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मुझे शिकायत है

सआदत हसन मंटो

मुझे शिकायत है

सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    मुझे शिकायत है उन लोगों से जो उर्दू ज़बान के ख़ादिम बन कर माहाना, हफ़्ता या रोज़ाना पर्चा जारी करते हैं और इस 'ख़िदमत' का इश्तिहार बनकर लोगों से वसूल करते हैं मगर उन मज़मून निगारों को एक पैसा भी नहीं देते। जिनके ख़्यालात-ओ-अफ़्क़ार उनकी आमदनी का मूजिब होते हैं।

    मुझे शिकायत है उन एडिटरों से जो एडिटर भी हैं और मालिक भी। जो मज़मून निगारों की बदौलत छापेखाने के मालिक भी हैं लेकिन जब एक मज़मून का मुआवज़ा देना पड़ जाये तो उनकी रूह क़ब्ज़ हो जाती है।

    मुझे शिकायत है उन सरमायादारों से जो एक पर्चा रुपया कमाने के लिए जारी करते हैं और उसके एडिटर को सिर्फ पच्चीस या तीस रुपये माहवार तनख़्वाह देते हैं। ऐसे सरमाया-दार ख़ुद तो बड़े आराम की ज़िंदगी बसर करते हैं, लेकिन वो एडिटर जो ख़ून पसीना एक कर के उनकी दौलत में इज़ाफ़ा करते हैं, आरामदेह ज़िंदगी से हमेशा दूर रखे जाते हैं।

    मुझे शिकायत है उन नाशिरों से जो कौड़ियों के दाम तसानीफ़ ख़रीदते हैं और अपनी जेबों के लिए सैंकड़ों रुपये इकट्ठे कर लेते हैं जो सादा-लौह मुसन्निफ़ीन को निहायत चालाकी से फाँसते हैं और उनकी तसानीफ़ हमेशा के लिए हड़प कर जाते हैं।

    मुझे शिकायत है उन सरमायादार जोहला से जो रुपये का लालच देकर ग़रीब और अफ़लास-ज़दा अदीबों से उनके अफ़्क़ार हासिल करते हैं और अपने नाम से उन्हें शायेअ करते हैं।

    सबसे बड़ी शिकायत मुझे उन अदीबों, शाइरों और अफ़साना निगारों से है जो अख़बारों और रिसालों में बग़ैर मुआवज़े के मज़मून भेजते हैं। वो क्यों उस चीज़ को पालते हैं जो एक खील भी उनके मुँह में नहीं डालती। वो क्यों ऐसा काम करते हैं जिससे उनको ज़ाती फ़ायदा नहीं पहुंचता। वो क्यों उन काग़ज़ों पर नक़्श-ओ-निगार बनाते हैं जो उनके लिए कफ़न का काम भी नहीं दे सकते।

    मुझे शिकायत है... मुझे शिकायत है... मुझे हर उस चीज़ से शिकायत है जो हमारे क़लम और हमारी रोज़ी के दरमियान हाइल है। मुझे अपने अदब से शिकायत है जिसकी कुंजी सिर्फ़ चंद अफ़राद के हाथ में दे दी गई है। अदब की कुंजी प्रेस है। जिस पर चंद हवस परस्त सरमायादारों का क़ब्ज़ा है। चंद ऐसे ताजिरों का क़ब्ज़ा है जो अदब से इतने ही दूर हैं जितने कि वो तिजारत के नज़दीक। मुझे अपने हम-पेशा अदीबों से शिकायत है जो चंद अफ़राद की ज़ाती अग़राज़ अपने क़लम से पूरी करते हैं, जो उनके जायज़ और नाजायज़ मुतालिबे पर अपने दिमाग़ की क़ाविशें पेश कर देते हैं। मुझे शिकायत है। मुझे अपने आपसे भी शिकायत है। इसलिए कि मेरी आँखें बहुत देर के बाद खुली हैं। बड़ी देर के बाद ये मज़मून मैं लिखने बैठा हूँ जो आज से बहुत पहले मुझ लिख देना चाहिए था।

    हिन्दी हिन्दुस्तानी और उर्दू हिन्दी के क़ज़िए से हमें कोई वास्ता नहीं। हम अपनी मेहनत के दाम चाहते हैं। मज़मून नोशी हमारा पेशा है, फिर क्या वजह है कि हम उसके ज़रिये से ज़िंदा रहने का मुतालिबा ना करें जो पर्चे जो रिसाले जो अख़बार हमारी तहरीरों के दाम अदा नहीं कर सकते बिलकुल बंद हो जाने चाहिए। मुल्क को इन पर्चों की कोई ज़रूरत नहीं और ना अदब ही को उनकी कोई ज़रूरत है।

    मुल्क और इसके अदब को लिखने वाले चाहिए और लिखने वालों को ऐसे अख़बार और ऐसे रिसाले चाहिए जो उनकी मेहनत का मुआवज़ा अदा करें। अख़बार और रिसाले छापना कोई रज़ाकाराना काम नहीं है। वो लोग जो ज़बान और अदब की ख़िदमत का ढिंडोरा पीटते हैं, मेरी नज़र में कोई वक़अत नहीं रखते। ज़बान और अदब की ख़िदमत काग़ज़ स्याह कर देने से नहीं होती। हर महीने काग़ज़ों का एक पुलिंदा पेश कर देने से नहीं होती। ज़बान और अदब की ख़िदमत हो सकती है सिर्फ अदीबों और ज़बानदानों की हौसला-अफ़ज़ाई से और हौसला-अफ़ज़ाई सिर्फ उनकी मेहनत का मुआवज़ा अदा करने ही से हो सकती है।

    पिछले दिनों मैंने अपना एक मज़मून हिन्दुस्तान के एक ऐसे माहाना पर्चे को भेजा जिसकी आमदन से पच्चीस लिखने वालों की माली परेशानियाँ दूर हो सकती हैं। मज़मून के साथ मैंने एक ख़त भेजा जिसमें ये लिखा था कि अगर आप इसका मुआवज़ा अदा कर सकते हों तो अपने पर्चे में छापें वर्ना वापिस भेज दें।

    जैसा कि मुझे मालूम था मज़मून वापिस भेज दिया गया। उसके साथ एडिटर साहिब ने जो ख़त भेजा उसमें ये लिखा था कि चूँकि जंग के बाइस बहुत से अख़राजात की कमी करना पड़ी है। इसलिए रिसाले के मालिकों ने मज़ामीन की उजरत देने का सिलसिला भी बंद कर दिया है।

    ये ख़त पढ़ कर मेरे जी में आई कि उसका जवाब इस तरह लिखूँ। 'मुझे बहुत अफ़सोस है कि जंग के बाइस आपकी माली हालत इतनी कमज़ोर हो गई है कि आपको मज़ामीन के मुआवज़े का सिलसिला बंद करना पड़ा। मेरी राय है कि आप पर्चा बंद कर दें। ख़्वाह-मख़ाह नुक़सान उठाने की क्या ज़रूरत है। जंग ख़त्म हो जाने पर जब हालात मुवाफ़िक़ हो जाएं तो फिर से अपना पर्चा जारी फ़र्मा दीजिएगा।

    मैं फिर कहता हूँ कि हमारे यहां ऐसे पर्चों का वजूद नहीं होना चाहिए जो मुआवज़ा अदा करते वक़्त इस क़िस्म के उज़्रलंग पेश करें। आख़िर मुल्क को ऐसे पर्चों की ज़रूरत ही क्या है। मेरी राय है कि किसी ना किसी तरह इनकी इशाअत बिलकुल बंद कर दी जाये ताकि दूसरे पर्चे जो अदीबों को उनकी मेहनत का हक़ अदा करते हैं, ज़्यादा फूल फल सकें। हमारे अदब को दस हज़ार अख़बारों और रिसालों की ज़रूरत नहीं। सिर्फ दस की ज़रूरत है जो हमारी ज़रूरियात पूरी करें।

    वो पर्चे वो रिसाले वो अख़बार जो हमारी ज़रूरियात पूरी नहीं करते, आख़िर किस मर्ज़ की दवा हैं। हम उनकी ज़िंदगी के लिए क्यों जद्द-ओ-जहद करें। जब वो ज़िंदगी में हमारे मुमिद-ओ-मुआविन नहीं होते।

    मज़मून निगार दिमाग़ी अय्याश नहीं। अफ़्साना निगार ख़ैराती हस्पताल नहीं हैं। हम लोगों के दिमाग़ लंगर ख़ाने नहीं हैं। हम इस ज़माने को और इसकी याद तक को माज़ी के तारीक गढ़ों में हमेशा के लिए दफ़न कर देना चाहते हैं। जब शायर भीकमंगे होते थे और जब सिर्फ वही लोग अय्याशी के तौर पर मज़मून निगारी किया करते थे जिनके पास खाने को काफ़ी होता था।

    हम नए ज़माने, नए निज़ाम के पैग़म्बर हैं। हम माज़ी के खंडरों पर मुस्तक़बिल की दीवारें उस्तुवार करने वाले मेअम्मार हैं। हमें कुछ करना है। हमारे रास्ते में मुश्किलात हाइल नहीं होनी चाहिए। हम गुरुसना-शिकम और बरहना-पा नहीं रह सकते। हमें अपने क़लम से रोज़ी कमाना है और हम इस ज़रिये से रोज़ी कमा कर रहेंगे। ये हरगिज़ नहीं हो सकता कि हम और हमारे बाल बच्चे फ़ाक़े मरें और जिन अख़बारों और रिसालों में हमारे मज़ामीन छपते हैं, उनके मालिक ख़ुशहाल रहें।

    हम अदीब हैं, भड़ भूंजे नहीं। हम अफ़्साना निगार हैं, कंजड़े नहीं, हम शायर हैं भंगी नहीं। हमारे साथ दुनिया को इम्तियाज़ी सुलूक रवा रखना होगा। हम लोगों को मजबूर करेंगे कि वो हमारा एहतिराम करें। हम तारों से बातें करने वाले हैं। हम ऐसी बातें हरगिज़ नहीं सुनेंगे जो हमें पस्ती की तरफ़ ले जाएं। हमारा रुत्बा हर लिहाज़ से उन लोगों से बेहतर है जो सिर्फ रुपये गिनने का काम जानते हैं। हम हर जिहत से उन लोगों के मुक़ाबले में अर्फ़ा-ओ-आला हैं जो ना बना सकते हैं और ना ढा सकते हैं।

    हम अदीब हम शायर हम अफ़्साना निगार बना भी सकते हैं और ढा भी सकते हैं। हमारे हाथ में क़लम है, जो क़ौमों की सोई हुई तक़दीरें जगा सकता है जो एक एक जुंबिश के साथ इन्क़िलाब बरपा कर सकता है।

    हमारी अज़मत हमारी बुजु़र्गी तस्लीम करनी होगी। उन तमाम लोगों को मानना होगी जो हमारे साथ मिल-जुल कर ज़िंदगी बसर करते हैं। हमारे लिए हिंदुस्तानियों को एक ख़ास जगह बनाना होगी। जहां हम आराम-ओ-इत्मिनान से अपना काम कर सकें। हम अपनी ज़रूरियात-ए-ज़िंदगी की तकमील चाहते हैं। हमें ताज-ओ-तख़्त की ख़ाहिश नहीं। हम कशकोल लेकर फिरने वाले इन्सान नहीं हैं। हम ज़र-ओ-दौलत के अंबार नहीं चाहते। हम गदागर नहीं हैं। हम इन्सानों की सी ज़िंदगी बसर करना चाहते हैं। इसलिए कि हम इन्सान हैं।

    हम पर वो दरवाज़े क्यों बंद कर दिए जाते हैं, जिनमें से गुज़र कर हमें आगे बढ़ना है। उन दरवाज़ों को मुक़फ़्फ़ल कर के फिर ये रोना क्यों रोया जाता है 'हमारा अदब बहुत पीछे है। इसमें तरक़्क़ी क्यों नहीं होती। लिखने वाले बहुत कम हैं वग़ैरा वग़ैरा' लिखने वाले कैसे पैदा होंगे। अदब में कैसे तरक़्क़ी होगी, जब हर एक सूबे से सैंकड़ों पर्चे शायेअ होते हैं। उनमें से हर एक के माथे पर हमें ख़िदमत अदब का लेबल नज़र आता है। ये पर्चे पर्चे नहीं हैं। काग़ज़ी कशकोल हैं जिनमें हमसे और दूसरे लोगों से भीक डालने के लिए कहा जाता है ऐसे कशकोल नहीं होने चाहिए। उनके वजूद से हमारा अदब बिलकुल पाक हो जाना चाहिए आज ही, अभी अभी!

    मैं अपने उन तमाम हम-पेशा भाईयों से जिनमें ख़ुद्दारी-ओ-ख़ुद-एतिमादी का माद्दा मौजूद है, कहूँगा कि वो उन तमाम पर्चों से अपना क़त-ए-तअल्लुक़ कर लें जो उनकी मेहनत के दाम अदा नहीं करते। आज ही हमें उन तमाम पर्चों रिसालों और अख़बारों के वजूद से इनकार कर देना चाहिए, जो मुफ़्त-ख़ोर हैं। उन रिसालों और तबसरों में क्या फ़र्क़ है। जहां के मुजाविर हर-वक़्त झोली फैलाए नज़र नयाज़ मांगते रहते हैं। हमें ना ऐसे मक़बरों की ज़रूरत है और ना ऐसे रिसालों और अख़बारों की जिनसे हमें कोई फ़ायदा नहीं पहुंचता।

    प्रेस को जहां ये पुलिंदे छपते हैं, रुपया अदा किया जाता है। क़ातिबों को जो लिखाई करते हैं मुआवज़ा अदा किया जाता है। उन मज़दूरों को हर-रोज़ हर हफ़्ते या हर महीने मज़दूरी अदा की जाती है जो उनको उठा कर एक जगह से दूसरी जगह ले जाते हैं, मगर मज़मून निगारों को उनकी मेहनत के दाम अदा नहीं किए जाते। किस क़दर ताज्जुब की बात है।

    क्या मज़मून निगार की ज़रूरियात-ए-ज़िंदगी नहीं? क्या उसे भूक नहीं लगती? क्या उसे पहनने को कपड़े नहीं चाहिए? क्या वो इन्सान नहीं है? अगर वो इन्सान है तो फिर उससे हैवानों का सा सुलूक क्यों रवा रखा जाता है।

    मैं बग़ावत चाहता हूँ हर उस फ़र्द के ख़िलाफ़ बग़ावत चाहता हूँ जो हमसे मेहनत कराता है मगर उस के दाम अदा नहीं करता।

    मैं बग़ावत चाहता हूँ। ज़बरदस्त बग़ावत चाहता हूँ कि हमारे अदब से ये बिद्तअ बिल्कुल दूर हो जाये। जिसकी मौजूदगी में मज़मून-निगार अपनी मेहनत का मुआवज़ा तलब करते झिजकता है। मैं उस हिजाब के ख़िलाफ़ बग़ावत चाहता हूँ जो सरमायादार तबक़े ने हम लोगों पर एक ज़माने से अपने फ़ायदे के लिए तारी कर रखा है। मैं उस एहसास के ख़िलाफ़ बग़ावत चाहता हूँ, जो इस हिजाब ने हमारे दिलों में पैदा कर दिया है। उस एहसास के ख़िलाफ़ जिसकी मौजूदगी में अक्सर मज़मून निगार ये ख़्याल करते हैं कि मज़मून निगारी महज़ शुग़्ल है ऐसा शुग़्ल जो महज़ बेकार आदमियों का काम है।

    अदब की रौनक हमारे दम से है। उन लोगों के दम से नहीं है जिनके पास छापने की मशीनें, स्याही और अनगिनत काग़ज़ हैं। लिटरेचर का दिया हमारे ही दिमाग़ के रौग़न से जलता है। चांदी और सोने से उसकी बत्ती रौशन नहीं हो सकती अगर आज हम... हम शायर, अफ़्साना-निगार और मक़ाला-नवीस अपने क़लम हाथ से रख दें तो काग़ज़ों की पेशानियां तलक से महरूम रहें।

    अगर हमें मज़मून निगारी को एक मुअज़्ज़िज़ पेशा बनाना है तो हमें अपना एहतिराम मुख़ालिफ़ीन की आँखों में पैदा करना है। हमें लड़ना होगा। हमें एक ज़बरदस्त जंग करनी होगी। हमें हड़ताल करनी होगी। अपने ख़्यालात-ओ-अफ़्क़ार की हड़ताल करनी होगी। हमें उस वक़्त तक अपने जज़्बात-ओ-महसूसात अपने अंदर दबा कर रखना होंगे जब तक प्यास के मारे काग़ज़ की ज़बान बाहर लटक ना पड़े। भूक की शिद्दत से उस का बुरा हाल ना हो जाये।

    आओ हम अपना एक महाज़ बनाएँ। सब इकट्ठे हो जाएं, अगर हम सब अपने क़लम एक जगह पर रख दें तो एक पहाड़ खड़ा हो सकता है। क्यों ना हम तआवुन से इस बिद्अत के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करें, जो हमारे वक़ार पर एक बदनुमा धब्बा है। हम सोसाइटी में अपने लिए जगह चाहते हैं और बस हम ये चाहते हैं कि हमारी मेहनत को मुआवज़े के काबिल समझा जाये और हमें वो तमाम सहूलियतें बहम पहुंचाई जाएं जिनके हम हक़दार हैं। हमारा मुतालिबा जायज़ है। फिर क्यों ना हम आज ही से अपने हुक़ूक़ माँगना शुरू कर दें।

    आख़िर कब तक अदीब एक नाकारा आदमी समझा जाएगा। कब तक शायर को एक गप्पें हाँकने वाला मुतसव्वर किया जाएगा, कब तक हमारे लिटरेचर पर चंद ख़ुदग़रज़ और हवस-परस्त लोगों की हुक्मरानी रहेगी। कब तक...

    जैसा कि मैं ऊपर कह चुका हूँ मुझे शिकायत है अपने मज़मून निगार भाइयों से, जिनकी तहरीरें दूसरों की रोज़ी का ज़रिया बनती हैं, मगर उनके लिए एक ढेला भी पैदा नहीं करतीं, वो मज़मून लिखते हैं किसी और हीले से पेट भर कर वो शेर लिखते हैं। किसी दूसरे कुँवें से अपनी प्यास बुझाकर, वो मक़ाले लिखते हैं मगर अपनी सत्र-पोशी का सामान हासिल करने के लिए उन्हें कोई और ही काम करना पड़ता है। सितम बाला-ए-सितम ये है कि उनके मज़मून उनके शेर उनके मक़ाले उन लोगों की भूक और प्यास बुझाते हैं जो सिर्फ उन्हीं काग़ज़ के चंद पुर्ज़ों पर छाप देते हैं, उनकी तहरीरें दूसरों का तन ढँकती हैं, मगर उनके लिए कपड़े की एक चन्दी भी हासिल नहीं कर सकतीं। ऐसा नहीं होना चाहिए। ऐसा नहीं होगा।

    हमें हालात को बदलना है और हम हालात को बदल कर रहेंगे। एक इन्क़िलाब बरपा होना चाहिए, जो हालात को पलट दे। अदीब अपने क़लम से रोज़ी कमाए। शक़्फ़-ए-नीलोफ़री के नीचे वो भी दूसरे आदमियों की तरह ख़ुदा की नेअमतों को इस्तिमाल करें और लोग उसके पेशे को एहतिराम की नज़रों से देखें।

    ज़माना करवट बदल रहा है। आओ हम भी करवट बदलें और एक करवट में वो तमाम बिद्अतें झटक दें जो हमारे साथ चिपका दी गई हैं। आओ हम एक शान से ज़िंदा रहें और शान से मरें। हमारी ज़िंदगी और हमारी मौत में एक इम्तियाज़ी शान होनी चाहिए। इसलिए कि हम शानदार हैं, हम अदीब हैं, शायर हैं, अफ़्साना निगार हैं, हमारे हाथ में क़लम है जो तलवार से ज़्यादा ताक़तवर है।

    हज़रात हालात बहुत नाज़ुक हो गए हैं। अब तो यहां तक नौबत पहुंच गई है कि बाअज़ अहल-ए-क़लम लोगों ने दुकानें खोल ली हैं। जहां वो ख़रीदारों के हाथ ग़ज़लें, मज़मून और अफ़साने बेचते हैं। आठ आठ आने में ग़ज़ल बेची जा रही है। बीस बीस रुपये में नावेल लिखने को लोग तैयार हैं। पाँच रुपये अफ़साने का नर्ख़ है। ऐसी कई दुकानों का इश्तिहार आपने पर्चों में पढ़ा होगा। इन इश्तिहारों का मुआवज़ा ये लोग मज़ामीन और ग़ज़लों की सूरत में अदा करते हैं ये सिर्फ़ इसलिए हो रहा है कि हम लोग ग़ाफ़िल हैं। हमने अपनी पोज़िशीन ख़ुद गिरा रखी है।

    लेकिन हालात एक मिनट में सुधर सकते हैं। चुटकी बजाने के अर्से में हम अपनी खोई हुई अज़मत हासिल कर सकते हैं। बहुत ही कम अर्से में हम अपने लिए एक ख़ूबसूरत दुनिया बना सकते हैं। जिसमें हमको हर तरह की आज़ादी होगी। क्या इरादा है आपका।

    मैं कहता हूँ उट्ठो। अपने सोए हुए भाइयों को झिंजोड़ो। उनके कानों तक मेरा पैग़ाम पहुँचाओ। एक झंडे तले जमा हो जाओ। अपना एक महाज़ बनाओ और जंग शुरू कर दो। अपने कलमों को कुछ अर्से के लिए रौशनाई से दूर रखो। काग़ज़ की दुनिया तुम्हारे क़दमों पर सर रख देगी।

    स्रोत:

    Manto Ke Mazameen (Pg. 92)

    • लेखक: सआदत हसन मंटो
      • प्रकाशक: साक़ी बुक डिपो, दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 1997

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