखा गया है उसमें अगर कोई चीज़ इंसानी दस्तावेज़ कहलाने की मुस्तहिक़ है तो ये अफ़साने हैं।

    अदब में इंसान-दोस्ती के तसव्वुर की सबसे गहरी और पाएदार जिहत दर-अस्ल इसी ज़ाविए से निकलती है। रिक़्क़त-ख़ेज़ी या तरह्हुम या मिसाल-परस्ती की सत्ह से ये सत्ह बिल्कुल अलग है और अपने ला-ज़वाल इंसानी उं’सुर के साथ-साथ लिखने वाले की अपने हक़ीक़ी मंसब (या’नी तख़्लीक़ी अ’मल) के तईं दियानत-दारी और ज़िम्मेदारी के एहसास की गवाही भी देती है। मेरे ख़याल में ये मुनासिब होगा कि इस गुफ़्तगू को ख़त्म मंटो के सियाह हाशिए की दो-एक मिसालों के साथ किया जाए।

    “चलती गाड़ी रोक ली गई। जो दूसरे मज़हब के थे उनको निकाल-निकाल कर तलवारों और गोलियों से हलाक कर दिया गया। इससे फ़ारिग़ हो कर गाड़ी के बाक़ी मुसाफ़िरों की हलवे दूध और फलों से तवाज़ो’ की गई। गाड़ी चलने से पहले तवाज़ो’ करने वालों के मुंतज़िम ने मुसाफ़िरों को मुख़ातिब करके कहा, “भाईयो और बहनो! हमें गाड़ी की आमद की इत्तिला’ बहुत देर में मिली। यही वज्ह है कि हम जिस तरह चाहते थे इस तरह आपकी ख़िदमत कर सके।” (कसर-ए-नफ़सी, सियाह हाशिए)

    “जब हमला हुआ तो मुहल्ले में से अक़्लियत के कुछ आदमी तो क़त्ल हो गए। जो बाक़ी थे जानें बचा कर भाग निकले। एक आदमी और उसकी बीवी अलबत्ता अपने घर के तह-ख़ाने में छिप गए। दो दिन और दो रातें पनाह-याफ़्ता मियाँ बीवी ने क़ातिलों की मुतवक़्क़े’ आमद में गुज़ार दीं। मगर कोई आया। चार दिन बीत गए। मियाँ बीवी को ज़िंदगी और मौत से कोई दिलचस्पी रही। वो दोनों जा-ए-पनाह से बाहर निकल आए। ख़ाविंद ने बड़ी नहीफ़ आवाज़ में लोगों को अपनी तरफ़ मुतवज्जेह किया और कहा, “हम दोनों अपने आप को तुम्हारे हवाले करते हैं। हमें मार डालो।” जिनको मुतवज्जेह किया गया था वो सोच में पड़ गए “हमारे धरम में तो जीव हत्या पाप है।” वो सब जैनी थे लेकिन उन्होंने आपस में मश्वरा किया और मियाँ बीवी को मुनासिब कारवाई के लिए दूसरे मुहल्ले के आदमियों के सपुर्द कर दिया।” (मुनासिब कारवाई, सियाह हाशिए)

    गाड़ी रुकी हुई थी। तीन बंदूक़्ची एक डिब्बे के पास आए। खिड़कियों में से अंदर झाँक कर उन्होंने मुसाफ़िरों से पूछा, “क्यों जनाब कोई मुर्ग़ा है।” एक मुसाफ़िर कुछ कहते-कहते रुक गया। बाक़ियों ने जवाब दिया, “जी नहीं।” थोड़ी देर बा’द चार-नेज़ा बर्दार आए। खिड़कियों में से अंदर झांक कर उन्होंने मुसाफ़िरों से पूछा, “क्यों जनाब कोई मुर्ग़ा-वुरग़ा है? उस मुसाफ़िर ने जो पहले कुछ कहते-कहते रुक गया था। जवाब दिया, “भई मा’लूम नहीं है आप अन्दर के संडास में देख लीजिए।” नेज़ा-बर्दार अंदर दाख़िल हुए। संडास तोड़ा गया तो उसमें से एक मुर्ग़ा निकल आया। एक नेज़ा बर्दार ने कहा, “कर दो हलाल।” दूसरे ने कहा “नहीं। यहाँ नहीं डिब्बा ख़राब हो जाएगा... बाहर ले चलो।” (सफ़ाई-पसंदी, सियाह हाशिए)

    यहाँ इन कहानियों की तशरीह या इन तजरबात के सिलसिले में किसी तरह की वज़ाहत ग़ैर-ज़रूरी है। ताहम इस जुमले के साथ मैं अब ये गुफ़्तगू ख़त्म करता हूँ कि दर्द और दहशत से भरे हुए इन वाक़िआ’त से ज़ियादा दर्द और दहशत यहाँ “मुनासिब कारवाई” या “सफ़ाई पसंदी” और “कसर-ए-नफ़सी” के उन तसव्वुरात में छिपी हुई है, जिनका इज़हार मुतअ’ल्लिक़ा किरदारों की तरफ़ से हुआ है। इंसान-दोस्ती का ज़ाविया ये भी है और इस ज़ाविए तक रसाई के लिए मंटो ने सिर्फ़ अपनी बसीरत को रू-नुमा बनाया है। हत्या को पाप समझने वाले “मुनासिब कारवाई” के लिए क़ातिलों का सहारा ले सकते हैं और ऐसे लोग भी क़ातिल हो सकते हैं जिनमें सफ़ाई और गंदगी की तमीज़ बाक़ी हो। मंटो ने अपनी इंसान-दोस्ती का मवाद, वजूद की इसी भूल-भुलय्याँ में से ढूँढ निकाला है... कि इसकी तलाश, बहर-हाल, एक अदीब की और एक तख़्लीक़ी आदमी की तलाश थी ये तलाश हमें बताती है कि अदब का मुताला’ पहले से तय-शुदा किसी सियासी, समाजी या इ’ल्मी दस्तावेज़ का नेम-उल-बदल नहीं होता।

    स्रोत:

    मन्टो: हक़ीकत से अफ़्साने तक (Pg. 225)

    • लेखक: शमीम हनफ़ी
      • प्रकाशक: दिल्ली किताब घर, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 2012

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