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कलाम-ए-अकबर पर एक नज़र

प्रेमचंद

कलाम-ए-अकबर पर एक नज़र

प्रेमचंद

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    वली और मीर से लेकर अमीर-ओ-दाग़ तक उर्दू ज़बान ने जो रंग बदले हैं वो एशियाई शाइ’र के माहिरीन से मख़्फ़ी नहीं हैं। बेशक तख़य्युलात-ए-शाइ’री में ब-जुज़-ग़ालिब के कोई जदीद रविश नहीं इख़्तियार की गई। ताहम मुहावरात, बन्दिश, और उस्लूब-ए-बयान में मुख़्तलिफ़ शोअ’रा में नुमायाँ फ़र्क़ पाया जाता है। वली ने जिन ख़यालात को लिया है वो हैं तो बहुत बुलन्द लेकिन उनकी तरकीबों और इस ज़माने की तरकीबों में बड़ा फ़र्क़ है। मीर-ओ-सौदा और इन्शा का रंग भी अलग-अलग है लेकिन रफ़्तार-ए-ख़याल की शाहराह एक ही है या’नी अक्सर ख़यालात भाषा और फ़ारसी से मिलते हुए हैं और ऐसे ख़यालात भी हैं जो फ़ारसी से मुक़्तबस नहीं कहे जा सकते।

    सद-हा मुहावरात और तरकीबें फ़ारसी से जुदा हैं। तमाम मशाहीर असातिज़ा-ए-उर्दू ने दर्सियात-ए-फ़ारसी और कुतुब-ए-मुतदावला-ए-अ’रबी पढ़ी हैं और अ’रबी में अगर तबह्हुर नहीं हासिल किया है तो कम से कम फ़ारसी और सर्फ़-ओ-नह्‌व पढ़ी है। क्योंकि बग़ैर इस क़दर तहसील के मज़ाक़-ए-सलीम और इदराक सही नहीं हो सकता। और बा’ज़े शोअ’रा-ए-उर्दू तो फ़ाज़िलाना क़ाबिलियत रखते थे मगर ये सब ख़याल-बन्दी और मआ’नी-आफ़रीनी में फ़ारसी शोअ’रा के मुक़ल्लिद थे और गुज़िश्ता असातिज़ा-ए-उर्दू का तर्ज़-ए-मुआ’शरत भी क़दीम और उस ज़माने से बिल्कुल अलग था। और दाग़ और मीर ने जिस ज़माने में नाम हासिल किया गो उस ज़माने की तहज़ीब मीर वग़ैरह के ज़माने से हट गई थी लेकिन वो उससे मुतअस्सिर नहीं हुए और इसका बड़ा सबब ये था कि वो न ख़ुद अंग्रेज़ थे और न उनकी सरकारें अंग्रेज़ी मज़ाक़ रखती थीं। इस वज्ह से उनका कलाम क़दीम रंग पर था।

    लेकिन जनाब-ए-अकबर क़दीम उ’लूम के अ’लावा अंग्रेज़ी ज़बान के भी माहिर हैं और इसी मुनासिबत से जनाब-ए-अकबर ने अपने कलाम में जा-ब-जा अंग्रेज़ी ज़बान के अल्फ़ाज़ को भी खपाया है और कहीं कहीं ये तरकीब निहायत दिल-आवेज़ है। ज़रीफ़ाना रंग के अशआ’र में ये तरकीबें सोने में सुहागा हो गई हैं। लेकिन ज़ियादा-तर ग़ज़लें ब-पाबन्दी-ए-तख़य्युल-ए-क़दीम कही गई हैं। अक्सर अशआ’र मीर-ओ-मिर्ज़ा और ग़ालिब के रंग के हैं। कुछ ग़ज़लें जनाब-ए-अकबर ने अपने ख़ास रंग में कही हैं जो नाज़रीन आगे चल कर मुलाहिज़ा फ़रमाएँगे।

    ज़माना-ए-हाल की उर्दू शाइ’री एक अ’जीब कश्मकश में गिरफ़्तार है। अंग्रेज़ी ता’लीम का ख़यालात पर ऐसा मक़्नातीसी असर हुआ है कि लोग पुरानी बातों से बेज़ार हो गए हैं। नज़्म-ए-उर्दू में भी यही कैफ़ियत नुमायाँ है। और शोअ’रा-ए-हाल की साफ़-साफ़ दो जमाअ’तें हो गई हैं। दाग़ और हाली के तुफ़ैल में शोअ’रा-ए-उर्दू के एक दूसरे से मुतज़ाद दो स्कूल क़ाइम हुए जो कई लिहाज़ से “दरबारी” और “गवरमेंटी” या “स्कूली” नाम से नामज़द हो सकते हैं। इन दोनों तबक़ों में बा’द-उल-मुशरक़ैन है। एक ने क़दामत-परस्ती की क़सम खा ली है। और दूसरे हैं कि जिद्दत-पसन्दी और आज़ादी पर मिटे हुए हैं। इक़्लीम-ए-सुख़न में इन दोनों मुतज़ाद जमाअ’तों की ब-दौलत एक तरह का तहलका मचा हुआ है। मुल्क में एक तरफ़ तो दरबार-ए-सुख़न से उनके निकालने की फ़िक्‍र हो रही है, कलमा-ए-तक्फ़ीर पढ़ा जा रहा है। और दूसरी जानिब उनके हुक़ूक़-ए-शाइ’राना पर झगड़ा बरपा है। आ’म शाइक़ीन-ए-सुख़न इन दोनों को ज़रूरत से ज़ियादा जोशीला पाते हैं, और ए’तिदाल पसन्द करते हैं। यही हर-दिल-अ’ज़ीज़ होता भी है।

    इसमें शक नहीं कि पुराने क़िस्सों, और इस्तिआ’रों और तश्बीहों के महज़ दुहराने से मौजूदा ज़माने के लोग मस्‍रूर क्या मुत्मइन भी नहीं हो सकते। दिल शाइ’री से लफ़्ज़ों के उलट-फेर के सिवा कुछ और की भी तवक़्क़ो’ रखता है। साथ ही इसके अभी बिल्कुल आज़ादी भी मुनासिब नहीं जो नज़्म की अशद ज़रूरी क़ुयूद का भी लिहाज़ न रखा जाए। निरे वा’ज़-ए-ख़ुश्क क़ुबूल-ए-ख़ातिर नहीं होते। नज़्म से लोग ज़ाहिर फ़ाइदे के ब-निस्बत मसर्रत की ज़ियादा उम्मीद रखते हैं। मगर इस पहलू को बिल्कुल नज़र अन्दाज़ करना भी ख़िलाफ़-ए-म​िस्लहत है।

    शुक्‍र है कि इन दोनों जमाअ’तों के बैन-बैन चन्द ऐसे शोअ’रा भी हैं जिन्होंने ज़बान और नज़्म पर क़ादिर-उल-कलाम होने के साथ साथ ज़रूरियात-ए-ज़माना को भी ब-ख़ूबी महसूस कर लिया है और उनमें हम जनाब ख़ान बहादुर सय्यद अकबर हुसैन साहब जज इलाहाबाद का दर्जा बहुत ऊँचा पाते हैं। आपने ज़माने के ख़यालात और ज़रूरियात का सही अन्दाज़ा कर लिया है। उनके कलाम में दोनों रंग ए’तिदाल के साथ मौजूद हैं। और इसी वज्ह से आपकी शाइ’री इस दर्जा मक़्बूल-ए-ख़ास-ओ-आ’म है। आपको दिलचस्पी और दिल-फ़रेबी के लिहाज़ से पुराने तर्ज़-ए-सुख़न का भी पास है और इसके साथ ही ख़यालात में उसके तंग हुदूद की पाबन्दी मन्ज़ूर नहीं। इसी वज्ह से आपका कलाम मौजूदा मेया’र-ए-शाइ’री के मुताबिक़ है। उसमें एशियाई अन्दाज़-ए-बयान में मग़रिबी ख़यालात के आ’ला-तरीन नमूने मिलते हैं। मौजूदा ज़िन्दगी के मुख़्तलिफ़ मसाइल पर भी ख़ातिर-ख़्वाह हिदायत और हम-दर्दी होती है। जज़्बात-ए-इन्सानी की भी झलक रहती है। और क्या अ’जब है कि कुछ दिनों में मुल्क के मुख़्तलिफ़ असरात आपके अन्दाज़-ए-सुख़न पर मुस्तक़िल तौर से क़ाइम हो जाएँ। और इस तरह मैदान-ए-नज़्म के मौजूदा फ़रीक़ मिलकर एक हो जाएँ।

    मगर फ़िलहाल कश्मकश जारी है। और इसको जनाब-ए-अकबर ने एक निहायत लतीफ़ पैराए में बयान किया है, 

    क़दीम वज़्अ’ पे क़ाइम रहूँ अगर अकबर
    तो साफ़ कहते हैं ‘सय्यद’ ये रंग है मैला

    जदीद तर्ज़ अगर इख़्तियार करता हूँ
    ख़ुद अपनी क़ौम मचाती है शोर-ओ-वावैला

    जो ए’तिदाल की कहिए तो वो इधर न उधर
    ज़ियादा हद से दिए सबने पाँव हैं फैला

    इधर ये ज़िद है कि लैमन्ड भी छू नहीं सकते
    उधर ये धुन है कि ‘साक़ी सुराही-ए-मय ला’

    इधर है दफ़्तर-ए-तदबीर-ओ-म​िस्लहत नापाक
    उधर है वही-ए-विलाएत की डाक का थैला

    ग़रज़ दो-गूना ग़िज़ा बस्त जान-ए-मजनूँ रा
    बला-ए-सोहबत-ए-लैला-ओ-फ़ुर्क़त-ए-लैला

    मगर इस मुश्किल को अकबर ने निहायत ख़ुश-उस्लूबी के साथ आसान कर दिखाया है और हर शख़्स अपने-अपने मज़ाक़ के मुवाफ़िक़ आपके कलाम से अशआ’र का इन्तिख़ाब कर सकता है। इ’श्क़-ओ-मोहब्बत के जिन जज़्बात को आपने मौज़ूँ किया है वो निहायत ख़ूबी से नज़्म किए गए हैं। तग़ज़्ज़ुल का रंग ऐसा प्यारा है कि आ’शिक़-मिज़ाज सुख़न-फ़हम आपका कलाम पढ़ कर बेचैन हो सकता है। कलाम में बे-साख़्तगी ही वो शय है जो दिलों को अपनी तरफ़ खींचती है। जनाब-ए-अकबर के दीवान में अक्सर अशआ’र तीर-ओ-नश्तर का काम देने वाले हैं। अशआ’र का मफ़्हूम क़रीन-ए-क़यास है और मुबालग़ा भी बिल्कुल दूर-अज़-क़यास नहीं बल्कि ख़ुश-आइन्द। वो तमाम ख़ूबियाँ जो एक कुहना-मश्क़ और ख़ुश-फ़िक्‍र शाइ’र के कलाम में होना चाहिए, आपकी कुल्लियात में मौजूद हैं।

    आपका कुल्लियात चालीस साल की मेहनत का नतीजा है। ग़ज़लें, रूबाईयात, क़तआ’त-ओ-मसनवियात, ज़रीफ़ाना और मुतफ़र्रिक़ अशआ’र का एक दिलचस्प मज्मूआ’ है। ये ज़रूर है कि कुल्लियात बा-ए’तिबार तर्तीब इस क़ाबिल है कि तब्अ’-ए-सानी में इसकी इस्लाह कर दी जाए लेकिन इस बात को नफ़स-ए-मत्‍लब से ज़ियादा तअ’ल्लुक़ नहीं है। मुबस्सिर और नक़्क़ाद-ए-सुख़न तो कलाम की ख़ूबियों को देखता है और इस लिहाज़ से ये कुल्लियात बहुत ही क़ाबिल-ए-क़द्‌र है। इसकी इशाअ’त से एशियाई शाइ’री में मौजूदा ज़माने के मुवाफ़िक़ मा’क़ूल इज़ाफ़ा हुआ है। कुछ मुख़्तसर इन्तिख़ाब मुलाहिज़ा हो, 

    मिरी हक़ीक़त-ए-हस्ती ये मुश्त-ए-ख़ाक नहीं
    बजा है मुझसे जो पूछे कोई पता मेरा

    दर-हक़ीक़त ये शे’र अपने मफ़्हूम के ए’तिबार से बहुत बलीग़ है। वाक़ई’ इन्सान की हस्ती फ़क़त मुश्त-ए-ख़ाक ही नहीं, आ’रिफ़ मुश्त-ए-ख़ाक की हक़ीक़त को समझ सकता है और इसी वास्ते एक इस्लाम लीडर (पेशवा) ने कहा है मन अ’रफ़ नफ़्सहु फ़क़द अ’रफ़ रब्बहु या’नी जिसने अपने नफ़स को पहचाना उसने अपने रब को पहचाना। मिसरा-ए-सानी साफ़ है और तालिब-ए-हक़ीक़त को चाहते हैं कि काश वो इस रम्ज़ को दरियाफ़्त करे। एक उर्दू शे’र में ये नाज़ुक-ख़याली मा’मूली बात नहीं है।

    पैगंबर-ए-इस्लाम सलअ’म की ना’त में ये अशआ’र ख़ूब कहे हैं, 

    दर-फ़िशानी ने तिरी क़त्‍रों को दरिया कर दिया
    दिल को रौशन कर दिया आँखों को बीना कर दिया

    ख़ुद न थे जो राह पर औरों के हादी बन गए
    क्या नज़र थी जिसने मुर्दों को मसीहा कर दिया

    हमराज़

    दिल मिरा जिससे बहलता कोई ऐसा न मिला
    बुत के बन्दे मिले अल्लाह का बन्दा न मिला

    वारफ़्तगी-ए-इ’श्क़

    वाह क्या राह दिखाई है हमें मुर्शिद ने
    कर दिया का’बे को गुम और कलीसा न मिला

    इसी ज़मीं में दो ज़राफ़त-आमेज़ शे’र हैं, 

    रंग चेहरे का तो कॉलेज ने भी रक्खा क़ाइम
    रंग-ए-बातिन में मगर बाप से बेटा न मिला

    सय्यद उट्ठे जो गज़ट ले के तो लाखों लाए
    शैख़ क़ुरआन दिखाते फिरे पैसा न मिला

    अगर ये शे’र ग़ज़ल से अलग किसी नज़्म में शामिल किए जाते तो दिलचस्पी बढ़ जाती मगर जनाब-ए-अकबर की बे-तकल्लुफ़ तबीअ’त ने इसका ख़याल नहीं किया। आ’शिक़ाना रंग में ये अशआ’र क़ाबिल-ए-दाद हैं और ख़ूबी ये कि इनमें तसव्वुफ़ की झलक भी मौजूद है, 

    ग़ुन्चा-ए-दिल को नसीम इ’श्क़ ने वा कर दिया
    मैं मरीज़-ए-होश था मस्ती ने अच्छा कर दिया

    दीन से इतनी अलग हद्द-ए-फ़ना से यूँ क़रीब
    इस क़दर दिलचस्प क्यों फिर रंग-ए-दुनिया कर दिया

    सब के सब माहिर हुए वहम-ओ-ख़िरद होश-ओ-तमीज़
    ख़ाना-ए-दिल में तुम आओ हमने पर्दा कर दिया

    तौहीद
    तसव्वुर उसका जब बँधा तो फिर नज़र में क्या रहा
    न बह्‌स-ए-ईन-ओ-आँ रही न शोर-ए-मा-सिवा रहा

    जो मिल गया वो खाना दाता का नाम जपना
    इसके सिवा बताऊँ क्या तुमसे काम अपना

    आ’शिक़ाना
    अ’क़्ल को कुछ न मिला इ’ल्म में हैरत के सिवा
    दिल को भाया न कोई रंग मोहब्बत के सिवा

    बढ़ने तो ज़रा दो असर-ए-जज़्बा-ए-दिल को
    क़ाइम नहीं रहने का ये इन्कार तुम्हारा

    बाइ’स-ए-तस्कीं न था बाग़-ए-जहाँ का कोई रंग
    जिस रविश पर मैं चला आख़िर परेशाँ हो गया

    जनाब-ए-अकबर ने ये शे’र ख़ूब कहा है और गोया ग़ालिब के मज़्मून को दूसरे पैराए से नज़्म किया है, 

    बू-ए-गुल नाला-ए-दिल दूद-ए-चराग़-ए-महफ़िल
    जो तिरी बज़्म से निकला सो परीशाँ निकला

    दराज़ी-ए-उ’म्‍र की शिकायत
    बस यही दौलत दी तूने ऐ उ’म्‍र-ए-अज़ीज़
    सीना इक गंजीना-ए-दाग़-ए-अ’ज़ीज़ाँ हो गया

    है ग़ज़ब जल्वा दैर-ए-फ़ानी का
    पूछना क्या है इसके बानी का

    होश भी बार है तबीअ’त पर
    क्या कहूँ हाल ना-तवानी का

    मा’रिफ़त
    नसीम मस्ताना चल रही है चमन में फिर रुत बदल रही है
    सदा ये दिल से निकल रही है वही है ये गुल खिलाने वाला

    तर्क-ए-तअ’ल्लुक़
    ख़ुदी गुम कर चुका हूँ अब ख़ुशी-ओ-ग़म से क्या मत्‍लब
    तअ’ल्लुक़ होश से छोड़ा तो फिर आ’लम से क्या मत्‍लब

    जिसे मरना न हो वो हश्‍र तक की फ़िक्‍र में उलझे
    बदलती है अगर दुनिया तो बदले हमसे क्या मत्‍लब

    मिरी फ़ित्‍रत में मस्ती है हक़ीक़त में है दिल मेरा
    मुझे साक़ी की क्या हाजत है जाम-ए-जम से क्या मत्‍लब

    दिल हो वफ़ा-पसन्द नज़र हो हया-पसन्द
    जिस हुस्न में ये वस्फ़ हो वो है ख़ुदा-पसन्द

    तोड़ों पे तेरे झूमने लगती है शाख़-ए-गुल
    बेहद है तेरा नाच मुझे ऐ सबा पसन्द

    उर्दू के सिलसिले में बा’ज़ फ़ारसी ग़ज़लें भी दर्ज कर दी गई हैं और इन्साफ़ ये है कि जनाब-ए-अकबर फ़ारसी में भी एक ज़बान-दाँ की हैसियत से कहते हैं। दो एक शे’र मुलाहिज़ा हों, 

    वक़्त-ए-बहार गुल दिलम अज़-होश दूर बूद
    मौज-ए-नसीम दुश्मन-ए-शम्अ’-ए-शऊ’र बूद

    यक जल्वा गिर्द-ओ-सूरत-ए-परवाना सोख़्तम
    आ रही हमीं इ’लाज दिल-ए-ना-सबूर बूद

    ख़ुश-बूद आँ ज़माँ ख़ुदी-अज़-ख़ुद-ख़बरनदाश्त
    होशम-ब-ख़्वाब बूद दिलम अज़-हुज़ूर बूद

    उर्दू
    मौक़ूफ़ कुछ नहीं है फ़क़त मय-परस्त पर
    ज़ाहिद को भी है वज्द तिरी चश्म-ए-मस्त पर

    उस बावफ़ा को हश्‍र का दिन होगा रोज़-ए-वस्ल
    क़ाइम रहा जो दह्‌र में अ’हद-ए-अलस्त पर

    जदीद तर्कीब और ज़रीफ़ाना रंग में ये मत्ला’ मुलाहिज़ा हो, 
    मील-ए-नज़र है ज़ुल्फ़ मस-ए-कज-कुलाह पर
    सोना चढ़ा रहा हूँ मैं तार-ए-निगाह पर

    आ’शिक़ी और उम्मीद
    तब्अ’ करती है तिरे इ’श्क़ की ताईद हनूज़
    इन जफ़ाओं पे भी टूटी नहीं उम्मीद हनूज़

    दूसरा शे’र अक्सर हिंदोस्तानियों के हस्ब-ए-हाल है, 

    न ख़ुशी होती है दिल को न तबीअ’त को उभार
    फिर भी सालाना किए जाते हैं हम ई’द हनूज़

    शब-ए-फ़िराक़ का मन्ज़र
    शब-ए-फ़िराक़ की ख़याली तस्वीर शोअ’रा ने मुख़्तलिफ़ अन्दाज़ से उतारी है। ग़ालिब ने इस ख़याल को यूँ नज़्म किया है, 

    दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई
    इक शम्अ’ रह गई है सो वो भी ख़मोश है

    जनाब-ए-अकबर ने भी इस ख़याल को असर-अन्दाज़ लहजे से मौज़ूँ किया है, 

    नहीं कोई शब-ए-तार-ए-फ़िराक़ में दिल-सोज़
    ख़मोश शम्अ’ है ख़ुद जल रहे हैं शाम से हम

    निगाह-ए-पीर-ए-मुग़ाँ कहती है मुरीदों से
    रह-ए-सुलूक में वाक़िफ़ हैं हर मुक़ाम से हम

    जनाब-ए-अकबर का ये शे’र हाफ़िज़ शीराज़ी के इस शे’र के मफ़्हूम के क़रीब-क़रीब है, 

    ब-मय सज्जादा रंगीं कुन गरत पीर-ए-मुग़ाँ गोयद
    कि सालिक बे-ख़बर न बूद ज़े-राह-ओ-रस्म-ए-मंज़िल-हा

    इन्क़िलाब-ए-ज़माना
    फ़लक के दौर में हारे हैं बाज़ी-ए-इक़बाल
    अगरचे शाह थे बदतर हैं अब ग़ुलाम से हम

    नाज़ुक-ख़याली
    मिरी बे-ताबियाँ भी ख़ुद हैं इक मीर-ए-हस्ती की
    ये ज़ाहिर है कि मौजें ख़ारिज-अज़-दरिया नहीं होतीं

    अफ़्सुर्दा-दिली
    हुआ हूँ इस क़दर अफ़्सुर्दा रंग-ए-बाग़-ए-हस्ती से
    हवाएँ फ़स्ल-ए-गुल की भी नशात-अफ़्ज़ा नहीं होतीं

    क़ज़ा के सामने बेकार होते हैं हवास अकबर
    खुली होती हैं गो आँखें मगर बीना नहीं होतीं

    आज़ादी के लाले
    इतनी आज़ादी भी ग़नीमत है
    साँस लेता हूँ बात करता हूँ

    मुश्किलात-ए-हक़-शनासी
    मा’रिफ़त ख़ालिक़ की आ’लम में बहुत दुश्वार है
    शहर-ए-तन में जबकि ख़ुद अपना पता मिलता नहीं

    दोस्तों की याद
    ज़िन्दगानी का मज़ा मिलता था जिनकी बज़्म में
    उनकी क़ब्‍रों का भी अब मुझको पता मिलता नहीं

    दश्त-ए-ग़ुर्बत की बे-कसी
    बे-कसी मेरी न पूछ ऐ जादा-ए-राह-ए-तलब
    कारवाँ कैसा कि कोई नक़्श-ए-पा मिलता नहीं

    यूँ कहो मिल आऊँ उनसे लेकिन ‘अकबर’ सच ये है
    दिल नहीं मिलता तो मिलने का मज़ा मिलता नहीं

    आ’शिक़ाना ज़िन्दगी
    दिल ज़ीस्त से बेज़ार है मा’लूम नहीं क्यों
    सीने पे नफ़स बार है मा’लूम नहीं क्यों

    जिससे दिल-ए-रन्जूर को पहुँची है अज़ीयत
    फिर उस का तलबगार है मा’लूम नहीं क्यों

    अन्दाज़ तो उ’श्शाक के पाए नहीं जाते
    अकबर जिगर-अफ़्गार है मा’लूम नहीं क्यों

    ज़ैल की तरह में आपने एक तूलानी ग़ज़ल लिखी है और ख़ूब ख़ूब शे’र निकाले हैं। ग़ालिबन ये ग़ज़ल मुशाइ’रा (मुक़ाम परियाँवाँ) में कही है। ये सारी ग़ज़ल मुरस्सा’ है। दो-तीन शे’र मुलाहिज़ा हों, 

    हिज्‍र की रात यूँ हूँ मैं हसरत-ए-क़द-ए-यार में
    जैसे लहद में हो कोई हश्‍र के इन्तिज़ार में

    रंग-ए-जहाँ के साथ काश मेरी भी यूूँही हो बसर
    जैसे गुल-ओ-नसीम की निभ गई चाह-प्यार में

    आँख की ना-तवानियाँ हुस्न की लन्तरानियाँ
    फिर भी हैं जाँ-फ़िशानियाँ कूचा-ए-इन्तिज़ार में

    तर्ग़ीब-ए-दुरुस्ती-ए-अख़्लाक़

    आइना रख दे बहार-ए-ग़फ़लत-अफ़्ज़ा हो चुकी
    दिल सँवार अपना जवानी में ख़ुद-आरा हो चुकी

    ख़ाना-ए-तन की ख़राबी पर भी लाज़िम है नज़र
    ज़ीनत-ए-आराइश-ए-क़स्‍र-ए-मुअ’ल्ला हो चुकी

    बे-ख़ुदी की देख लज़्ज़त करके तर्क-ए-आरज़ू
    हो चुकी हद्द-ए-हवस मश्क़-ए-तमन्ना हो चुकी

    चल बसे यारान-ए-हमदम उठ गए प्यारे अ’ज़ीज़
    आख़िरत की अब कर अकबर फ़िक्‍र-ए-दुनिया हो चुकी

    अ’यादत को आए शिफ़ा हो गई
    अ’लालत हमारी दवा हो गई

    पढ़ी याद-ए-रुख़ में जो मैंने नमाज़
    अ’जब हुस्न के साथ अदा हो गई

    बुतों ने भुलाया जो दिल से मुझे
    मिरे साथ याद-ए-ख़ुदा हो गई

    मरीज़-ए-मोहब्बत तिरा मर गया
    ख़ुदा की तरफ़ से दवा हो गई

    न था मन्ज़िल-ए-आ’फ़ियत का पता
    क़नाअ’त मिरी रहनुमा हो गई

    इशारा किया बैठने का मुझे
    इ’नायत की आज इन्तिहा हो गई

    दवा क्या कि वक़्त-ए-दुआ’ भी नहीं
    तिरी हालत अकबर ये क्या हो गई

    हक़ीक़त-ए-आ’लम

    दो-आ’लम की बिना क्या जाने क्या है
    निशान-ए-मा-सिवा क्या जाने क्या है

    मिरी नज़रों में है अल्लाह ही अल्लाह
    दलील-ए-मा-सिवा क्या जाने क्या है

    जुनून-ए-इ’श्क़ में हम काश मुब्तला होते
    ख़ुदा ने अ’क़्ल जो दी थी तो बा-ख़ुदा होते

    लुत्फ़-ए-ज़बाँ
    ये ख़ाकसार भी कुछ अ’र्ज़-ए-हाल कर लेता
    हुज़ूर अगर मुतवज्जह इधर ज़रा होते

    ये उनकी बे-ख़बरी ज़ुल्म से भी अफ़्ज़ूँ है
    अब आरज़ू है कि वो माइल-ए-जफ़ा होते

    बे-सबाती-ए-आ’लम
    दो ही दिन में रुख़-ए-गुल ज़र्द हुआ जाता है
    चमन-ए-दह्‌र से दिल सर्द हुआ जाता है

    रक़ाबत
    मेरे हवास इ’श्क़ में क्या कम हैं मुन्तशिर
    मज्नूँ का नाम हो गया क़िस्मत की बात है

    तअ’ल्लुक़ात-ए-हुस्न-ओ-इ’श्क़
    सौ रंग तसव्वुर में हम ऐ जान दर आए
    हर रंग में तुम आफ़त-ए-ईमान नज़र आए

    आ’शिक़ाना
    दम लबों पर था दिल-ए-ज़ार के घबराने से
    आ गई जान में जान आपके आ जाने से

    इन्क़िलाब-ए-ज़माना और फ़ुक़दान-ए-इत्तिफ़ाक़

    कल तक मोहब्बतों के चमन थे खिले हुए
    दो दिल भी आज मिल नहीं सकते मिले हुए

    तुम्हीं से हुई मुझको उल्फ़त कुछ ऐसी
    न थी वर्ना मेरी तबीअ’त कुछ ऐसी

    गिरे मेरी नज़रों से ख़ूबान-ए-आ’लम
    पसन्द आ गई तेरी सूरत कुछ ऐसी

    ज़ैल की ग़ज़ल में क़ाफ़िया-ओ-रदीफ़ किस क़दर चस्पाँ है। नाज़ुक-ख़याली के साथ तग़ज़्ज़ुल की शान भी देखने के क़ाबिल है, 

    दर्द-ए-दिल भी न था सोज़िश-ए-जिगर भी न थी
    इन आफ़तों की तो उल्फ़त में कुछ ख़बर भी न थी

    ज़माना-साज़ी है अब ये कि मुन्तज़िर था मैं
    हमारे आने की तुमको तो कुछ ख़बर भी न थी

    लिपट गए वो गले से मिरे तो हैरत क्या
    वो संग-दिल भी न थे आह बे-असर भी न थी

    शहीद-ए-जल्वा-ए-मस्ताना हो गया शब-ए-वस्ल
    ख़ुशी नसीब में आ’शिक़ के रात-भर भी न थी

    यहाँ तक जो कुछ इन्तिख़ाब किया गया वो क़दीम रंग-ए-तग़ज़्ज़ुल को लिए हुए है। अकबर ने हुस्न-ओ-इ’श्क़, शोख़ी और ज़िद-ए-मा’शूक़ा वग़ैरह सब मज़ामीन पर ख़ूब-ख़ूब तब्अ’ आज़माइयाँ की हैं मगर हम ब-ख़ौफ़-ए-तवालत इस सिन्फ़ में इसी क़दर इन्तिख़ाब को काफ़ी समझते हैं और अब आपकी शाइ’री की उस इम्तियाज़ी ख़ुसूसियत की तरफ़ मुतवज्जोह होते हैं, जिसने आपको सर-आमद-ए-शोअ’रा-ए-रोज़गार बना दिया है और जिसने आपके कलाम को एक निराली और बहुत मर्ग़ूब शान अ’ता की है। हमारी मुराद आपके ख़ुदा-दाद ज़रीफ़ाना रंग-ए-सुख़न से है जो आपके तमाम कलाम में मौजूद है। और जिससे आपकी नसीहत दिल-पज़ीर और मोअस्सर और आपकी फ़ज़ीहत दिल-नशीं और कामयाब होती है।

    हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ से कहिए या म​िस्लहत-ए-ऐ​िज़दी से आपका वजूद क़ौम के दिमाग़ी नश-ओ-नुमा के लिहाज़ से तारीख़-ए-हिंद के एक नाज़ुक ज़माने में हुआ है। जिसमें दो अ’ज़ीमुश्शान तहज़ीबों की कश्मकश दरपेश है। एक तरफ़ मग़रिबी तहज़ीब का सिक्का फिर रहा है। दूसरी जानिब मशरिक़ी तहज़ीब दिलों पर तसल्लुत जमाए हुए है। ख़यालात और मुआ’शरत ग़रज़ ज़िन्दगी के हर पहलू में तग़य्युर-ओ-तबद्दुल का ज़माना और इफ़रात-ओ-तफ़रीत का अ’हद है। अभी तक किसी हालत पर क़रार की सूरत पैदा नहीं हो सकी है। और इसलिए मुख़्तलिफ़ क़िस्म की ख़राबियाँ ज़ाहिर हो रही हैं। और अफ़्‍राद-ए-क़ौम के ख़याल-ओ-मक़ाल, इ’ल्म और अ’मल मज़हब और मुआ’शरत, जज़्बात और महसूसात में अ’जब इख़्तिलाफ़ और नैरंगियाँ और तरह-तरह की एक दूसरे से मुत्ज़ाद बद-अ’मलियाँ नुमायाँ हो रही हैं।

    ऐसी हालत में एक नासेह, शफ़ीक़-ए-मज़ाक़ और मज़्हक़ा से जो काम ले सकता है, वो पन्द-ओ-नसीहत से मुम्किन नहीं है और यही जनाब-ए-अकबर की ज़राफ़त की इ’ल्लत-ए-ग़ाई है। इस रंग में उनकी शाइ’री ने जो कमाल हासिल किया है वो उर्दू में आज तक किसी को नसीब ही नहीं हुआ। एक लफ़्ज़, एक फ़िक़्‍रे में आप वो बात पैदा कर देते हैं जो दूसरों से सफ़्हों के सफ़्हे रंग डालने पर भी मुम्किन नहीं। बा’ज़ अशआ’र तो बिल्कुल किश्त-ए-ज़ाफ़राँ हैं। पॉलिटिकल वाक़िआ’त का भी आपने मज़्हक़ा उड़ाया है।

    कर्ज़न-ओ-कंचर की हालत पर जो कल
    वो सनम तश्‍रीह का तालिब हुआ

    कह दिया मैंने कि है ये साफ़ बात
    देख लो तुम ज़न पे नर ग़ालिब हुआ

    मुनासिबत-ए-वक़्त

    शैख़-साहब ये तो अपने-अपने मौक़े’ की बात है
    आप क़िब्ला बन गए मैं इस्क्वायर हो गया

    इस ज़माने के नौजवानों के हस्ब-ए-हाल ये शे’र भी ख़ूब कहा है, 

    परी की ज़ुल्फ़ में उलझा न रेश-ए-वाइज़ में
    दिल-ए-ग़रीब हुआ लुक़्मा इम्तिहानों का

    वो हाफ़िज़ा जो मुनासिब था एशिया के लिए
    ख़ज़ाना बन गया यूरप की दास्तानों का

    आसाइश-ए-उ’म्‍र के लिए काफ़ी हैं
    बी-बी राज़ी हों और कलेक्टर साहब

    पर्दा और हिन्दुस्तानी

    पर्दे में ज़रूर है तवालत बेहद
    इंसाफ़-पसन्द को नहीं चाहिए हट
    तश्बीह बुरी नहीं अगर मैं ये कहूँ
    बेगम साहब पेचवाँ लेडी सिगरेट
    हर रंग की बातों का मिरे दिल में है झुरमुट
    अजमेर में कुलचा हूँ अ’लीगढ़ में हूँ बिस्कुट
    पाबन्द किसी मशरब-ओ-मिल्लत का नहीं हूँ
    घोड़ा मिरी आज़ादी का अब जाता बिग टुट
    बी शेख़ानी भी हैं बहुत ज़ी-होश
    कहती हैं शैख़ से ब-जोश-ओ-ख़रोश
    ख़्वाह लुंगी हो ख़्वाह हो तहमद
    दर अ’मल कोश हर चे-ख़्वाही-पोश

    शम्अ’ से तश्बीह पा सकते हैं ये अय्याश अमीर
    रात-भर पिघला करें दिन-भर रहें बाला-ए-ताक़

    मेरे मन्सूबे तरक़्क़ी के हुए सब पायमाल
    बीज मग़रिब ने जो बोया वो उगा और फल गया

    बूट डॉसन ने बनाया मैंने इक मज़्मूँ लिखा
    मुल्क में मज़्मूँ न फैला और जूता चल गया

    कोठी में जम्‍अ’ है न डिपाॅज़िट है बैंक्स में
    क़ल्लाश कर दिया मुझे दो-चार थैंक्स में

    पाॅनियर के सफ़्हा-ए-अव्वल में जिसका नाम हो
    मैं वली समझूँ जो उसको आ’क़िबत की फ़िक्‍र हो

    जाल-ए-दुनिया से बे-ख़बर हैं आप
    तो तक़द्दुस-मआब बे-शक हैं
    शैख़ जी पर ये क़ौल सादिक़ है
    चाह-ए-ज़मज़म के आप मेंढक है
    माशाअल्लाह वो डिनर खाते हैं
    बंगाली भाई उनका सर खाते हैं
    बस हम हैं ख़ुदा के नेक बन्दे ‘अकबर’
    उनकी गाते हैं अपने घर खाते हैं

    मुवक्किल छुटे उनके पंजे से सब
    तो बस क़ौम मरहूम के सर हुए
    पपीहे पुकारा किए पी कहाँ
    मगर वो प्लीडर से लीडर हुए

    पूछा कि भाई तुम तो थे तलवार के धनी
    मूरिस तुम्हारे आए थे गज़नी-ओ-ग़ौर से
    कहने लगे है इसमें भी इक बात नोक की
    रोटी अब हम कमाते हैं जूती के ज़ोर से
    अपने भाई के मुक़ाबिल किब्‍र से तन जाइए
    ग़ैर का जब सामना हो बस क़ुली बन जाईए

    चन्दे की मजलिस में पढ़िए रो के क़ुरआन-ए-मजीद
    मज़हबी महफ़िल में लेकिन मिस्ल-ए-दुश्मन जाइए

    आपकी अन्जुमन की है क्या बात
    आह छुपती है वाह छपती है

    अपनी गिरह से कुछ न मुझे आप दीजिए
    अख़बार में तो नाम मिरा छाप दीजिए

    मोहताज और वकील-ओ-मुख़्तार हैं आप
    सारे अ’मलों के नाज़-बर्दार हैं आप

    आवारा-ओ-मुन्तशिर हैं मानिन्द-ए-ग़ुबार
    मा’लूम हुआ मुझे ज़मींदार हैं आप

    नाज़रीन मुलाहिज़ा फ़रमाएँ कि अकबर ने ज़राफ़त और मज़ाक़ में भी कैसी खूबियाँ पैदा की हैं और दर-अस्ल मौजूदा तहज़ीब और तर्ज़-ए-मुआ’शरत का ख़ाका खींच दिया है। इस रंग में सद-हा-अशआ’र लिखे हैं। इस जदीद ज़रीफ़ाना रंग में आपको बड़ी जिगर कावी करना पड़ी होगी। इसलिए कि ये रंग-ए-ज़राफ़त बिल्कुल नया है।

    इक़्तिबास-ए-बाला से नाज़रीन को मा’लूम हो गया होगा कि हज़रत-ए-अकबर पाॅलिटिकल ​िनकात भी किस ख़ूबी और मज़ाक़ के पैराए में अदा फ़रमाते हैं। आपके ख़यालात बिल्कुल आज़ाद हैं। मुल्की मुआ’मलात में बेजा जोश को बुरा समझते हैं। साथ ही इसके ख़ुशामद और तमल्लुक-साज़ी की पालिसी भी पसन्द नहीं फ़रमाते। ब-क़ौल अपने,

    मेरे नज़्दीक ये पंजाब का बल्वा भी बुरा
    साथ ही इसके अ’लीगढ़ का हल्वा भी बुरा

    आप इज़्हार-ए-वफ़ा कीजिए तम्कीन के साथ
    लेट जाना भी बुरा नाज़ का जल्वा भी बुरा

    न निरे ऊँट हो न हो बुलडाग
    न तो मिट्टी ही हो न तुम आग

    चाल है ए’तिदाल की अच्छी
    साज़-ए-हिक्मत का जोड़ है ये राग

    मगर इस ए’तिदाल-पसन्दी का ये मत्‍लब नहीं कि सूरत-ए-हाल सही तौर पर महसूस न की जाए या हक़ीक़त से आँख बन्द कर ली जाएँ। आपने क्या ख़ूब कहा है, 

    ये बात ग़लत दार-उल-इस्लाम है हिंद
    ये झूट कि मुल्क-ए-‘लछमन’-ओ-‘राम’ है हिंद

    हम सब हैं मुतीअ’-ओ-ख़ैर-ख़्वाह-ए-इंग्लिश
    यूरप के लिए बस एक गोदाम है हिंद

    दिल उस बुत-ए-फ़िरंग से मिलने की शक्ल क्या
    मेरी ज़बान और है उसकी ज़बान और
    बंगाली हाथ में क़लम ले तो क्या
    मुस्लिम जो मिसाल-ए-बज़्म-ए-जम ले तो क्या
    हिन्दी की नजात है निहायत मुश्किल
    सौ मर्तबा मर के वो जनम ले तो क्या

    या स्टेशन के बदले दूध चाय और खांड ले
    या एजीटेशन के बदले तू चला जा मांडले
    बह्‌स-ए-मुल्की में तो पड़ना है तिरी दीवानगी
    पालिसी उनकी रहे क़ाइम हमारी दिल-लगी

    दिलचस्प हवाएँ सू-ए-गुलशन पहुँचीं
    ज़ुल्फ़ें शिमले से ता-ब-दामन पहुँचीं
    दुर्गा बाई से राजा जी जब रूठे
    सदक़े होने को बी नसीबन पहुँचीं

    आप हिंदू-मुसलमानों के इत्तिफ़ाक़ की अशद ज़रूरत महसूस करते हैं और इस पर निहायत लतीफ़ और मोअस्सर पैराए में जा-ब-जा ज़ोर देते और अफ़्सोस करते हैं कि,

    वो लुत्फ़ अब हिंदू-मुसलमाँ में कहाँ
    अग़यार उन पर गुज़रते हैं ख़न्दा-ज़नाँ
    झगड़ा कभी गाय का ज़बाँ की कभी बह्‌स
    है सख़्त मुज़िर ये नुस्ख़ा-ए-गाव ज़बाँ
    फिर कहते हैं कि,
    हिंदू-ओ-मुस्लिम एक हैं दोनों
    या’नी ये दोनों एशियाई हैं

    हम-वतन हम-ज़बान-ओ-हम-क़िस्मत
    क्यों न कह दूँ कि भाई भाई हैं

    एक मुदब्बिर वक़्त की हैसियत से आप बाहमी झगड़ों और दोनों की कमज़ोरियों को समझते हैं। आप जानते हैं कि आए दिन की रक़ाबतें और सरगोशियाँ दिलों को एक दूसरे से फेर रही हैं। दोनों,

    चुग़लियाँ इक दूसरे की वक़्त पर जड़ते भी हैं
    नागहाँ ग़ुस्सा जो आ जाता है लड़ पड़ते भी हैं

    हिंदू-ओ-मुस्लिम हैं फिर भी एक और कहते हैं सच
    हैं नज़र आपस की हम मिलते भी हैं लड़ते भी हैं

    कहता हूँ मैं हिंदू-ओ-मुसलमाँ से यही
    अपनी अपनी रविश पे तुम नेक रहो

    लाठी है हवा-ए-दह्‌र पानी बन जाओ
    मौजों की तरह लड़ो मगर एक रहो

    हज़ल छोड़कर दूसरे के ज़टल तक में शरीक हो जाना चाहिए। इसमें ये ज़रूर होगा कि “ना लाट साहब ख़िताब देंगे ना राजा जी से मिलेगा हाथी लेकिन ये तो कोई ना कह सकेगा तुम्हारे दुश्मन कहाँ बग़ल में।” आप समझते हैं और किस ख़ूबी से इसका इज़्हार करते हैं कि क़ौम अपने ही क़ुव्वत-ए-बाज़ू से उभर सकती है। क्योंकि,

    दुनिया में ज़रूरत ज़ोर की है और आप में ज़ोर नहीं
    ये सूरत-ए-हाल है क़ाइम तो अम्न की जा जुज़-गोर नहीं

    ऐ भाईयो बाबू साहब से खिंचने का नहीं है कोई महल
    गो नस्ल अलाउद्दीन में हो मस्कन तो तुम्हारे ग़ोर नहीं

    एक दूसरे पोलिटिकल मस्‍अले को कैसे शाइ’राना इस्तिआ’रात में अदा फ़रमाया है,

    ऊँट ने गाँवों की ज़िद पर शेर को साझी किया
    फिर तो मेंढ़क से भी बदतर सबने पाया ऊँट को

    जिस पे रक्खा चाहते हो बाक़ी अपनी दस्तरस
    मुँह में हाथी के कभी ऐ भाई वो गन्ना न दो

    मुल्की तरक़्क़ी की तमाम मा’क़ूल तहरीकों के साथ आपको पूरी हम-दर्दी है। आपके कलाम में ऐसे अशआ’र अक्सर मिलते हैं जो मुल्की काम करने वालों के लिए चि-राग़-ए-हिदायत हैं। क़ाबिल-ए-मज़्हका बातों का ख़ाका उड़ाने के साथ-साथ अच्छी तहरीकों की हिमायत में आप दिल भी किस तरह बढ़ाते हैं। तहरीक-ए-स्वदेशी पर क्या ख़ूब कहा कि,

    दाख़िल मिरी दानिस्त में ये काम है पन में
    पहुँचाएगा क़ुव्वत शजर-ए-मुल्क के बन में

    तहरीक-ए-स्वदेशी पे मुझे वज्द है ‘अकबर’
    क्या ख़ूब ये नग़्मा है छिड़ा देस के धुन में

    मौजूदा तहज़ीब के क़ाबिल-ए-मज़्हक़ा पहलुओं पर हम हज़रत-ए-अकबर के ख़यालात ज़ाहिर कर चुके हैं। फ़ी-ज़माना चन्दों की भरमार और अ’मली और असली काम की कमी इस नई तहज़ीब की एक मज़्हक़ा-ख़ेज़ शान है। रुपए का ज़ोर, रुपए का वक़्त बे-वक़्त ज़िक्‍र, इसके वसूल करने की मुख़्तलिफ़ तदबीरें, ग़रज़ इन सब बातों पर आपने ख़ूब ले-दे की है। आप बानियान अ’लीगढ़ कॉलेज के दोस्तों में हैं मगर किसी के मुक़ल्लिद नहीं बल्कि बिल्कुल आज़ाद ख़याल हैं और जिसमें जो कमज़ोरी देखते हैं इस तरह कह देते हैं कि किसी को गिराँ न गुज़रे और सब के काम भी हो जाएँ। अ’लीगढ़ कॉलेज के नामवर बानी की आपने अक्सर मौक़ों’ पर निहायत गर्म-जोशी से ता’रीफ़ की है। क़ाबिल-ए-गिरफ़्त बातों पर मज़्हक़ा भी ख़ूब उड़ाया है। यहाँ पर हम सिर्फ़ चन्द बातों पर आपके हँसा देने वाले रीमार्क और फब्तियाँ ज़ियाफ़त-ए-तबा’ के लिए दर्ज हैं,

    कीजिए साबित ख़ुश-अख़्लाक़ी से अपनी खूबियाँ
    ये नुमूद-ए-जुब्बा-ओ-दस्तार रहने दीजिए

    ज़ालिमाना मश्वरों में मैं नहीं हूँगा शरीक
    ग़ैर ही को महरम-ए-अस्‍रार रहने दीजिए

    खुल गया मुझ पर बहुत हैं आप मेरे ख़ैर-ख़्वाह
    ख़ैर चन्दा लीजिए तूमार रहने दीजिए

    असीर-ए-दाम-ए-ज़ुल्फ़-ए-पाॅलिसी मुद्दत से बन्दा है
    फ़साहत नज़्‍र-ए-लैक्चर है रियासत नज़्‍र-ए-चन्दा है

    जिज़्ये को सिधारे हुए मुद्दत हुई ‘अकबर’
    अलबत्ता अ’लीगढ़ की लगी एक ये पख़ है

    अब कहाँ तक बुत-कदे में सिर्फ़ ईमाँ कीजिए
    ता-कुजा इ’श्क़-ए-बुतान-ए-सुस्त-पैमाँ कीजिए

    है यही बेहतर अ’लीगढ़ जाके सय्यद से कहूँ
    मुझसे चन्दा लीजिए मुझको मुसलमाँ कीजिए

    जेब ख़ाली फिरा किया बन्दा
    ले गए अहबाब इस क़दर चंदा

    ईमान बेचने पे हैं अब सब तुले हुए
    लेकिन ख़रीद हो जो अ’लीगढ़ के भाव से

    शैख़-साहब चल बसे कॉलेज के लोग उभरे हैं अब
    ऊँट रुख़्सत हो गए पोलो के घोड़े रह गए

    ग़रज़ कहाँ तक इन्तिख़ाब कीजिए। इस लिसान-उल-असर ने ज़िन्दगी के हर पहलू पर ग़ाइर नज़र डाली है और मज़ाक़-मज़ाक़ में सब कुछ दिलनशीं कर दिया है। ज़ाती हालात की भी कहीं-कहीं झलक मिल जाती है। हज़रत-ए-अकबर ने अपने कुल्लियात से सवानह-ए-उ’म्‍र का काम नहीं किया है। ताहम कहीं-कहीं पर दिली जज़्बात के साथ एक-आध ज़ाती ख़यालात भी शामिल हो गए हैं। कई साल से आपको आँखों की सख़्त शिकायत है,

    कौंसिल से हर तरह का क़ानून आ रहा है
    मत्बा’ से हर तरह का मज़्मून आ रहा है

    लेकिन पढ़ूँ मैं क्यूँ-कर आँखों की है ये हालत
    अश्क आ रहे थे पहले अब ख़ून आ रहा है

    बसारत ने कमी की इन्हितात-ए-उ’म्‍र में अकबर
    बसीरत है तो आँखें मुझसे अब आँखें चुराती हैं

    एक अ’र्सा-ए-दराज़ तक आपके साहबज़ादे लंदन में और आप यहाँ मुद्दत-ए-मुजव्वज़ा के बा’द उनकी जल्द वापसी के लिए बे-क़रार थे। अक्सर मुक़ामात पर ये बे-क़रारी ज़ाहिर हो गई है, 

    हिन्द में मैं हूँ मिरा नूर-ए-नज़र लंदन में है
    सीने पर ग़म है यहाँ लख़्त-ए-जिगर लंदन में है

    दफ़्तर-ए-तदबीर तो खोला गया है हिंद में
    फ़ैसला क़िस्मत है ऐ अकबर मगर लंदन में है

    अब हम इस मज़्मून को ख़त्म करते हैं। आपका कलाम बहुत सी ख़ूबियों का मज्मूआ’ है और उस मेया’र-ए-शाइ’री पर जो आपने शे’र-ए-ज़ैल में मुक़र्रर किया है, पूरा है।

     

     

    स्रोत:

    मज़ामीन-ए-प्रेम चंद (Pg. 73)

      • प्रकाशक: मतबा मुस्लिम यूनिवर्सिटी, अलीगढ़
      • प्रकाशन वर्ष: 1960

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