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शेर, ग़ैर-ए-शेर और नस्र

शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

शेर, ग़ैर-ए-शेर और नस्र

शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

MORE BYशम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

     

    दर-ए-मकतब नियाज़ च हर्फ़-ओ-कुदाम सौत
    चूँ नामा सजदा ईस्त कि हर जा नविश्ता ऐम
    बेदिल

    नई शायरी की बुनियाद डालने के लिए जिस तरह ये ज़रूरी है कि जहां तक मुम्किन हो सके उस के उम्दा नमूने पब्लिक में शाये किए जाएं, उसी तरह ये भी ज़रूरी है कि शे’र की हक़ीक़त और शायर बनने के लिए जो शर्तें दरकार हैं उनको किसी क़दर तफ़सील के साथ बयान किया जाये। (हाली- मुक़द्दमा-ए-शे’र-ओ-शायरी) 

    क्या शायरी की पहचान मुम्किन है? अगर हाँ, तो क्या अच्छी और बुरी शायरी को अलग अलग पहचानना मुम्किन है? अगर हाँ, तो पहचानने के ये तरीक़े मारुज़ी हैं या मोज़ूई? यानी क्या ये मुम्किन है कि कुछ ऐसे मेयार, ऐसी निशानियां, ऐसे ख़वास मुक़र्रर किए जाएं या दरयाफ़्त किए जाएं जिनके बारे में ये कहा जा सके कि अगर ये किसी तहरीर में मौजूद हैं तो वो अच्छी शायरी है, या अच्छी शायरी न सही, शायरी तो है? या इस सवाल को यूं पेश किया जाये, क्या नस्र की पहचान मुम्किन है? क्यों कि अगर हम नस्र को पहचानना सीख लें तो ये कह सकेंगे कि जिस तहरीर में नस्र की खुसुसियात न होंगी, अग़्लब ये है कि वो शे’र होगी। 

    लेकिन फिर ये भी फ़र्ज़ करना पड़ेगा कि शे’र और नस्र अलग अलग ख़ौस-ओ-ख़साइस रखते हैं और एक, दूसरे को ख़ारिज कर देता है। तो क्या हम ये फ़र्ज़ कर सकते हैं? या हमें ये कहना होगा कि शे’र और नस्र के दरमियान बाल बराबर हद-ए-फ़ासिल है जो अक्सर नज़रअंदाज भी हो जाती है, या ऐसी भी मंज़िलें हैं जहां नस्र और शे’र का इदग़ाम हो जाता है? फिर ये भी सवाल उठेगा कि नस्र से हमारी मुराद तख़लीक़ी नस्र है (यानी जिस तरह कि नस्र का तसव्वुर अफ़साने या नावल, ड्रामे से मुंसलिक है।) या महज़ नस्र, (यानी ऐसी नस्र जिसका तसव्वुर तन्क़ीद, साईंसी इज़हार तारीख़ वग़ैरा से मुंसलिक है?)

    इतने सारे सवालात उठाने के बाद आपको मज़ीद उलझन से बचाने के लिए कुछ तौज़ीही मफ़रूज़ात या मुस्लिमात का बयान भी ज़रूरी है, ताकि हवाले में आसानी हो सके। पहला मफ़रूज़ा ये है कि बहुत मोटी तफ़रीक़ के तौर पर वो तहरीर शे’र है जो मौज़ूं है, और हर वो तहरीर नस्र है जो नामौज़ूं है। मौज़ूं से मेरी मुराद वो तहरीर है जिसमें किसी वज़न का बाक़ायदा इल्तिज़ाम पाया जाये, यानी ऐसा इल्तिज़ाम जो दोहराए जाने से इबारत हो और नामौज़ूं वो तहरीर है जिसमें वज़न का बाक़ायदा इल्तिज़ाम न हो।

    अगरचे ये मुम्किन है किसी नामौज़ूं तहरीर में इक्का दुक्का फ़िक़रे या बहुत से फ़िक़रे किसी बाक़ायदा वज़न पर पूरे उतरते हों, लेकिन जब तक ये बाक़ायदा वज़न या बाक़ायदा औज़ान दोहराए न जाऐंगे या उनमें ऐसी हम-आहंगी न होगी जो दोहराए जाने का बदल हो सके, तहरीर नामौज़ूं रहेगी और नस्र कहलाएगी। ये क़ज़िया इतना वाज़ेह है कि उसे मिसालों की ज़रूरत नहीं लेकिन फिर भी इत्माम-ए-हुज्जत के लिए ये तहरीरें पेश-ए-ख़िदमत हैं।

    (1) मैं घर गया तो मैंने देखा कि मेरे बच्चे सारे घर में उधमम मचाते फिर रहे हैं।

    (2) बादल जो घिरे हैं क़र्ये क़र्ये पर
       उठकर आते हैं बहरों से अक्सर
       घर-घर पे पड़े हैं अब्र-ए-अस्वद के परे
       देखो देखो उड़े हैं क्या काले पर

    पहली इबारत में मुंदर्जा ज़ैल औज़ान मौजूद हैं जिनकी वजह से तहरीर के ये टुकड़े अलग अलग मौज़ूनियत के हामिल हैं,

    मैं घर गया... मुस्तफ़अलुन

    तो मैंने देखा कि मेरे बच्चे... फे़अल फ़ऊलुन फे़अल फ़ऊलुन

    सारे घर में... फ़ाएलातुन
    उधम मचाते... फे़अल फ़ऊलुन
    फिर रहे हैं... फ़ाएलातुन

    छोटे छोटे टुकड़ों की अलाहिदा मौज़ूनियत ने इस तहरीर को एक ढीला ढाला आहंग तो बख़्श दिया है, लेकिन तकरार या इल्तिज़ाम की शर्त पूरी न होने की वजह से में इसे नस्र कहूँगा। दूसरी तहरीर एक ख़ुद-साख़्ता फ़िलबदीह रुबाई है, इसकी माअनवियत से क़त-ए-नज़र कीजिए, ये मुलाहिज़ा कीजिए कि चार मिसरों में चार अलग अलग औज़ान इस्तेमाल हुए हैं जिनकी तफ़सील हस्ब-ए-ज़ैल है, (1) मफ़ऊल मुफ़ाईलन मफ़ऊलुन फ़ा (2) मफ़ऊलुन मफ़ऊलुन मफ़ऊलुलन फ़ा (3) मफ़ऊल मुफ़ाइलुन मुफ़ाईल फे़अल (4) मफ़ऊलुन फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन फ़ा

    ज़ाहिर है कि ये औज़ान एक दूसरे से बहुत मुख़्तलिफ़ हैं और उनमें भी अदम तकरार की वही कैफ़ियत है जो इबारत नंबर एक में थी। लेकिन चूँकि उनमें ऐसी हम-आहंगी है जो इल्तिज़ाम या तकरार का बदल हो सकती है इसलिए मैं इस तहरीर को शे’र कहूँगा। वैसे भी ये बात ज़ाहिर है कि महूला बाला रुबाई में जो सूरत-ए-हाल है वो इस्तिसनाई है, आम तौर पर शे’र में एक ही वज़न को दुहराया जाता है। बहरहाल, सबसे मुस्तहकम और समझने के लिए सबसे कारा॓मद तफ़रीक़ ये है कि कलाम मौज़ूं शे’र है और कलाम नामौज़ूं नस्र है। हमारी सारी मुश्किलें भी इसी तफ़रीक़ से पैदा होती हैं लेकिन इसे ज़ेहन में रखना भी ज़रूरी है, वर्ना हमें बहुत सी मसनवियों के बारे में ये कहना पड़ेगा कि उनमें इतने फ़ीसदी अशआर, अशआर नहीं हैं अगरचे मौज़ूं हैं।

    फिर अदब के तालिब-ए-इल्मों, बच्चों, आम लोगों को बड़ी दिक़्क़त का सामना होगा जब हम उन्हें ये समझाएँगे कि देखिए फ़ुलां तहरीर नामौज़ूं है लेकिन शे’र है, इसलिए शे’र के निसाब में दाख़िल है, आप भी इसे शे’र कहिए और फ़ुलां तहरीर के फ़ुलां हिस्से मौज़ूं होते हुए भी शे’र  नहीं हैं, इसलिए नस्र के निसाब में दाख़िल हैं, आप भी उसे नस्र कहिए, और बक़िया हिस्से मौज़ूं भी हैं और शे’र भी हैं इसलिए उन्हें नज़्म के निसाब में रखा गया है। इस तरह रिसालों, किताबों, निसाबों, आम बोल-चाल में नस्र व शे’र की तफ़रीक़ ही ख़त्म हो जाएगी। इसके नतीजे में जो अफ़रातफ़री फैलेगी, उसका अंदाज़ा किया जा सकता है।

    ये मसला इस तरह भी नहीं हल हो सकता (जैसा कि बा’ज़ लोगों ने कोशिश की है कि जिस कलाम मौज़ूं में शे’र के ख़वास न हों उसे शे’र न कह कर नज़्म कहा जाये। क्योंकि किसी एक शे’र या एक मुख़्तसर नज़्म के बारे में तो हम कह सकते हैं कि ये नज़्म है अगरचे शे’र नहीं है। लेकिन किसी भी तवील मंज़ूमे, मसलन क़सीदे, या मसनवी में फिर वही मुश्किल पड़ेगी। हमें कहना पड़ेगा कि इसमें फ़ुलां हिस्सा सिर्फ़ नज़्म है, शे’र नहीं है, और फ़ुलां हिस्सा शे’र भी है। लिहाज़ा आम बोल-चाल में तफ़रीक़ के लिए मौज़ूं और नामौज़ूं की शर्त लगाना लाज़िमी हो जाता है। लेकिन ये भी ज़ाहिर है कि तन्क़ीदी बोल-चाल के लिए ये तफ़रीक़ बिल्कुल बेमानी है, क्यों कि फिर तो,

    बंबई एक बड़ा शहर है दोस्तो
    दिल्ली भी एक बड़ा शहर है दोस्तो

    और

    महफ़िलें बरहम करे है गंजिंफ़ा बाज़ ख़्याल
    हैं वर्क़ गर्दानी-ए-नैरंग यक बुतख़ाना हम

    में फ़र्क़ क्यूँ-कर किया जा सकेगा? इसलिए मैंने सवाल यहां से शुरू किया है, क्या शायरी की पहचान मुम्किन है? यानी मोटी तफ़रीक़ के तौर पर तो हमने मान लिया कि मौज़ूं कलाम शे’र  होता है, लेकिन इस शे’र का बहैसियत शायरी के क्या दर्जा है, ये अलग बहस है, और यही असल बहस है। यानी ये तो हमने मान लिया कि अंडों के बजाय बच्चे पैदा करने वाला, बच्चों को दूध पिलाने वाला, क़ुव्वत-ए-गोयाई रखने वाला, ज़्यादातर बे बालों वाला जानवर इंसान होता है, लेकिन उस इंसान में इन्सानियत कितनी है, ऐरे ग़ैरे, नत्थू खैरे और अकबर-ए-आज़म में क्या फ़र्क़ है, कौन सी खुसुसियात अकबर-ए-आज़म को बहैसियत इंसान मुमताज़ करती हैं। ये अलग बहस है, और यही असल बहस है।

    दूसरा मफ़रूज़ा (पहला तो ये है कि मौज़ूं कलाम शे’र होता है) चंद पुराने मफ़रूज़ों को रद्द करता है। क़दीम मशरिक़ी तन्क़ीद में शे’र की तारीफ़ यूं की गई थी कि मौज़ूं हो, बामानी हो और बिल इरादा कहा गया हो। मौज़ूनियत तो ठीक है, लेकिन बा-मअनी होना एक बेमानी शर्त है, जब तक कि बामाअनवियत को चंद शेअरी रसूम यानी Conventions का पाबंद न बनाया जाये। मसलन,

    दुशना ग़मज़-ए-जाँ-सिताँ नावक-ए-नाज़ बेपनाह
    ग़ालिब

    तिरे नौकर तिरे दर पर असद को ज़िबह करते हैं
    ग़ालिब

    ग़ैर ने हमको क़त्ल किया ने ताक़त है ने यारा है
    मीर

    की तरह के हज़ारों मिसरे और नज़्में बेमानी हैं जब तक इन रसूम के हवाले से न पढ़ी जाएं, जिनकी हदों में रह कर शायर ने उन्हें लिखा था। अगर ये कहा जाये कि इन मिसरों में अलग अलग अलफ़ाज़ का बामअनी होना सनद नहीं, क्योंकि बहुत से अशआर हैं जो यक़ीनन बेमानी हैं लेकिन उनके तमाम अलफ़ाज़ के मअनी समझ में आते हैं। ये ख़ुद-साख़्ता मिसालें देखिए,

    कद्द-ओ-कशती न हो बाक़ी तिरा दम ही सलामत है
    न बिल्ली है न कुत्ता है न डोरी है कि आफ़त है

    लिहाज़ा जब शे’र पर बामानी होने की शर्त होगी तो ये भी कहना पड़ेगा कि शे’र की माअनवियत का इन्हिसार इन शे’री रसूम यानी Conventions पर है जिनके हवाले से और जिनके सयाक़-ओ-सबाक में शे’र कहा गया हो। हाँ अगर बेमानी से मुराद ये है कि शे’र कुछ इस तरह के ख़ुदसाख़्ता अलफ़ाज़ का मजमूआ हो जिनके इन्फ़िरादी मअनी भी न हूँ। मसलन, चूँ जिन चनां लिम लग लहां आले तयां वाली वहू... तो कोई झगड़ा नहीं 1 लेकिन बिलइरादा की शर्त हर तरह नाक़ाबिल-ए-क़बूल है क्योंकि (तख़्लीक़ी अमल पेचीदा बहसों से गुज़रे बग़ैर) ये बात मुस्लिमुस्सबूत है कि लोगों ने बेइरादा, बेसाख़्ता, इर्तिजालन ख़्वाब में या नीम बेहोशी के आलम में, या Trance के आलम में भी शे’र कहे हैं।

    अलावा बरीं, किसी शे’र को महज़ देखकर आप ये नहीं कह सकते कि ये बेइरादा कहा गया है कि बिलइरादा। ये मालूम करने के लिए आपके पास कुछ ख़ारिजी मालूमात भी होना चाहिए कि ये शे’र, शायर ने किस वक़्त, किस तरह और क्यों कहा था। ज़ाहिर है कि हर ग़ज़ल या हर नज़्म के बारे में ये मालूमात हासिल नहीं हो सकती। और अगर हो भी जाये तो तवील नज़्मों, ड्रामों और मसनवियों का क्या बनेगा? उनके बारे में कैसे मालूम होगा कि कौन सा मिसरा किस तरह कहा गया था? इसमें किसी ऐसी चीज़ को शर्त ठहराना जिसका तअय्युन ही दुशवार हो, नामुनासिब और ख़िलाफ़-ए-अक़्ल है। इस पर तुर्रा ये कि ये शर्त उसूल-ए-शायरी से इलाक़ा नहीं रखती, बल्कि एक ख़ारिजी बंदिश है। इस तरह की बंदिशें अगर लगाई जाएं तो एक वक़्त वो भी आ सकता है जब हम ये कहें कि वही शे’र, शे’र है जिसे गोरे आदमी ने कहा हो।

    तीसरा और आख़िरी मफ़रूज़ा ये है कि शे’र के लिए मौज़ू की तख़सीस नहीं हो सकती। यानी क़तईयत के साथ ये नहीं कहा जा सकता कि फ़ुलां मौज़ूआत शायराना हैं और फ़ुलां ग़ैर शायराना, क्योंकि अव्वल तो हज़ारहा मौज़ू ऐसे हैं जो शे’र और नस्र दोनों में मुश्तर्क हैं और दूसरे ये कि ऐसे मौज़ूआत भी जो सिर्फ़ शे’र से मुख़तस कहे जा सकते हैं, हज़ारों की तादाद में हैं। फिर उनमें रोज़ बरोज़ इज़ाफ़ा भी होता रहता है। इसलिए मौज़ूआत शे’र की किसी जामे फ़ेहरिस्त की तर्तीब नामुमकिन है। लिहाज़ा शे’र को परखने और इसमें “शायरी” के उन्सुर को पहचानने और अलग करने के लिए मौज़ू की क़ैद नहीं लगाई जा सकती।

    यानी हम ये नहीं कह सकते कि फ़ुलां शे’र में शायरी नहीं है, क्योंकि इसका मौज़ू ग़ैर शायराना है। इस तरह शे’र की पहचान या तारीफ़ या तन्क़ीस जो भी हो सकती है सिर्फ़ फ़न-ए-शेर के हवाले से हो सकती है। अहम तरीन मौज़ू पर भी कहा हुआ शे’र शायरी से आरी हो सकता है और पोच तरीन मौज़ू पर कहा हुआ शे’र आला दर्जे का भी हो सकता है। क्योंकि शे’र को परखने का पैमाना शायरी है, कोई शैय दीगर नहीं। शायरी का जो कुछ भी मौज़ू है उसके अलफ़ाज़ में बंद है, अलफ़ाज़ जो बक़ौल पास्तरनाक “हुस्न और मअनी का वतन और घर” होते हैं।

    इन मफ़रूज़ों के बाद दो मसाइल और हैं जो शुरू में उठाए हुए सवालों से मुताल्लिक़ हैं। अव्वल तो ये कि हम सिर्फ़ उन्हीं ख़वास या निशानियों को शे’र की निशानियां ठहरा सकते हैं जो नस्र और शे’र में मुश्तर्क नहीं हैं। इंतहाई अस्फ़ल सतह पर तो ये भी कहा जा सकता है कि शे’र में अलफ़ाज़ ख़ूबसूरत तरीक़े से इस्तेमाल किए जाते हैं। इस पहचान में पहली क़बाहत तो ये है कि ख़ूबसूरत की तारीफ़ क्या हो, और दूसरी ये कि चूँकि नस्र में भी अलफ़ाज़ आम सतह से ज़्यादा ख़ूबसूरत, बामअनी और मुनज़्ज़म ढंग से इस्तेमाल होते हैं, इसलिए शे’र का वस्फ़-ए-ज़ाती क्या हुआ? अगर ज़रा और पेचीदा बात कही जाये कि शे’र जिस तरह का इल्म बख़्शता है उस तरह का इल्म नस्र से नहीं हासिल हो सकता। तो सवाल ये उठता है कि इस इल्म की तख़सीस और पहचान कैसे हो? और शे’र कौन से ऐसे वसाइल इस्तेमाल करता है जिनके ज़रिए वो इस इल्म तक हमारी रसाई करता है जो नस्र से हमें नहीं मिलता?

    लिहाज़ा वो निशानियां जो नस्र और शे’र में मुश्तर्क हैं, उनको पहचानने से हमारा मसला हल नहीं होता और न उन निशानियों का ज़िक्र करने से हमारी मुश्किल आसान होती है, जिनको अव्वल तो पहचानना मुश्किल है और अगर पहचान भी लिया जाये तो ये बताना मुश्किल है कि शे’र की उन तक रसाई क्यूँकर हुई। हमें तो उन निशानियों की तलाश है जो सिर्फ़ शे’र में पाई जाती हैं, या अगर नस्र में पाई भी जाती हैं तो अजनबी मालूम होती हैं, या फिर वो कम-कम पाई जाती हैं। ज़ाहिर है यहां भी हमारा तीसरा मफ़रूज़ा सामने आता है कि शे’र के पैदा कर्दा तास्सुर या जज़्बाती रद्द-ए-अमल की इक़दारी Qualitative या मिक़दारी Quantitative क़दर को शे’र की पहचान नहीं बनाया जा सकता। मसलन कोई शे’र बेसबाती दुनिया का तज़्किरा कर के हमें मुतास्सिर करता है, या कोई नज़्म इंसान की लाचारी का ज़िक्र कर के हमें मुतास्सिर करती है। जज़्बाती तास्सुर पैदा करने की ये क़ुव्वत जो शे’र में पाई जाती है, इस लिसानी तर्तीब के मुताले में हमारी कोई मदद नहीं करती, जिसे हम शे’र कहते हैं।

    क्योंकि ये क़ुव्वत तो किसी अफ़साने, नावल या ड्रामे में भी हो सकती है। मुम्किन है कि इस क़ुव्वत का ज़िक्र और इससे मुतास्सिर होने की सलाहियत, शे’र का लुत्फ़ उठाने में हमारी मुआविन हो, लेकिन शे’र को पहचानने में हमारी मुआविन नहीं हो सकती। हम ये नहीं कह सकते कि चूँकि फ़ुलां लिसानी तर्तीब हमारे अंदर जज़्बाती तास्सुर पैदा करती है, इसलिए वो शे’र  है क्योंकि ये जज़्बाती तास्सुर तो कई तरह की तहरीरों से पैदा हो सकता है, इसके लिए शे’र  की क़ैद नहीं है। अगर शे’र में कोई ऐसी शैय नहीं है जो उसे नस्र से मुमताज़ कर सके, सिवाए बाक़ायदा वज़न के, तो नस्ल-ए-आदम किसी न किसी मौके़ पर तो पूछती कि शे’र गुफ़्तन च ज़रूर बूद? और फिर शे’र की पुरअसरार कुव्वतों और अथाह गहराइयों को छानने खंगालने के लिए इतनी तन्क़ीदी मोशिगाफ़ियों की क्या ज़रूरत थी? बस यही कह देते कि शे’र वही है जो नस्र है। वही फ़ित्ना है लेकिन याँ ज़रा साँचे में ढलता है। अल्लाह अल्लाह ख़ैर सल्ला।

    लेकिन ज़ाहिर है कि ऐसा नहीं। यक़ीनन शे’र में ऐसे ख़साइस हैं जो नस्र में नहीं पाए जाते और अगर शे’र की तारीफ़ या तहसीन इन इस्तलाहों के ज़रिए की जाती है या की जाये जिनका इतलाक़ नस्र पर भी हो सकता है, तो ये तन्क़ीद की कमज़ोरी है। अब इसे क्या कीजिए कि न सिर्फ़ उर्दू तन्क़ीद, बल्कि बेशतर तन्क़ीद, शे’र के गिर्द तवाफ़ तो करती रही है, लेकिन उसे छूने, टटोलने और इसके जिस्म के ख़ुतूत की हदबंदी और पैमाइश करने से डरती रही है। आख़िर थक-हार कर ये भी कह दिया गया कि सारी तशरीह-ओ-तज्ज़िया के बाद जो चीज़ बच रहे वो शे’र है। मावारा-ए-सुख़न भी है इक बात का मफ़रूज़ा मशरिक़-ओ-मग़रिब दोनों में आम रहा है। ये दुरुस्त है कि इंतहाई माबाद उल तबीअयाती सतह पर शे’र की माअनवियत और हुस्न का तज्ज़िया या उसके बारे में कोई कुल्लिया तराज़ी मुम्किन नहीं, क्योंकि हर शख़्स के लिए शे’र  अपना अलग वुजूद, अलग माअनवियत और अहमियत रखता है।

    हम दरअसल मीर या ग़ालिब का नहीं बल्कि अपना शे’र पढ़ते हैं, जिस तरह जॉनसन ने कहा था कि शे’र में बहुत सारी मूसीक़ी ऐसी होती है जिसे हम और सिर्फ़ हम ख़ल्क़ करते हैं। लेकिन एक उमूमी सतह पर इफ़हाम-ओ-तफ़हीम के लिए और शे’र के तालिब-इल्म को तक़दीर शे’र की (कम से कम) वस्ती मंज़िल तक पहुंचाने के लिए यक़ीनन ऐसी निशानियां ढूँडी जा सकती हैं जो शे’र में शायरी के उन्सुर को पहचानने में मदद दे सकें और हमें ये बता सकें कि कौन सा शे’र  शायरी है और कौन सा नहीं। यहीं पर दूसरा मसला भी उठता है कि अगर हम शे’र की पहचान ऐसी वज़ा करें या मुरत्तब करें जो मोज़ूई हो तो सारी मेहनत बेकार है, क्योंकि जिस तरह ऐसी पहचान फ़ुज़ूल है जो नस्र और शे’र में मुश्तर्क हो, उसी तरह ऐसी पहचान भी लाहासिल है जिसे देखने के लिए हमें मोज़ूई मेयार या नुक़्ता-ए-नज़र को काम में लाना पड़े।

    मोज़ूई तर्ज़-ए-फ़िक्र के ख़तरात की वज़ाहत चंदाँ ज़रूरी नहीं। चूँकि मोज़ूई मंतिक़ हर फ़र्द के एतबार से बदलती रहती है, इसलिए ऐन-मुमकिन है कि मैं किसी चीज़ को शे’र में “शायरी”  का नाम दूं और दलील ये दूं कि मैं ऐसा महसूस करता हूँ तो जवाब ये मिले कि आप महसूस करते होंगे, हम तो नहीं करते। अगर मैं ये कहूं कि ग़ालिब का ये शे’र, 

    महफ़िलें बरहम करे है गंजिंफ़ा बाज़ ख़्याल
    हैं वर्क़ गरदानी-ए-नैरंग यक बुतख़ाना हम

    इसलिए ख़ूबसूरत है या शायरी है कि इसका आहंग बहुत दिलफ़रेब है तो जवाब ये हो सकता है कि हम तो उसके आहंग में कोई दिलफ़रेबी नहीं देखते। आप दिखाइए, कहाँ है। अगर मैं जवाब में कहूं कि इस शे’र में जो ख़्याल नज़्म हुआ है इसको इंतहाई मुनासिब आहंग मिल गया है, यही उसका हुस्न है। तो जवाब में कहा जा सकता है कि हमें तो ये आहंग इस ख़्याल के लिए क़तअन नामुनासिब मालूम होता है और अगर बफ़र्ज़-ए-मुहाल ऐसा हो भी, तो ये आहंग मुंदर्जा ज़ैल शे’र में इतना मुनासिब क्यों नहीं है जब कि बहर एक ही बल्कि रदीफ़-ओ-काफ़िया भी है,

    हम गए थे शहर-ए-दिल्ली हमको इक लड़की मिली
    देखते ही उसको फ़ौरन हो गए दीवाना हम

    अब अगर मैं ये कहूं कि बहर और रदीफ़-ओ-क़ाफ़िया तो एक है, लेकिन इस शे’र में जो ख़्याल नज़्म किया गया है वो मुज़हिक है, इस वजह से आहंग मुनासिब नहीं मालूम होता। आप जवाब में कह सकते हैं कि अव्वलन तो हमें ये ख़्याल मुज़हिक नहीं मालूम होता लेकिन अगर मुज़हिक ख़्याल के लिए ये आहंग नामौज़ूं है तो इस शे’र के बारे में क्या ख़्याल है,

    अपनी ग़फ़लत की यही हालत अगर क़ायम रही
    आएँगे ग़स्साल काबुल से कफ़न जापान से

    यहां आहंग मुतनासिब क्यों महसूस होता है? अब मैं जवाब में कह सकता हूँ, मुझे तो नहीं महसूस होता। इस पर ये कहा जा सकता है कि अच्छा ये बताइए कि मुंदर्जा ज़ैल आहंग संजीदा है कि मुज़हिक,

    फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाइलुन
    फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाइलुन

    मैं अगर ये कहूं कि न संजीदा है न मुज़हिक बल्कि बेमानी है तो सवाल हो सकता है कि फिर इक़बाल के शे’र के लिए नामुनासिब क्यों हुआ? वग़ैरा वग़ैरा। इस तरह हमारा आपका झगड़ा ता क़यामत चलता रहेगा, कभी कोई फ़ैसला न हो पाएगा। बहुत से संजीदा और मोतबर नक़्क़ादों ने तो यही कह कर बहस बंद कर दी है कि अगर आप में शे’र शनासी का मलिका नहीं है तो हम क्या कर सकते हैं। चुनांचे पुरानी तन्क़ीद के अहम तरीन नक़्क़ाद मसऊद हसन रिज़वी अदीब जो अपने वक़्त में जदीद थे, और आज भी उनकी तहरीरें बा’ज़ जदीद नज़रियात की बेश बीनी करती नज़र आती हैं 2 कहते हैं,

    “जिन चीज़ों से कलाम में असर पैदा होता है, वो शे’र में अलैहदा अलैहदा मौजूद नहीं होतीं, बल्कि वो सब या उनमें चंद, तरकीबी हालत में पाई जाती हैं। उनकी तरकीब से शे’र में जो कैफ़ियत पैदा हो जाती है उसका इज़हार लफ़्ज़ों में बहुत मुश्किल है और वही कैफ़ियत शे’र की रूह होती है... जो लोग इस (यानी शे’र से लुत्फ़ अंदोज़ी) की सलाहियत से फ़ित्रतन महरूम हैं, उनके लिए शे’र के असर की तहलील-ओ-तौज़ीह बेसूद है।” 

    यहां पर ये ग़लतफ़हमी भी कारफ़रमा हो गई है कि शे’र की खूबियां परखना और उससे लुत्फ़   अंदोज़ होना एक ही चीज़ के दो नाम हैं। मुम्किन है कि मुझे ताज महल देखकर कोई लुत्फ़   न आए, लेकिन अगर मैं फ़न-ए-तामीरात की बारीकियों का नुक्ता शनास हूँ तो मैं उसके हुस्न-ए-क़ुबह को तो पहचान ही सकता हूँ। मौज़ूई तास्सुर पर इतना ज़ोर दरअसल इसी वजह से दिया गया है कि नक़्क़ाद को शे’र की पुरअसरार कुव्वतों का शदीद एहसास है लेकिन मुश्किल ये आ पड़ी है कि कम से कम एक हद तक तो उन मशीनी अवामिल को पहचाना जाये जिनकी वजह से वो पुरअसरार क़ुव्वतें शे’र में दर आई हैं। अगर ऐसा करने की कोई सूरत नहीं है तो ये वाक़ई एक बड़ा अलमिया है कि शायरी जो ज़ेहन-ए-इंसान की बेहतरीन और आला तरीन तख़लीक़ है, इसको जानने, पहचानने और परखने के लिए मौज़ूई और दाख़िली मेयारों का सहारा लेना पड़े जो नाक़ाबिल-ए-एतबार नहीं भी हैं तो कम से कम पाय-ए-सबूत से यक़ीनन साक़ित हैं।

    लेकिन इस को क्या-किया जाये कि हक़ीक़त-ए-हाल यही है। मशरिक़ी तन्क़ीद ने शे’र के मुहासिन (और इस तरह उसकी पहचान) मुतअय्यन करने की कोशिश ज़रूर की है, और इस सिलसिले में वो मग़रिब से आगे भी रही है, क्योंकि मग़रिब ने तो एक तरफ़ वजदान और ज़ौक़ का सहारा लिया, दूसरी तरफ़ ऐसे ख़वास मुतअय्यन किए जो फ़ीनफ़सही अहम हैं, लेकिन उनका इतलाक़ नस्र पर भी हो सकता है। मशरिक़ में वजदान पर इतना ज़ोर नहीं दिया गया बल्कि यहां ये हुआ कि वजदानी इल्म के ज़रिए जो ख़वास पहचाने जा सके, उनको मारुज़ी इस्तलाहों के ज़रिए ज़ाहिर करने की कोशिश की गई, या फिर ऐसे ख़वास तै कर दिए गए जिनका इतलाक़ तमाम शायरी पर नहीं हो सकता, बल्कि उनकी हैसियत किसी शख़्स वाहिद की पसंद या इन्फ़िरादी (और अक्सर) ग़ैर मंतक़ी, बेउसूल Arbitrary फ़ैसले की थी। तीसरी सूरत ये हुई कि शे’र की जो खूबियां बयान की गईं वो या तो तमाम शायरी पर हावी नहीं होतीं, या ऐसी थीं जो नस्र और शे’र में मुश्तर्क थीं।

    वजदानी मेयार की एक क़दीम मिसाल ख़्वाजा क़ुतुब उद्दीन बख़्तियार काकी के इस सवाल का जवाब है जो उन्होंने शाह अबदुर्रहीम के सामने पेश किया था। जब ख़्वाजा क़ुतुब उद्दीन बुख़्तियार काकी ने उनसे शे’र की तारीफ़ पूछी तो उन्होंने जवाब में कहा, कलाम-ए-हुस्ना, हुस्न-ओ-क़बीहा, क़ुब्ह। यानी ऐसा कलाम जिसकी ख़ूबसूरती हुस्न है और जिसकी बदसूरती क़ुब्ह है। ज़ाहिर है कि शाह अबदुर्रहीम ने हुस्न और क़ुब्ह की इस्तलाहें मुतलक़ हुस्न और मुतलक़ क़ुब्ह के मअनी में इस्तेमाल की थीं, लेकिन फिर भी इससे साइल का मसला हल नहीं होता, क्योंकि ख़ूबसूरती और बदसूरती की तारीफ़ नहीं की गई है। हमारे ज़माने से क़रीब-तर मिसाल ग़ालिब की है जिन्होंने शे’र की तारीफ़ करते हुए बेहतरीन तर्ज़-ए-शे’र को ‘‘शेवा बयानी” और शेवा बयानी को सुख़न-ए-इश्क़ व इश्क़-ए-सुख़न, कलाम-ए-हुस्न व हुस्न-ए-कलाम, से ताबीर किया था।

    ज़ाहिर है कि इससे ज़्यादा मुहमल तारीफ़ मुम्किन ही नहीं, क्योंकि इन चार में से एक शर्त भी ऐसी नहीं है जिसे मारुज़ी तौर पर तो कुजा, मौज़ूई तौर पर भी समझा जा सके। लेकिन, जैसा कि मैं कह चुका हूँ, मशरिक़ में ज़्यादातर ज़ोर इस बात पर रहा है कि मौज़ूई इल्म को मारुज़ी बयान में अदा किया जाये, मसलन अरबी शायर का ये क़ौल कि बेहतरीन शे’र वो है कि जब पढ़ा जाये तो लोग कहें कि सच कहा है। या इब्न रशीक़ का ये कहना कि बेहतरीन शे’र वो है कि जब पढ़ा जाये तो लोग ये समझें कि हम भी ऐसा कह सकते हैं लेकिन कोई दरअसल ऐसा कह न पाए (ग़ालिब ने यही तारीफ़ सहल मुम्तना की लिखी है।) या ये कहना कि अच्छा शे’र  वो है जिसके मअनी मुकम्मल शे’र सुनने से पहले ज़ेहन में आ जाएं।

    ये सब तारीफ़ें और इस तरह की बहुत सी और, जिनके हवालों से मुक़द्दमा शे’र-ओ-शायरी भरा पड़ा है, मौज़ूई फ़िक्र की नाकामी की निशानदेही करती हैं, क्योंकि मौज़ू को मारूज़ में इस तरह बदलना कि उसकी सच्चाई पूरी पूरी बरक़रार रहे, मुम्किन नहीं है। अरबों की तरह शेक्सपियर ने भी कहा था कि सबसे सच्ची शायरी सबसे ज़्यादा झूटी होती है (अहसन उल-शुआरा क़ज़ बह।) इसका मफ़हूम हाली ने ये निकाला है कि ऐसी शायरी असलियत और जोश दोनों से आरी होगी, जब कि असलियत और जोश अच्छी शायरी की पहचान हैं। जब हाली जैसे समझदार लोग भी मौज़ू से मारूज़ में आकर इतनी बड़ी ग़लती कर सकते हैं तो हमारा आपका पूछना ही क्या है।

    ख़ुद हाली की ये उसूल बंदी कि शायरी असलियत, सादगी और जोश से इबारत है, मिल्टन को ग़लत समझने का नतीजा तो है ही, लेकिन इस ग़ैर मंतक़ी बेउसूल Arbitrary तअय्युन की भी मिसाल है जिसका इल्ज़ाम उन्होंने ख़लील बिन अहमद पर रखा था। ख़लील बिन अहमद का ये क़ौल नक़ल कर के कि अच्छा शे’र वो है जिसका क़ाफ़िया शे’र पूरा होने के पहले सामे के ज़ेहन  में आ जाये, वो कहते हैं, ‘‘ये तारीफ़ न जामे है और न माने। मुम्किन है शे’र अदना दर्जे का हो और इसमें ये बात पाई जाये, और मुम्किन है शे’र आला दर्जे का हो और उसमें ये बात न पाई जाये।” बिल्कुल दुरुस्त, लेकिन यही बात सादगी, असलियत और जोश पर भी सादिक़ आती है, और भी कि उनमें से कोई सिफ़त ऐसी नहीं है जो सिर्फ़ शे’र से मुख़तस हो। मसलन हर ज़ोर ज़ुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है, की क़िस्म के सियासी नारों में सादगी, असलियत और जोश सब हैं, लेकिन उनमें शायरी भी है, शायद हाली भी उसे तस्लीम न करते।

    शे’र की अमली तन्क़ीद करते वक़्त मशरिक़ी तन्क़ीद ने जो इस्तिलाहें वज़ा कीं उनमें बड़ा ऐब ये रहा कि वो नस्र और नज़्म दोनों पर मुंतबिक़ हो सकती हैं। इब्न ख़ुलदून का ये क़ौल कि नस्र हो या नज़्म, अलफ़ाज़ ही सब कुछ होते हैं, ख़्याल अलफ़ाज़ का पाबंद होता है, हाली जिसका मज़ाक़ उड़ाते हैं और जो आज मग़रिबी तन्क़ीद में हाथों-हाथ लिया जा रहा है, और जिसे मला रमे और डेगा के मशहूर मकालमे के बराबर अहमियत दी जा रही है (जब मलारमे ने डेगा से कहा था कि मियां शायरी ख़्यालात से नहीं अलफ़ाज़ से होती है।) अगर सामने रखा जाता तो लफ़्ज़ के सतही मुहासिन (सनाइअ बदाए) के बालों की इतनी खालें न निकाली जातीं।

    बहरहाल माअनवी मुहासिन के लिए जो इस्तिलाही ज़बान इस्तेमाल की गई है इसके लिए दो तीन मिसालें काफ़ी हैं। इमदाद इमाम असर काशिफ़ उलहकायक में लिखते हैं कि फ़ारसी की कोई मसनवी ऐसी नहीं है जो दिलकशी फ़ित्रत निगारी में स्काट की The Lady Of The Lake का मुक़ाबला कर सके आगे चल कर वो हिदायतनामा ग़ज़लगोई का उनवान क़ायम करके बीस हिदायतें रक़म करते हैं, उनमें से चंद हस्ब-ए-ज़ैल हैं,

    (1) अदाए मतलब के लिए ग़ज़लगो की ज़बान को सलीस होना चाहिए किस वास्ते कि वारदात-ए-कलबियह के बयानात मुग़ल्लिक़ात से बेतासीर हो जाते हैं।

    (2) जिस क़दर मुम्किन हो ज़बान की सादगी मलहूज़ रहे। ग़ज़लगोई को सनाइअ बदाए की हाजत नहीं होती।

    (3) हत्तल अमकान तशबीह इस्तिआरा दख़ल न पाएं। ये चीज़ें शायर की इज्ज़-ए-तबीयत का पता देती हैं।

    (8) ग़ज़ल के जितने मज़ामीन हों दाख़िली हों।

    (12) बंदिशें ऐसी न हों कि मज़ाक़-ए-सही से ख़ारिज पाई जाएं (मज़ाक़ सही इबारत है तबईत फ़ित्रत से।)

    (20) ग़ज़लगो का फ़र्ज़-ए-मंसबी है कि क़ुर्ब-ए-सुलतानी से ताहद-ए-इमकान किनाराकश रहे...

    इस बात की वज़ाहत ग़ालिबन ग़ैर ज़रूरी है कि न तो ये शराइत तमाम ग़ज़ल की शायरी पर मुंतबिक़ हो सकते हैं, न इनकी मारुज़ी तफ़हीम मुम्किन है और न उन्हें शे’र से मुख़्तस समझा जा सकता है। शिबली इमदाद इमाम असर से ज़्यादा मुहतात थे। शे’र उल अजम जिल्द पंजुम में कहते हैं, “सबसे बड़ी चीज़ जो ख़्वाजा हाफ़िज़ के कलाम में है हुस्न बयान, ख़ूबी अदा और लताफ़त है। लेकिन ये ज़ौक़ी चीज़ है जो किसी क़ायदे और क़ानून की पाबंद नहीं। फ़साहत-ओ-बलाग़त के तमाम उसूल उसके अहाते से आजिज़ हैं। एक ही मज़मून है, सो-सौ तरह से लोग कहते हैं, वो बात नहीं पैदा होती। एक शख़्स इसी ख़्याल को मालूम नहीं किन लफ़्ज़ों में अदा कर देता है कि जादू बन जाता है... ग़ज़ल की एक ख़ास ज़बान है, जिसमें नज़ाकत, लताफ़त और लोच होता है, इस क़िस्म की ज़बान के लिए ख़्यालात भी ख़ास होते हैं।” 

    इस तमाम तन्क़ीदी महाकमे में ये तो महसूस होता है कि सुख़न-फ़हमी उस शख़्स में ज़्यादा है, लेकिन जिन अलफ़ाज़ में वो उसका इज़हार कर रहा है, उनसे क़दम क़दम पर इख़्तिलाफ़ हो सकता है। उसने इख़्तिलाफ़ का दरवाज़ा ही ये कह कर बंद कर दिया है कि ये ज़ौक़ी चीज़ है, किसी क़ायदे क़ानून की पाबंद नहीं। लेकिन इस तामीम का नतीजा ये हुआ कि यही हुस्न-ए- बयान, ख़ूबी-ए-अदा, लताफ़त और जादूनिगारी लोगों ने अनीस के कलाम में भी ढूंढ ली। चुनांचे नौबत राय नज़र लिखते हैं कि अनीस के यहां, “मज़मून की ताज़गी, जिद्दत-ए-ख़्याल, अलफ़ाज़ की बरजस्तगी, तसलसुल-ए-बयान और ज़ोर नज़्म के साथ बयान की घुलावट एक ऐसा लुत्फ़   रखती है जो बयान से बाहर है।” ये बात तो नौबत राय नज़र को भी मालूम होगी कि हाफ़िज़ और अनीस में बोद उल-मुशरक़ीन है, लेकिन इसको वो ज़ाहिर किस तरह करेंगे, ये समझ में नहीं आता।

    इस तरह दरअसल नक़द शे’र के दो मसाइल हैं, एक तो ये कि शायरी को क्यूँ कर पहचाना जाये और दूसरे ये कि दो शायरियों में तफ़रीक़ क्यूँ कर हो। मग़रिबी तन्क़ीद पहले सवाल में बहुत ज़्यादा मुनहमिक रही है। लेकिन वहां भी यही मसला था कि शायरी एक ख़ूबसूरत चीज़ है, लेकिन ख़ूबसूरती को नापने या गिरफ़्त में लाने का वसीला क्या हो? इसके जवाब में या तो वजदानी टामक टूईयां होती रहीं या नफ़्सियाती जमालियात का सहारा लिया गया। वजदानियों ने ये तै किया कि ख़ूबसूरती को गिरफ़्त में लाने के लिए ज़ौक़ Taste असल चीज़ है। लिहाज़ा एडीसन ने कहा कि,

    “ज़ौक़, रूह (लफ़्ज़ रूह तवज्जो तलब है) की वो सलाहियत है जो किसी मुसन्निफ़ के मुहासिन को लुत्फ़ के साथ और मआइब को नापसंदीदगी के साथ पहचानती है... जिस क़िस्म के ज़ौक़ की मैं बात कर रहा हूँ उसके लिए क़ानून क़ाएदे बनाना बहुत मुश्किल है। ये ज़रूरी है कि ये सलाहियत किसी न किसी हद तक वहबी हो और ऐसा अक्सर हुआ है कि बहुत से लोग जो दूसरे ख़वास के बदरजा-ए-अतम हामिल थे, ज़ौक़ से क़तअन आरी निकले हैं।”

    ख़ैर एडीसन की बिसात ही क्या थी, बर्क ने पूरी किताब इसी मौज़ू पर लिखी है कि ख़ूबसूरती को कैसे पहचानें। वो ख़ुद कहता है कि “मेरी इस छानबीन का मक़सद ये पता लगाना है कि क्या ऐसे कोई उसूल हैं जो इंसानी तख़य्युल पर यकसाँ तरीक़े से असरअंदाज़ होते हैं, और इस तरह ज़ौक़ की तदवीन करते हैं।” वो दावा करता है कि हाँ, हैं। लेकिन दलील मैं कहता है, “जहां तक कि ज़ौक़ को तख़य्युल का पाबंद कहा जा सकता है, उसका उसूल तमाम लोगों में एक ही है... उनके मुतास्सिर होने के दर्जात में फ़र्क़ हो सकता है। ये फ़र्क़ ख़ुसूसन दो वुजूह से होता है, या तो फ़ित्री हिस्सियत की कसरत से, या शैय मौज़ूआ पर ज़्यादा देर तक और कसीर तवज्जा सर्फ़ करने से... क्योंकि हिस्सियत और क़ुव्वत-ए-फै़सला (जिन दो ख़वास पर हमज़ौक़ को मुनहसिर समझ सकते हैं) मुख़्तलिफ़ लोगों में बहुत ज़्यादा फ़र्क़ के साथ पाए जाते हैं।” 

    लिहाज़ा साबित हुआ कि ज़ौक़ एक ना-क़ाबिल-ए-एतबार चीज़ है, क्योंकि हर शख़्स अपने अपने तजुर्बे, हिस्सियत और क़ुव्वत-ए-फै़सला से मजबूर है। कोई ज़रूरी नहीं कि मेरा ज़ौक़ सही ही हो। ये भी ज़रूरी नहीं है कि ग़लत हो, लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि ग़लत न होगा। अक़ली दलायल से क़त-ए-नज़र, अगर ज़ौक़ या ज़ौक़-ए-सलीम इतना ही मोतमिद होता कि शायरी को पहचानने में हमेशा न सही, अक्सर सही साबित होता, तो ग़ालिब को ऐसे सैकड़ों शे’र  दीवान से न ख़ारिज करने पड़ते जो उर्दू क्या, तमाम शायरी का तुर्रा-ए-इम्तियाज़ हैं। लोग अमीर-ओ-दाग़-ओ-हसरत की ग़ज़लों पर बरसों सर न धुनते। आज यगाना की ग़ज़लगोई का इतना ग़लग़ला न होता और पो के इस दावे के बावजूद कि “ज़ौक़ हमें हुस्न का इल्म बख़्शता है या हुस्न के बारे में हमें मुत्तला करता है, उसी तरह, जिस तरह अक़ल हमें सच्चाई के बारे में मुत्तला करती है।” हम रोज़ाना ज़ौक़ की ग़लतियों के शिकार हो कर राबर्ट बर्जज़ की तरह हापकिंज़ की बेहतरीन शायरी पर नाक भों न चढ़ाते। इस सिलसिले में कोलरिज और वर्डज़ वर्थ का एहतिजाज क़ाबिल-ए-लिहाज़ है। कोलरिज ने तो ये कह कर बस किया कि,

    “अज़ीम अज़हान अपने अह्द का ज़ौक़ पैदा कर सकते और करते हैं, और क़ौमों और अदवार के ज़ौक़ को बिगाड़ने वाली वजूह में एक ये भी है कि जीनियस के हामिल लोग कुछ हद तक तो ज़ौक़-ए-आम के सामने घुटने टेक देते हैं और कुछ हद तक उससे मुतास्सिर हो जाते हैं।” (इस तरह अपना ज़ौक़ बिगाड़ लेते हैं।)

    लेकिन वर्डज़ वर्थ ने 1815 ई. के दीबाचे में साफ़ साफ़ कह दिया, “हर मुसन्निफ़, जिस हद तक वो अज़ीम और ओरीजनल है, के ज़िम्मे ये भी फ़र्ज़ रहा है कि वो उस ज़ौक़ को पैदा करे जिसके ज़रिए उससे लुत्फ़ अंदोज़ होना मुम्किन है। ऐसा ही हुआ है और होता रहेगा। जीनियस ज़ेहन  का कायनात में एक नए उन्सुर के दखूल का नाम है।” 

    इस के मअनी ये हुए कि हर नए और अहम शायर के पैदा होने के साथ ही हम नया ज़ौक़ भी हासिल करें। लेकिन मुश्किल ये है कि ये हमें कौन बताएगा कि कौन सा शायर नया और अहम है? अगर ज़ौक़ की गु़लामी सही है तो ये दोहरी गु़लामी है। जब तक हम ज़ौक़ पैदा न करें नए और अहम शायर से लुत्फ़ अंदोज़ नहीं हो सकते। लेकिन जब तक हम में ज़ौक़ नहीं है, हम ये जान ही नहीं सकते कि फ़ुलां शायर नया और अहम है और हमें उसके हस्ब-ए-हाल ज़ौक़ अपने अंदर पैदा करना है। कोलरिज ने ये कह कर बात तो तमाम कर दी कि बड़ा शायर, मज़ाक़-ए-आम को बनाता भी और ख़ुद उससे बिगड़ता भी है। लेकिन मसला जूं का तूं रहा कि वो ख़ूबसूरती जिसे ज़ौक़ की मदद से देखा जा सकता है, क्या है। देखें इस सिलसिले में कोलरिज   क्या कहता है,

    सबसे पहली बात तो ये है कि वो हईयत को हुस्न से अलग नहीं करता, बल्कि एक तरह से हईयत ही को हुस्न मानता है। लेकिन मुश्किल ये कि इन तमाम सिफ़ात को शे’र में किस तरह मुनाकिस देखा जाये, ये बात नहीं खुलती। पहले तो हम ये जानें कि शायरी क्या है, फिर देखें इसमें वो चीज़ें हैं कि नहीं जो कोलरिज ने बताई हैं। सिर्फ़ एक बात ऐसी है जो शायराना हुस्न की मुजर्रिद तारीफ़ में कही गई है, यानी ख़ुश हईयती का ज़िंदगी से इम्तिज़ाज। इस तारीफ़ की मौज़ूइयत ज़ाहिर है। दरअसल, कोलरिज जिन मसाइल पर गुफ़्तगु कर रहा है वो अभी हमारी दस्तरस से बहुत दूर हैं। हम तो हनूज़ रोज़-ए-अव्वल में हैं। ये इक़तबासात मुलाहिज़ा हों। मैंने तारीखें भी दे दी हैं ताकि उसके फ़िक्री इर्तिक़ा का अंदाज़ा हो सके,

    “हुस्न क्या है? तजरीदी एतबार से देखा जाये तो ये कसीर उल जहत की वहदत है। मुख्तलिफ़-उन-नौअ का इदग़ाम है ठोस शक्ल में, ये हईती एतबार से मुतनासिब का ज़िंदगी Vital से इम्तिज़ाज है।” (बाक़ियात, मतबूआ 1836/1839) 

    “एक ज़िंदा वुजूद के लिए ज़रूरी है कि वो मुनज़्ज़म भी हो और तंज़ीम, अजज़ा के उस बाहमी तवाफ़िक़ का नाम है जिसमें हर जुज़, कुल का हिस्सा भी है और कुल की तामीर भी करता है, हत्ता कि हर जज़्बा यक वक़्त मक़सद भी होता है और ज़रिया भी... जब हम किसी मुक़र्ररा मवाद पर कोई पहले से तय-शुदा हईयत मुसल्लत करते हैं तो मशीनी हईयत वुजूद में आती है... (असल) हईयत वही है जो ज़िंदगी है।” (लेक्चर,1818) 

    “मूसीक़ी के इंबिसात का एहसास और उस एहसास को ख़ल्क़ करने की क़ुव्वत, ये तख़य्युल का अतीया होते हैं, साथ ही साथ, कसरत को तास्सुर की वहदत में ढालने की क़ुव्वत भी।”  (तख़य्युल का अतीया होती है।), (बाक़ियात, मतबूआ 1836/1839) 

    गोया अपनी फ़िक्री ज़िंदगी के शबाब से लेकर उसकी तकमील तक कोलरिज मुख्तलिफ़-उन-नौअ की वहदत में इदग़ाम, ज़िंदा हईयत और तख़य्युली क़ुव्वत को शे’र की असास बताता रहा। इस बात से इनकार मुम्किन नहीं कि शे’र की आला अमलियात को समझने और उसकी गहराइयों में उतरने के लिए कोलरिज और उसके शागिर्द रिचर्ड्स से बढ़कर कोई रहनुमा नहीं। उनको साथ ले चलिए तो ख़ौफ़ गुमराही नहीं, क्योंकि उनका क़लम भी दश्त-ए-सुख़न में असा की तरह सहारा देता है। लेकिन उनके साथ चलने के लिए जिस तैयारी की ज़रूरत है वो उनसे नहीं मिल सकती। क़दम क़दम पर सवाल उठता है, हईयती एतबार से मुतनासिब क्या है और क्या नहीं? ज़िंदगी या ज़िंदा वुजूद से जब उसका इम्तिज़ाज होता है तो क्या शक्ल होती है? इस शक्ल के बुनियादी ख़वास क्या हैं? जुज़ किस तरह कुल का हिस्सा भी हो सकता है और उसकी तामीर भी कर सकता है? इन सवालों का जवाब देने से ख़ुद कोलरिज को भी गुरेज़ है क्योंकि आख़िरी इक़तबास यूं ख़त्म होता है,

    “(ये सलाहियतें) मश्क़-ओ-मज़ावलत के ज़रिए आहिस्ता-आहिस्ता उगाई जा सकती हैं या तरक़्क़ी दी जा सकती हैं और उन्हें जिला दी जा सकती है, लेकिन उन्हें सीखा कभी नहीं जा सकता।” 

    कोलरिज ने कांट से बहुत कुछ सीखा था और उसके माबाद उल तबीअयाती तसव्वुरात को शे’र  पर मुंतबिक़ करने की कोशिश की थी। लिहाज़ा कांत से भी रुजू कर लिया जाये कि वो हुस्न की तारीफ़-ओ-तअय्युन किस तरह करता है। मेरे ख़्याल में कांट पहला और आख़िरी मग़रिबी फ़लसफ़ी है जिसने हुस्न की मारुज़ी तारीफ़ ढूँढने की बहुत कोशिश की। लेकिन उस मारूज़ियत तक पहुंचने के लिए उसने जो शराइत बयान किए हैं वो कोलरिज के इतने पेचीदा न सही,लेकिन उससे कम नामुम्किन उल-अमल नहीं हैं। वो सबसे पहले तो हुस्न की “बे मक़सदियत”  पर ज़ोर देता है, यानी हुस्न मक़्सूदबिज़्ज़ात है। यहां तक तो ख़ैर ग़नीमत है।

    लेकिन जब वो ये कहता है कि जमालियाती तजुर्बे की ख़ासियत ये होती है कि इसका तजुर्बा करने वाला “बेग़रज़ होता है, यानी उसके एहसास-ए-मसर्रत में सिए मश्हूदा को हासिल करने, उस पर क़ब्ज़ा करने, उसको इस्तेमाल करने का जज़्बा नहीं होता, तो बड़ी मुश्किल आ पड़ती है, क्योंकि हम रोज़ाना इस उसूल का इबताल करते और देखते रहते हैं। लेकिन इस पर भी बस न कर के वो ये कहता है, चूँकि हर शख़्स जमालियाती तजुर्बे पर क़ादिर है (यानी हसीन चीज़ को हसीन समझता है) और अगरचे ये तजुर्बा असलन मौज़ूई है, लेकिन चूँकि इसकी हैसियत आफ़ाक़ी है, इसलिए इस आफ़ाक़ियत की बिना पर ही उसकी मौज़ूइयत, मारुज़ी तजुर्बे के बराबर है।

    यानी वो इंतहाई दीदा दिलेरी से आफ़ाक़ी मौज़ूइयत की इस्तिलाह तराश कर के उसे मारूज़ियत का हमपल्ला क़रार देता है। लेकिन हुस्न का मौज़ूई तजुर्बा अगर इतना ही मारुज़ी होता तो फिर ये रोज़ रोज़ के झगड़े क्यों होते कि फ़ुलां शायर अच्छा है या बुरा है? नई शायरी पर इतना लॉन तान क्यों होता? किसी शायर को एक अह्द में मतऊन और दूसरे में मुहतरम क्यों ठहराया जाता? कांट ज़ाती पसंद नापसंद की बात भी करता है, लेकिन फिर भी कहता है कि बुनियादी तौर पर किसी शैय (मसलन बनफ़शई रंग) के हुस्न का एहसास किसी मौज़ूई तहरीम Inhibition का पाबंद नहीं। ख़ुद उसके अलफ़ाज़ में सुनिए,

    कोई ऐसा तवाज़ुन, ऐसी हम-आहंगी ज़रूर होगी जिसमें दाख़िली तनासुब (यानी मौज़ूई तजुर्बा) इल्म बिल इदराक Cognition के मक़सद के लिए ज़ेहनी कुव्वतों को जगाने के वास्ते मौज़ूं तरीन हो... (अगर ऐसा है) तो ऐसा तवाज़ुन और हम-आहंगी यक़ीनन सबके हिस्से की शैय होगी... इस तरह साबित होता है कि अक़ल उमूमी Common Sense के वुजूद को तस्लीम करने के लिए मज़बूत दलायल मौजूद हैं।” इससे पहले वो ये भी कह चुका है, “अगर कोई शख़्स किसी चीज़ को ख़ूबसूरत गर्दानता है... तो वो सिर्फ़ अपनी तरफ़ से और अपने लिए ये फ़ैसला नहीं करता, बल्कि सब के लिए करता है, और तब हुस्न की बात यूं करता है जैसे कि वो इस शैय का वस्फ़ ज़ाती हो। इसलिए वो कहता है, ये शैय ख़ूबसूरत है।” 

    हुस्न अश्या का वस्फ़ ज़ाती है, ये तो समझ में आता है, लेकिन इस आफ़ाक़ी एतबारियत Validity को किस ख़ाने में रखा जाये जिसकी रू से एक शख़्स सब के लिए फ़ैसला कर देता है? इस मुश्किल को हल करने के लिए कांट इल्म बिल इदराक का सहारा लेकर कहता है कि जिस चीज़ का इदराक न हो सके वो मारुज़ी नहीं हो सकती। ये भी समझ में आता है, लेकिन इदराक हमेशा यकसाँ कब और क्यों रहता है? इसका कोई जवाब नहीं।

    कांट को अपनी ताबीरों पर इस क़दर एतमाद है कि उन्हें नफ़्सियात की भी रू से साबित करने की कोशिश नहीं करता, लेकिन दर-हक़ीक़त उसके नज़रियात अफ़लातून की ख़्याली ऐनियत Ideal Idealism से किसी दर्जा मुतास्सिर हैं, उसके इज़हार की ज़रूरत नहीं। बक़ौल कंथ बर्क, बस इस बात की ज़रूरत है कि “हम अफ़लातून के आफ़ाक़ी मुस्लिमात को आसमान से उतार कर इंसानी ज़ेहन  में बिठा दें और इस तरह उन्हें माबाद उल तबीईयाती न बना कर नफ़्सियाती बना दें। अब ऐनी हईयतों की जगह “असर-अंदाज़ होने की शराइत” ने ले ली है। अब आसमान में किसी ऐनी उलूही तज़ाद की ज़रूरत नहीं है ताकि जिसके इनअकास के तौर पर मैं तज़ाद का एहसास कर सकूं, अब सिर्फ़ मेरी ज़ेहन में तज़ाद का शऊर होना ज़रूरी है।” 

    बहुत से पढ़े लिखे लोग (जिनमें मुहम्मद हसन अस्करी भी शामिल हैं) कहते हैं कि मग़रिब में मंतक़ी इस्बातियत को शिकस्त हो रही है, और जो लोग कहते थे कि मंतक़ी इस्बातियत अमर है, फ़लसफ़ा मर चुका है, अब हैगल की माबाद उल तबीईयात की तरफ़ दुनिया का रुजहान देखकर हैरान हो रहे हैं। मुम्किन है ये बात सही हो, ख़ुद कंथ बर्क का मुंदर्जा बाला बयान, जो अफ़लातून के दिफ़ा में है, इस बात का सबूत है। लेकिन माबाद उल तबीईयात आला सतह पर चाहे कितनी ही कारा॓मद, मानी-ख़ेज़ और इसरार की निक़ाब कुशा हो, लेकिन रोज़मर्रा ज़िंदगी के मसाइल हल करने में किसी काम की नहीं (ये मैं माबाद उल तबीईयात की तहक़ीर में नहीं कह रहा हूँ, क्योंकि मैं ख़ुद भी अस्लुलउसूल क़िस्म के हक़ायक़ का क़ाइल हूँ, मसला सिर्फ़ मुख़्तलिफ़ तर्ज़-ए-इल्म और उसकी इफ़ादियत का है।)

    इस सवाल के जवाब के लिए कि, क्या मैं इस वक़्त शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी का मज़मून पढ़ रहा हूँ? अगर आप माबाद उल तबीईयात से रुजू करें तो एक वक़्त वो आएगा जब आपको मालूम होगा कि मज़मून कुजा और शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी कहाँ, ख़ुद आपका वुजूद  भी मुश्तबहा है। ऐसे सवालों के जवाब तो मंतक़ी इस्बातियत यानी Logical Positivism से ही मिल सकते हैं। इसलिए कांट के मफ़रूज़ात पर इस सदी के सबसे बड़े मंतक़ी इस्बात परस्त बर्टरन्ड रसल की राय सुनिए,

    “ह्यूम पर कांट की तफ़कीर के पहले बारह साल क़ानून अस्बाब-ओ-अलल पर ग़ौर करने में सर्फ़ हुए। पायानेकार उसने एक क़ाबिल-ए-लिहाज़ हल ढूंढ निकाला, उसने कहा ये ठीक है कि वाक़ई दुनिया (Real World) में अस्बाब पाए जाते हैं। लेकिन हम वाक़ई दुनिया के बारे में कुछ भी नहीं जान सकते। ज़वाहिर की दुनिया कि बस उसी का तजुर्बा हम कर सकते हैं, तरह तरह के ख़वास की हामिल है, जो दरअसल हमारे ही अता कर्दा (यानी तसव्वुर कर्दा) हैं, ठीक उसी तरह, जिस तरह वो शख़्स जो एक हरी ऐनक लगाए हुए है और जिसे वो उतार नहीं सकता, समझता है कि हर चीज़ हरी है। जिन मुद्रिकात Phenomenon का तजुर्बा हमको होता है, उनके अस्बाब होते हैं, वो अस्बाब कुछ और मुद्रिकात हैं।

    हमें इस बात से कोई ग़रज़ न हुई चाहिए कि मुद्रिकात के पीछे जो हक़ीक़त है इसमें अस्बाब-ओ-अलल होते हैं कि नहीं, क्योंकि हम उसका तजुर्बा नहीं कर सकते। कांट रोज़ाना एक मुक़र्ररा वक़्त पर टहलने जाया करता था। उसके पीछे पीछे उसका नौकर छतरी लिए चलता था। वो बारह साल जो बड़े मियां ने “अक़ल-ए-ख़ालिस की तन्क़ीद” लिखने में लगाए, उन्हें इस बात का यक़ीन दिलाने में कामयाब हो गए कि अगर पानी बरसा तो बारिश के वाक़ई क़तरों के बारे में ह्यूम कुछ भी कहे लेकिन उसकी छतरी उसे ये महसूस करने से बचा लेगी कि वो भीग रहा है... इस तरह कांट दिल-शिकस्ता नहीं बल्कि मुतमइन मरा। उसकी तौक़ीर हमेशा होती रही, यहां तक कि नातसी हुकूमत ने उसके नज़रियात को अपने सरकारी फ़लसफ़े का ओहदा दे दिया है।” 

    रसल की तंज़ियात से क़त-ए-नज़र, ये बात वाज़ेह है कि छतरी के नीचे खड़ा कांट जो ये महसूस कर रहा है कि वो भीग नहीं रहा है, उस फ़र्ज़ी शख़्स से मुख़्तलिफ़ नहीं है जो अगर किसी चीज़ को हसीन कहता है तो गोया सब के लिए ये फ़ैसला करता है, क्यों इल्म बिला इदराक में सब का हिस्सा है। वो इल्म बिला इदराक जो कांट को बताता है कि वो भीग नहीं रहा है। मैंने कांट की जमालियात को ज़रा तफ़सीली जगह इसलिए दे दी है कि उसकी भी तह में ज़ौक़ और वजदान का वही पुराना ढांचा दाँत निकाले हंस रहा है, मशरिक़ व मग़रिब की तन्क़ीद जिसके सह्र में गिरफ़्तार रही है।

    मेरा मक़सद सिर्फ़ ये ज़ाहिर करना है कि ज़ौक़, चाहे वो बड़े से बड़े नक़्क़ाद का क्यों न हो, पहचान और निशानी का बदल नहीं हो सकता और मौज़ूई तजुर्बा मारुज़ी ज़बान में नहीं बयान हो सकता। चुनांचे कांट के जदीद तरीन शागिर्दों, मसलन मरेकरेगर और ई.डी.हर्ष 3 ने थक हार कर कह दिया है कि “किसी अदबी तहरीर की तशरीह (बयान) उन मौज़ूई रवैय्यों से बिलज़रूरत इज़ाफ़ी ताल्लुक़ रखती है जिन पर उसके मअनी मुश्तमिल हैं।” ये जुमला हर्ष का है। करेगर का इक़बाल और भी वाज़ेह है,

    “अदबी शैय के वजूदी मर्तबे, उसके वुजूद, अदम वुजूद, मअनी और क़दर के बारे में जो भी फ़ैसला हमने उसके और अपने टकराओ के पहले क्या हो, लेकिन हम जानते हैं कि हम उसके बारे में गुफ़्तगु सिर्फ़ उस गर्द की हदों में कर सकते हैं जो इस टकराओ से पैदा हुई है। हम उठ खड़े तो होते हैं, लेकिन हम हू-ब-हू वही नहीं होते जो पहले थे, और क़तईयत के साथ ये बताने की कोशिश करते हैं कि हम किस क़ुव्वत से टकराए थे... कोई न कोई तरीक़ा, दूसरों के बयानात और तसव्वुरात का तक़ाबुल कर के तो ज़रूर होगा जिसके ज़रिए हम उस क़ुव्वत तक पहुंच सकें... ये एक ग़ैर क़तई और न फ़ैसल रास्ता है, अगरचे शायद यही एक रास्ता हमारे पास है।” 

    करेगर का ये नज़रिया इस हद तक तो बिल्कुल दुरुस्त है कि शे’र की माअनवियत हर शख़्स के लिए अलग अलग होती है। हर शख़्स अपना शे’र ख़ुद बनाता है। इसी वजह से अच्छे शे’र में तशरीह-ओ-तफ़हीम की राहें निकलती रहती हैं। लेकिन ख़ुदा के लिए कोई तो ऐसा उसूल होगा जिसकी रोशनी में हम ग़ालिब और अज़ीज़ लखनवी में फ़र्क़ कर सकें? आख़िर वो कौन सा हुस्न है जो ग़ालिब की तमाम शऊरी नक़ल के बावजूद अज़ीज़ लखनवी में नहीं है? अगर कोई साहब ये कहें कि हम अज़ीज़ लखनवी का शे’र पढ़ कर ख़ुद को उसी क़ुव्वत से दो-चार होते हुए महसूस करते हैं जिसकी तरफ़ करेगर ने इशारा किया है और ग़ालिब का शे’र हमें सर्द छोड़ देता है तो हम उनको क्या जवाब देंगे? मसऊद हसन रिज़वी अदीब,

    लट्ठे को खड़ा किया खड़ा है
    हाथी को बड़ा किया बड़ा है

    की मिसाल देकर कहते हैं, “मौज़ूनियत से कलाम में असर पैदा होना तो मुसल्लम है। लेकिन हो सकता है कि किसी कलाम में कोई ऐसी बात हो जो मौज़ूनियत के असर को ज़ाइल कर दे। मसलन (महूला बाला शे’र) ये कलाम भी मौज़ूं है, मगर इसमें असर नाम को नहीं।” 

    मगर क्यों? इस कलाम में कौन सी ऐसी बात है जो मौज़ूनियत के असर को ज़ाइल कर देती है? अगर कोई शख़्स इस शे’र से हद दर्जा मुतास्सिर हो और कहे कि ये हम्द का निहायत उम्दा शे’र है तो इसको किस तरह समझाया जाये कि आप ग़लत कहते हैं। तो क्या हम घूम फिर कर कांट के तीसरे शागिर्द एलिज़ियो वाएवास तक आ जाएं, जो कहता है कि जमालियाती तजुर्बा एक ख़ुद कफ़ील तजुर्बा है और इस ख़ुसूसियत को वो उसकी “लाज़िमीयत”  Intransitiveness से ताबीर करता है? ये लाज़िमीयत, यानी हुस्न का आज़ाद वुजूद क्या है?

    “कुछ अश्या का किरदार असली होता है, और उनमें मौजूद होता है, लेकिन सिर्फ़ उन्हीं लोगों के लिए जिनमें मुनासिब मश्क़ व सलाहियत है कि सिर्फ़ उसी के ज़रिए से उसको देखाजा सकता है।”  चलिए साहब हम सब अंधे हैं।

    इस नज़रिए को रद्द करते हुए कि हर वो चीज़ जो मसर्रत बख़्शी है, ख़ूबसूरत है, रिचर्ड्स वग़ैरा ने लिखा था कि इसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी ये है कि ये एक बहुत ही महदूद तन्क़ीदी ज़बान का मुतहम्मिल हो सकता है। कांट का इनकार करते हुए रिचर्ड्स ने ये लिखा कि उसका नज़रिया-ए- ज़ौक़ का तअय्युन करने के लिए एक बेग़रज़ (यानी जज़्बे से आरी और ग़ैर दानिशवराना क़िस्म के ज़ौक़ का इस्तिहकाम करता है, जिसे उस लुत्फ़ से कोई इलाक़ा नहीं जो हवास-ए-ख़मसा या जज़्बात से मुताल्लिक़ है।

    लेकिन ख़ुद रिचर्ड्स का नज़रिया-ए-इस्तिहाला Synesthesis अक़ली ज़ौक़ पर ज़्यादा मबनी है, मारुज़ी फ़िक्र पर कम। मसलन वो इस क़ुव्वत या शैय को हुस्न गर्दानता है जो इस्तिहालाती मुतवाज़नियत Synesthetic Equilibrium को राह दे। अगरचे ये इस्तिलाह ख़ुद भी बहुत ग़ैर क़तई है, लेकिन सवाल जूं का तूं रहता है कि अगर हाथी को बड़ा किया बड़ा है, पढ़ कर मुझे इस क़िस्म की मतवाज़नियत नसीब हो जाये जिसमें तमाम जज़्बात-ओ-महसूसात और लुत्फ़   अंदोज़ी की तमाम क़ुव्वतें अपने अपने मुनासिब अजज़ा और सही मिक़दार में मिलकर इस्तिहाला पैदा कर लें तो क्या हम इस शे’र को ख़ूबसूरत मान लेंगे?

    और अगर रिचर्डस की इस्तिलाह साज़ी को कॉलिंगवुड के सयाक़-ओ-सबाक में रखकर पढ़ा जाये तो शे’र का आज़ाद वुजूद और मुस्तहकम हो जाता है, लेकिन बात आगे बढ़ती नहीं। या यूं कहें कि इन लोगों की बात इतनी आगे बढ़ी हुई है कि शुरू की मंज़िलें सब गर्द-ए-तफ़क्कुर से धुँदली या मादूम हो चुकी हैं। हमारे उस्ताद प्रोफ़ेसर ऐस.सी. देब ने एक बार हमारे एक साथी को पूना एलिस फ़रमर की किताब (सत्रहवीं सदी ड्रामा) पढ़ते हुए देखकर सख़्त सरज़निश की थी और कहा था कि मियां अभी अलिफ़ बे पढ़ना सीखो, तब बाद में मरबूत इबारत पढ़ना।

    मेरी मुश्किल ये है कि मैं तन्क़ीद की अलिफ़ बे लिखना चाहता हूँ, और मेरे राहबर मरबूत तो क्या मुग़ल्लक़ ज़बान से कम में बात नहीं करते। शेअरी तन्क़ीद में दरअसल सबसे बड़ी दुशवारी ये रही है कि बहुत से मसाइल जो पहले से तय-शुदा हैं, वो इस क़दर तय-शुदा हो चुके हैं कि कोई उनके बारे में लिखना पसंद नहीं करता। सभी ये सोच कर चुप हैं कि उन बातों को कहना क्या ज़रूर है।

    नई शायरी के हामियों से बार-बार कहा जाता है कि आप बताते क्यों नहीं इस शायरी से आप क्या समझते हैं। हमारा जवाब ये होना चाहिए कि हम ये बता सकते हैं कि हम शायरी से क्या मुराद लेते हैं, आप उसकी रोशनी में नई शायरी के नुक़ूश टटोल लीजिए। लेकिन रफ़्त गया और बूद था का सबक़, क्या मशरिक़, क्या मग़रिब, सब भूल चुके हैं। इसी लिए जमा व ख़र्च ज़बां हाय लाल की फ़र्दें हर तरफ़ खुली हुई हैं। ईमान की बात ये है कि शे’र के दाख़िल-ओ-बातिन को पहचानने के लिए मशरिक़ व मग़रिब में दो बुनियादी और असली बातें कह दी गई हैं। मशरिक़ में तो इब्न ख़ुलदून, जिसने ये कहा कि अशआर अलफ़ाज़ का मजमूआ होते हैं और ख़्यालात, अलफ़ाज़ के पाबंद होते हैं, 4 दूसरे जदीद नक़्क़ाद जिन्होंने कोलरिज और रिचर्ड्स के ज़ेर-ए-असर ये कहा कि शे’र, इदराक का एक मख़्सूस और मुख़्तलिफ़ तरीक़ा है और अलग ही तरह का इल्म अता करता है।

    हालांकि ये बात भी जदीद नक़्क़ादों की अपनी नहीं है, कोलरिज के अलावा शेली ने भी शे’र के ज़रिए हासिल होने वाले इल्म को और तरह के इल्म से मुख़्तलिफ़ ठहराया है। कोलरिज का नज़रिया तो मशहूर आम है, जहां वो साईंस का मक़सद इत्तिला बहम पहुंचाना और शे’र का मक़सद मसर्रत बहम पहुंचाना बताता है। लेकिन शेली पर, जिसका मज़मून A Defence Of Poetry शे’र के बारे में कहीं कहीं इल्हामी हद तक बारीकबीनी से ममलू है, ज़्यादा लोगों की नज़र नहीं गई है। वो कहता है, “शायराना सलाहियत के दो तफ़ाउल हैं। एक के ज़रिए ये इल्म, क़ुव्वत और लुत्फ़ के नए नए मवाद पैदा करती है, और दूसरी के ज़रिए ये ज़ेहन में ख़्वाहिश पैदा करती हैं कि इस नए मवाद को एक मख़्सूस आहंग और तर्तीब से ख़ल्क़ किया जाये और मुनज़्ज़म किया जाये, जिसे हुस्न The Beautiful, ख़ूबी The Good कहा जा सकता है।”  

    लिहाज़ा अगर हम ये तै कर लें कि शे’र में इस्तेमाल होने वाले अलफ़ाज़ किस मख़्सूस अमल या तर्तीब के ज़ेर-ए-असर होते हैं, जिसकी वजह से वो ख़ूबसूरत हो जाते हैं और वो कौन सा इल्म है जो शे’र से हासिल होता है, और वो इल्म किस तरह हासिल होता है तो हम शे’र की ऐसी उमूमी पहचान मुरत्तब कर सकेंगे जो बहुत बारीक न सही, लेकिन तफ़हीम-ओ-इफ़हाम के लिए काफ़ी होगी। इस पहचान को वज़ा करने के लिए चार में से एक तरीक़ा इख़्तियार किया जा सकता है,

    (1) या तो हम कोई चंद निशानियां गढ़ लें या फ़र्ज़ कर लें और फिर ये साबित करें कि जिस मंज़ूमे में ये पाई जाएं वो शायरी होगा। सबूत हम इस तरह दें कि जिन अशआर को आम तौर पर अच्छा समझा जाता है, हम उनमें ये खूबियां या ख़वास मौजूद दिखाएं, और अगर उनमें ये ख़वास न हों तो उन्हें शायरी से आरी क़रार दें।

    (2) जिन अशआर को आम तौर पर अच्छा समझा जाता है उनको पढ़ कर हम उनमें चंद मुश्तर्क ख़वास तलाश करें और दिखाएं कि ये ख़वास तमाम शायरी में पाए जाऐंगे।

    (3) हम चंद शे’रों को अपनी मर्ज़ी से अच्छा क़रार दें, फिर उनके मुश्तर्क ख़वास की निशानदेही करें, फिर कहें कि तजुर्बा कर के देख लीजिए, ये ख़वास सब अच्छे शे’रों में होंगे, और जिनमें न होंगे वो शे’र आपकी नज़रों में भी बुरे होंगे।

    (4) हम आपसे कहें कि अपने पसंद के अच्छे शे’र सुनाइए, फिर आपके पसंदीदा शे’रों में से जिनको हम शायरी का हामिल समझें उनकी तफ़सील बयान करें और कहें कि बाक़ी शे’र ख़राब हैं।

    ज़ाहिर है कि चौथा तरीक़ा न मुम्किन-उल-अमल है न मुस्तहन। तीसरा तरीक़ा सबसे बेहतर है क्योंकि सबसे ज़्यादा मंतक़ी है। पहला तरीक़ा इस्तेमाल करने में कोई हर्ज नहीं, दूसरा यक़ीनन तीसरे के साथ साथ आज़ादी से इस्तेमाल किया जा सकता है। अब एक शर्त भी है। वो ये कि हम जो भी निशानियां बताईं वो ऐसी हों कि ऐसे अशआर की ज़्यादा से ज़्यादा तादाद में तलाश की जा सकें जिन्हें आम तौर पर अच्छा समझा जाता रहा है या जिनके बारे में हम ये तवक़्क़ो कर सकते हैं कि उन्हें अच्छा कहा जाएगा। यानी ये बात मुनासिब नहीं है कि हम अपनी बयान कर्दा निशानियां सौ पच्चास, हज़ार दो हज़ार अशआर पर मुंतबिक़ कर के दिखा दें और बक़िया शे’रों को, जो उनके दायरे में न आसकें, ख़राब कह कर बिरादरी से बाहर कर दें।

    हमारी कोशिश इस सूरत में कामयाब समझी जा सकती है जब हम मुत्तफ़िक़ अलैह अच्छे शे’रों की ज़्यादा से ज़्यादा तादाद को अपने दायरे में ले सकें ताकि थोड़े बहुत जो बच रहें, उन्हें इस्तिसनाई दर्जा दिया जा सके। दूसरे अलफ़ाज़ में, हमारा तरीक़-ए-कार लाल बुझक्कड़ों का न हो जिन्होंने साइल से कहा कि आसमान में इतने ही तारे हैं जितने तुम्हारे सर में बाल हैं, और जब उनसे सबूत मांगा गया तो उन्होंने कहा कि गिन कर देख लो।

    चूँकि शर्त मुत्तफ़िक़ अलैह अच्छे अशआर की है, इसलिए हमें अपने मुताले को ज़्यादातर उन्हीं शोअरा के कलाम का पाबंद रखना होगा, जैसे ग़ालिब, दर्द, मीर, सौदा, अनीस, इक़बाल, फ़ैज़, राशिद, मीरा जी जिनके बारे में उमूमी इत्तफ़ाक़ है कि ये अच्छे शायर थे, इसलिए उनके कलाम में शायरी ज़्यादा होगी और उन शोअरा के भी उन्हें अशआर से हमारा वास्ता ज़्यादा होगा जिनकी उम्दगी के बारे में इख़्तिलाफ़-ए-राय या तो नहीं या बहुत कम है। एक शर्त मैं पहले ही लगा चुका हूँ, कि तलाश उन निशानियों की न होगी जो नस्र और शे’र में मुश्तर्क हैं, बल्कि उनकी जो शे’र से मुख़्तस हैं, और अगर नस्र में पाई जाएं तो नस्र को ख़राब कर दें या अजनबी और ग़ैर मुतनासिब मालूम हों, या अगर नस्र में मौजूद ही हों तो ख़ाल-ख़ाल हों।

    अब एक शर्त आप पर भी है, आप मेरी तलाश कर्दा निशानियों को झूटी या ग़ैर मारुज़ी या नाक़ाबिल-ए-अमल क़रार दे सकते हैं। लेकिन मैं जवाब में आपसे कहने का मजाज़ हूँगा कि अच्छा आप ही अपनी निशानियां बयान कीजीए जो मारुज़ी हों और मुतज़क्किरा बाला दो शर्तों पर पूरी उतरती हों। हाँ, इसके जवाब में आप ये ज़रूर कह सकते हैं कि ऐसी पहचान मुम्किन नहीं है, हम अपनी आजिज़ी का इक़रार करते हैं, तुम सरकश हो, इसलिए नहीं करते। इस ख़तरे को क़बूल करते हुए मैं आपकी ख़िदमत में वालेरी का ये क़ौल पेश करता हूँ, “हर वो बात जिसका कहा जाना अशद ज़रूरी हो, शायरी में नहीं कही सकती।” 5 वालेरी ने तो ये बात शे’र  की बे मक़सदियत के सयाक़-ओ-सबॉक़ में कही थी। लेकिन इससे एक और नुक्ता भी बरामद होता है कि शे’र उन तमाम तफ़सीलात को छांट देता है जिनके बग़ैर नस्र का तसव्वुर नहीं किया जा सकता।

    तफ़सील का इख़राज शे’र का बुनियादी अमल है, मैं उसे इजमाल का नाम देता हूँ। इजमाल से मेरी मुराद वो इख़्तिसार या ईजाज़ नहीं है जिसके बारे में शेक्सपियर ने और दूसरों ने कहा है कि हुस्न कलाम की जान है। ऐसा ईजाज़ तो नस्र में भी हो सकता है बल्कि होना चाहिए। इजमाल से में वो बलाग़त भी नहीं मुराद लेता कि आधी बात कही जाये और पूरी समझ में आ जाये। न इससे मेरा मतलब ये है कि अच्छे शे’र में हश्व क़बीह क़िस्म के अलफ़ाज़ नहीं होते। दरअसल हश्व क़बीह और हश्व मलीह की पूरी बहस ही मुहमिल है।

    उलमाए बलाग़त ने इसमें बड़ी मोशिगाफ़ियाँ की हैं लेकिन ये नुक्ता-ए-नज़र अंदाज़ कर गए हैं कि अगर कोई लफ़्ज़ या फ़िक़रा शे’र में एक से ज़्यादा बार लाया गया है, या हम-मअनी अलफ़ाज़ या फ़िक़रे शे’र में एक से ज़्यादा बार लाए गए हैं, लेकिन मअनी में इज़ाफ़ा कर रहे हैं या इज़ाफ़ा न भी कर रहे हों, लेकिन किसी और क़िस्म की माअनवियत के हामिल हों तो हश्व कहाँ रह गए? हश्व की शर्त तो ये है कि बात पूरी हो जाये लेकिन कुछ अलफ़ाज़ बच रहें जिनका कोई मसरफ़ न हो। लिहाज़ा हश्व मलीह की इस्तिलाह इज्तिमा-ए-ज़िद्दैन का नमूना है और हश्व मुतवस्सित (यानी ऐसा हश्व जो ना मअनी में इज़ाफ़ा करे न बुरा मालूम हो तो बिल्कुल ही मुहमल तसव्वुर है। मीर के इस शे’र में असातिज़ा की रू से हश्व मलीह है;

    ऐ आह्वान काअबा न ऐंड-ओ-हरम के गिर्द
    खाओ किसी का तीर किसी के शिकार हो

    क्योंकि खाओ किसी का तीर और किसी के शिकार हो, हम-मअनी हैं लेकिन चूँकि इस तकरार से कलाम में लुत्फ़ पैदा हो रहा है लिहाज़ा ख़ूब है। हालांकि हम-मअनी होने के बावजूद  दोनों फ़िक़्रों के इंसलाकात मुख़्तलिफ़ हैं। तीर खाना ज़ख़्मी होने के तबीई और जिस्मानी अमल की तरफ़ इशारा करता है और शिकार होना गिरफ़्तार होने या बेबस हो जाने या मह्कूम होने का तास्सुर भी रखता है। “हालात का शिकार होना” के हम मअनी “हालात के तीर खाना नहीं है। “बेवक़ूफ़ लोग अक़ल मंदों का शिकार होते हैं” के मअनी ये नहीं कि “बेवकूफ़ लोग अक़लमंदों का तीर खाते हैं।” इस तरह दो बज़ाहिर हम-मअनी फ़िक़रे अलग अलग अमल कर रहे हैं, इनको हश्व कहा ही नहीं जा सकता, न क़बीह न मलीह न मुतवस्सित। कलाम में या तो हश्व होगा या न होगा।

    मैंने हश्व पर इतनी तवज्जा इसलिए सर्फ़ की है कि ये बात बिल्कुल वाज़ेह हो जाये कि इजमाल से मेरा मतलब शे’र की वो ख़ूबी नहीं है जो ईजाज़ या इख़राज-ए-हश्व से पैदा होती है और न वो ख़ूबी है जिसे तक़लील-ए-अलफ़ाज़ कहा जा सकता है, यानी जिस तास्सुर या सूरत-ए-हाल को ज़ाहिर करने के लिए कसरत-ए-अलफ़ाज़ या तकरार-ए-अलफ़ाज़ की ज़रूरत हो, उसको भी कम अलफ़ाज़ में ज़ाहिर किया जाये। क्योंकि जिस तरह “हश्व मलीह” तहरीर की ख़ूबी है, इसी तरह कसरत-ए-अलफ़ाज़ या तकरार-ए-अलफ़ाज़ या तक़लील-ए-अलफ़ाज़ भी तहरीर की खूबियां हैं और मुख़्तलिफ़ तहरीरों में उनका ज़हूर होता रहता है। हम ये नहीं कह सकते कि हर शायरी में ईजाज़, या कसरत-ए-अलफ़ाज़ या तक़लील-ए-अलफ़ाज़ होती है। हज़ारों अच्छे शे’र हैं जिनमें ये खूबियां बिल्कुल नहीं हैं। “इजमाल” कह कर मैं शे’र के उस मशीनी अमल को ज़ाहिर करना चाहता हूँ जिसकी पैदा-कर्दा ख़ुदकार मजबूरी के तहत वो अलफ़ाज़ शे’र से छट जाते हैं जिनके बग़ैर नस्र मुकम्मल नहीं हो सकती। मीर का वही शे’र फिर देखिए,

    ऐ आह्वान काअबा न इंडो हरम के गिर्द
    खाओ किसी का तीर किसी के शिकार हो

    ये शे’र मिसाल के तौर पर इसलिए भी मुनासिब है कि इसकी तर्तीब अलफ़ाज़ तक़रीबन नस्र की सी है। अब मैं इस की बाक़ायदा नस्र करता हूँ, लेकिन इस शर्त के साथ कि कोई लफ़्ज़ कम या ज़्यादा न करूँगा। ऐ आह्वान काअबा हर्म के गिर्द न इंडो। किसी का तीर खाओ किसी के शिकार हो। ये इबारत जो शे’र में बिल्कुल मुकम्मल थी, नस्र में आते ही ना-मुकम्मल हो गई है। अगर इस तरह का इक्का दुक्का जुमला किसी की नस्र में आपको मिल जाये तो आप शायद दर-गुज़र कर जाएं, लेकिन अगर सारी इबारत ऐसी ही होगी तो आप मुसन्निफ़ को ज़ुमर-ए-मुसन्निफ़ीन से ख़ारिज कर देने में ज़रा भी ताम्मुल न करेंगे। इस नस्र को यूं लिखा जाये तो बात पूरी होती है। ऐ आह्वान-ए-काअबा हर्म के गिर्द न इंडो। (बल्कि) किसी का तीर खाओ (या) किसी के शिकार हो।

    अब दोनों जुमले मरबूत मालूम होते हैं, लेकिन फिर भी दूसरा जुमला कुछ और अलफ़ाज़ का मुतक़ाज़ी है। मुंदर्जा बाला जुमला अगर आपको कहीं नज़र पड़े तो आप ये तवक़्क़ो करने में हक़ बजानिब होंगे कि अब आह्वान-ए-काअबा से कुछ ये भी कहा जाएगा कि जब तुम तीर खा चुकोगे या शिकार हो लोगे तब तुम पर कोई हक़ीक़त आशकार होगी। मसलन इबारत पूरी करने के लिए हम कुछ इस तरह के फ़िक़्रों के मुतवक़्क़े होंगे,

    (1) बल्कि किसी का तीर खाओ या किसी के शिकार हो तब तुमको मालूम होगा कि इश्क़ क्या चीज़ है।

    (2) बल्कि किसी का तीर खाओ या किसी के शिकार हो तब तुम वाक़ई किसी क़ाबिल बन सकोगे।

    (3) बल्कि किसी का तीर खाओ या किसी के शिकार हो तब तुम्हें ख़बर लगेगी कि ज़िंदगी क्या है।

    वग़ैरा। आपने ग़ौर किया कि हम जब इस शे’र का मतलब नस्र में बयान करने बैठेंगे तो हमें कोई ऐसी बात कहनी होगी जिससे तीर खाने के बाद पैदा होने वाली सूरत-ए-हाल पर रोशनी पड़ सके। अच्छा फ़र्ज़ कीजिए उसकी ज़रूरत नहीं है कि हम नस्री जुमला मुकम्मल करने के लिए माबाद की सूरत-ए-हाल भी वाज़ेह करें। लेकिन नस्र में ये जुमला नज़र पड़ते ही सयाक़-ओ-सबाक़ में हम ये ढूंढना शुरू कर देंगे कि ये बात किस ने कही। मसलन नस्र की इबारत यूं होगी, फ़ुलां ने फ़ुलां से कहा कि ऐ आह्वान-ए-काअबा हरम के गिर्द न एंडो, बल्कि किसी का तीर खाओ या किसी के शिकार हो।

    इसके बावजूद ये बात बदीही है कि शे’र को इन चीज़ों की ज़रूरत नहीं, और न हमें कोई तकलीफ़ ही होती है कि ये बातें क्यों नहीं कही गईं। अगर हम ये कहें कि शे’र में हम मुतकल्लिम और मुख़ातिब का वुजूद फ़र्ज़ कर लेते हैं, ये उसका एक Convention है, तो मेरी बात और भी मुसल्लम हो जाती है कि नस्र में इस क़िस्म का Convention नहीं होता, इसलिए हम नस्र में इन तमाम अलफ़ाज़ के मुतवक़्क़े रहते हैं जिनकी कमी हमें शे’र में नहीं खटकती। मीर का एक और शे’र  देखिए, जिसके बारे में हाली की रिवायत के मुताबिक़ सदर उद्दीन ख़ां आज़ुर्दा ने कहा था कि क़ुल हुवल्लाह का जवाब लिख रहा हूँ,

    अब के जुनूँ में फ़ासिला शायद न कुछ रहे
    दामन के चाक और गरीबां के चाक में

    इस बात से क़त-ए-नज़र कि हम जब इस शे’र को मंसूर शक्ल में देखेंगे तो मुतकल्लिम का सवाल भी उठाएँगे, शायद ये भी पूछ दें कि पिछली बार जुनूँ में क्या सूरत-ए-हाल रही थी और इस बात से भी क़त-ए-नज़र कि पहले मिसरे की नशिस्त अलफ़ाज़ ने शे’र में ख़ासा इबहाम पैदा कर दिया है, इसकी बे कम-ओ-कास्त नस्र यूं होगी, शायद अब के जुनूँ में दामन के चाक और गरीबां के चाक में कुछ फ़ासिला न रहे। मजबूरन हमें इसमें इज़ाफ़ा कर के यूं लिखना होगा, शायद अब के (फ़सल) जुनूँ में दामन के चाक और गरीबां के चाक में कुछ फ़ासिला (भी) न रहे। या कुछ फ़ासिला (भी) न रहे। शे’र तो पूरा हो जाता है लेकिन नस्र इन दो अलफ़ाज़ के बग़ैर अधूरी रहती है। एक शे’र इक़बाल का देखिए,

    टूट कर ख़ुरशीद की किश्ती हुई ग़र्क़ाब-ए-नील
    एक टुकड़ा तैरता फिरता है रू-ए-आब-ए-नील

    इस शे’र की सालमियत में क्या कलाम हो सकता है, लेकिन नस्र यूं होगी, ख़ुरशीद की किश्ती टूट कर ग़र्क़ाब-ए-नील हुई (लेकिन, फिर भी, सिर्फ़) एक टुकड़ा (अब तक) रू-ए-आब-ए-नील पर तैरता फिरता है। अगर ये कहा जाये कि मुतफ़र्रिक़ अशआर या ग़ज़ल के अशआर में तो ये कैफ़ियत लाज़िमी है, क्योंकि हर शे’र अलग अलग होता है, और बहुत सी बातें फ़र्ज़ करनी पड़ती हैं, तो मैं ये कहूँगा कि ये ख़ुसूसियत मरबूत अशआर या नज़्म के मिसरों में और ज़्यादा पाई जाती है। मसनवी सह्र उल ब्यान के ये मशहूर तरीन अशआर मुलाहिज़ा हों। चांदनी का बयान है, जिसके बारे में तब से अब तक कोई इख़्तिलाफ़ राय नहीं हुआ है कि चांदनी की इससे बेहतर मंज़र कशी शे’र में मुश्किल से हुई होगी। यहां तो ये आलम है ज़बान के साथ जब्र किए बग़ैर इन शे’रों की नस्र नहीं हो सकती,

    वो सुनसान जंगल वो नूर क़मर
    वो बुर्राक़ सा हर तरफ़ दश्त-ओ-दर

    वो उजला सा मैदाँ चमकती सी रेत
    उगा नूर से चांद तारों का खेत

    दरख़्तों के पत्ते चमकते हुए
    ख़स-ओ-ख़ार सारे झमकते हुए

    दरख़्तों के साये से मह का ज़हूर
    गिरे जैसे छलनी से छनछन के नूर

    दीया ये कि जोगन का मुँह देखकर
    हुआ नूर साये का टुकड़े जिगर

    यहां सबसे बड़ी मुसीबत ये है कि शुरू के तीन मिसरे लफ़्ज़ “वो” से शुरू होते हैं, कोई फे़अल नहीं है, “वो” के ऐसे इस्तेमाल के बाद कुछ नहीं तो क़ाफ़ ब्यानिया ही लगा कर कुछ और बात कही जाती, मीर हसन ने वो सारी बातें हम पर छोड़ दी हैं। बहर हाल नस्र यूं होगी, वो सुनसान जंगल में नूर क़मर, वो बुर्राक़ सा दश्त-ओ-दौर, वो उजला सा मैदाँ, (वो) चमकती सी रेत, (कि बस न पूछिए, या इस क़दर पुरअसर थे कि बस, वग़ैरा) चांद तारों से नूर का खेत उगा (हुआ था।) दरख़्तों के पत्ते चमकते हुए (थे, यानी चमक रहे थे।) सारे ख़स-ओ-ख़ार झमकते हुए (थे, यानी झमक रहे थे।) दरख़्तों के साये से मह का ज़हूर (इस तरह था) जैसे छलनी से छनछन कर नूर गिरे (यानी गिर रहा हो।) ओ- (और) या ये कि जोगन का मुँह देखकर नूर (और) साये का जिगर टुकड़े हुआ (था या हो।)

     अगर ये कहा जाये कि मैंने ऊपर का शे’र छोड़ दिया है जो “वो” का जवाज़ पैदा करता है, तो वो शे’र भी हाज़िर है,

    बंधा उस जगह इस तरह का समां
    सबा भी लगी रक़्स करने वहां

    नस्र ये होगी, उस जगह (कुछ) इस तरह का समां बंधा (कि) सबा भी वहां रक़्स करने लगी। (और, वो समां कुछ इस तरह का था।) अब ऊपर के पाँच शे’रों के नस्र पढ़िए, लेकिन इसमें से “चमकती सी रेत” के बाद क़ौसैन में लिखे हुए फ़िक़रे हज़्फ़ कर दीजिए। फिर सवाल ये होगा कि फिर बार-बार “वो” की तकरार क्यों? तब तो मिसरे यूं होना थे,

    था सुनसान जंगल था नूर क़मर
    था बुर्राक़ सा हर तरफ़ दश्त-ओ-दर 

    वग़ैरा। “वो” के मअनी ही ये हैं कि इसके बाद इस्तेजाबियह या ब्यानिया बयान मुतवक़्क़े है। नस्र करते वक़्त आपको ईजाद-ए-बंदा से काम लेना पड़ेगा। अब फ़ैज़ के ये चार मिसरे लीजिए,

    रात बाक़ी थी अभी जब सर-बालीं आकर
    चांद ने मुझसे कहा जाग सहर आई है

    जाग इस शब जो मए ख़्वाब तिरा हिस्सा थी
    जाम के लब से तह जाम उतर आई है

    यहां भी मैंने जान-बूझ कर ऐसे मिसरे लिए हैं जिनमें तर्तीब अलफ़ाज़ नस्र से बहुत क़रीब है, फिर भी बाक़ायदा नस्र यूं होगी, रात अभी बाक़ी जब (मेरे) सर-ए-बालीं आकर मुझसे चांद ने कहा (कि) जाग सह्र आई है। जाग, इस शब जो मए ख़्वाब तिरा हिस्सा थी (दो) जाम के लब से उतर (कर) दो जाम (तक) आई है (आ गई है) ।

    आप कह सकते हैं कि इस इबारत में लफ़्ज़ “मेरे” का इज़ाफ़ा फ़ुज़ूल है। मेरा जवाब ये है कि शे’र को नज़रअंदाज कर के इस तरह के नस्र लिखने की कोशिश कीजिए, देखिए लफ़्ज़ “मेरे” ख़ुद ब-ख़ुद क़लम पर आता है या नहीं। “जाग” के पहले “कि” का इज़ाफ़ा फ़ुज़ूल कहा जा सकता है, लेकिन इस सूरत में आपको इबारत पर वावैन लगाने पड़ेंगे, मिसरों में वावैन की ज़रूरत नहीं है। नस्र में आप कभी कभी अलामात-ए-औक़ाफ़ से लफ़्ज़ का काम लेते हैं तो कभी कभी लफ़्ज़ से भी औक़ाफ़ का काम लेते हैं। आख़िरी मिसरे के नस्र के बारे में कहा जा सकता है कि जाम के लब से तह जाम उतर आई है ख़ुद ही नस्र है, इस “उतर” के बाद “कर” लगा कर ज़बरदस्ती मिसरा बिगाड़ा गया है।

    हालाँकि बात सामने की है “तह जाम” अगर बमअनी “जाम के नीचे” है (जो ज़ाहिर है कि नहीं है, जैसे तह-ए-दाम, तह-ए-बाम वग़ैरा) बल्कि “जाम के आख़िर हिस्से” के मअनी में है (जो ज़ाहिर है कि है) तो फिर “तह-ए-जाम” के बाद “तक” लगाना ज़रूरी है और अगर “तक” लगाना है तो मजबूरन “उतर” के बाद “कर” लगाना ज़रूरी है। अगर नस्र यूं की जाये, जाम के लब से तह-ए-जाम तक उतर आई है तो मअनी निकलते हैं कि लब से लेकर तह तक सरायत कर गई है। ज़ाहिर है कि ये भी ग़लत होगा, लिहाज़ा मुंदर्जा नस्र ही दुरुस्त है।

    इन मिसालों से ये बात खुल गई होगी कि शे’र का इजमाल दरअसल इन अलफ़ाज़ का इख़राज है जिनके बग़ैर नस्र का तसव्वुर नामुमकिन है। ये कुल्लिया इसी क़दर मुसल्लम और इजमाल की कैफ़ियत तक़रीबन उतनी ही आफ़ाक़ी है जितनी शे’र में वज़न के वुजूद की है। मैंने तक़रीबन का लफ़्ज़ इसलिए लगाया है कि मैं वज़न को हर क़िस्म के शे’र के लिए ज़रूरी समझता हूँ, चाहे इसमें शायरी हो या न हो, लेकिन शायरी की पहली पहचान ये है कि इसमें इजमाल होता है। ऐसे शे’र जिनमें शायरी न होगी, या कम होगी, बहुत मुम्किन है कि इजमाल से भी आरी हों। बहरहाल, शायरी के हामिल, यानी अच्छे शे’रों में इजमाल ज़रूर होगा।

    अब यहीं ठहर कर नस्री नज़्मों और तख़्लीक़ी नस्र की बात भी कर ली जाये। कुछ ऐसी नस्रें हैं जो यक़ीनन शायरी हैं मसलन टैगोर की अंग्रेज़ी गीतांजलि, इंजील के बहुत से हिस्से, जदीद शोअरा की कुछ नज़्में, वग़ैरा। उनको तख़्लीक़ी नस्र में क्यों न रखा जाये, या तख़्लीक़ी नस्र को शायरी में क्यों न रखा जाये। मेरे इस ख़्याल पर कि नस्र में तशबीह, इस्तिआरा, पैकर वग़ैरा कम से कम इस्तेमाल होना चाहिए। और शे’रियत से बोझल नस्र, ख़राब नस्र होती है। महमूद हाश्मी ने एक बहुत अच्छा सवाल उठाया था कि ऐसे नस्र पारों को शे’र क्यों न कहा जाये?

    नस्री नज़्मों का मुआमला तो आसान है। अव्वल तो ये इतनी कम तादाद में हैं कि उनको इस्तिसनाई कहा जा सकता है लेकिन इस जवाब पर क़नाअत न कर के मैं ये कहूँगा कि नस्री नज़्म और नस्र में बुनियादी फ़र्क़ इजमाल की मौजूदगी है। नस्री नज़्म इजमाल का इसी तरह इस्तेमाल करती हैं जिस तरह शायरी करती है, इस तरह इसमें शायरी की पहली पहचान मौजूद होती है। शायरी की जिन निशानियों का ज़िक्र मैं बाद में करूँगा, यानी इबहाम, अलफ़ाज़ का जद लियाती इस्तेमाल, नस्री नज़्म उनसे भी आरी नहीं होती। लेकिन आख़िरी बात ये है कि मैंने शुरू में ना मौज़ूनियत को नस्र की शर्त ठहराया था और मौज़ूनियत की मिसाल रुबाई के हवाले से दी थी कि अगरचे रुबाई के चारों मिसरे मुख़्तलिफ़ अलूज़न हो सकते हैं लेकिन उनमें एक हम-आहंगी होती है जो इल्तिज़ाम का बदल होती है।

    बईनही यही बात नस्री नज़्म में पाई जाती है, फ़र्क़ ये है कि बाक़ायदा लेकिन मुख़्तलिफ़ वज़न रखने वाली रुबाई में दोहराए जाने के क़ाबिल रुक्न एक मिसरा होता है जिसकी दोगुन तिगुन चौगुन मुख़्तलिफ़ लेकिन हम-आहंग औज़ान में की जाती है, ये तो नस्री नज़्म का पैराग्राफ़ दोहराए जानेवाले रुक्न (यानी आहंग की इकाई) की हैसियत रखता है और इसके भी आहंग के दोगुन, तिगुन, चौगुन वग़ैरा हो सकती है, यानी नस्री नज़्म के एक पैराग्राफ़ में जो आहंग होता है वो दूसरे पैराग्राफ़ में भी दुहराया जा सकता बल्कि दुहराया जाता है अगर नज़्म में दूसरा पैराग्राफ़ भी हो।

     नस्र पारे में ये बात नामुमकिन है कि जो आहंग एक पैराग्राफ़ में हो उसे हू-ब-हू दूसरे में भी दोहरा लिया जाये। मिसाल के तौर पर मैं अहमद हमेश की “तजदीद” नामी नज़्मों का ज़िक्र कर सकता हूँ। बहुत दिन हुए इस सिलसिले की एक नज़्म (जो बाद में कुछ तब्दीली के बाद नए नाम में शाया हुई) मेरे पास तजज़िये के लिए आई। शायर का नाम मख़्फ़ी रखा गया था, लेकिन चूँकि मैं “तजदीद” सिलसिले की एक नज़्म पहले पढ़ चुका था, और दोनों नज़्मों के आहंग में हैरत-अंगेज़ मुमासिलत थी, इसलिए मुझे ये पहचानने में कोई दिक़्क़त न हुई कि यह नज़्म अहमद हमेश की है और “तजदीद” सिलसिले की है,

    आज रात के ठीक आठ बुझे एक आदमी अपने ऐवानी ख़ाक-दाँ में सिफ़र सिफ़र गिर रहा है वो इन तमाम नातमाम ऐवानों में बसर हो रहा है
    जिनमें हम सबको बसर होना है और ये एक अजीब इत्तफ़ाक़ है
    (तजदीद 2)

    इस आहंग को मुंदर्जा ज़ैल आहंग के सामने रखिए,
    वो कैसे बिस्तर हैं, जिन पर औरतें कभी नहीं सोईं
    जिनकी तर्बीयत महज़ एक खूँटी है
    जिन पर दिमाग़ और जिस्म सभी टँगे हैं
    (तजदीद 1)

    इसका सौती तजज़िया करने की ज़रूरत नहीं, इसके बग़ैर ही मालूम हो जाता है कि दोनों के आहंग एक हैं और उन नज़्मों में मिसरे या रुक्न की इकाई के बजाय पैराग्राफ़ या टुकड़े की इकाई का उसूल कारफ़रमा है। शहरयार की नस्री नज़्में अभी शाये नहीं हुई हैं, लेकिन उनमें भी यही सूरत नज़र आती है, बल्कि ज़्यादा वज़ाहत से देखी जा सकती है, क्योंकि इख़्तिसार की वजह से उनकी इकाई ज़्यादा गठी हुई और आसानी से पहचान में आ जाने वाली है।

    इस तरह नस्री नज़्म में शायरी के दूसरे ख़वास के साथ मौज़ूनियत भी होती है। लिहाज़ा उसे नस्री नज़्म कहना एक तरह का क़ौल मुहाल इस्तेमाल करना है, उसे नज़्म ही कहना चाहिए। लेकिन तख़्लीक़ी नस्र (यानी वो नस्र जो अफ़साने, नावल वग़ैरा में इस्तेमाल होती है।) का मुआमला बहुत ज़्यादा टेढ़ा है। तख़्लीक़ी नस्र में इजमाल और मौज़ूनियत को छोड़कर शे’र के दूसरे ख़वास मौजूद होते हैं। लेकिन इजमाल की अदम मौजूदगी इस्तिआरे, पैकर, और तशबीह को पूरी तरह फैलने नहीं देती। अगर इन अनासिर के साथ ज़बरदस्ती कर के नस्र निगार उन्हें अपनी इबारत Over Work करे तो अनमेल बेजोड़ होने की कैफ़ियत नुमायां होने लगती है।

    ये यक़ीनन मुम्किन है कि किसी निस्बतन तवील तख़्लीक़ी नस्र पारे में जगह जगह इजमाल का भी अमल दख़ल हो (जैसा कि जदीद अफ़साने में होता है) और नस्र पारे के वो टुकड़े शे’र के क़रीब आ जाएं, लेकिन उनके आस-पास पर मुहीत अदम इजमाल और नौ मौज़ूनियत उन्हें पूरी तरह शायरी नहीं बनने देतीं। इस तरह महमूद हाश्मी के सवाल के जवाब में कि शायराना वसाइल इस्तेमाल करने वाली नस्र को शे’र क्यों न कहा जाये, हम ये कह सकते हैं कि अव्वल तो शायराना वसाइल इस्तेमाल करने वाली नस्र, बहरहाल नस्र रहती है और बिलफ़र्ज़ वो शे’र  बन भी जाये तो वही उलझावे पैदा होंगे जिनकी तरफ़ मैंने शुरू में इशारा किया है यानी हमें ये कहना पड़ेगा “आग का दरिया” तीस फ़ीसदी शायरी और सत्तर फ़ीसदी नस्र है।

    मैंने अशआर की जो नस्रें ऊपर लिखी हैं उनका मुताला एक लम्हे में वाज़ेह कर देगा कि तख़्लीक़ी नस्र जब शायराना वसाइल कसरत से इस्तेमाल करती है तो उसे किस क़दर ख़तरे लाहक़ हो जाते हैं। मीर हसन के अशआर हर मेयार से शायरी है, लेकिन जब मैंने उनकी नस्र की तो वो शायरी तो न रह गए, लेकिन एक अजीब लंगड़ी लूली नस्र बन गए। जदीद अफ़साने में उन्हीं लोगों की तख़्लीक़ी नस्र कामयाब है जिन्होंने शायराना वसाइल को इस्तेमाल करने वाली ज़बान के साथ साथ ऐसी ज़बान कसरत से इस्तेमाल की है जिसमें नस्र का अदम इजमाल पूरी तरह नुमायां है। अनवर सज्जाद की ये इबारात मुलाहिज़ा हों,

    (1) परिंदे अन-गिनत परिंदे आसमान की तमाम सिम्तों से उड़ते हुए स्याह ग़ुबार के बॉर्डरों पर अपने परों के बंद बाँधने की कोशिश में ग़ुबार की क़ुव्वत और रफ़्तार के सामने ख़स-ओ-ख़ाशाक, तूफ़ान है कि उमडा ही चला आता है।

    ये अनवर सज्जाद के अफ़साने “कार्ड लेक दमा” का आग़ाज़ है। शे’र की तरह इजमाल पैदा करने की कोशिश नुमायां है (बंद बाँधने की कोशिश में [हैं लेकिन] ग़ुबार की क़ुव्वत और रफ़्तार के सामने ख़स-ओ-ख़ाशाक [की तरह हैं।] लेकिन ये अंदाज़ मुसलसल बरक़रार नहीं रहता।

    (2) परिंदे, (अन-गिनत परिंदे) अपनी अपनी बोलियों (अपनी अपनी आवाज़ों) में सदाए एहतिजाज बुलंद करने का तहय्या करते हैं स्याह ग़ुबार (में उड़ती) मनों (काली) मिट्टी के (करोड़ों) ज़र्रात (उनकी) झुकी चोंचों से दाख़िल हो कर (उनके) फेफड़ों पर जम जाते हैं।

    ये इबारत नंबर एक के फ़ौरन बाद अगले पैराग्राफ़ का आग़ाज़ करती है। क़ौसैन में रखे हुए अलफ़ाज़ अनवर सज्जाद के हैं, शायरी उन्हें बख़ुशी हज़्फ़ कर सकती है। लेकिन ये इबारत फिर भी शे’र के बहुत नज़दीक है। अफ़साने के वस्त में ये इबारत देखिए, वो हाँपता काँपता पिंडाल में पहुंचता है। लोगों पर सुकूत तारी हो जाता है। वो माईक्रोफ़ोन के सामने आता है। सब हमा-तन गोश हो जाते हैं। वो फूले हुए सांस को क़ाबू में लाना चाहता है।

    ये तख़्लीक़ी नस्र है, लेकिन सिर्फ़ नस्र है। शायराना वसाइल का कहीं पता नहीं। पूरे अफ़साने में नस्र का तवाज़ुन इसी तरह बरक़रार रखा गया है। मैंने जान-बूझ कर ऐसा अफ़साना मुंतख़ब किया है जिसमें मुकालमा बिल्कुल नहीं है और ब्यानिया भी बहुत कम है। इसके बावजूद नस्र की तख़्लीक़ी नौईयत शायरी से मुख़्तलिफ़ रहती है, ये नस्र निगार की बहुत बड़ी ख़ूबी है। वर्ना मुकालमा और ब्यानिया ही नस्र के शे’री किरदार को मुनक़लिब करने के लिए काफ़ी होते हैं। इसीलिए मैं ऐसी तख़्लीक़ी नस्र को नाकाम और झूटे गोटे ठप्पे वाली नस्र कहता हूँ जिसका शे’री किरदार इतना जामिद और बर्फ़ ज़दा हो कि मुकालमा और ब्यानिया की तेज़ रफ़्तारी भी उसे पिघलाने में नाकाम रहे, और इसीलिए मैं मुहम्मद हुसैन आज़ाद को उर्दू का सब बड़ा तख़्लीक़ी नस्र निगार समझता हूँ। उन्होंने इजमाल को बिल्कुल पसेपुश्त डाल दिया है, शे’री वसाइल भी वो इस्तेमाल किए हैं जो अपने किरदार व तफ़ाउल के एतबार से “बे जिन्स” बमानी Neutral हैं। यानी अगर वो शे’र में भी आएं तो अजनबी नहीं मालूम होते। इन बेजिन्स वसाइल का ज़िक्र मैं आगे भी करूँगा। फ़िलहाल “आब-ए-हयात” का ये इक़तिबास मुलाहिज़ा हो,

    “मीर हसन मरहूम ने उसे लिखा और ऐसी साफ़ ज़बान, फ़सीह मुहावरे और मीठी गुफ़्तगु में और इस कैफ़ियत के साथ अदा किया जैसे आब-ए-रवाँ। असल वाक़िया का नक़्शा आँखों में खिंच गया और उन ही बातों की आवाज़ें कानों में आने लगीं जो उस वक़्त वहां हो रही थीं। बावजूद इसके उसूल-ए-फ़न से बाल बराबर उधर या इधर न गिरे। क़बूल आम ने उसे हाथों में लेकर आँखों पर रखा और आँखों ने दिल-ओ-ज़बान के हवाले किया। उसने ख़वास अहल-ए-सुख़न की तारीफ़ पर क़नाअत न की बल्कि अवाम जो हर्फ़ भी न पहचानते थे वज़ीफ़ों की तरह हिफ़्ज़ करने लगे।” 

    नस्र की सबसे बड़ी मुश्किल या ख़ूबी ये है कि इसका छोटा सा इक़तिबास उसकी तईएन क़दर के लिए नाकाफ़ी होता है। शे’र का एक मिसरा भी बड़ी शायरी के ज़मुरा में आ सकता है, (आख़िर आर्नाल्ड ने बड़ी शायरी की पहचान उन्हीं मिसरों पर मुक़र्रर की थी। शायरी की ये पहचान ग़लत सही लेकिन शे’र की बुनियादी फ़ित्रत को ज़रूर वाज़ेह करती है।) लेकिन नस्र का एक जुमला बल्कि एक पैराग्राफ़ भी इस मक़सद के लिए काफ़ी नहीं होता। आब-ए-हयात हो या अनवर सज्जाद का अफ़साना, इस की नस्र का लुत्फ़ हासिल करने के लिए ख़ासा तवील इक़तिबास ज़रूरी है। फिर भी, मैं हत्तलइमकान वाज़ेह करने की कोशिश करूँगा कि आज़ाद ने इस इबारत में क्या जादू जगाए हैं।

    सबसे पहले तो ये ग़ौर कीजिए कि अगरचे मैंने बहुत तलाश के बाद ऐसी इबारत ढूँडी है जिसमें (अदवार की तमहीद इबारत के अलावा तशबीह-ओ-इस्तिआरे की कारफ़रमाई निस्बतन ज़्यादा है, यानी मैंने ब्यानिया इबारत मुंतख़ब करने से गुरेज़ किया है। फिर भी, इस तहरीर में सिर्फ़ चंद ही इस्तिआरे या तश्बीहें यानी जदलियाती अमल करने वाले अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं, जो दर्ज जैल हैं (इस फ़ेहरिस्त से मैंने मुहावरों मसलन “मीठी गुफ़्तगु” को ख़ारिज कर दिया है अगरचे वो भी असलन इस्तिआरे हैं।)

    (1) आब-ए-रवाँ (2) क़बूल आम ने उसे हाथों में लेकर आँखों पर रखा (3) आँखों ने दिल-ओ-ज़बान के हवाले किया (4) वज़ीफ़ों की तरह हिफ़्ज़ करने लगे।

    आपने देखा जदलियाती अलफ़ाज़ की तादाद अनवर सज्जाद की इबारत से न सिर्फ़ बहुत कम है, बल्कि उनकी नौईयत भी ऐसी है कि अगर वो किसी इबारत में तन्हा आ पड़ें तो उन पर शायद किसी की नज़र न पड़े। यानी जदलियाती लफ़्ज़ यहां अपनी कमतरीन शिद्दत की सतह पर इस्तेमाल हुआ है। इज़ाफ़तों का खेल बहुत कम है, ग़ैर हिन्दुस्तानी अलफ़ाज़ पर हिन्दुस्तानी अलफ़ाज़ को जगह जगह तर्जीह दी गई है (“मीठी गुफ़्तगु” बजाय “शीरीं गुफ़्तगु।”, “इन ही बातों की आवाज़ें कानों में आने लगीं जो उस वक़्त वहां हो रही थीं।” “बजाय” इन ही मकालमों या गुफ़्तगुओं की आवाज़ें गोश तख़य्युल में आने लगीं जो वक़्त मुतज़क्किरा में वहां हो रही थीं।, ‘‘बाल बराबर उधर या इधर न गिरे।' बजाय “सर मोतजाविज़ाना किया।” लेकिन इसके बावजूद  ऐसे अलफ़ाज़ नहीं इस्तेमाल हुए हैं जो उर्दू में मुस्तामल नहीं हैं अगरचे समझ लिए जाते हैं।

    हमारे बा’ज़ नस्र निगार दिल की जगह मन, वक़्त की जगह समय, शर्म की जगह लाज, ज़मीन की जगह धरती वग़ैरा लिख कर समझते हैं कि “ग़ैरमामूली लतीफ़” ज़बान इस्तेमाल कर रहे हैं, हालांकि कोई लफ़्ज़ न लतीफ़ होता है न कसीफ़, वो या तो ज़बान के मिज़ाज में खपता है या नहीं खपता। आज़ाद अगरचे ग़ैर हिन्दुस्तानी अलफ़ाज़ और इज़ाफ़तों का इस्तेमाल कम-कम करते हैं लेकिन उर्दू में ग़ैर मुस्तामल हिन्दुस्तानी अलफ़ाज़ से भी गुरेज़ करते हैं। लिहाज़ा इबारत में वो तसन्नो नहीं पैदा होता जो बड़ी बूढ़ियों के ग़म्ज़े में होता है। अब यहां एक और इक़तिबास देना ही पड़ेगा,

    “सय्यद इंशा हमेशा क़वाइद के रस्ते से तिर्छे हो कर चलते हैं, मगर वो उनका तिरछापन भी अजब बांकपन दिखाता है। ये [मुसहफ़ी] भी मतलब को ख़ूबी और ख़ुश-उस्लूबी से अदा करते हैं मगर क्या करें कि वो अमरोहापन नहीं जाता। ज़रा अकड़ कर चलते हैं तो उनकी शोख़ी बुढ़ापे का नाज़ बेनमक मालूम होता है। सय्यद इंशा सीधी-सादी बातें भी कहते हैं तो इस अंदाज़ से अदा करते हैं कि कहता और सुनता घड़ियों रक़्स करता है।”

    इस इबारत में जदीद फ़ैशन की “शायराना” नस्र लिखने वाले “रस्ते” की जगह “डगर”, “अजब”  की जगह “अनीला”, “ख़ुश-उस्लूबी” की जगह “सजल पन” या “सजलता”, “अंदाज़” की जगह “भाव” वग़ैरा इस्तेमाल करेंगे और उर्दू नस्र का ख़ून कर देंगे। लेकिन बात पहले इक़तिबास की हो रही थी। हर जुमले के आख़िरी लफ़्ज़ पर ग़ौर कीजिए। क़ाफ़िया शे’र में हुस्न है, नस्र में क़ाबिल-ए-बर्दाश्त है, लेकिन नस्र के ऐसे जुमले जो अफ़आल पर ख़त्म हों और सारे अफ़आल एक ही ज़माना Tense को ज़ाहिर करें, मसलन था, थी, थे, आया, गया, हुआ वग़ैरा तो एक बदमज़ा ज़ेहनी क़िस्म का क़ाफ़िया पैदा हो जाता है जो नस्र के आहंग को बिगाड़ देता है। मैंने अपने एक मज़मून में “आग का दरिया” की एक इबारत के बारे में लिखा था कि बहुत से जुमलों के माज़ी मुत्लक़ और माज़ी इस्तिम्रारी पर ख़त्म होने की वजह से आहंग में सांस फूलने की सी कैफ़ियत पैदा हो गई है।

    इसको क्या किया जाये कि ब्यानिया में ऐसी मजबूरी आ ही जाती है, लेकिन देखिए आज़ाद ने शऊरी या ग़ैर शऊरी तौर पर जुमलों के इख़्तिताम से कितनी होशियारी से काम लिया है। जैसे (1) आब-ए-रवाँ (2) खिंच गया (3) हो रही थीं (4) न गिरे (बमानी न गिरने पाए), (5) पर रखा (6) हवाले किया 6 करने लगे। मैंने जुमलों के उन फ़िक़्रों को छोड़ दिया है जहां बात पूरी नहीं हुई। “क़नाअत न की” के बाद “बल्कि” लगा कर आहंग के दूसरे फ़िक़रे में Over Flow कर दिया है। दूसरे इक़तिबास में भी यही इल्तिज़ाम रखा गया है। ख़ासकर उस जुमले पर ग़ौर कीजिए, “सीधी-सादी बातें भी कहते हैं तो इस अंदाज़ से अदा करते हैं।”

    इस जुमले को ख़त्म न कर के “कि” के ज़रिए अगले से मिलाया तो गया ही है, लेकिन “बातें भी कहते हैं” के बाद “इस अंदाज़ से कहते हैं” की तकरार से बच कर “अंदाज़ से अदा करते हैं”  कह दिया है। “अदा करते हैं” को हज़्फ़ कर के जुमला यूं भी बन सकता था कि “इस अंदाज़ से, कि कहता और सुनता...” लेकिन “कि कहता” के तनाफ़ुर के अलावा “कहते” और “करते” के तज़ाद और इसके बाद “कि” के ज़रिए आहंग के Over Flow से हाथ धोना पड़ता।

    चुनांचे अच्छी तख़्लीक़ी नस्र अगरचे शायराना वसाइल इस्तेमाल कर लेती है, लेकिन इसकी ख़ूबी का असल राज़ कुछ दूसरी ही चीज़ों में होता है और जो चीज़ इसे बुनियादी तौर पर शायरी से अलग करती है वो इजमाल है। मैंने मौज़ूनियत को शे’र की पहचान बताया था, इजमाल को भी शे’र की पहचान बताता हूँ, लेकिन इस शर्त के साथ कि जिस शे’र में शायरी होगी इसमें इजमाल यक़ीनन होगा, और इस इजमाल की ख़ुसूसी अहमियत होगी। जिस शे’र में शायरी न होगी मुम्किन है उसमें इजमाल न हो, लेकिन ये यक़ीनी है कि उसमें इजमाल अगर होगा भी तो उसमें शे’र के बक़िया ख़वास न होंगे। मसलन मसऊद हसन रिज़वी अदीब के तस्नीफ़ कर्दा मिसाली बेअसर शे’र, 

    हाथी को बड़ा किया बड़ा है
    लट्ठे को खड़ा किया खड़ा है

    में भी इजमाल है, क्योंकि इसकी भी नस्र यूं होगी, (उसने) हाथी को बड़ा किया, (इसलिए वो) बड़ा है। (उसने) लट्ठे को खड़ा किया (इसलिए वो) खड़ा है। मुम्किन है आपको ये ख़्याल हो कि मैंने अब तक जिन शे’रों में इजमाल ढ़ूंडा है वो निस्बतन पेचीदा सर्फ़-ओ-नहो के हामिल थे, और मसनवी के शे’र अगर पेचीदा नहीं थे तो तसलसुल क़ायम रखने की ज़रूरत के बाइस उनकी भी नस्र करते वक़्त अलफ़ाज़ बढ़ाने की ज़रूरत पेश आई थी, लिहाज़ा मैं कुछ सहल मुम्तना क़िस्म के शे’र भी उठाता हूँ,

    असर उसको ज़रा नहीं होता
    रंज राहत-फ़ज़ा नहीं होता

    तुम हमारे किसी तरह न हुए
    वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता
    मोमिन

    हस्ती अपनी हुबाब की सी है
    ये नुमाइश सराब की सी है

    चश्म-ए-दिल खोल इस भी आलम पर
    याँ की औक़ात ख़्वाब सी है
    मीर

    काअबा के सफ़र में क्या है ज़ाहिद
    बन जाये तो आपसे सफ़र

    ये दहर है कारगाह मीना
    जो पांव रखे तो याँ सो डर कर
    क़ायम

    इन अशआर की नस्र बिलतर्तीब यूं होगी,

    मोमिन, उसको ज़रा (भी) असर नहीं होता। (और क्यों हो? जब कि) रंज राहत-फ़ज़ा नहीं होता। तुम (ही) किसी तरह हमारे न हुए, या (बस) तुम किसी तरह हमारे न हुए वर्ना (होने को) दुनिया में क्या नहीं होता।

    मीर, अपनी हस्ती (बस) हुबाब की सी है, (और इसकी) ये नुमाइश सराब की है। (ऐ शख़्स!) इस आलम पर भी चश्म-ए-दिल खोल, (क्योंकि) यहां की औक़ात (तो) ख़्वाब की सी है।

    क़ायम, (ऐ) ज़ाहिद काअबे के सफ़र में क्या (रखा) है, जो (तुझसे) बन जाये (यानी बन पड़े) तो (अपने) आपसे सफ़र कर। ये दहर (किया है कारगाह मीना है, जो (भी) यहां पांव रखे (है) सो डर कर (रखे है) या जो (भी) यहां पांव (रखे) सो डर कर रखे।

    इजमाल की शर्त ये है कि शे’र से ऐसे अलफ़ाज़ का इख़राज कर दिया जाये जिनके बग़ैर इस शे’र के नस्र ना-मुकम्मल या ख़िलाफ़ मुहावरा रहे या नामानूस मालूम हो और तोज़ीही नस्र के तवाज़ुन से आरी मालूम हो। इफ़्तिख़ार जालिब के नस्र में जो अजनबियत महसूस होती है इस की बड़ी वजह यही है कि वो लिखते तो ख़ालिस नस्र हैं, यानी ऐसी नस्र जो तौज़ीह, तफ़हीम और तन्क़ीह के लिए इस्तेमाल की जाये (मसलन तन्क़ीद या तारीख़ की नस्र) लेकिन जगह जगह उस पर इजमाल का अमल कर देते हैं।

    (और)गुंजाइश भी कैसी? मामूली (गुंजाइश) नहीं, (बल्कि) ऐन तरक़्क़ी-पसंद नज़रिए की ज़िद। फिर (हमें इस बात पर) हैरत होती है (कि) तर्जीहात का फ़ैसला कौन करेगा? (क्या) तरक़्क़ी-पसंद अदीब (करेंगे?) शायद हाँ, (शायद) नहीं। (शायद) तरक़्क़ी-पसंद अदीब के मौज़ूआत पा बजौलाँ (हो कर) पढ़ने वालों के पास पहुँचीं और (तब ही) वो अहम ग़ैर अहम का अंदाज़ लगा सकें तो (लगा सकें और अगर) नहीं तो नहीं। फिर इससे (भी) क्या फ़र्क़ पड़ता है। तरक़्क़ी-पसंद अदीब अपनी तर्जीहात का फ़ैसला करे (या) न करे। (असल) मुआमला तो क़ारी के हाथ में है। (इफ़्तिख़ार जालिब, फ़ी बतन शायर)

    क़ौसैन के अलफ़ाज़ असल इबारत में नहीं हैं, मैंने बढ़ाए हैं। इस पैवंदकारी के बावजूद दो बातें रह गईं हैं। “पा बजौलां” को “पढ़ने वालों” की भी सिफ़त बनाया जा सकता है। और ‘‘फिर इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है” वाले फ़िक़रे में “इस” की ज़मीर तरक़्क़ी-पसंद अदीब के फ़ैसले की तरफ़ राजेअ होती है, जिसका ज़िक्र बहुत पहले आया था। अगर इफ़्तिख़ार जालिब की नस्र, ख़ालिस नस्र पर इजमाल का अमल करके इन्फ़िरादियत हासिल करती है तो आल-ए-अहमद सरूर की नस्र, ख़ालिस के तने में तख़्लीक़ का पैवंद लगाती है, इस तरह तोज़ीही नस्र में भी तख़्लीक़ी नस्र से मिलता-जुलता आहंग पैदा हो जाता है। हमारे बेशतर बड़े नक़्क़ादों की तहरीर इस इज़ाफ़ी हुस्न से ख़ाली है।

    “मशरिक़ी फ़लसफ़े में रूहानियत और मग़रिबी फ़लसफ़े में माद्दियत की जलवागरी है। रूहानियत के ख़्याल के मुताबिक़ माद्दे की कसाफ़तों को दूर कर के रूह के जल्वे को जिला देना ऐन मक़सद ज़िंदगी है मगर इस वजह से कायनात एक बेमक़्सद वुजूद और ज़िंदगी एक बेसूद मुज़ाहरा नहीं होती। बल्कि ये वो पर्दा-ए-ज़ुलमात है जिससे गुज़र कर आब-ए-हयात मिलता है। मग़रिब में क़ुनूतियत फ़ित्रत इंसानी को एक अंधी मशीयत का खिलौना समझती है। मशरिक़ में जबरियत और बेसबाती-ए-दुनिया की तालीम दुनिया को मक़्सूदबिज़्ज़ात समझने से रोकती है और इसकी नैरंगियों से निगाहों को खैरा नहीं होने देती।” (आल-ए-अहमद सरूर, मीर के मुताला की अहमियत)

    इस इबारत पर इजमाल का अमल कीजिए तो इफ़्तिख़ार जालिब का सा आहंग न पैदा होगा, न उसके इर्तिकाज़ में इज़ाफ़ा होगा क्योंकि अच्छी नस्र में अदम इजमाल की ख़ासियत पढ़ने वाले की फ़िक्र को वाज़ेह रास्तों पर चलाती रहती है। इस वज़ाहत के लिए जितना इर्तिकाज़ ज़रूरी है, नस्र इससे ज़्यादा की मुतहम्मिल नहीं हो सकती। मुहम्मद हुसैन आज़ाद की तरह यहां भी जद लियाती अलफ़ाज़ कम हैं, लेकिन जहां आज़ाद के यहां तनव्वो का तवाज़ुन था, यहां तक़ाबुल का तवाज़ुन है, रूहानियत की जलवागरी, माद्दियत की जलवागरी, जल्वे को जिला देना, कायनात एक बे-मक़्सद वुजूद और ज़िंदगी एक बेसूद मुज़ाहरा। क़ुनूतियत, मशीयत का खिलौना। समझती है, रोकती है। नैरंगियों से निगाहों। एक-आध क़ाफ़िया भी मौजूद है, जलवागरी है, मक़सद ज़िंदगी है, कायनात एक बे-मक़्सद वुजूद और ज़िंदगी एक बेसूद मुज़ाहरा।

    हमारे 6 अह्द में सबसे अच्छी तोज़ीही नस्र शायद मुहम्मद हसन अस्करी ने लिखी है। उनके यहां आज़ाद से ब-ज़ाहिर बे-इरादा और बेसाख़्ता लेकिन दरअसल इरादी इस्तिहज़ा की वजह से बरतरी की शान पैदा हो गई है जो बेहतरीन तोज़ीही नस्र का तुर्र-ए-इम्तियाज़ है।

    “इस जदीदियत का आग़ाज़ था मुरव्वजा अंदाज़ से इन्हिराफ़। अगर इस ज़ेहनियत को मंतक़ी तौर पर नश्व-ओ-नुमा पाने दिया जाये तो इसका लाज़िमी नतीजा ये है कि मज़हब, अख़लाक़ियात, मआशियात, सियासियात, फिर उसके बाद मुरव्वजा उलूम सहीहा तक बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी क़दर को ग़लत और नाकारा साबित किया जाये। मगर किसी चीज़ को ग़लत या नाकारा कहने के लिए लाज़िमी है कि आपके पास फ़ैसले के लिए कोई मेयार भी हो। एक मेयार तो ये हो सकता है कि आप मुरव्वजा इक़दार में से चंद को तस्लीम कर लें और इस कसौटी पर कस-कस कर बाक़ी तमाम इक़दार को खोटा साबित कर दें। मगर इस तरह मुकम्मल इन्हिराफ़ मुम्किन न होगा। इसलिए जदीदियत का सबसे बड़ा मेयार ज़ाती पसंद या इन्फ़िरादियत क़रार पाया।” (मुहम्मद हसन अस्करी, मीर और नई ग़ज़ल)

    इबारत में कोई इस्तिआरा, तशबीह, पैकर नहीं है। फ़ारसी की सिर्फ़ एक इज़ाफ़त है (उलूम सहीहा।) लफ़्ज़ “मुरव्वजा” को तीन बार दुहराया गया है, क़ानून की ज़बान भी, जो इंतहाई क़तईयत और वज़ाहत को अपनी मक़सद समझती है, तकरार पसंद है। आल-ए-अहमद सरूर के बरख़िलाफ़ तक़ाबुल के तवाज़ुन और माबाद उल तबीअयाती मफ़हूम रखने वाले अलफ़ाज़ (रूह के जलवा को जिला देना, पर्दा-ए-ज़ुलमात, जलवागरी, अंधी मशीयत, नैरंगियों) का कहीं पता नहीं। पहला ही जुमला तोज़ीही है। मुहम्मद हसन अस्करी मग़रिब की जदीदियत के मुख़ालिफ़ नज़रिया बना रहे हैं। अभी उनका मसलक वाज़ेह नहीं हुआ है, लेकिन इस जदीदियत के बारे में वो ऐसे अलफ़ाज़ इस्तेमाल कर रहे हैं जिनकी तह में तहक़ीर का जज़्बा (बल्कि “मेरे पास उन फुज़ूलियात के लिए वक़्त नहीं” का सा रवैय्या) दिखाई देता है।

    “ज़ेहनियत” (ये लफ़्ज़ आम तौर पर बुरे मअनी में इस्तेमाल होता है।) “लाज़िमी नतीजा ये है कि ... नाकारा साबित किया जाये।”, “आपके पास कोई मेयार भी हो।”, “कसौटी पर कस कर... खोटा साबित कर दें।” (“कस” की तकरार इस बात की तरफ़ इशारा करती है कि मुसन्निफ़ इस अमल को अहमक़ाना समझता है।) लफ़्ज़ “ज़रूरी” की जगह दोनों जगह “लाज़िमी” लाया गया है ताकि हतमियत और क़तईयत की बरतरी का एहसास मज़बूत हो जाये। “ग़लत और नाकारा” में तकरार इस ग़रज़ से है कि ये वाज़ेह हो जाये कि मुम्किन है कोई क़दर नाकारा हो लेकिन ग़लत न हो या ग़लत हो लेकिन नाकारा न हो। मक़सूद ये दिखाना है कि ग़लत पन और नाकारगी अलग अलग सूरतें हैं। पहले तौज़ीही जुमले के बाद जुमला “अगर” से शुरू होता है और मंतक़ी इस्तिदलाल की तकमील के बाद आख़िरी जुमला “इसलिए” से शुरू होता है। (यही साबित करना था।)

    नस्र की इतनी सारी मिसालों का तज्ज़िया करने का मक़सद ये वाज़ेह करना था कि इजमाल शे’र का वस्फ़ होता है, नस्र का नहीं। लेकिन इजमाल, शायरी की तन्हा पहचान नहीं है। यानी किसी शे’र में सिर्फ़ इजमाल का वुजूद इस बात का सबूत नहीं है कि इसमें शायरी भी है। शे’र  को शायरी बनने के लिए कुछ और ख़वास की भी ज़रूरत होती है। ये ज़रूर है कि जिस शे’र में शायरी होगी उसमें शायरी की और निशानियों के साथ साथ इजमाल भी होगा। इस तरह इजमाल की एक मनफ़ी हैसियत है, यानी जिस तहरीर में शायरी के औसाफ़ हों, लेकिन इजमाल न हो वो शायरी न होगी, लेकिन मुजर्रद इजमाल शे’र को शायरी में तब्दील नहीं कर देता।

    मैंने इस मज़मून में जगह जगह “जदलियाती लफ़्ज़” की इस्तिलाह इस्तेमाल की है और इसकी तशरीह भी कर दी है कि मैं तशबीह, इस्तिआरा या पैकर के हामिल अलफ़ाज़ को जदलियाती कहता हूँ। वो इसलिए कि ऐसे अलफ़ाज़ अपने इंसलाकात की वजह से हमा वक़्त मअनी के हामिल रहते हैं। अगर शायराना ज़बान का इस्तेमाल बुरा न समझा जाये तो मैं ये कहूँगा कि ऐसे अलफ़ाज़ में हर वक़्त कुन फ़यकून की कैफ़ियत रहती है, क्योंकि जदलियाती अमल करने या रखने वाला लफ़्ज़ अपने मअनी मैं ख़ुद कफ़ील होता है, उसे किसी ख़ारिजी हवाले की ज़रूरत नहीं पड़ती। और जब वो ख़ारिजी हवाले का पाबंद नहीं तो उसमें मअनी की कोई हद नहीं। क्यों कि उसमें एक आज़ाद नामियाती ज़िंदगी होती है। (मअनी में यहां कोलरिज की इस्तिलाह के तौर पर इस्तेमाल कर रहा हूँ।)

    इस्तिआरा जैसा कि मैंने पहले भी कहीं लिखा है, इस हक़ीक़त से बड़ा होता है जिसके लिए वो लाया गया होता है। तशबीह और इस्तिआरे में सिर्फ़ तकनीकी फ़र्क़ है, लिहाज़ा ये बात तशबीह के बारे में भी कही जा सकती है। पैकर, (यानी हवास-ए-ख़मसा में से एक या एक से ज़्यादा को मुतहर्रिक करने वाला लफ़्ज़) जैसा कि रिचर्ड्स ने बड़ी ख़ूबी से वाज़ेह किया है, सिर्फ़ इस तिमसाल या सूरत का नाम नहीं जो उसके ज़रिए उभरती है, और पैकर की असरियत, ब हैसियत पैकर उसकी वज़ाहत और साफ़ दिखाई दे सकने की सलाहियत में इतनी नहीं है जितनी इस वजह से है कि पैकर एक ज़ेहनी वाक़ई यानी Mental Event है जो उन महसूसात के साथ एक मख़सूस ढंग से मुंसलिक है जिनको पैकर ने जन्म दिया है।

    इस्तिआरे और पैकर की असरियत को इन मिसालों से समझा जा सकता है। मुंदर्जा ज़ैल जुमले पर ग़ौर कीजिए, मैं घर पहुंच गया। अब अगर घर ग़ैर इस्तिआराती या रोज़मर्रा की मअनी में है, जिसे रिचर्ड्स हवाला जाती यानी Referential कहता है तो इस जुमले में सिर्फ़ इतनी माअनवियत है कि मुतकल्लिम उस जगह पर या इमारत में गया जहां वो रहता है। लेकिन अगर “घर” को इस्तिआरा फ़र्ज़ किया जाये तो इसमें एक जज़्बाती (बल्कि ज़ेहनी भी) तास्सुर पैदा हो जाता है।

    फ़र्ज़ कीजिए कोई शख़्स लंबे सफ़र के बाद मंज़िल-ए-मक़सूद पर पहुंचता है या कोई शख़्स राही मुल्क-ए-अदम होता है। या कोई शख़्स अजनबियों में पहुंचता है लेकिन उनको एहसास यगानगत से मामूर पाता है। कोई शख़्स किसी दोस्त के यहां जाता है। कोई शख़्स किसी मसले का हल तलाश कर लेता है। कोई शख़्स नुक़्सान के अंदेशे में गिरफ़्तार था लेकिन पायानकार वो बच निकलता है। कोई शख़्स अपने हस्ब-ए-तबीयत रोज़गार तलाश कर लेता है, वग़ैरा वग़ैरा। ये सब और इस तरह की सदहा सूरत-ए-हालात इस जुमले से पैदा हो सकती है अगर लफ़्ज़ “घर” को इस्तिआरा फ़र्ज़ कर लिया जाये। अब ये जुमले देखिए,

    (1) हवाई जहाज़ तेज़ी से गुज़र गया।

    (2) हवाई जहाज़ दनदनाता हुआ गुज़र गया।

    (3) तय्यारा दनदनाता हुआ गुज़र गया।

    (4) तय्यारा सरों पर से दनदनाता गुज़र गया।

    पहले जुमले में लफ़्ज़ “तेज़ी” ने ख़फ़ीफ़ सा पैकर बनाया है, लेकिन जैसे ही “दनदनाता” का लफ़्ज़ रखा गया, सूरत-ए-हाल की तस्वीर न सिर्फ़ और ज़्यादा वाज़ेह हो गई बल्कि शोर और गरज और लापरवाई का तास्सुर भी पैदा हो गया। तीसरे जुमले में “हवाई जहाज़” की जगह “तय्यारा” यानी मानूस की जगह नामानूस लफ़्ज़ रख देने से हवाई जहाज़ को ला इंसानियत और वाज़ेह हो गई जब कि लफ़्ज़ “तय्यारा” का आहंग दनदनाने के तसव्वुर को भी मुस्तहकम कर रहा है। इसके अजनबी या लापरवा होने का जो एहसास इस तीज़ी-ए-रफ़्तार ने पैदा किया था, वो और क़वी हो गया। चौथे जुमले में सरों पर से गुज़रता हुआ तय्यारा, आसमान की तरफ़ उठे हुए चेहरों, उनके ख़ौफ़, यास, उम्मीद, बेचारगी की तरफ़ मज़ीद इशारा करता है। “सरों पर से” का फ़िक़रा यहां इस्तिआराती है, क्योंकि तय्यारा तो बहुत ऊपर था, न कि सरों पर।

    मेरा कहना ये कि जदलियाती लफ़्ज़ शायरी की एक मख़सूस और मारुज़ी पहचान है, अगर वो इजमाल के पहलू ब पहलू आए। जदलियाती लफ़्ज़ असलन शायरी का वस्फ़ है। तख़्लीक़ी नस्र में बदरजा-ए-मजबूरी और अस्फ़ल सतह पर इस्तेमाल होता है, लेकिन नस्र चाहे जैसी भी हो, तौज़ीही या तख़्लीक़ी, चूँकि वो इजमाल और मौज़ूनियत से आरी होती है, इसलिए शायरी नहीं बन सकती। अगर मौज़ूं कलाम में जदलियाती लफ़्ज़ इजमाल के पहलू ब पहलू इस्तेमाल हो तो वो शायरी है। यहां इस बात का इआदा कर दूँ कि जदलियाती लफ़्ज़ से मेरी मुराद तशबीह, इस्तिआरा या पैकर का हामिल लफ़्ज़ है। इन तीन में से कोई उन्सुर ऐसा नहीं जिसे मारुज़ी तौर पर पहचानना मुम्किन न हो। बेसब्र पढ़ने वालों के लिए इस बात की भी वज़ाहत ज़रूरी है कि जदलियाती लफ़्ज़ की एक और क़िस्म, यानी अलामत का ज़िक्र मैं बाद में इबहाम के तहत करूँगा। इस्तिआरा भी अक्सर मुब्हम होता है, या इबहाम को राह देता है, इसलिए इस ज़िम्न में भी इबहाम का तज़्किरा होगा।

    लिहाज़ा में ये भी कहना चाहता हूँ कि शायरी की तीसरी और आख़िरी पहचान इबहाम है। जद लियाती लफ़्ज़ या इबहाम, उनमें से एक का होना ज़रूरी है। ये हमेशा ख़्याल रहे कि मौज़ूनियत और जमाल की शर्तें जुज़्व मुस्तक़िल यानी Constant Factor की हैसियत रखती हैं। (बक़ौल शख़्से वो तो रदीफ़ हैं, आयेंगी ही।) इन अज्ज़ा-ए-मुस्तक़िला के अलावा शायरी में या तो जद लियाती लफ़्ज़ होगा या इबहाम, या दोनों। मैं किसी ऐसे शे’र का तसव्वुर नहीं कर सकता जिसमें इन दो में से एक भी निशानी न हो और फिर भी वो शायरी हो। सिर्फ़ एक सूरत-ए-हाल ऐसी हो सकती है जब मौज़ूनियत और इजमाल के पहलू ब पहलू किसी शे’र में वो ख़वास पाए जाएं जिनको बरजस्तगी, सलासत, बंदिश की चुस्ती, बेतकल्लुफ़ी, ख़ुशतबई, मिज़ाह, तंज़ (बमानी Satire) रिआयत-ए-लफ़्ज़ी का पैदा-कर्दा लुत्फ़, वग़ैरा कहा जाता है।

    लेकिन चूँकि ये ख़वास नस्र में भी पाए जाते हैं (अलावा इसके कि उनमें से कुछ मोज़ूई भी हैं) बल्कि असलन नस्र के ही ख़वास हैं, इसलिए ये कलाम मौज़ूं-ओ-मुजमल को शायरी तो नहीं बना सकते, लेकिन उसे नस्र से मुमताज़ ज़रूर कर देते हैं। ऐसी तहरीर को हवाले और इफ़हाम की ग़रज़ से तो मैं शायरी का नाम दे सकता हूँ, लेकिन तन्क़ीद की ज़बान में मैं उसे ग़ैर शे’र  कहूँगा। हाँ, ये मुम्किन है कि किसी कलाम में शायरी भी हो (यानी मौज़ूनियत, इजमाल, जद लियाती लफ़्ज़, इबहाम हो) और साथ मुतज़क्किरा बाला नस्री ख़वास में से भी कुछ ख़वास मौजूद हों। अगर ऐसा है तो ये उस शायरी का वस्फ़ इज़ाफ़ी होगा, वस्फ़ ज़ाती न होगा। और इस वस्फ़ इज़ाफ़ी का वुजूद या अदम वुजूद, शे’र की क़ीमत बहैसियत शायरी न घटाएगा न बढ़ाएगा। क्योंकि शायरी की हैसियत से शे’र की क़ीमत सिर्फ़ इन चार ख़वास के ताबे है जिनका मैंने अभी ज़िक्र किया है। 

    यहां पर ये सवाल उठ सकता है कि मैंने मौज़ूनियत का ज़िक्र एक क़तई शर्त के तौर पर तो जगह जगह किया है, लेकिन ये कहीं वाज़ेह नहीं किया कि मौज़ूनियत में आहंग की हैसियत और क़द्र-ओ-क़ीमत क्या है। अगर शायरी की क़ीमत सिर्फ़ इन चार चीज़ों के ताबे है जिसमें से एक (यानी इजमाल) की जमालियाती क़द्र भी वाज़ेह नहीं है और मौज़ूनियत वज़न के सिर्फ़ इल्तिज़ाम का नाम है तो हम ये क्यों कहते हैं फ़ुलां शायर का आहंग बेहतर या ज़्यादा लुत्फ़   अंगेज़ या ज़्यादा बुलंद है? अगर हम ये ग़लत कहते हैं कि फ़ुलां शायर का आहंग बेहतर है तो क्या आहंग की कोई क़ीमत नहीं है? अगर ऐसा है तो एक ही बह्र व वज़न में कही हुई दो नज़्मों का आहंग बिल्कुल यकसाँ क्यों नहीं होता?

    इन सवालों पर में आगे चल कर गुफ़्तगू करूँगा। फ़िलहाल सिर्फ़ तीन बातें कहना मक़सूद हैं। एक तो ये कि मुजर्रिद आहंग की कोई क़ीमत नहीं होती। यानी कोई शे’र महज़ इस वजह से शायरी नहीं बन जाता कि उसका आहंग ग़ैरमामूली तौर पर ख़ूबसूरत या पुरअसर है। आहंग की क़ीमत मअनी की ताबे होती है और मअनी जदलियाती लफ़्ज़ और इबहाम के ताबे होते हैं। दूसरे ये कि आहंग की ख़ूबी को शे’र की निशानी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि इस ख़ूबी को महसूस और बयान करने के मारूज़ तरीक़े नाक़िस हैं, और हमारी बहस मारुज़ी तरीक़ों तक महदूद है। तीसरे ये कि आहंग का सारा इसरार इसी मसले में मुज़मिर है कि एक ही बह्र व वज़न में कहे हुए दो शे’र मुख़्तलिफ़ आहंग के हामिल होते हैं। जदलियाती लफ़्ज़ की कारफ़रमाई इन अशआर में देखिए,

    ना सँभला आसमां से इश्क़ का बोझ
    हमीं हैं जो ये मुगदर भांजते हैं
    क़ायम

    आसमां बार-ए-अमानत न उंसत कशीद
    क़ुर्रा-ए-फ़ाल बनाम मन दीवाना ज़दंद 7
    हाफ़िज़

    कामिल इस फ़िर्क़ा-ए-ज़हाद से उठा न कोई
    कुछ हुए तो यही रिन्दान-ए-क़दहख़वार हुए
    आज़ुर्दा

    इस शे’र के बारे में शिबली ने लिखा है कि क़ुरआन की आयत को हाफ़िज़ से बढ़कर किसी और ने नहीं बयान किया। और ये इस हद तक तो दुरुस्त है ही कि क़ायम ने अगरचे हाफ़िज़ के पहले मिसरे का तर्जुमा कर दिया है और तशबीह भी इस्तेमाल की है, लेकिन उनका शे’र  हाफ़िज़ से बहुत कम है। मैं इसकी वजह बयान करता हूँ। क़ायम ने “इश्क़ का बोझ” लिखा है, इसकी जगह हाफ़िज़ ने “बार-ए-अमानत” का इस्तिआरा रखा है। ये और बात है कि ये इस्तिआरा क़ुरआन में भी मौजूद है, इससे इसकी क़द्र कम नहीं होती। “इशक़” का लफ़्ज़ सिर्फ़ दो मफ़हूमों का हामिल है। इश्क़-ए-हक़ीक़ी या इश्क़-ए-मजाज़ी। हाफ़िज़ ने अमानत को इश्क़ का इस्तिआरा बना कर कम से कम इतने मअनी पैदा किए हैं। (1) इश्क़-ए-हक़ीक़ी (2) इश्क़-ए-मजाज़ी (3) मार्फ़त इलाही (4) ख़ुद-आगही (जो अल्लाह की सिफ़त है), (5) तकल्लुफ़ात शरईया व अहकाम-ए-इलाही (6) ज़िंदगी और उसके आलाम (7) अक़्ल। लिहाज़ा इस एक इस्तिआरे ने हाफ़िज़ के मिसरे को ज़्यादा शायरी का हामिल कर दिया।

    दूसरे मिसरे में क़ुर्रा-ए-फ़ाल ज़दन का मुहावरा (यानी इस्तिआरा) है, जो मजबूरी को भी ज़ाहिर करता है इस तरह ये शे’र तबख़्तुर के अलावा तंज़ के भी मज़मून का हामिल हो जाता है कि लीजिए मुझ दीवाने को पकड़ा, जो कि मजबूर था, उसके नाम क़ुर्रा आही गया था तो वो क्या करता। उसने अपनी मर्ज़ी से तो ये बार क़बूल न किया था। “मन दीवाना” से तंज़ का पहलू और भी वाज़ेह होता है कि कमाल गीर मुंसफ़ी है, जो बोझ आसमान से न उठ पाया वो मुझ दीवाने पर लाद दिया लेकिन “मन दीवाना” भी इस्तिआरा है, क्योंकि “मन दीवाना” से सिर्फ़ हाफ़िज़ मुराद नहीं हैं (उसके बरख़िलाफ़ क़ायम के “हमीं” से सिर्फ़ क़ायम मुराद हैं, या ज़्यादा से ज़्यादा नौअ इंसानी) और न सिर्फ़ तमाम नौअ इंसानी मुराद है, बल्कि दीवाना बमअनी आरिफ़ से चंद मख़सूस सलाहियतों और कैफ़ियत के लोग भी मुराद हैं।

    यही नहीं, बल्कि दीवाना से मुराद दीवाना-ए-इश्क़ भी है और ख़ुद शायर भी (यानी शायर बहैसियत एक फ़िर्क़ा-ए-इंसानी के) जिसके बारे में मशरिक़-ओ-मग़रिब दोनों में कहा जाता रहा है कि वो “जानने वाला” यानी महरम-ए-राज़ होता है। मिंटगुमरी वाट ने तो ये भी लिखा है कि क़दीम अरबी में लफ़्ज़ “शायर” के मअनी ही थे, “जानने वाला।” The Knower और “काहन”  Priest गोया शायर का वही दर्जा था जो काहन का था, काहन जो महरम-ए-असरार था और दूसरों पर उन असरार की नक़ाब कुशाई भी करता था। इस तरह हाफ़िज़ ने बार-ए-अमानत, क़ुर्रा-ए-फ़ाल ज़दन और मन दीवाना के इस्तिआरे इस्तेमाल करके शे’र में मअनी की एक नई दुनिया आबाद कर दी है। हाफ़िज़ का शे’र क़ायम के शे’र से यक़ीनन बहुत ज़्यादा बेहतर है यानी बहुत ज़्यादा शायरी है।

    लेकिन क़ायम का शे’र भी शायरी तो है ही, क्योंकि इसमें हज़ार मरियल सही, लेकिन “इश्क़” का इस्तिआरा तो इस्तेमाल ही किया गया है, और दूसरे मिसरे में इश्क़ का इस्तिआरा “मुगदर” ठहराया गया है। तो हमने ये कैसे फ़र्ज़ किया कि क़ायम का शे’र ख़राब है और हाफ़िज़ का शे’र  अच्छा है। इसका जवाब ये है कि अगर आप हिसाब किताब के क़ाइल हैं तो यूं समझिए कि क़ायम ने सिर्फ़ दो इस्तिआरे इस्तेमाल किए हैं, वो भी कमज़ोर, और हाफ़िज़ ने तीन इस्तिआरे इस्तेमाल किए हैं, तीनों निहायत मज़बूत। आप पूछ सकते हैं कि क़ायम का पहला इस्तिआरा (इश्क़) तो इसलिए कमज़ोर है कि इसके सिर्फ़ दो मअनी निकलते हैं और वो भी बहुत सामने के, इस क़दर सामने के कि “इश्क़” को महज़ मुरव्वतन ही इस्तिआरा कहा जा सकता है, लेकिन “मुगदर” में क्या बुराई है? आप उसे क्यों ख़राब कहते हैं, वो तो इस्तिआरे का इस्तिआरा है, ज़ाहिर है कि इसमें दोहरी क़ुव्वत होगी।

    मैं जवाब दूँगा कि बिल्कुल दुरुस्त। आपने इतना तो मान लिया कि वो इस्तिआरा ज़्यादा ज़ोरदार होता है जिसमें ज़्यादा मअनी हों, लेकिन इस्तिआरे (और तशबीह) की ख़राबी की एक और वजह भी होती है, वो भी मैं बयान करूँगा और दिखाऊँगा कि जिस तरह जदलियाती लफ़्ज़ का वुजूद अच्छी शायरी की पहचान कराता है, इसी तरह अच्छे या पुर क़ुव्वत जदलियाती लफ़्ज़ का वुजूद अच्छी शायरी की पहचान कराता है, और ख़राब या कमज़ोर जदलियाती लफ़्ज़ का वक़ूअ ख़राब या कम अच्छी शायरी को पहचानना सिखाता है और अच्छे और ख़राब जद लियाती लफ़्ज़ का मेयार भी क़तअन मारुज़ी है।

    मशरिक़-ओ-मग़रिब में लोगों ने तशबीह-ओ-इस्तिआरे की तअय्युन-ए-क़द्र में बड़ी मोशिगाफ़ियाँ की हैं। मसलन नुदरत को उनकी बड़ी ख़ूबी बताया गया है। लेकिन नुदरत एक इज़ाफ़ी इस्तिलाह है। जो चीज़ मेरे लिए बड़ी नादिर है मुम्किन है वो आपके लिए निहायत मामूली हो। किसी ऐसे शख़्स का तसव्वुर कीजिए जिसने शायरी बिल्कुल न पढ़ी हो और वो शायरी शुरू करे। ज़ाहिर है कि उसकी नज़र में माशूक़ के चेहरे के लिए चांद की तशबीह इंतहाई नादिर होगी, लेकिन हम आप उसकी तरफ़ आँख उठा कर देखने के भी रवादार न होंगे।

    अलावा बरीं नादिर तशबीह या इस्तिआरा लाज़िम नहीं है कि अच्छा ही हो। इश्क़ के बोझ के लिए मुगदर का इस्तिआरा ख़ासा नादिर है, लेकिन मैं उसे बिल्कुल मामूली कह रहा हूँ। अगर ये कहा जाये कि मुगदर नादिर तो है लेकिन मौज़ू (मुस्तआरला, यानी इश्क़ के बोझ) का इज़हार करने के लिए काफ़ी नहीं है तो मैं कह सकता हूँ कि मेरे ख़्याल में तो काफ़ी है। इसी तरह अगर ये कहा जाये कि ये इस्तिआरा मुज़हिक है या मुतनासिब नहीं है तो मैं कह सकता हूँ कि मुझे तो क़तअन मुज़हिक नहीं लगता, या मेरे ख़्याल में तो ये क़तअन मुतनासिब है। तो फिर आप क्या कहेंगे?

    दरअसल ये सारा झगड़ा तशबीह और इस्तिआरे की असल हक़ीक़त को नज़रअंदाज कर देने की वजह से पैदा हुआ है कि मैं “मुगदर” को ख़राब इस्तिआरा जानते हुए भी ख़राब साबित नहीं कर पा रहा हूँ। हालांकि बात बिल्कुल सामने की है। इन दोनों में बुनियादी शर्त ये है कि दो मुख़्तलिफ़ अश्या में मुशतर्का सिफ़ात या ख़वास तलाश किए जाएं। बस तो फिर वही तशबीह/इस्तिआरा ख़ूबसूरत है जिसमें मुख़्तलिफ़ तरीन अश्या के मुश्तरकात बयान हुए हों। मुशब्बेह और मुशब्बेह ब, मुस्तआर मुँह, और मुस्तआरला, एक दूसरे से जिस क़दर मुख़्तलिफ़ होंगे, तशबीह-ओ-इस्तिआरा उतने ही अच्छे होंगे। चेहरे को आफ़ताब से ताबीर किया तो क्या कमाल किया दोनों की मुमासिलत (चमक और तमाज़त) बिल्कुल सामने की चीज़ है। इस्तिआरे की शर्त मुग़ाइरत है न कि मुमासिलत।

    बड़े मूज़ी को मारा नफ़स-ए-अम्मारा को गिर मारा
    निहंग-ओ-अज़दहा व शेर नर मारा तो क्या मारा
    ज़ौक़

    निहायत पोच शे’र है, क्योंकि, नफ़स-ए-अम्मारा को “बड़े” मूज़ी से इस्तिआरा किया गया है, और तीन जानवरों को छोटा मूज़ी कहा है, मुनासिबत बिल्कुल सामने की है, मुग़ाइरत बहुत कम। सिर्फ़ हल्का सा मुबालग़ा है लेकिन,

    यारो ये इब्न-ए-मलजम पैदा हुआ दुबारा
    शेर-ए-ख़ुदा को जिसने भीलों के बन में मारा
    सौदा

    मुस्तआर मुँह (इब्न-ए-मलजम और शेर-ए-ख़ुदा) और मुस्तआरला (आसिफ़ उद्दौला और शेर सहरा) में मुमासिलत के क़तई अदम वुजूद की वजह से अच्छा शे’र है। अगरचे अपने ममदूह व मुहसिन को इब्न-ए-मलजम ठहराना अख़लाक़ी हैसियत से क़बीह है, लेकिन इससे शे’र के हुस्न पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। मुम्किन है आपकी तबीयत में इस शे’र से कराहत पैदा हो और सौदा की बदतहज़ीबी पर ग़ुस्सा आए (जैसा कि मेरे साथ हुआ है) लेकिन ये ज़ाती पसंद नापसंद का मुआमला है। बक़ौल इफ़्तिख़ार जालिब हर एक को अपना अपना मुरक्कब पसंद करने का इख़्तियार है।

    अब क़ायम के “मुगदर” को देखिए। मुगदर भारी होता है। इश्क़ का बोझ दुनिया जानती है। इस तरह मुस्तआरला और मुस्तआर मुँह में बहुत मामूली इख़्तिलाफ़ है, लिहाज़ा ये इस्तिआरा ख़राब है। अब आप कहीं ये न कह दीजिएगा कि हमें तो इश्क़ और मुगदर में बहुत बड़ा इख़्तिलाफ़ नज़र आता है, क्योंकि फिर मुझे ये भी बताना पड़ेगा कि इश्क़ और मुगदर में बड़ा इख़्तिलाफ़ हो तो हो, लेकिन इश्क़ के बोझ और मुगदर के बोझ में ज़्यादा इख़्तिलाफ़ नहीं है। यहां पर इश्क़ के बोझ का ज़िक्र है, जिसके लिए मुगदर जैसी भारी चीज़ से इस्तिआरा किया गया है।

    बात तो जब बनती जब इस बोझ के लिए किसी इंतहाई हल्की चीज़ मसलन अमानत (जो एक लफ़्ज़, एक इल्म, एक पैग़ाम की हैसियत से ग़ैर तबीई, यानी बोझ से क़तअन आरी भी हो सकती है) का इस्तिआरा तलाश किया जाता। “ख़ंदा-ए-गुल” का इस्तिआरा मामूली है (अगरचे पैकर अच्छा है) क्योंकि ख़ंदा और गुल की मुनासिबत सामने की चीज़ है, लेकिन “ख़ंदा-ए-ज़ख़्म” का इस्तिआरा ज़ोरदार है, क्योंकि ख़ंदा और ज़ख़्म बादियुन्नज़र में एक दूसरे के बिल्कुल बरअक्स हैं। मुनासिबत के इन निकात को इन अशआर में भी देखिए,

    मीर इन नीम बाज़ आँखों में
    सारी मस्ती शराब की सी है

    है चश्म नीम बाज़ अजब ख़ूब नाज़ है
    फ़ित्ना तो सो रहा है दर फ़ित्ना बाज़ है

    पहला शे’र, ज़ाहिर है कि मीर का है। दूसरे शे’र का पहला मिसरा नासिख़ ने कहा था जिस पर ख़्वाजा वज़ीर ने फ़िलबदीह मिसरा लगाया। मुनासिबत के एतबार से न मीर की तशबीह में कोई ख़ास बात है न नासिख़-ओ-वज़ीर के इस्तिआरे में। आँखों को शराब के प्याले भी अक्सर कहा गया है और फ़ित्ना भी। मगर दूसरे शे’र में पपोटों को “दर फ़ित्ना” कह कर साहिब-ए-ख़ाना के सोते होने लेकिन दरवाज़ा खुला होने का ज़िक्र के एक मुकम्मल बस्री पैकर ख़ल्क़ किया गया है। इसी तरह मीर के शे’र में असल ख़ूबी तशबीह में नहीं है, बल्कि लफ़्ज़ “मीर” में है। मसलन इस मिसरे से तख़ल्लुस निकाल कर उसे यूं कर दिया जाये,

    तेरी इन नीम-बाज़ आँखों में
    आज इन नीम-बाज़ आँखों में
    हाय इन नीम-बाज़ आँखों में

    वग़ैरा, तो शायरी फ़ौरन ग़ायब हो जाती है। क्योंकि दरअसल, ये शे’र लफ़्ज़ “मीर” के इस्तेमाल से इन्किशाफ़ और तहय्युर का पैकर बन गया है। “मीर इन नीम-बाज़ आँखों” कहने से पैकर ये बनता है कि किसी शख़्स ने अचानक ये महसूस किया है कि अरे, इन नीम-बाज़ आँखों का राज़ ये है कि उनकी सारी मस्ती शराब की सी है। लिहाज़ा ये शे’र या तो महबूब का सामना होने पर इन्किशाफ़ की सूरत-ए-हाल बयान कर रहा है, या सामना होने के बाद तन्हाई में ज़ेर-ए-लब कही हुई बात है जिसमें एक रंजीदा तमनाइयत है या उस अचानक एहसास का नक़्शा खींच रहा है कि किसी शख़्स ने दफ़अतन ये महसूस किया कि उसके ऊपर जो नशा की सी कैफ़ियत तारी थी (या है) वो इन नीम-बाज़ आँखों की वजह से थी (या है।)

    अगर “उन” को “इन” पढ़ा जाये तो ये भी कहा जा सकता है कि शे’र तंबीह की सूरत-ए-हाल का बयान है कि मीर, तू उस तरफ़ मत देख, ये नीम-बाज़ आँखें शराब का सा नशा रखती हैं, तू उन्हें देखकर अपने होश खो देगा। (या उनकी मस्ती शराब का सा असर रखती है, शराब हराम है, तू क्यों उनकी तरफ़ देखकर शराब का नशा अपने रग-ओ-पै में सरायत करने का गुनाह मोल लेता है।) आख़िरी सूरत ये है कि ऐ मीर, तू उन नीम-बाज़ आँखों की मस्ती से धोका न खाना। ये असल मस्ती नहीं है, बल्कि शराब की आवुर्दा मस्नूई और कमतर दर्जे की मस्ती है। (दिल में एक चोर भी है कि माशूक़ ने ग़ैर के साथ शराब तो नहीं पी है?) अलावा बरीं लफ़्ज़ “सारी” भी तहय्युर और इन्किशाफ़ की पुश्तपनाही करता है। 

    इस तज्ज़िये की रोशनी में हम ये कह सकते हैं अगरचे नासिख़-ओ-वज़ीर के शे’र का हुस्न भी पैकर का ख़ल्क़ कर्दा है, लेकिन मीर से कमतर दर्जे का है, क्योंकि अगरचे मीर का शे’र भी पैकर ही का मर्हूने मिन्नत है, लेकिन (रिचर्ड्स की ज़बान में) स्पीकर के ख़ल्क़ कर्दा महसूसात से मुताल्लिक़ जो ज़ेहनी वाक़ियात मुंसलिक हैं वो ज़्यादा मुतनव्वे हैं। इसलिए मीर के जद लियाती अलफ़ाज़ में नामियाती ज़िंदगी ज़्यादा है, इसलिए मीर का शे’र बेहतर है। इसी तज्ज़िये की रोशनी में पैकर की तअय्युन-ए-क़द्र का उसूल भी तै हो जाता है। पैकर जिस हद तक और हवास-ए-ख़मसा में जितने ज़्यादा हवासों को मुतहर्रिक करेगा, उतना ही अच्छा होगा। इसकी मिसाल में हवाई जहाज़ वाले जुमलों के ज़रिए दे चुका हूँ, लिहाज़ा इआदे की ज़रूरत नहीं है।

    इतना लंबा सफ़र करने के बाद हम अपने नुक़्ता-ए-आग़ाज़ यानी क़ायम, हाफ़िज़ और आज़ुर्दा के अशआर पर वापस आते हैं। क़ायम और हाफ़िज़ के अशआर की रोशनी में आज़ुर्दा का शे’र पढ़िए,  

    कामिल उस फ़िर्क़ा-ए-ज़हाद से उठा न कोई
    कुछ हुए तो यही रिन्दान क़दहख़्वार हुए

    हाफ़िज़ का शे’र इस्तिआरों से ममलू है, लेकिन वो इस्तिआरे मुस्तआर मुँह, से मुंसलिक हैं। आज़ुर्दा के इस्तिआरे हाफ़िज़ के इस्तिआरों का इस्तिआरा है। हाफ़ित का आसमान, आज़ुर्दा का फ़िर्क़ा-ए-ज़हाद, हाफ़िज़ का बार-ए-अमानत, आज़ुर्दा का कमाल, हाफ़िज़ का बार-ए-अमानत कश, आज़ुर्दा का कामिल। हाफ़िज़ का मन दीवाना, आज़ुर्दा के रिंद, जिनके साथ क़दहख़्वार का इस्तिआरा मुज़ाफ़ है। सिर्फ़ ज़दन का कोई इस्तिआरा आज़ुर्दा के यहां नहीं है, यहां उसकी कमी है। जैसा कि मैं ऊपर दिखा चुका हूँ, क़ुर्रा-ए-फ़ाल ज़दन का इस्तेमाल करके हाफ़िज़ ने मअनी के चंद नए पहलू निकाले हैं जो क़ुरआन की आयत से बिल्कुल अलग हैं। लेकिन इस्तिआरा दर इस्तिआरा होने की वजह से आज़ुर्दा का शे’र एक इस्तिआरे (और उसकी मख़्फ़ी माअनवियतों की कमी के बावजूद इसी दर्जा शायरी का हामिल है जितना हाफ़िज़ का। 

    क्योंकि आज़ुर्दा के इस्तिआरे हाफ़िज़ के इस्तिआरों को मुहीत होने के साथ साथ अपने मअनी भी रखते हैं। यानी ये कि रिंद मशरब लोग ही दरअसल दर्जा कमाल को पहुंचते हैं, ज़ाहिद व आबिद लोगों के बस का ये रोग नहीं। अब यहां इबहाम भी दाख़िल हो जाता है, क्योंकि फ़िर्क़ा-ए-ज़हाद की नाकामी के मुख़्तलिफ़ अस्बाब हो सकते हैं (गर्मी-ए-इश्क़ का फ़ुक़दान और ज़वाहिर पर-ज़ोर, रियाकारी, दून हिम्मती, मार्फ़त का फ़ुक़दान, क्योंकि मार्फ़त उसी को मिलती है जो पाबंदी-ए- रसूम से इनकार करे वग़ैरा) लेकिन बयान नहीं किए गए हैं। इसी तरह रिन्दान-ए-क़दहख़्वार, सूफ़ी साफ़ी लोगों का भी इस्तिआरा हैं और मरदान आज़ाद मशरब का भी वग़ैरा। हाफ़िज़ के शे’र में इबहाम इस्तिआरों का पैदा-कर्दा है, आज़ुर्दा का शे’र असलन मुब्हम है, इसलिए शे’र  फ़हमी के लिए ज़्यादा राहें फ़राहम करता है। इन मज़ीद तौज़ीहात की रोशनी में अगर ये कहा जाये कि आज़ुर्दा हाफ़िज़ से छोटे शायर सही, लेकिन उनका ये शे’र हाफ़िज़ से बढ़ा हुआ है, तो चंदाँ ग़लत न होगा। बहरहाल ये बात तो पूरी तरह साबित हो ही चुकी है कि क़ायम का शे’र  इन दोनों से बहुत नीचे है।

    तशबीह/इस्तिआरे की एक मारुज़ी ख़ूबी ये भी होती है (जो मुतज़क्किरा ख़ूबी का दूसरा रुख़ है) कि अगरचे तरफ़ैन में बहुत ज़्यादा मुग़ाइरत न हो लेकिन मुमासिलत का जो पहलू ढ़ूंडा जाये वो बआसानी नज़र न आ सकता हो या जिस पर दूसरों की नज़र न गई हो। इससे ये नतीजा लाज़िम है कि अगर तरफ़ैन में मुग़ाइरत भी बहुत ज़्यादा हो और मुमासिलत का जो पहलू ढ़ूंडा जाये वो आसानी से नज़र न आ सकता हो या इस पर दूसरों की नज़र न गई हो तो इससे बेहतर तशबीह या इस्तिआरा मुम्किन नहीं। जदीद इस्तिआरे की क़ुव्वत का राज़ यही है। लेकिन फ़िलहाल मीर अनीस के इस बंद का मुताला मक़सूद है,

    वो रुए दिल-फ़रोज़ वो ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ताब
    गोया कि निस्फ़ शब में नुमायां है आफ़ताब
    अब्रू की ज़ुल्फ़क़ार से ज़ुहरा क़दह का आब
    आँखें वो जिनसे नर्गिस-ए-फ़िरदौस को हिजाब

    पुतली का रोब सब पे अयाँ है ख़ुदाई में
    बैठा है शेर पंजों को टेके तराई में

    दूसरे मिसरे का पैकर भी तवज्जो तलब है, लेकिन अभी आँखों का ज़िक्र हो रहा था, इस नए बैत के इस्तिआरे को उठाइए। आँख की पुतली और शेर में नुमायां मुग़ाइरत है। इस इस्तिआरे में वजदानी मंतिक़ कुछ यूं कारफ़र्मा होगी। 

    (1) ममदूह का चेहरा पुर जलाल है, शेर की सूरत पर भी जलाल बरसता है। जलाल का इज़हार आँखों से होता है इसलिए आँखें शेर की तरह हैं।

    (2) इमाम हुसैन को शह वाला भी कहा जाता है, शेर भी जंगल का बादशाह होता है। बादशाह पुर जलाल होता है, आँखें उस जलाल का मतला-ओ-मज़हर होती हैं।

    (3) शेर जंगल में रहता है, मीर अनीस के ज़ेहन में जंगल का तसव्वुर तराई ही से मुंसलिक है, कि उनके ज़माने में पीलीभीत, गोंडा, सीतापुर सब तराई के जंगलों से ढके हुए थे। आँखें स्याह पलकों से और अपनी फ़ित्री नमी की वजह से तराई के जंगल से मुशाबेह हैं।

    (4) अगर आँखें जंगल हैं तो पुतलियां, कि तास्सुर व जज़्बे का इज़हार उन्हीं के ज़रिए होता है, इस जंगल की सबसे मुमताज़ शैय हुईं। जंगल की सबसे मुमताज़ शैय शेर होता है, इसलिए पुतलियां शेर हैं।

    (5) आँखें हर वक़्त जलाल का मज़हर नहीं होतीं, जलाल उनमें ख़्वाबीदा रहता है, जो ज़रा सी तहरीक पर बिफर सकता है, लेकिन ख़्वाबीदगी के आलम में भी उनकी हैबत की ख़ल्क़ कर्दा नफ़सियाती फ़िज़ा जागती रहती है।

    (6) आँखें बज़ाहिर पुरसुकून और ख़्वाबनाक हैं लेकिन फिर भी चाक़-ओ-चौबंद और चौकस नज़र आती हैं। जिस तरह शेर जब पंजे अंदर की तरफ़ मोड़ कर आराम के आसन बैठता है तो भी ख़बरदारी और चौकसी का तास्सुर क़ायम रखता है। यानी वो ब-यक वक़्त बदन को ढीला छोड़े हुए आराम करता हुआ फिर भी चौकन्ना दिखाई देता है और ज़रा सी आहट पाकर मुस्तइद हो जाता है, इसी तरह शह वाला की पुतलियां भी हैं, जो ब-यक वक़्त पुरसुकून और पुरजलाल तास्सुर की हामिल हैं। बैठा है शेर पंजों को टेके तराई में।

    वजदानी मंतिक़ की इन मनाज़िल को वाज़ेह करने के बावजूद अभी बहुत से पहलू बाक़ी हैं। अलामती मफ़हूम भी दूर नहीं है। इस्तिआरा दर इस्तिआरा के साथ साथ हैबतनाक सुकून और पुरअसरार बेतअल्लुक़ी लेकिन बेपायाँ क़ुव्वत-ओ-ख़ुद-एतिमादी का इतना मुकम्मल पैकर शायरी में कम मिलेगा। दरअसल इस इस्तिआरे का अहम तरीन पहलू ये है कि इसकी पुश्तपनाही एक ग़ैरमामूली पैकर (पंजों को टेके हुए तराई में बैठा हुआ शेर) के ज़रिए हो रही है। और ये पुश्तपनाही इस क़दर लाज़िम-ओ-मल्ज़ूम का हुक्म रखती है और ये कहना मुम्किन नहीं है कि इस्तिआरा कहाँ शुरू और पैकर कहाँ ख़त्म होता है। पूरा पैकर इस्तिआरा भी है और पूरा इस्तिआरा पैकर भी। लिहाज़ा जब इस्तिआरा और पैकर का इंज़िमाम हो जाये तो आला तरीन जदलियाती लफ़्ज़ जन्म लेता है, क्योंकि फिर वो अलामती इस्तिआरा बन जाता है। अलामती इस्तिआरे का ग़याब और वुजूद  मुंदर्जा ज़ैल अशआर में देखिए,

    बूए यार मन अज़ीं सुस्त वफ़ामी आयद
    गुल्म अज़ दस्त बगैरीद कि अज़्कार शुदम
    नज़ीरी

    तमाम अज़ गर्दिश-ए-चश्म तू शदकार मन ऐ साक़ी
    ज़दस्त मन बगैर ईं जाम रा अज़ ख़्वेशतन रफ़तम
    साइब

    कैफ़ियत चश्म उसकी मुझे याद है सौदा
    साग़र को मिरे हाथ से लीजो कि चला मैं
    सौदा

    हाली, सौदा और नज़ीरी के शे’रों पर यूं इज़हार-ए-ख़्याल करते हैं, “अज़कार शुदम” में वो तामीम नहीं है जो इसमें है कि “चला में।” नहीं मालूम कि आपे से चला या दीन-ओ-दुनिया से चला, या जगह से चला या कहाँ से चला। और सबसे बड़ी बात ये है कि “चला मैं” हमेशा ऐसे मौक़े पर बोला जाता है जब आदमी मदहोश-ओ-बदहवास हो कर गिरने को होता है। और “अज़कार शुदन” में ये बात नहीं है। मुअत्तल होने, माज़ूर होने, अपाहिज और निकम्मे होने को भी “अज़कार शुदन” से ताबीर करते हैं।” 

    ताज्जुब है कि इस दर्जा शे’र फ़हमी पर क़ादिर शख़्स के बारे में कलीम उद्दीन अहमद लिखते हैं कि “ख़्यालात माख़ूज़, शख़्सियत मामूली, नज़र सतही।” सतही नज़र वाले “चला मैं” और “अज़कारशुदम” के फ़र्क़ को कहाँ महसूस करते हैं और “चला मैं” को उसके पैकरी किरदार और इबहाम (जिसको हाली ने “तामीम” कहा है) की बिना पर “अज़कारशुदम” से कहाँ बेहतर कह सकते हैं? हाली ने बिल्कुल सही समझा है कि सौदा ने “चला मैं” कह कर पैकर की वज़ाहत और इस्तिआरे के इबहाम को यकजा कर दिया है। पैकर और इस्तिआरे के इस इदग़ाम की वजह से सौदा का शे’र नज़ीरी से बहुत बेहतर है, अगरचे यहां भी आँखों के नशीलेपन की बात है जो एक मामूली इस्तिआरा है। शे’र की ख़ूबी “कैफ़ियत-ए-चशम” में नहीं है, जो एक उमूमी और सतही बयान है, बल्कि “चला मैं” के अलामती इस्तिआरे में है। हाली के इसी उसूल पर साइब का शे’र  परखा जाये तो यही बात फिर सामने आती है। बज़ाहिर तो सौदा ने साइब का तर्जुमा ही कर डाला है।

    लेकिन “अज़ख़्वेशतन रफ़्तम” में भी वही महदूद माअनवियत है जो “अज़कार शुदम” में है, बल्कि इससे कम ही है, क्योंकि बहरहाल “अज़कार शुदन” के और मअनी भी होते हैं, चाहे सयाक़-ओ-सबाक़ में वो बहुत ज़्यादा मुनासिब न हों, लेकिन “अज़ख़्वेशतन रफ़्तन” के मअनी महज़ “होश खो देने” के हैं, यहां “मदहोश-ओ-बदहवास” होने तक की बात तो है, लेकिन मदहोश हो कर गिरने का पैकर मौजूद नहीं है, और न वो इमकानात हैं जिनकी तरफ़ हाली ने इशारा किया है। इसी तरह साइब ने साक़ी से ख़िताब करके अपनी मदहोशी को एक शख़्स मौजूद से मुताल्लिक़ कर दिया है।

    सौदा का “उस” किसी शख़्स मौजूद के बारे में नहीं है, बल्कि ये भी कहना मुश्किल है कि किसी शख़्स वाक़ई ही के बारे में है। “उस” की तख़्सीस न होने की वजह से हम उसे ख़्वाब में देखा हुआ कोई पैकर, नशे में सूझी हुई किसी परी की शबीह, ख़्याल में झलकी हुई किसी हसीना, हत्ता कि किसी फ़ैंटसी ज़दा मंज़र से भी मुताल्लिक़ कर सकते हैं जिसमें मस्हूर कुन आँखें उफ़ुक़ ता उफ़ुक़ छाई हुई हैं।

    लिहाज़ा लफ़्ज़ “उस” का इबहाम उसे इस्तिआरे के क़रीब ले आता है। फिर “गर्दिश-ए-चश्म” और “कैफ़ियत-ए-चश्म” के फ़र्क़ पर ग़ौर कीजिए। अगरचे आँखों के नशीलेपन का इस्तिआरा पेश पा उफ़्तादा है, लेकिन फिर भी “गर्दिश-ए-चश्म” की तरह वाज़ेह बयान नहीं है। सौदा जिस चीज़ से मुतास्सिर हुए हैं वो आँखों का नशीलापन, उनकी गर्दिश, उनकी लगावट उनमें से कोई भी एक चीज़ या ये सब चीज़ें हो सकती हैं (अलावा बरीं और भी बहुत सी कैफ़ियात हैं जिनका ज़िक्र किया जा सकता है।) “गर्दिश” का लफ़्ज़ सिर्फ़ एक कैफ़ियत को ज़ाहिर करता है। फिर “ईं जाम” की जगह सिर्फ़ “साग़र” कह कर सौदा ने सूरत-ए-हाल की ग़ैर क़तईयत यानी उसकी माअनवियत और बढ़ा दी है।

    पैकर का एक लाज़िमा ये भी है कि इसमें अलफ़ाज़ जिस क़दर कम इस्तेमाल होंगे, उसकी वज़ाहत ज़्यादा होगी (वज़ाहत से मअनी की वज़ाहत नहीं, बल्कि पैकरी Imagistic वज़ाहत मुराद है।) मसलन परिंदा अपने पर फ़ड़फ़ड़ाता हुआ उड़ गया, में वो वज़ाहत नहीं है जो “परिंदा पर फड़फड़ा कर उड़ गया” में है। सौदा ने ईं (यानी इसका) ग़ैर ज़रूरी लफ़्ज़ ख़ारिज करके मिसरा-ए- सानी की पैकरियत में इज़ाफ़ा कर दिया है। आख़िर में “मुझे याद है” की मुख़्तलिफ़ माअनवियतों पर भी ग़ौर कीजिए। मुम्किन है साग़र इसलिए नाक़ाबिल-ए-क़बूल हो कि कैफ़ियत-ए-चश्म में जो सुकर था वो साग़र में नहीं है।

    अब बज़ात-ए-ख़ुद मुब्हम पैकर का नमूना देखिए, जिसमें अलामती इस्तिआरे की कैफ़ियत ये है कि पैकर ही इस्तिआरे का काम कर रहा है। मीर अनीस के दूसरे मिसरे, गोया कि निस्फ़ शब में नुमायां है आफ़ताब, में पैकर मुजर्रद और ग़ैर मुंसलिक है। बैत के मिसरे, बैठा है शेर पंजों को टेके तराई में, का पैकर ही इस्तिआरा भी है। सौदा का पैकर “कि चला मैं” भी इस्तिआरा और पैकर का ब-यक वक़्त अमल कर रहा है। अब जिस शे’र का मुताला मक़सूद है इसमें महज़ पैकर है, इस्तिआरा बिल्कुल नहीं है लेकिन पैकर के साथ जिस क़िस्म के ज़ेहनी वाक़ियात वाबस्ता हैं वो इस्तिआरे की तासीर पैकर में पैदा कर देते हैं,

    ग़म का न दिल में हो गुज़र वस्ल की शब हो यूं बसर
    सब ये क़बूल है मगर ख़ौफ़-ए-सह्र को क्या करूँ
    हसरत

    तन्हा न रोज़-ए-हिज्र है सौदा पे ये सितम
    परवाना साँ विसाल की हर शब जला करे
    सौदा

    शाम-ए-शब-ए-विसाल हुई याँ कि इस तरफ़
    होने लगा तुलूअ ही ख़ुर्शीद रू स्याह
    मीर

    मीर अनीस का आफ़ताब तीनों शे’रों में नुमायां है, लेकिन सौदा का शे’र हसरत से बहुत बेहतर है। मैं इस पर ग़ौर करता हूँ तो वजह समझ में नहीं आती। ये तो मालूम हो जाता है कि हसरत के शे’र में ख़राबी की मशीनी वजहें क्या हैं, लेकिन हसरत की कमज़ोरी जान लेने से सौदा की मज़बूती नहीं साबित होती। सौदा के यहां पैकर भी कोई ख़ास नहीं है, अगरचे बरजस्तगी या बंदिश की चुस्ती मौजूद है लेकिन बरजस्तगी और बंदिश की चुसती को हम नस्र की खूबियां कहते हैं और शायरी के टाट से बाहर कर चुके हैं, अलावा बरीं मैं जिस मारूज़ की तलाश में हूँ, वो बरजस्तगी और बंदिश की चुस्ती से नहीं अदा होता। हसरत का मशीनी ऐब वाज़ेह है। दूसरे मिसरे में “सब ये क़बूल है मगर” ग़ैर ज़रूरी है या ज़्यादा से ज़्यादा रिआयत कर के हम ये कह सकते हैं कि लफ़्ज़ “मगर” काफ़ी है। नस्र यूं होगी, वस्ल की शब यूं बसर हो (कि) ग़म का दिल में गुज़र न हो, मगर ख़ौफ़-ए-सह्र को क्या करूँ।

    “सब ये क़बूल है” का टुकड़ा इसलिए भी नादुरुस्त है कि शर्त सिर्फ़ एक बयान की गई है, ग़म का दिल में गुज़र न हो, लेकिन सिफ़त जमा “सब” रखी है, जो बोल-चाल की ढीली ढाली ज़बान में तो दर गुज़र किया जा सकता है, लेकिन शे’र की ठसाठस भरी हुई दुनिया में इसकी जगह कहाँ। बहरहाल, अगर “सब ये क़बूल है” का टुकड़ा हज़्फ़ कर के कुछ और अलफ़ाज़ रख दिए जाएं जो उसकी तरह नादुरुस्त और ग़ैर ज़रूरी न हों तो क्या ये शे’र सौदा का हमपल्ला हो सकता है? मसलन अगर ये शे’र यूं कहा गया होता,

    ग़म का न दिल में हो गुज़र वस्ल की शब हो यूं बसर

    मुझको क़बूल है मगर ख़ौफ़-ए-सह्र को क्या करूँ
    बात तो ठीक है मगर ख़ौफ़-ए-सह्र को क्या करूँ
    कहना तिरा बजा मगर ख़ौफ़-ए-सह्र को क्या करूँ
    मुझको भी है ख़बर मगर ख़ौफ़-ए-सह्र को क्या करूँ

    तो क्या सूरत-ए-हाल होती? ये तो मानी हुई बात है कि मेरे ख़ुदसाख़्ता मिसरों में असल मिसरे का ऐब नहीं है, इसलिए इस हद तक तो यक़ीनन शे’र बेहतर हुआ है, और अब इसमें वही ख़ूबी है, यानी बरजस्तगी और ग़ैर ज़रूरी अलफ़ाज़ का अदम वुजूद जो सौदा के शे’र में है लेकिन फिर भी सौदा का शे’र बेहतर है। तो क्या इस वजह से कि सौदा के यहां जदलियाती लफ़्ज़ (यानी तशबीह, परवाना साँ) इस्तेमाल हुआ है? लेकिन तशबीह के बारे में मैं दावा कर चुका हूँ कि तरफ़ैन में जितनी मुग़ाइरत होगी, तशबीह उतनी ही अच्छी होगी। यहां मुग़ाइरत कुछ नहीं, मुमासिलत बिल्कुल सामने की है। मैं इस तरह जल रहा हूँ जिस तरह परवाना जलता है। निहायत मामूली तशबीह है।

    तो क्या सौदा के शे’र का आहंग बेहतर है? लेकिन सतह पर दिखाई देने वाले आहंग की हद तक तो हसरत का शे’र ज़्यादा मुतरन्नुम है। अंदरूनी क़ाफ़िया भी है (गुज़र, बसर,मगर) बह्र भी ऐसी है कि उसे हमारे नक़्क़ाद अरुज़ी और मुतरन्नुम कहते आए हैं। सौदा के यहां तो ऐसी कोई बात नहीं। ज़रा और गहरे उतरिए। अरूज़ की ज़बान में कहा जाये तो हसरत के मिसरों का वज़न मुफ़्तअलुन मुफ़ाइलन मुफ़्तअलुन मुफ़ाइलुन ठहरता है। मुफ़्तअलुन मुफ़ाइलुन को इकाई फ़र्ज़ कीजिए तो एक इकाई में चार बड़ी आवाज़ें (मुफ़, लन, फ़ा,लन) और चार छोटी आवाज़ें (ते, ऐन, मीम, ऐन) सुनाई देती हैं। बड़ी आवाज़ों की तर्तीब ये है कि मुफ़्तअलन की दोनों बड़ी आवाज़ें दायरवी हैं, किसी मसौते पर ख़त्म नहीं होती। यानी “मुफ़” और “लन” में वो तवालत नहीं है जो “मू” और “लू” में है।

    मुफ़ाइलुन की पहली बड़ी आवाज़ (फ़ा) मुनहनी है, क्योंकि मुसव्वते पर ख़त्म होती है और लंबी है मगर दूसरी बड़ी आवाज़ “मुफ़” की तरह दायरवी यानी “लन” है। ज़ाहिर के मुसव्वती और मुसम्मती आवाज़ों की ये तर्तीब इस वज़न के लिए बेहतरीन यानी ऐनी Ideal होगी, क्योंकि ब सूरत दीगर उलमाए अरूज़ पर आसानी मुफ़्तअलन मुफ़ाइलुन की फाउ लता फ़आलता वग़ैरा कुछ और अरकान रख देते जो बेहतरीन तर्तीब के हामिल होते। लिहाज़ा अगर इस वज़न में कहे गए किसी शे’र की आवाज़ें इसी तर्तीब से आएं जिस तर्तीब से असल वज़न में वाक़े हुई हैं तो हम ये कह सकते हैं कि इस शे’र ने आहंग की ऐनी तर्तीब को हासिल कर लिया है। अब हसरत का शे’र पढ़िए,  

    ग़म का न दिल में हो गुज़र मुफ़्तअलुन मुफ़ाइलुन
    वस्ल की शब हूँ यूं बसर मुफ़्तअलुन मुफ़ाइलुन
    सब ये क़बूल है मगर मुफ़्तअलुन मुफ़ाइलुन
    ख़ौफ़-ए-सह्र को क्या करूँ मुफ़्तअलुन मुफ़ाइलुन

    आपने देखा कि आवाज़ों की तर्तीब ऐनी वज़न की बिल्कुल नक़ल है। “सब ये क़बूल” में “बू”  और “ख़ौफ़-ए-सह्र” में “ख़ू” अगरचे मुसव्वते पर ख़त्म हुए हैं, लेकिन चूँ कि लाम और फ़े साकिन दोनों के फ़ौरन बाद उनसे जड़े हुए हैं, इसलिए आप न “बू” को बहुत ज़्यादा तवील कर सकते हैं न “खू” को। लिहाज़ा हसरत का शे’र ऐनी आहंग का हामिल है। तीन अंदरूनी क़ाफ़िए भी मौजूद हैं, रदीफ़-ओ-काफ़िया में क़ाफ़ की तकरार ने आहंग और भी मुर्तइश-ओ-मुतहर्रिक कर दिया है, जिसमें गुज़र, बसर और मगर के आख़िर में आने वाली राय मुहमला ने भी अपना काम किया है। साबित हुआ कि हसरत का शे’र ज़ाहिरी आहंग के एतबार से सौदा से बढ़ा हुआ नहीं तो बराबर तो है ही। अब इसी वज़न में इक़बाल के शे’र देखिए,

    गेसूए ताबदार को और भी ताबदार कर
    होश-ओ-ख़िरद शिकार कर क़ल्ब-ओ-नज़र शिकार कर

    आप कहेंगे ये मतला है, मतले का मुक़ाबला शे’र से करना ज़्यादती है लेकिन ये तो मेरे दिल की बात हुई। शे’र लीजिए,

    हुस्न भी हो हिजाब में इश्क़ भी हो हिजाब में
    या तो ख़ुद आशकार हो या मुझे आशकार कर
    वो शब-ए-दर्द-ओ-सोज़-ओ-ग़म कहते हैं ज़िंदगी जिसे
    इसकी सह्र है तू कि मैं इसकी अज़ां है तू कि मैं

    मैंने हसरत का सौती तज्ज़िया करते वक़्त ये बात नहीं कही थी कि हसरत के यहां तरसीअ का हुस्न भी है, और हर्फ़ दबते भी नहीं हैं। ग़म का न दिल मुफ़्तअलुन हो गुज़र मुफ़ाइलुन। इक़बाल के दूसरे मिसरे में तरसीअ बिल्कुल नहीं है, “आशकार” दो टुकड़े हो जाता है। या तो ख़ुद आ मुफ़्तअलुन शिकार हो मुफ़ाइलुन या मुझे आ मुफ़्तअलुन शिकार कर मुफ़ाइलुन। “कहते हैं ज़िंदगी जिसे” में तरसीअ भी ग़ायब है, और “कहते” की याय मजहूल दबती भी है। लेकिन इस के बावजूद इक़बाल के शे’र बेहतर आहंग के हामिल हैं। हसरत की तरह यहां राय मुहमला या इस तरह की किसी मुर्तइश आवाज़ की कसरत भी नहीं है। सिवाए इसके कि “आशकार कर”  में क़ाफ़ अरबी और राय मुहमला की और “अज़ां है तू कि मैं” में नून-ग़ुन्ना तवील की तकरार है, कोई ज़ाहिरी करतब नहीं इस्तेमाल किया गया है।

    अब मैं आपको अपने पिछले तजुर्बे की याद दिलाऊँगा जहां मैंने ग़ालिब का हम वज़न व हम ज़मीन शे’र कहा था और पूछा था कि इसमें ग़ालिब का सा आहंग क्यों नहीं है। इस सवाल को यूं भी पूछ सकते हैं कि मेरे गढ़े हुए शे’र में आहंग इस क़द्र-ओ-क़ीमत का हामिल क्यों नहीं था जो ग़ालिब के आहंग में है? अगर ये कहा जाये कि ग़ालिब के शे’र में आवाज़ों की जो तर्तीब थी, मुसव्वतों और मुसम्मतों का जो निज़ाम था, वो मेरे ख़ुदसाख़्ता शे’र में नहीं था और हरबर्ट रेड की ज़बान में जवाब दिया जाये कि कलाम उस वक़्त शायरी बन जाता है जब मौज़ू को आहंग के मुनासिब हईयत मिल जाती है, तो मैं कोलरिज की इस्तिलाह में ये न कहूँगा (अगरचे कह सकता हूँ) कि हर मौज़ू की हईयत (जिसमें आहंग शामिल है) उसके साथ ही पैदा होती है, बल्कि रिचर्ड्स की मिसाल देकर अपने मौक़िफ़ को वाज़ेह करूँगा।

    रिचर्ड्स ने मिल्टन की नज़्म “सुबह-ए-मौलूद मसीह” On the morning of Christ’s Nativity से हूबहू मिलते हुए ज़ाहिरी आहंग में एक मुहमल नज़्म कह कर पूछा है कि इस नज़्म में मिल्टन की सी ख़ूबसूरती क्यों नहीं है? अगर ख़ूबसूरती आहंग का एक जुज़ थी तो आहंग तो मौजूद है, फिर ख़ूबसूरती क्यों नहीं? मैं भी इक़बाल की हूबहू नक़ल में एक शे’र कहता हूँ,

    जुर्म भी हो नक़ाब में, बर्क़ भी हो नक़ाब में
    या तो सुला के वार हो या उसे आ के वार कर

    रिचर्ड्स की इस्लाह करने की कोशिश छोटा मुँह बड़ी बात सही, लेकिन छोटे मुँह का कुछ तो हक़ है। इसलिए मैं ये कहता हूँ कि किसी शे’र के ज़ाहिरी आहंग की हूबहू नक़ल सिर्फ़ वो शे’र ही हो सकता है, क्योंकि हर मुसम्मते और मुसव्वते का अपना आहंग होता है। “हुस्न” का जो आहंग है वो “जुर्म” का नहीं है, जो “हिजाब” का है वो “नक़ाब” का नहीं है। मगर इस बारीक फ़र्क़ के अलावा इक़बाल और मेरे ख़ुदसाख़्ता मुहमल, मिल्टन और रिचर्ड्स के ख़ुदसाख़्ता मुहमल में कोई फ़र्क़ नहीं।

    ज़ाहिर है कि इक़बाल और मिल्टन के आहंग की सारी क़द्र-ओ-क़ीमत मुजर्रिद मुसव्व्तों और मुसम्मतों में नहीं है, बल्कि उसका बहुत बड़ा हिस्सा इस तर्तीब व नज़्म और तवालत-ओ-इख़्तिसार में है जो इन आवाज़ों के मजमूओं का ख़ास्सा है, जैसा कि मैं ऊपर दिखा चुका हूँ। लिहाज़ा मेरे ख़ुदसाख़्ता शे’र ने मशीनी तौर पर इक़बाल के आहंग का बहुत बड़ा हिस्सा ज़रूर हासिल कर लिया है लेकिन ये भी दुरुस्त है कि ख़ुदसाख़्ता मुहमल के आहंग में वो हुस्न नहीं है जो इक़बाल में है। रिचर्ड्स कहता है, “इस मज़की और मुतह्हर बेजान मूर्ती और असल (नज़्म)  के आहंग में जो फ़र्क़ है वही बेजान मूर्ती को शायराना ख़ूबी से आरी कर देता है।” 

    अलफ़ाज़ के “नीम जादूई ग़लबे” का इक़रार करते हुए भी उसे इसरार है कि जिस क़ुव्वत के ज़रिए शे’र हमारे ज़ेहनों पर हुक्मरानी करते हैं, वो उन “जज़्बाती तासीरों Influences के बाहम दिगर और ब-यक वक़्त अमल की बिना पर है।” जो उनके इबहाम और ग़ैर क़तईयत ही के ज़रिए बरपा होता है।

    ऐसा नहीं है कि आहंग शे’री हुस्न का हिस्सा नहीं होता, लेकिन अपने मशीनी ढाँचे के अलावा बक़िया सारा आहंग मअनी का मह्कूम और मर्हूने मिन्नत होता है। इस मशीनी ढाँचे की भी अहमियत है, बल्कि बा’ज़-औक़ात तो मशीनी ढाँचे को ही ज़्यादा अहमियत देनी होती है, जैसा कि मैंने अपने एक मज़मून में ज़ाहिर किया है। मशीनी ढाँचे में तनव्वो बिलआख़िर मअनी में तनव्वो को राह देता है। बहुत से अलफ़ाज़ ऐसे भी हैं जो शे’र में सिर्फ़ इस वजह से नहीं इस्तेमाल होते कि उनका वज़न, शे’र के वज़न में नहीं खपता। ज़ाहिर है कि इस हद तक तो आपका शे’र मअनी से महरूम रह ही गया। इसलिए मुतनव्वे मशीनी ढाँचों के इस्तेमाल के ज़रिए मुतनव्वे अलफ़ाज़ शे’र में दाख़िल होते रहते हैं।

    ज़ाहिरी आहंग वो बातिनी हद है, शे’र जिससे बाहर नहीं निकल सकता। लिहाज़ा न सिर्फ़ ये कि इसका अपना मुस्तक़िल वुजूद है बल्कि ये भी कि वो इस हद तक मअनी पर हुकूमत भी करता है। ड्रायडन ने क़ाफ़िया की तारीफ़ करते हुए लिखा है कि अच्छा क़ाफ़िया वो है जो ख़ुद मज़मून से पैदा होता है न कि वो जो मज़मून को पैदा करे। हालांकि हक़ीक़त उसके बरअक्स भी हो सकती है, अक्सर मज़ामीन सिर्फ़ इसीलिए सूझते हैं कि क़ाफ़िया उनकी तरफ़ रहनुमाई करता है। रिआयत-ए-लफ़्ज़ी की बेमिसाल ख़ूबी के हामिल शाह नसीर के इस मतला को देखिए,


    ख़्याल-ए-ज़ुल्फ़ दो ता में नसीर पीटा कर
    गया है साँप निकल अब लकीर पीटा कर

    नासिख़ ने इसके बारे में बहुत उम्दा बात कही है कि अगर नसीर तख़ल्लुस न होता तो ये मतला ज़ेहन में न आता। शेली ने भी अपनी मशहूर नज़्म  Epipsycbidiom का जो पहला मुसव्वदा छोड़ा है उसमें जगह जगह सिर्फ़ क़ाफ़िए लिखे हुए हैं, मिसरों का पता नहीं है। यही मुआमला ज़ाहिरी या मशीनी आहंग के साथ भी है, कभी कभी ख़्याल ज़ाहिरी आहंग को जन्म देता है तो कभी कभी ज़ाहिरी आहंग भी ख़्याल को ख़ल्क़ करता है।

    लेकिन मशीनी आहंग की ये अहमियत सिर्फ़ मुबादी Preliminary हैसियत रखती है। अगर ऐसा न होता तो इक़बाल के शे’र हसरत और मेरे शे’रों से अच्छे न होते। मशीनी आहंग ने तो अपना काम कर दिया। हसरत के शे’र में जितनी ख़ूबी मुम्किन थी, आगई, लेकिन मअनी के पैदा-कर्दा आहंग का कहीं पता नहीं। मैंने जो आहंग की ख़ूबी को शे’र की पहचान नहीं क़रार दिया है तो वो इसीलिए कि मअनी की ख़ूबी और पेचीदगी जहां होगी वहां आहंग की ख़ूबी और पेचीदगी भी होगी और इसलिए भी कि मअनी और आहंग की इस तक़रीबन मुकम्मल वहदत की वजह से आहंग का आज़ाद और मअनी से मावरा वुजूद मारुज़ी तौर पर साबित नहीं हो सकता।

    जब ग़ालिब चराग़ान-ए-शबिस्तान-ए-दिल-ए-परवाना कहते हैं तो आहंग की ख़ूबी सिर्फ़ हर्फ़ नून-ओ-अलिफ़ की तकरार में नहीं है, बल्कि अलग अलग अलफ़ाज़ का आहंग मुरक्कब इज़ाफ़ी की शक्ल में आकर कुछ और ही सूरत इख़्तियार करता है, और मुरक्कब पैकर की शक्ल में आकर एक और बाद Dimension का हामिल हो जाता है। इस पैकर की माअनवी दुनिया आज़ाद है और इस सौती निज़ाम से मुंसलिक होने के बावजूद जो मुरक्कब इज़ाफ़ी में मुज़मिर है, ये दुनिया उस मुरक्कब इज़ाफ़ी के हदूद की पाबंद नहीं है, अगरचे उसके बग़ैर वुजूद में न आती।

    इसको यूं देखिए, चिराग़ां, शबिस्ताँ, दिल, परवाना। ये सब अलफ़ाज़ अपना अपना आहंग रखते हैं। जब ये मुरक्कब इज़ाफ़ी बनते हैं तो अपने अपने आहंगों को साथ लाते हैं। उनके टकराव, इत्तिसाल और इम्तिज़ाज से एक नया आहंग ख़ल्क़ होता है। लेकिन ये मुरक्कब पैकर भी है और पैकर की हैसियत से आहंग की एक और जिहत रखता है जो इस तस्वीर या तास्सुर या इंसिलाक से मुताल्लिक़ है जो कि पैकर ने ख़ल्क़ की है, यानी इस माअनवी फ़िज़ा से मुताल्लिक़ है जो कि पैकर ने बनाई है। चराग़ाँ शबिस्ताँ का एक माअनवी तास्सुर है जो ख़्याबाँ ज़मिस्ताँ का नहीं है। ये माअनवी तास्सुर इस आहंग से भी पैदा हुआ है जो चराग़ाँ शबिस्ताँ में है, क्यों कि इस मुरक्कब के आहंग में एक गर्मी और बेकरारी है जिसका तास्सुर इस गर्मी से मरबूत है जिसका ह्यूला चराग़ां और शबिस्ताँ के माअनवी पहलू का मर्हूने मिन्नत है।

    इस तरह आहंग की तीसरी मंज़िल आती है, जिसमें अलग अलग अलफ़ाज़ मुरक्कब इज़ाफ़ी से टकरा रहे हैं। गोया तीन मंज़िलें ये हुईं, लफ़्ज़ वाहिद, लफ़्ज़ मुरक्कब (जिसमें मुरक्कब के अलफ़ाज़ एक दूसरे से टकराते हैं।) और पैकर, जिसमें लफ़्ज़ वाहिद, लफ़्ज़ मुरक्कब से टकराता है। ग़ालिब के मुतनव्वे आहंग की असल वजह उनके मुरक्कबात इज़ाफ़ी में नहीं है। बल्कि इस बात में है कि उनके अक्सर मुरक्कबात पैकर भी होते हैं। पैकर की शक्ल में आकर मुरक्कब के मअनी बदल जाते हैं और ये मअनी आहंग पर असर अंदाज़ होते हैं। मीर के यहां मुतनव्वे आहंग की कमी इसी वजह से है कि उनके पैकर मुरक्कब की शक्ल में बहुत कम आए हैं। शिबली ने इसी हक़ीक़त की तरफ़ यूं इशारा किया है कि मीर अनीस की बहुत सी तश्बीहों में एक बड़ी ख़ूबी ये है कि वो मुरक्कब हैं।

    हासिल-ए-कलाम ये कि हसरत का शे’र ज़ाहिरी आहंग के एतबार से सौदा के शे’र से कुछ बढ़ा ही हुआ है, लेकिन इसका माअनवी आहंग सौदा से बहुत कम है, इसलिए वो कमतर दर्जे का शे’र है, अगर ऐसा न होता तो मेरा ख़ुदसाख़्ता मुहमल भी इक़बाल के शे’र से बहुत फ़िरोतर न होता, थोड़ा ही कम होता। अब सवाल ये है कि ये माअनवी आहंग, (या इस मौज़ूई इस्तिलाह को तर्क कर के सिर्फ़ मानवियत पर इकतिफ़ा की जाये) ये माअनवियत कहाँ से आई है? यहां हाली का फ़ार्मूला पूरी तरह मुंतबिक़ नहीं होता, क्योंकि इस शे’र में जदलियाती लफ़्ज़ तो है नहीं और इबहाम इस तरह का नहीं है कि बहुत से मअनी पैदा हों। ये दुरुस्त है कि इस शे’र में साग़र को मिरे हाथ से लेना की तरह का इबहाम नहीं है, लेकिन एक दूसरी तरह का इबहाम है जिस पर गुफ़्तगु बाद में होगी।

    इस वक़्त रिचर्ड्स के इस दावे का सबूत फ़राहम करना मक़सूद था कि आहंग महज़ चंद लफ़्ज़ी करतबों का नाम नहीं बल्कि पूरी शख़्सियत का इज़हार है। उसी शख़्सियत का एक इज़हार ये भी है कि जहां हसरत वस्ल की शब कहते हैं वहां सौदा रोज़-ए-हिज्र से बात शुरू करते हैं। हसरत ने ख़ौफ़-ए-सह्र का इज़हार कर दिया है और अपने जज़्बाती अदम तवाज़ुन की वजह बयान कर दी है। सौदा न सह्र का ज़िक्र करते हैं और न ख़ौफ़ का, वो सिर्फ़ जलने का ज़िक्र करते हैं। इस जलने की वजह ख़ौफ़-ए-सह्र भी हो सकती है, रश्क भी हो सकता है, इंतहाए शौक़ भी हो सकता है। (क्योंकि परवाना इंतिहाए शौक़ में जल मरता है।)

    हसरत का ख़ौफ़ एक माद्दी, जिस्मानी और ख़ुद ग़रज़ाना जज़्बा है, वो सिर्फ़ अपनी ग़रज़ की वजह से रात की तवालत के मुतमन्नी हैं, सौदा के यहां रात की तवालत का ज़िक्र नहीं है, क्यों कि उनका जलना असलन सुपुर्दगी का जलना है। रोज़-ए-हिज्र उनको दूरी की वजह से जलाता है और शब-ए-विसाल क़ुर्ब की वजह से ख़ाक करती है। इस शे’र का इबहाम ये है कि बज़ाहिर ये शे’र रात के इख़्तिसार का मातम करता है, लेकिन दरअसल ये एक माबाद उल तबीअयाती तजुर्बे का इज़हार है, शे’र जिसके लिए सिर्फ़ बहाना है और बस। अब मीर का शे’र फिर पढ़िए,

    शाम-ए-शब-ए-विसाल हुई याँ कि इस तरफ़
    होने लगा तुलूअ ही ख़ुरशीद रू सियाह

    फ़न्नी नुक़्ता-ए-नज़र से ये शे’र सौदा से कमतर है, क्योंकि दूसरे मिसरे में बज़ाहिर लफ़्ज़ “ही”  ज़ाइद है, लिहाज़ा इसमें वही ऐब है, अगरचे इस दर्जे का नहीं, जैसा हसरत के यहां है। जिस तजुर्बे का इज़हार किया गया है वो भी बज़ाहिर हसरत से क़रीबतर है, क्योंकि यहां भी ख़ुदग़रज़ी का रोना है कि रात बहुत छोटी है। लेकिन फिर भी ये सौदा से आगे की शे’री मंज़िल है, क्यों कि इसका इबहाम तै नहीं हो सकता। शाम होते ही सूरज निकलने लगता है यानी सुबह होने लगती है। मीर ने रात की तवालत को मौज़ूई तजुर्बे की मदद से एक लम्हे में सिमटा दिया है। यानी रात इतनी छोटी मालूम होती है कि मालूम होता है आई ही नहीं, शाम हुई नहीं कि सवेरा भी आ गया।

    लेकिन क्या ये महज़ एक मौज़ूई और दाख़िली तजुर्बा है, यानी ये सिर्फ़ महसूस हुआ है कि शाम और सुबह के दरमियान कोई फ़सल नहीं, या वाक़ई ऐसा हुआ है? मुम्किन है सुबह का धोका हुआ हो। चांद की रोशनी सूरज की चमक के सामने इस क़दर मांद है (मांद के असल मअनी काले के हैं) कि उसे एक स्याह सूरज कहा जा सकता है। मुम्किन है चांद को देखकर धोका हुआ हो कि सूरज तुलूअ हो रहा है। सूरज के तुलूअ होने पर दिल में ग़ुस्सा है कि कमबख़्त क्यों आ गया, महसूस हुआ कि वो रू सियाह (बमअनी मनहूस) है। इस दाख़िली रू स्याही ने उसके चेहरे पर भी कालिक फेर दी। चांद निकलते देखकर धोका हुआ कि काला सूरज तुलूअ हो रहा है।

    ये भी मुम्किन है कि सूरज असली और वाक़ई सूरज हो, वो इस तरह कि पहले मिसरे में इस्तिफ़हाम फ़र्ज़ कीजिए। सूरज को इसी सूरत में तूलूअ होना चाहिए था कि शाम-ए-शब-ए-विसाल हो चुकी होती। शब-ए-विसाल नहीं तो दिन का पैमाना फ़ुज़ूल है। सूरज निकलना इस बात की अलामत होना चाहिए कि शब-ए-वस्ल भी होती है, वर्ना दिन भी रात है और रात तो रात है ही। सूरज (जो बहरहाल मनहूस है कि रात के ख़ातमे का ऐलान करता है) को निकलते देखकर इस्तिफ़हाम है कि शाम-ए-शब-ए-विसाल हुई भी है कि इस तरफ़ ख़ुरशीद रू सियाह तुलूअ ही हो रहा है? तुलूअ ही हो रहा है, इस मुहावरे की तरह है, समझ भी रहे हो कि पढ़ ही रहे हो? शाम-ए-शब-ए-विसाल हुई भी है कि बस तुलूअ ख़ुरशीद ही है? यानी तुलू-ए-मेहर का जुज़्व लाज़िम (शब-ए-विसाल) कहाँ है?

    इन तमाम सूरतों में “ख़ुरशीद रू सियाह” एक दाख़िली मंज़र भी है, सूरज निकलते देखकर जो ग़ुस्सा आया है इसका तबादला भी है (जिस चीज़ पर ग़ुस्सा होता है उसके ज़ाहिर पर दाख़िली ख़वास चस्पाँ कर दिए जाते हैं। ये गाली की इस्तिआराती जिहत का ख़ास्सा है।) एक पैकर भी है जो क़ौल-ए-मुहाल का हुक्म रखता है। सूरज से ज़्यादा चमकदार चीज़ दुनिया में कोई नहीं है, लेकिन इसकी नामक़बूलियत और नाख़्वान्दगी और बे ज़रूरती के इज़हार के लिए उसे रू सियाह कहा गया है। सूरज की चमक और चेहरे की स्याही का तज़ाद मुजतमा हो कर एक अलामती इस्तिआरे की तरह डालते हैं। ख़ुरशीद चमकदार नहीं है, ये भी नहीं कि शे’र के जज़्बाती सयाक़-ओ-सबाक़ में अपनी चमक खो कर स्याह हो गया हो, बल्कि हमेशा रू सियाह है। ख़ुरशीद रू सियाह मुरक्कब तौसीफ़ी बन जाता है और वक़्त का पैमाना होने की हैसियत से वक़्त के गुज़रने, उसके मुख़्तसर होने, फिर वापस न आने, संग दिल होने और लापरवा होने की अलामत कहा जा सकता है। इस तरह मीर का शे’र सौदा से भी बेहतर है, क्योंकि अलामती इज़हार की बिना पर उसके मअनी की हदों का तअय्युन नहीं हो सकता।

    राबर्ट ग्रीव्ज़ कहता है कि अंग्रेज़ी शायरी के सबसे नुमायां पैकर वो हैं जो लामसा, ज़ायक़ा और शामा को मुतहर्रिक करते हैं। उर्दू में ज़्यादातर पैकरी इज़हार बस्री और सौती रहा है। अगरचे नए शायरों के यहां मज़ोकात और मलमूसात का भी इस्तेमाल हुआ है। लेकिन ग्रीव्ज़ की नज़र में पैकर की अहमियत सिर्फ़ ज़मीनी है, वो मजबूर भी है क्योंकि उसकी ज़बान में मुरक्कबात नहीं पाए जाते जो पैकर को वराए ज़मीन कर देते हैं। मुरक्कबात के अलावा उर्दू की नई शायरी में एक और हुस्न ये भी है कि पैकर और इस्तिआरे का इम्तिज़ाज इस तरह है कि एक ही लफ़्ज़ ब-यक वक़्त इस्तिआरा भी है और पैकर भी। मैंने ऊपर जो मिसालें दी हैं उनसे ये नतीजा निकालना मुश्किल नहीं कि जदलियाती अलफ़ाज़ का ये बेहतरीन इस्तेमाल है।

    राशिद के यहां इस्तिआरा ज़्यादा है, पैकर कम, जबकि फ़ैज़ ने पैकर का इस्तेमाल ज़्यादा किया है, मुरक्कबात की कमी उनके आहंग को पेचीदा नहीं होने देती। मीराजी के यहां भी फ़ैज़ की तरह मुरक्कबात कम हैं, लेकिन जबकि फ़ैज़ के पैकर दाख़िली मंज़र को उभारते हैं, इसलिए ज़्यादातर बस्री हैं, मीराजी वाहिद शायर हैं जो पांचों हवास पर क़ादिर हैं। नई शायरी जो मीरा जी की तरफ़ बार-बार झुकती है और उनके यहां से अपना जवाज़ ढूंढती है, उसकी सबसे बड़ी वजह यही है। वर्ना मायूसियाँ, महरूमियाँ, उलझनें, जिन्सी जज़्बे के मुताल्लिक़ कुरेद, ये चीज़ें बज़ात-ए-ख़ुद शायरी नहीं बनातीं। हम शायरी से सिर्फ़ इसलिए मुतास्सिर होते हैं कि वो शायरी है, मुतास्सिर हो लेने के बाद उसमें इक़दार ढूंडते हैं। अगर शायरी अच्छी न होगी तो इक़दार से किसका पेट भरेगा।

    ये अलग बात है कि जिसके यहां जितनी अच्छी शायरी होगी उसी तनासुब से तजुर्बात की भी कसरत होगी। वाज़ेह रहे कि मैं तजुर्बात ही को क़दर समझता हूँ, मवइज़त और मोहसिनत को नहीं। इलियट का ये क़ौल निहायत जानिबदारी पर मबनी है कि हम ये फ़ैसला अदबी मेयारों ही के ज़रिए कर सकते हैं कि कोई तहरीर अदब है कि नहीं लेकिन ये तै करने के लिए कि कोई अदब बड़ा अदब है कि नहीं, हमें ग़ैर अदबी मेयारों से रुजू करना होगा। इस मज़मून को ज़रा फैलाइए तो मंतिक़ यूं चलती है, फ़र्ज़ किया वो ग़ैर अदबी मेयार जिसकी कसौटी पर हम अदब की अज़मत को परखेंगे, अख़लाक़ है। अब सवाल ये होगा कि किसका वज़ा किया हुआ क़ानून अख़लाक़? ज़ाहिर है कि जवाब यही होगा कि वही क़ानून बेहतरीन है जिसके हम पाबंद हैं। फ़र्ज़ किया कि हम क़ानून अलिफ़ के पाबंद हैं, लिहाज़ा जिस अदब में क़ानून अलिफ़ की कारफ़रमाई है वो बड़ा अदब है।

    लेकिन हमारा पड़ोसी तो क़ानून जीम को मानता है, इसलिए उसकी नज़र में वही अदब अज़ीम है जिसमें क़ानून जीम की कारफ़रमाई है। अब फ़र्ज़ किया कि क़ानून अलिफ़ और क़ानून जीम के मानने वालों में इख़्तिलाफ़-ए-राय हुआ। इख़्तिलाफ़ बढ़ते बढ़ते जंग तक पहुंचा, जंग में क़त्ल-ओ-खून होता ही है, अलिफ़ को शिकस्त हुई। अब जीम ने हर जगह ये हुक्म नाफ़िज़ कर दिया कि वही अदब पढ़ा और लिखा जाएगा जिसमें क़ानून जीम की कारफ़रमाई हो। बईना यही उसूल अफ़लातून का था और इसी वजह से रसल ने कहा था कि हिटलर और लेनिन की हुकूमतें अफ़लातून की ऐनी रियासत की याद दिलाती हैं। इसीलिए इलियट ने भी अपने इस मज़मून में, जिसका जुमला मैंने ऊपर लिखा है, तलक़ीन की है कि सब लोगों की ईसाई अदब पढ़ना और लिखना चाहिए।

    शायरी के शायराना मेयारों पर इन इक़तिबासात को रखिए,

    कभी देखी हैं आतिशदान की चिनगारियां तुमने
    हंसी में गुल ज़दा रुख़्सार को सहला के हर अंगुश्त रिसती है

    किसी नाज़ुक रसीले फल की पतली क़ाश से मेरी ज़बां छूने लगी, देखो,

    सफ़ेदी साफ़, सादा पैराहन के सूखे पत्तों को मसलती है यूँही लिपटी हुई रहियो ज़रा में सोंच लूं एक घूँट तेरे गर्म बाज़ू से
    मेरे दिल को सुबुक-सर कर सकेगा, या मैं फिर गहरे अंधेरे के ख़ला में झूलते ही
    झूलते नमनाक आँखें बंद कर लूँगा?
    (मीराजी, आबगीने के उस पार की एक शाम)

    चम्पई रंग कभी, राहत-ए-दीदार का रंग
    सुरमई रंग कि है साअत-ए-बेज़ार का रंग
    ज़र्द पत्तों का ख़स-ओ-ख़ार का रंग
    सुर्ख़-फूलों का दहकते हुए गुलज़ार का रंग
    ज़हर का रंग, लहू रंग, शब तार का रंग
    आसमां, राहगुज़र, शीशा-ए-मय
    कोई भीगा हुआ दामन
    कोई दुखती हुई रग
    कोई हर लहज़ा बदलता हुआ आईना है
    (फ़ैज़, रंग है दिल का मिरे)

    ऐ समुंदर में गिनूँगा दाना दाना तेरे आंसू
    जिनमें आने वाला जश्न-ए-वस्ल ना-आसूदा है
    जिनमें फ़रदाए उरूसी के लिए किरनों का हार
    शहर आइन्दा की रूह बे-ज़माँ चुनती रही
    मैं ही दूँगा ऐ समुंदर जश्न में दावत तुझे
    इस्तिराहत तेरी लहरों के सिवा किस शैय में है?
    ऐ समुंदर, अब्र के औराक़-ए-कुहना
    बाज़ूए देरीना-ए-उम्मीद पर उड़ते हुए
    दूर से लाए हैं कैसी दास्ताँ
    (नून.मीम. राशिद, ऐ समुंदर)

    मीरा जी ने जगह जगह इस्तिआरा तर्क कर के पैकर मुंतख़ब किए हैं जो इस्तिआरे भी हैं वो पैकर आमेज़ हैं (गुल ज़दा रुख़्सार, गर्म बाज़ू का घूँट) लेकिन मलमूसात और मज़ोकात की वो कसरत है कि मिसरे हर क़िस्म के उस्लूब-ए-इज़हार से मुस्तग़नी हो गए हैं। गुलज़दा रुख़्सार को सहला के हर अंगुश्त रिसती है (लम्सी, बस्री) नाज़ुक रसीले फल की पतली क़ाश (मज़ोकी) ज़बां छूने लगी (मज़ोकी, लम्सी) सफ़ेदी साफ़ सादा पैरहन की (बस्री) सूखे पत्तों को मसलती है (लम्सी, सौती) इक घूँट तेरे गर्म बाज़ू से (मज़ोकी, लम्सी) झूलते ही झूलते (हरकी) नमनाक आँखें (लम्सी) ये इक़तिबास इस बात का सबूत है कि मुतनव्व उल असर पैकर शे’र को इस्तिआरा और अलामत से भी बेनियाज़ कर देते हैं और किसी कलाम-ए-मौज़ूं-ओ-मुजमल को शायरी बनने के लिए सिर्फ़ पैकर काफ़ी हैं।

    फ़ैज़ के यहां हाप्किंज़की ज़बान में “दाख़िली मंज़र” Inscape नुमायां है। इस्तिआरे की कारफ़रमाई भी अगर है तो रेनबो के दाख़िली मंज़र की तरह है जहां तजरीदी तजुर्बा बस्री पैकर में ढल जाता है। इस इक़तिबास की ग़ैर अरज़ियत और मीरा जी के मुक़ाबले में लाग़री इसी वजह से है कि दाख़िली मंज़र अलामत से आरी है, वर्ना अलामत या अलामती इस्तिआरा फ़र्बा पैकरों की जगह ले लेते हैं। इस नज़र की ख़ूबसूरती बस्री पैकरों में है जिनसे आख़िर में बिल्कुल ग़ैर मुतवक़्क़े तौर पर दो लम्सी पैकर टकरा दिए गए हैं (भीगा हुआ दामन, दुखती हुई रग)। मीरा जी के यहां पैकर ख़ुद मंज़र हैं, फ़ैज़ ने पैकरों से मंज़रों को बयान करने का काम लिया है।

    तकनीकी चाबुकदस्ती और आहंग के ख़ारिजी ज़वाहिर के मुकम्मल इस्तेमाल की सबसे अच्छी मिसाल राशिद का इक़तिबास है। मुरक्कब इज़ाफ़ी ने आहंग भी ख़ल्क़ किया है और इबहाम भी। नाआसूदा जश्न-ए-वस्ल, फ़रदाए उरूसी, शहर आइन्दा, रूह बे-ज़माँ, औराक़-ए-कुहना, बाज़ूए देरीना-ए-उम्मीद, उनकी असल क़द्र क़ीमत उनके मअनी की वजह से नहीं बल्कि मुरक्कबात की पीचीदा आहंगी के सबब से है, यानी राशिद के यहां ग़ालिब के चराग़ान शबिस्तान-ए-दिल-ए- परवाना की दूसरी मंज़िल का सुराग़ मिलता है। तीसरी मंज़िल (जब पैकर आहंग से मुतास्सिर होता है और ख़ुद आहंग ख़ल्क़ करता है) यहां मफ़क़ूद है, क्योंकि पैकर ही मफ़क़ूद है। बाज़ूए देरीना-ए-उम्मीद पर उड़ते हुए बादल के टुकड़े शायद पैकर बन जाते, लेकिन बाज़ूए उम्मीद के तजरीदी मुरक्कब ने उन्हें बीच ही में रोक दिया है।

    जदलियाती लफ़्ज़ के मुताला के दौरान इबहाम का ज़िक्र अक्सर आया है, ये इस वजह से कि जदलियाती लफ़्ज़ अक्सर अज़ ख़ुद मुब्हम होता है और इस वजह से भी कि बक़ौल हार्डिंग “जो कुछ मअनी खुले डले अंदाज़ में बयान किया गया है, इससे ज़्यादा मअनी की तरसील का अमल किसी न किसी शक्ल में इज़हार का फ़ित्री तरीक़ा है।” दूसरे अलफ़ाज़ में, इबहाम तरसील के अमल का ही ख़ास्सा है, जब आप कुछ कहते हैं तो जो कुछ आपने कहा होता है, उससे कुछ ज़्यादा ही कहते हैं, इस मअनी में कि हर गुफ़्तगु में कुछ न कुछ नुक्ते मुक़द्दर छोड़ ही दिए जाते हैं। इसलिए आडन कहता है कि इंतहाई ग़ैर शख़्सी और महदूद गुफ़्तगु के अलावा (मसलन स्टेशन का रास्ता किधर से है?) हमारी सारी गुफ़्तगु और ख़ास कर वो गुफ़्तगु जो शख़्सी और ज़ाती होती है, तरसील के मसाइल में गिरफ़्तार रहती है। शायरी चूँकि इंतहाई ज़ाती गुफ़्तगु है, इसलिए इसमें इबहाम की मजर-ओ-क़द्र होना कोई हैरतख़ेज़ बात नहीं। “ज़ाती गुफ़्तगु” के ज़िम्न में वो कहता है,

    “ज़बान की माहियत पर कोई ग़ौर-ओ-फ़िक्र इस फ़र्क़ को सामने रखे बग़ैर नहीं शुरू किया जा सकता, जो अलफ़ाज़ के इस तरीक़ा-ए-इस्तेमाल में है, जब हम उन्हें अफ़राद के दरमियान बातचीत के कोड की तरह इस्तेमाल करते हैं, और इसी तरीक़ा-ए-इस्तेमाल में, जब हम उन्हें ज़ाती गुफ़्तगु के लिए काम में लाते हैं... जब हम वाक़ई गुफ़्तगु करते हैं तो हमारे पास हमारा हुक्म बजा लाने पर तैयार अलफ़ाज़ मौजूद पहले से नहीं होते, बल्कि हमें उन्हें ढूंढना पड़ता है और जब तक हम बात कह नहीं लेते हमें ठीक ठीक पता नहीं होता कि हमें क्या कहना है।”

    इबहाम पर चीं ब जबीं होने वाले हज़रात अक्सर ये पूछते हैं कि आख़िर इस नज़्म में क्या कहा गया है? अगर इबहाम शे’र का हुस्न है तो बच्चों की बेरब्त बोली और शायरी में क्यूँ कर फ़र्क़ किया जा सकेगा? शायर के पास कौन सा ख़्याल था जो इस नज़्म में बाँधा गया है? अगर शायर ये कहता है कि मुझे ख़ुद नहीं मालूम था कि मुझे क्या कहना था, मैं नज़्म इसीलिए तो कहता हूँ कि जो हक़ाइक़ मुझ पर पहले से ज़ाहिर नहीं थे, मुनकशिफ़ हो जाएं, तो लोग हंसते हैं और कहते हैं कि शायरी क्या हुई ख़ुद नवीसी Automatic Writing हो गई कि बेहोशी के आलम में क़लम चला रहे हैं।

    हालांकि शायरी को इन्किशाफ़ न मानने से वही झगड़े पड़ेंगे जिनकी तरफ़ मैं अलिफ़ और जीम की हिकायत में इशारा कर चुका हूँ। अगर शायर को मालूम है कि उसे क्या कहना है तो ये इल्म उसे किसी ख़ारिजी वसीले से मिला होगा। अपोलो 12 चांद तक पहुंच गया, हुकूमत की तरफ़ से मुझे हिदायत मिली है कि मैं मदहिया नज़्म कहूं। अब मुझे मालूम है कि मुझे क्या कहना है। (हालांकि हक़ीक़त ये है कि ये इल्म भी महदूद है, क्योंकि मुझे अब भी नहीं मालूम कि मैं मदहिया नज़्म का क्या ढब इख़्तियार करूँगा, लेकिन ख़ैर।) भला शायर को अपने शे’र  का इल्म शे’र कहने से पहले किस तरह हो सकता है? मुझे क्या मालूम हो सकता है कि जो नुत्फ़ा मेरे सल्ब में है माँ के पेट में कब जाएगा और जब जाएगा तो क्या शक्ल इख़्तियार करेगा? शायरी इन्किशाफ़ है, उसी लिए मुब्हम भी है।

    रिचर्ड्स ने इस सिलसिले में बड़ी गहरी बात कही है कि शायरी उन तजुर्बात के इज़हार का वसीला है जो शे’र के बग़ैर शायर पर मुनकशिफ़ ही न होते। इसी हक़ीक़त को शेख़ साहब ने शाह नसीर के हवाले से बयान किया था। इलियट जैसे मुख़्तलिफ़ उल ख़्याल नक़्क़ाद ने भी इस बात से इनकार नहीं किया है और एक बार नहीं, जगह जगह, “किसी नज़्म या नज़्म के टुकड़े में इस रुजहान का भी इमकान है कि वो लफ़्ज़ी इज़हार की मंज़िल पर पहुंचने के पहले (शायर के ज़ेहन में) एक मख़सूस आहंग की शक्ल में रूनुमा हो। और फिर ये आहंग (नज़्म के) ख़्याल (यानी मौज़ू) और पैकर को मारिज़-ए-वुजूद में लाए।” (टी.एस. इलियट, शे’र का आहंग)

    “ताहम, जिस चीज़ की तरसील करनी है वो ख़ुद नज़्म ही तो है, और सिर्फ़ ज़िम्नी तौर पर वो तजुर्बा या फ़िक्र है जिसका इस नज़्म में नफ़ुज़ हुआ है।” (टी.एस. इलियट, वालेरी का दीबाचा)

    हार्डिंग ने इसकी नफ़सियाती तौज़ीह यूं की है, “अगर शायर से ये पूछते हैं कि वो किस शैय की तरसील कर रहा है तो गोया हम ये समझते हैं कि उसके पास पहले से कोई ख़्याल या मअनी था जिसको उसने नज़्म के अलफ़ाज़ में तर्जुमा कर दिया। हालाँकि जो बात उसे कहना थी उस का वुजूद ही उस वक़्त तक न था जब तक वो कही नहीं गई थी। कोई सोचा हुआ ख़्याल जो ख़ुद नज़्म न हो, लेकिन हू बहू हो नज़्म की तरह हो, नामुमकिन था... एक ही ख़्याल के लिए एक से ज़्यादा लिसानी उस्लूब नहीं हो सकता। हाँ, ये हो सकता है कि कोई ऐसी ऐनी लिसानी शक्ल Ideal Phrasing हो जो दुरुस्ती और किफ़ायत के साथ इस सबको ज़ाहिर कर दे जो ख़्याल के अंदर छुपा हुआ है।” 

    आख़िरी जुमला मैंने जान-बूझ कर नक़ल किया है ताकि ख़ौफ़ज़दा लोगों को इत्मीनान हो जाये कि ऐनी हैसियत से मुब्हम तरीन शायरी की भी लिसानी तौज़ीह मुम्किन है। हम हमेशा Ideal तक पहुंचने के लिए कोशां रहते हैं, अगर न पहुंच सकें तो हमारी कोताही है, शायरी की नहीं। मुहमल की और बात है, लेकिन लोगों में शायरी की तरफ़ से ख़ुदा जाने क्यों बरतरी का रवय्या जागुज़ीं रहता है। हम सब चाहते हैं कि शायरी को एक ही हल्ले में ज़ेर कर लें, और जब वो ज़ेर नहीं होती तो नाक भौं चढ़ाते हैं। हालाँकि शायरी की तरफ़ हमारा रवय्या हमेशा इन्किसार और हिल्म का होना चाहिए, रऊनत का नहीं। ज़ाती तौर पर मैं किसी शायरी को मुहमल कहने से उतना ही डरता हूँ जितना कोई मुसलमान दूसरे मुसलमान को काफ़िर कहने से डरता है, लेकिन अफ़सोस ये है कि हमारे मुल्क में कुफ़्र का फ़तवा हमेशा से बहुत सस्ता रहा है और आज भी है।

    मेरा कहना ये है कि इजमाल और जदलियाती लफ़्ज़ के बाद इबहाम शायरी की तीसरी और आख़िरी मारुज़ी पहचान है। (मौज़ूनियत और इजमाल की मौजूदगी हमेशा फ़र्ज़ करते हुए) हम ये कह सकते हैं अगर किसी शे’र में सिर्फ़ इबहाम ही है तो भी वो शायरी है। आम तौर पर जद लियाती लफ़्ज़ और इबहाम साथ साथ आते हैं, लेकिन जिस तरह तन्हा जदलियाती लफ़्ज़ शे’र  को शायरी में बदल देता है, उसी तरह तन्हा इबहाम भी शे’र को शायरी बना देता है। शे’र में इबहाम या तो अलामत से पैदा होता है या ऐसे अलफ़ाज़ के इस्तेमाल से जिनसे सवालात के चश्मे फूट सकें। जितने सवालात उठेंगे, शे’र उतना ही मुब्हम होगा और उतना ही अच्छा होगा। लेकिन शर्त ये है कि सवालों के जो भी जवाब मिलें, वो शे’र ज़ेर-ए-बहस के ताल्लुक़ से हमारे तजुर्बे को वसीअ करें, और जैसे भी जवाब मिलें, लेकिन शे’र ज़ेर-ए-बहस ही से बरामद हों।

    अलामत की तफ़सील में अपने एक मज़मून में बयान कर चुका हूँ, वज़ीर आग़ा ने भी इस मौज़ू पर बहुत कुछ लिखा है। इसलिए दूसरी तरह से पैदा होने वाले इबहाम को कुछ मिसालों से वाज़ेह करूँगा। इस सिलसिले में अलामत पर भी कुछ बातें हो जाएं तो कुछ हर्ज नहीं। फ़िलहाल मुंदरजा ज़ैल हम मअनी अशआर का मुताला मतलूब है,

    जो तू ऐ मुसहफ़ी रातों को इस शिद्दत से रोवेगा
    तो मेरी जान फिर क्यूँ-कर कोई हम साया सोवेगा
    मुसहफ़ी 8

    जो इस शोर से मीर रोता रहेगा
    तो हमसाया का है को सोता रहेगा
    मीर

    फिर छेड़ा हसन ने अपना क़िस्सा
    बस आज की शब भी सो चुके हम
    मीर हसन

    हमसाया शुनीद नाला उम गुफ़्त
    ख़ाक़ानी रा दिगर शब आमद
    ख़ाक़ानी

    चारों शे’रों में मुबालग़ा की वो सूरत है जिसे अग़राक़ कहते हैं। अग़राक़ वो मुबालग़ा है जो आदतन तो मुम्किन न हो लेकिन अक़लन मुम्किन हो। इन शे’रों के लिखने वाले जिस तरह की आबादीयों में रहते थे उनमें पड़ोसी के घर का नाला व शेवन सुनाई देना मुम्किन था, क्योंकि घर बहुत पास पास थे। फ़िराक़-ए-महबूब में धाड़ मार मार कर रोना आदतन मुम्किन नहीं है लेकिन अक़लन मुम्किन है और अगर आदतन मुम्किन भी हो तो ऐसा वाक़िया एक ही दो बार पेश आ सकता है, न कि मुसलसल, जबकि इन अशआर में मुसलसल रोने का ज़िक्र है। मुबालग़ा इस्तिआरे की एक शक्ल है। लिहाज़ा इन शे’रों में शायरी का उन्सुर तो है ही, चाहे बहुत कमज़ोर हो। मैंने ये चार शे’र तरजीही तर्तीब से रखे हैं यानी बेहतरीन शे’र सबसे आख़िर में है और कमतरीन शे’र सबसे पहले। अब उसके वजूह मुलाहिज़ा हों।

    मशीनी एतबार से मुसहफ़ी के शे’र में वही ऐब है जो हसरत के यहां था, यानी बहुत से अलफ़ाज़ ग़ैर ज़रूरी हैं। मीर ने वही बात इससे बहुत कम लफ़्ज़ों में अदा की है। “रातों” का ज़िक्र ज़रूरी नहीं है, क्योंकि “सोता रहेगा” रात की तरफ़ इशारा कर ही देता है। “ऐ मुसहफ़ी” की जगह सिर्फ़ “मुसहफ़ी” काफ़ी था। “मेरी जान फिर कोई” ये अलफ़ाज़ फ़ुज़ूल हैं। “मेरी जान” के बारे में तो ये कह सकते हैं कि मुतकल्लिम ने समझाने और चुमकारने का अंदाज़ इख़्तियार किया है। लेकिन चुमकारने और समझाने के लिए ये दलील देना कि हमसाये सो न पाएँगे, बहुत मुश्किल ही से समझ में आती है। यूं तो कह सकते हैं कि “अपना न ख़्याल करो, पड़ोसियों का तो लिहाज़ रखो।” लेकिन जब तक “अपना न ख़्याल करो” या इसी तरह की कोई और शर्त पहले न लगाई जाये। “हमसाया क्यूँकर सोवेगा” में सरज़निश का लहजा नुमायां रहता है, इल्तिजा का नहीं।

    मीर का शे’र मुसहफ़ी से इसलिए बेहतर है कि बिल्कुल वही बात बहुत कम लफ़्ज़ों में कह दी गई है और एक मज़ीद बात ये है कि “सोता रहेगा” में ये भी इशारा है कि मीर अपना नाला उस वक़्त शुरू करते हैं जब लोग सो चुके होते हैं, और आवाज़ सुनकर चौंक पड़ते हैं लेकिन इस मज़ीद इशारे के अलावा शे’र हमारे ज़ेहन में कोई कुरेद नहीं पैदा करता क्योंकि इससे जो सवालात उठते हैं वो सिर्फ़ उन लोगों के लिए मानी-ख़ेज़ हैं जो हमारी शायरी के Convention से वाक़िफ़ नहीं हैं। यानी ये सवालात इस तरह के हैं, मीर कौन है? वो क्यों रो रहा है? वग़ैरा।

    मीर के शे’र में एक पहलू ये भी है कि लहजा न सरज़निश का है न इल्तिजा का बल्कि सिर्फ़ रायज़नी का है, और रायज़नी भी किसी ऐसे शख़्स की मालूम होती है जो सूरत-ए-हाल से बाख़बर तो है लेकिन उसमें उलझा हुआ नहीं है। इस लाताल्लुक़ी की बिना शे’र में शख़्सी ज़मायर से एहतिराज़ पर है। मीर हसन के शे’र में मीर हसन और उनके सुनने वाले दो वाज़ेह फ़रीक़ नज़र आते हैं। रोने का ज़िक्र नहीं है बल्कि “क़िस्सा” छिड़ने की बात है, जिसकी वजह से कुछ लोग जो “हम” से ताबीर किए गए हैं, सोने से माज़ूर हैं। ये दो लफ़्ज़ शे’र में ऐसे हैं जो उसे मीर के शे’र से बढ़ा देते हैं, क्योंकि उनसे जो सवालात उठते हैं, उनके जवाबात हमें इस शे’र के बारे में मुख़्तलिफ़ तजुर्बात से दो-चार करते हैं।

    “क़िस्सा” क्या है? बादियुन्नज़र में ये दास्तान-ए-हिज्र है। ये नाला भी हो सकता है, कोई दिल-चस्प कहानी भी हो सकती है, कोई ऐसा जाबिर वाक़िआती बयान, कोई तक़रीर भी हो सकता है, जो सुनने वालों की नींद हराम कर दे। कोई लर्ज़ाख़ेज़ अमल, मसलन सीना-ज़नी या पत्थर पर सर मारना भी हो सकता है जो पड़ोसियों को जज़्बाती तौर पर इस क़दर मुतहर्रिक और मुतलातिम कर दे कि वो सो न पाएं। “हम” कौन हैं? ये पड़ोसी भी हो सकते हैं, घर वाले भी हो सकते हैं, बुज़ुर्ग और बही ख़्वाह भी हो सकते हैं, ख़ुद शायर भी हो सकता है जो मीर हसन की शख़्सियत से मुख़्तलिफ़ है। ये भी मुम्किन है कि “हम” और “हसन” एक ही शख़्सियत के दो नाम हों। एक नाला करने पर मजबूर है और एक की तन्क़ीदी और ख़ुद एहतिसाब नज़र उस नाला ज़नी से बेज़ार भी है।

    शे’र में राय ज़नी का जो अंदाज़ है वो मीर की तरह लाताल्लुक़ नहीं है, बल्कि जो लोग भी राय ज़नी कर रहे हैं वो नाला ज़न में उलझे हुए हैं, उससे उकता भी चुके हैं। ये रोज़ रोज़ का रोना कब तक? “फिर” और “बस” के अलफ़ाज़ उकताहट ज़ाहिर करते हैं। मीर के शे’र में मुज़ावलत का पहलू वाज़ेह नहीं है, हालाँकि तसलसुल का है, “रोता रहेगा।” यहां “फिर”, “बस”, “आज”,  “अभी” जैसे दो हर्फ़ी अलफ़ाज़ उकताहट के एहसास के ज़रिए भी, और ख़ुद भी, ये तास्सुर ख़ल्क़ करते हैं कि रोना तो रोज़ का धंदा है।

    इस तरह मीर हसन का शे’र मीर से ज़्यादा मुब्हम है, इसलिए बेहतर है। ख़ाक़ानी के शे’र में “गुफ़्त” का लफ़्ज़ सवालात उठाता है। “गुफ़्त” यानी कहा, लेकिन किस लहजे में कहा? ख़ाक़ानी पर एक रात और आ गई। मुम्किन है उकता कर कहा हो, घबरा कर कहा हो, झुँझला कर कहा हो, हैरत में कहा हो कि हैं, इस शख़्स पर तो पिछली रात भारी थी, फिर भी मरा नहीं। ये हैरत, सख़्त जानी की तहसीन भी हो सकती है, कि वाह क्या मर्द-ए-मैदान है, या ग़ैर मुतवक़्क़े बात के वाक़ा हो जाने पर ख़ालिस हैरत भी हो सकती है, कि अरे, ये तो बच निकला, ये भी मुम्किन है कि इंतहाई सब्र-ओ-मजबूरी के लहजे में कहा हो, कि भई उस शख़्स पर एक कठिन रात और आ गई। शे’र का इबहाम इसलिए और बढ़ गया है कि मुम्किन है ख़ाक़ानी ख़ुद अपने बारे में ये ख़्याल रखता हो, लेकिन उसने उन्हें दूसरों के वसीले से ज़ाहिर किया है और इस तरह कि बादियुन्नज़र में ये बात खुलती नहीं कि दरअसल ख़ाक़ानी अपने ऊपर ख़ुद राय ज़नी कर रहा है।

    मीर हसन भी यही कह रहे थे लेकिन उन्होंने “हसन” और “हम” की सन्नवियत को बरक़रार रखा था। यहां सिर्फ़ “हमसाया” है, लेकिन वही ख़ाक़ानी भी है, क्योंकि ख़ाक़ानी उसकी ज़बान से वो कहला रहा है जो उसे ख़ुद कहना मंज़ूर था। आख़िरी सूरत ये भी है कि पिछली रात वस्ल-ओ-मसर्रत की थी, उसका रंग और था, आज की रात हिज्र की है, इसका रंग दिगर है। अब “दिगर शब” के मअनी “दूसरी रात” नहीं बल्कि “दूसरी तरह की रात” की शक्ल में ज़ाहिर होते हैं। ज़ाहिर है कि ये सब माअनवी और तास्सुराती अबआद लफ़्ज़ “गुफ़्त” को तन्हा इस्तेमाल करने से पहले पैदा हुए हैं। अगर “गुफ़्त” का लहजा भी बयान कर दिया जाता, जैसा मीर हसन ने किया है, तो शायरी बहुत कम हो जाती। इबहाम ने शे’र के माअनवी तजुर्बात का रंग मुतलव्विन-उल-मिज़ाज कर दिया है। एक लम्हे में कुछ है, एक लम्हे में कुछ। इबहाम की मअनी ख़ेज़ी को मीर और ग़ालिब के बा’ज़ हम मज़मून अशआर का मुताला अच्छी तरह वाज़ेह करता है,

    हमें तो बाग़ की तकलीफ़ से माफ़ रखो
    कि सैर-ओ-गश्त नहीं रस्म अह्ल-ए-मातम की
    मीर

    ग़म-ए-फ़िराक़ में तकलीफ़ सैर-ए-बाग़ न दो
    मुझे दिमाग़ नहीं ख़ंदा हाय बेजा का
    ग़ालिब

    हैं मुस्तहील ख़ाक में अजज़ाए नौ-ख़ताँ
    क्या सहल है ज़मीं से निकलना नबात का
    मीर

    सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायां हो गईं
    ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिनहां हो गईं
    ग़ालिब

    चश्म-ए-दिल खोल इस भी आलम पर
    याँ की औक़ात ख़्वाब   की सी है
    मीर

    बज़्म-ए-हस्ती वो तमाशा है जिसको हम असद
    देखते ही चश्म अज़ ख़्वाब-ए-अदम नक्शादा से
    ग़ालिब

    गर्मी-ए-इश्क़ मानेअ नश्वो नुमा हुई
    मैं वो निहाल था कि उगा और जल गया
    मीर

    मिरी तामीर में मुज़मिर है एक सूरत ख़राबी की
    हयूला बर्क़-ए-ख़िर्मन का है ख़ून-ए-गर्म दहक़ाँ का
    ग़ालिब

    मूंद रखना चश्म का हस्ती में ऐन दीद है
    कुछ नज़र आता नहीं जब आँख खोले है हुबाब
    मीर

    ता-कुजा ऐ आगही रंग-ए-तमाशा बाख़तन
    चश्म वागर दीदा-ए-आग़ोश विदा जलवा है
    ग़ालिब

    वां तुम तो बनाते ही रहे ज़ुल्फ़
    आशिक़ की भी याँ गई गुज़र रात
    मीर

    तू और आराइश-ए-ख़म काकुल
    मैं और अंदेशा हाय दूर दराज़
    ग़ालिब

    कोई तो आबला-पा दश्त-ए-जुनूँ से गुज़रा
    डूबा ही जाये है लोहू में सरख़ार हनूज़
    मीर

    यक क़लम काग़ज़ आतिशज़दा है सफ़ह-ए-दश्त
    नक़श-ए-पा में है तब गर्मी-ए-रफ़्तार हनूज़
    ग़ालिब

    करें हैं हादिसे हर-रोज़ वार आख़िर तो
    सिनान आह-ए-दिल शब के हम भी पार करें
    मीर

    बस कि सौदाए ख़्याल-ए-ज़ुल्फ़ वहशतनाक है
    ता दिल-ए-शब आबनूसी शाना आसा चाक है
    ग़ालिब

    इन अशआर का तफ़सीली जायज़ा बहस को बहुत तवील कर देगा, लेकिन दो-चार अहम निकात की तरफ़ तवज्जो मब्ज़ूल करना ज़रूरी है। बुनियादी बात ये है कि मीर के कई शे’र ग़ालिब से कमतर हैं, न सिर्फ़ आहंग के लिहाज़ से, जिसमें मुरक्कबात इज़ाफ़ी-ओ-तौसीफ़ी, पैकर और इस्तिआरे के इदग़ाम का जादू है, बल्कि इस वजह से भी कि मीर ने तोज़ीहात के अंबार लगा दिए हैं, सवाल करने की जगह कम छोड़ी है। पहली मिसाल के साथ मीर ही का ये शे’र भी रख लीजिए,

    अच्छी लगे है तुझ बिन गुल-गश्त बाग़ किस को
    सोहबत रखे गुलों से इतना दिमाग़ किस को

    ग़ालिब का पहला मिसरा मीर के पहले मिसरे से किस क़दर नज़दीक है (बाग़ की तकलीफ़) इस की वज़ाहत ग़ैर ज़रूरी है। ग़ालिब का इबहाम मीर की तौज़ीह के मुक़ाबिल रखिए। दोनों शे’रों में मीर ने सैर व तफ़रीह की नापसंदीदगी का ज़िक्र किया है। ग़ालिब “ख़ंदा हाय बेजा” की बात करते हैं। फूलों को ख़ंदां कहते हैं, उनका ख़ंदा (यानी खिलना) तबीयत पर बार है, इसलिए बेजा लगता है। मीर के दूसरे शे’र का मिसरा-ए-सानी भी लफ़्ज़ “दिमाग़” का इस्तेमाल करता है, लेकिन बे-दिमाग़ी की वजह से गुलों की सोहबत को नागवार बताता है, ये एक तौज़ीही बयान है, जब कि ग़ालिब ने ख़ंदा हाय बेजा की वजह इस तरह रखी है कि बे-दिमाग़ी की भी असलीयत वाज़ेह हो गई है, यानी ये ग़म-ए-फ़िराक़ की पैदा-कर्दा आशुफ़्ता-मिज़ाजी की वजह से फूलों की हंसी नागवार है। बे-दिमाग़ी में गुलों की सोहबत क्यों नागवार है, इसका ज़िक्र मीर ने नहीं किया लिहाज़ा बे-दिमाग़ी की असल मंज़िल और कैफ़ियत का कोई बयान नहीं है।

    ग़ालिब का इबहाम सूरत-ए-हाल को हैरत-अंगेज़ तौर पर वाज़ेह कर देता है, यही इबहाम का हुस्न है लेकिन एक नुक्ता और भी है। “ख़ंदा हाय बेजा” खिले हुए फूलों का इस्तिआरा होने के साथ कुछ और बातों की भी तरफ़ इशारा करता है। अव्वलन ये कि ये बेजा हंसी उन लोगों की भी हो सकती है जो गुल-गश्त चमन के लिए आए हुए हैं। मैं रंजीदा-ओ-मह्ज़ू हूँ, मुझे दूसरों की हंसी ज़हर लगती है। बाग़ में जाता हूँ तो हंसते खेलते लोग नज़र आते हैं, ये मुझसे बर्दाश्त कब हो सकता है। दोयमन ये ख़ंदा-ए-बेजा उन हसीनों का भी हो सकता है जिनके चेहरे फूलों की तरह खिले हुए हैं (यानी ख़ंदां हैं।) ये हसीन लोग जो बाग़ों में सैर कर रहे हैं, में उनका नज़ारा कैसे बर्दाश्त कर सकता हूँ जब ख़ुद महजूर हूँ।

    सोयमन ये कि बाग़ में ख़ुश-ओ-ख़ुर्रम लोग मुझे देख देखकर हंसते हैं, गोया मेरी दरमांदा हाली पर तंज़ करते हैं, ये मुझे कब गवारा है। चहारमन ये कि फूल मुझे इस तरह हंसते हुए नज़र आते हैं जिस तरह महबूब हँसता था (शगुफ़्ता था) । महबूब की हंसी के सामने ये हंसी बेजा और ज़हर मालूम होती है। पंजुमन ये कि महबूब भी मुझ पर तंज़ करता है, फूल भी खिल खिल कर मेरे ऊपर तंज़ करते से मालूम होते हैं (क्योंकि वो भी महबूब की तरह शगुफ़्ता, तर-ओ-ताज़ा, शादाब और हसीन हैं)। मैं महबूब का तंज़ तो बर्दाश्त कर लेता, लेकिन फूलों की हंसी क्यों गवारा करूँ?

    आपने मुलाहिज़ा किया कि ये सब इमकानात सिर्फ़ इस सवाल से पैदा हुए हैं, ख़ंदा को बेजा क्यों कहा? और ये किस का ख़ंदा है? मीर के यहां इन सवालों की गुंजाइश नहीं। लिहाज़ा ये इमकानात भी मफ़क़ूद हैं। अगली मिसाल के साथ नासिख़ का ये शे’र भी रखा जा सकता है,

    हो गए दिन हज़ारों ही गुल अंदम इस में
    इसलिए ख़ाक से होते हैं गुलिस्ताँ पैदा

    इस तरह की तमसीली शायरी ग़ालिब ने भी बहुत की है लेकिन वो दावे और सबूत, बयान और मिसाल में एक वक़फ़ा रखते हैं, जिसमें क़ारी के ज़ेहन को तग-ओ-ताज़ की पूरी आज़ादी होती है। नासिख़ के शे’र में वज़ाहत के चक्कर ने एहमाल की कैफ़ियत पैदा कर दी है। इसलिए ख़ाक से होते हैं गुलिस्ताँ पैदा चे मानी दारद। गुलिस्ताँ और कहाँ पैदा होते हैं? ये आसमान और समुंदर से तो उगते नहीं और अगर ख़ाक से इसलिए पैदा होते हैं कि इसमें गुल अंदाम दफ़न हैं तो समुंदर में हज़ारों गुल अंदाम दफ़न हैं, तो समुंदर से भी गुलिस्ताँ क्यों नहीं पैदा होते?

    फिर हो गए दिन से किया मुराद है, क्या अब दिन नहीं हो रहे हैं? क्या बस एक-बार हज़ारों गुल अंदामों को दफ़न कर के नासिख़ ने अबदल आबाद तक गुलिलस्ताँ पैदा करने का इजारा ले लिया है? जो हज़रात इबहाम में एहमाल का शिकवा करते हैं वो यहां वज़ाहत में लग़्वियत की जलवगरी देखें। एहमाल न वज़ाहत का ग़ुलाम है न इबहाम का। मुहमल बात कहियेगा तो मुहमल शे’र बनेगा, बल्कि इबहाम में तो एहमाल का ख़तरा कम होता है, क्योंकि कुछ न कुछ तो बात बन ही जाती है।

    मीर के शे’र में “मुस्तहील” के मअनी “इस्तिहाला का इस्म-ए-फाइल” अगर मालूम हों तो शे’र  मुश्किल नहीं रह जाता, अगरचे इबहाम बाक़ी है। मीर ने एक पहलू पैदा किया है जो नासिख़ के यहां नहीं है। “क्या सहल है” पर ग़ौर कीजिए। मक़सूद ये है कि जब नौ ख़तों के अजज़ाए जिस्म ख़ाक में मिलकर एक हो जाते हैं तब जाकर नबात उगती है, इंसान और वो भी हसीन इंसान जब ख़ाक में मिल चुकते हैं तो सब्ज़ा अपना सर निकालता है। “क्या सहल है” की वजह से असल मफ़हूम, जो इंसानी ज़िंदगी के रायगां और कम क़ीमत होने का है, उसका सुराग़ मिलता है, यही इस शे’र का इबहाम है।

    नासिख़ के मुहमलात यहां नहीं हैं “हो गए दफ़न इस में” की जगह “हैं मुस्तहील ख़ाक में” कह कर उस पुरअसरार अमल की तरफ़ इशारा किया है जिसके ज़रिए नामियाती माद्दा Organic matter आहिस्ता-आहिस्ता गल सड़ कर ग़ैर नामियाती बन जाता है, इस हद तक कि बिल्कुल मिट्टी हो जाता है। (इस ज़राअती इस्तिआरे को भी ज़ेहन में रखिए कि मुर्दा जिस्म की हड्डी और गोश्त-पोस्त की खाद निहायत उम्दा होती है। ख़ुदा जाने मीर का ये इल्म वजदानी था या इकतिसाबी।) ये मिट्टी जब मुर्दा मिट्टी में जज़्ब हो जाती है तो एक और तरह का नामियाती वुजूद (नबात) जन्म लेता है। इस तरह ये शे’र मौत व ज़ीस्त की साईकिल की अलामत भी बन जाता है।

    “निकलता” उगने का भी इस्तिआरा है और ग़ैब से ज़हूर में आने का भी। सरसरी तौर पर पढ़ा जाये तो इस शे’र में कोई नुक्ता नज़र नहीं आता, बल्कि लफ़्ज़ “मुस्तहील” से तबीयत मुतवह्हिश होती है। (ख़ुद मुझ पर इस शे’र के इसरारा सी वक़्त मुनकशिफ़ हुए जब मैंने इस बात की वजह ढूंढनी शुरू की कि ये शे’र नासिख़ से क्यों बेहतर मालूम होता है।) अब ग़ालिब को देखिए, हसीनों के लिए नासिख़ ने गुल अंदाम का सतही इस्तिआरा या पैकर इस्तेमाल किया था। मीर ने “नौ-ख़ताँ” कह कर नौजवानी और कम उम्री पर भी दलालत की। ग़ालिब ने “क्या सूरतें” कह कर सब कुछ आप पर छोड़ दिया है। “क्या सूरतें” यानी वो क्या सूरतों होंगी (तजस्सुस, इस्तिफ़हाम) क्या सूरतें होंगी कि जिनका बदल हसीन फूल हैं (तहय्युर) क्या-क्या सूरतों होंगी (तहसीन) क्या सूरतें होंगी (कौन सी, किन लोगों की)। भला क्या सूरतें होंगी (किस तरह की होंगी, लाइल्मी) जाने क्या-क्या सूरतें होंगी (तफ़क्कुर) की पिनहां हो गईं।

    अब सर्फ़-ओ-नहो पर आइए। दोनों मिसरों में ताक़ीद की वजह से उनकी नस्र दो तरह से हो सकती है, और मफ़हूम, ज़ाहिर है कि कुछ मुख़्तलिफ़ हो जाता है।

    (1) सब कहाँ नुमायां हुईं, सिर्फ़ कुछ ही सूरतें लाला-ओ-गुल की शक्ल में नुमायां हो सकें।

    (2) कुछ ही लाला-ओ-गुल में सब सूरतें कहाँ नुमायां हो गईं (यानी हो सकीं)।

    (1) क्या सूरतें होंगी कि ख़ाक में पिनहां हो गईं।

    (2) ख़ाक में क्या सूरतें होंगी जो कि पिनहां हो गईं।

    मिसरा-ए-सानी की दूसरी क़िरअत का मफ़हूम ये निकलता है कि ख़ाक भी अपनी सूरतें रखती है, कुछ सूरतें तू लाला-ओ-गुल की शक्ल में नुमायां हो गईं, लेकिन ख़ुदा जाने कितनी सूरतें और होंगी कि पिनहां हो गईं, (ब मअनी छुप गईं, हम पर कभी ज़ाहिर न हुईं) गोया इस सूरत में मुद्दा ये निकला कि ख़ाक, जो बज़ाहिर मुर्दा है दरअसल एक नामियाती वुजूद है। लाला-ओ-गुल उसके मज़ाहिर हैं, ऐसे ही हज़ारों मज़ाहिर और भी होंगे जो हम पर ज़ाहिर न हुए। मीर के शे’र  की तरह मौत-ओ-ज़ीस्त की झलक यहां भी मौजूद है, लेकिन मुस्तामिल मफ्हूमी हवाले के अलावा जो और हवाले इस शे’र में हैं वो उसके इबहाम की वजह से हैं। ज़ाहिर है कि ये शे’र  नासिख़ और मीर दोनों से बेहतर है।

    तीसरी मिसाल लीजिए। मैं इसे मीर के बेहतरीन शे’रों में गिनता हूँ। शेक्सपियर के प्रास्प्रो का मुकालमा जिन लोगों के ज़ेहन में है वो जानते होंगे कि मीर ने “औक़ात” का मुहावरा नुमा इस्तिआरा रखकर रवय्ये का जो इबहाम पैदा किया है उसकी वजह से शेक्सपियर की राय ज़नी से बेहतर सूरत पैदा हो गई है। “औक़ात” ब मअनी हैसियत है। उसकी औक़ात ही क्या है, तहक़ीरन बोला जाता है, लेकिन ये भी कह देते हैं, मैं अपनी औक़ात पर क़ायम हूँ, यानी अपनी हद से तजावुज़ नहीं कर रहा हूँ। “औक़ात” ब मअनी बिसात भी है, जिससे फैलाओ का तसव्वुर पैदा होता है। “औक़ात” वक़्त की जमा भी है, “औक़ात बसर करना”, “ब मअनी ज़िंदगी गुज़ारना”, “औक़ात” से रोज़ी रोटी का तसव्वुर भी मुंसलिक है। गुज़र-औक़ात हो जाती है। “औक़ात” को महज़ ज़माने का मफ़हूम भी दिया जा सकता है। तंगी-ए-औक़ात, ख़ुश औक़ाती वग़ैरा।

    इन सब मफ़हूमों के साथ “ख़्वाब” का मफ़हूम बदलता रहता है। उस आलिम की हैसियत क्या है, ख़्वाब की तरह हल्का है, बेमानी है, ग़ैर हक़ीक़ी है, ख़्वाब की सी बिसात रखता है, बहुत तवील, पेचीदा लेकिन ज़ात के अंदर महदूद (आपके ख़्वाब आपकी ज़ात के आगे नहीं जा सकते। आप दूसरों के Behalf पर ख़्वाब नहीं देख सकते)। उसकी हदें ख़्वाब की तरह मुब्हम, नीम-रौशन और ग़ैर क़तई हैं। उसमें ज़िंदगी गुज़ारना ख़्वाब देखना है। उसकी औक़ात (जमा जत्था, रोज़ी रोटी) ख़्वाब की तरह फ़र्ज़ी या कम क़ीमत है। यहां जो वक़्त गुज़रता है वो इस तरह कि गोया हम ख़्वाब में हैं।

    यहां कि वक़्त की मिसाल ख़्वाब के वक़्त की सी है। तवील तरीन ख़्वाब भी चंद ही लम्हों पर मुहीत होता है और ख़्वाब देखने वाला चश्मज़दन ही में बरसों की मंज़िल तै कर लेता है, वक़्त को आगे पीछे कर लेता है। बच्चा ख़्वाब देखता है कि मैं बूढ्ढा हो गया हूँ, बूढ्ढा ख़्वाब देखता है कि मैं बच्चा हूँ वग़ैरा। गोया ख़्वाब में वक़्त की नौईयत Unreal Time होती है। इस दुनिया में वक़्त Unreal है। असल और हक़ीक़ी ज़माँ तो उस आलम में है। इस तरह महज़ एक लफ़्ज़ के इबहाम ने शे’र को मअनी की उन दुनियाओं से हमकनार कर दिया जो वाज़ेह लफ़्ज़ इस्तेमाल करने से हम पर बंद रहते। मसलन मिसरा यूं होता,

    (1) याँ की हस्ती तो ख़्वाब की सी है

    (2) ये जो दुनिया है ख़्वाब की सी है

    (3) ज़िंदगी ये तो ख़्वाब की सी है

    वग़ैरा, तो शे’र दो कौड़ी का न रहता। मौजूदा सूरत में इस शे’र का जवाब मुम्किन नहीं था, सिवाए इसके कि और इबहाम पैदा किया जाता। इबहाम की काट तौज़ीह से नहीं हो सकती, इस की एक मिसाल और भी पेश करूँगा लेकिन इस वक़्त ग़ालिब के शे’र तक ख़ुद को महदूद रखता हूँ। दोनों अशआर में आलम-ए-हस्त-ओ-बूद की कम हक़ीक़ती का तज़्किरा है, और इसके मुक़ाबले में किसी और आलम का ज़िक्र है जो ज़्यादा वाक़ई और असली है। मीर ने इस नुक्ता को वाज़ेह करने लिए ज़मान-ओ-मकान के इदग़ाम से एक इस्तिआरा तराशा है लेकिन ज़्यादा ज़ोर ज़माँ पर है। यही साबित करना मक़सूद ही था कि आलम-ए-आब-ओ-गिल में ज़मान ग़ैर हक़ीक़ी है। ग़ालिब ने ज़मान के लिए मकान का इस्तिआरा तलाश कर के इबहाम को मुब्हम तर कर दिया है। मीर के यहां आलम मिस्ल-ए-ख़्वाब था। ग़ालिब ख़ुद ख़्वाब में हैं, और ख़्वाब भी वो जो वुजूद की नफ़ी करता है यानी ख़्वाब-ए-अदम।

    जो शख़्स अदम में है उसका वुजूद क्यूँकर मुम्किन है? लेकिन ग़ालिब ने अदम में होने ही को वुजूद पर दाल किया है। जो आँख बंद हो वो देख नहीं सकती लेकिन ग़ालिब की बंद आँख ही उसकी तमाशाइयत की दलील है। चश्म अज़ ख़्वाब-ए-अदम नक्शादा, यानी वो आँख जो ख़्वाब-ए-अदम से बेदार नहीं हुई है, यानी जो अभी अदम में है लेकिन “ख़्वाब” ब मअनी “रोया” भी है। यानी वो आँख जो अदम का ख़्वाब देख रही है। तमाशा असल चीज़ का नज़ारा भी हो सकता है और असल चीज़ का पुरफ़रेब धोका भी। हम बोलते हैं, उसने मुहब्बत का तमाशा किया यानी फ़रेब दिया। बज़्म-ए-हस्ती एक तमाशा है, तमाशा असली हो या फ़रेब, लेकिन उसके लिए तमाशाई ज़रूरी है। तमाशाई वो आँख है जो ख़्वाब-ए-अदम से बेदार ही नहीं हुई है। जो आँख बेदार नहीं है वो क्या देख सकती है? या तो ख़्वाब या कुछ भी नहीं और जो आँख ख़्वाब-ए-अदम में है वो क्या देख सकती है, या तो अदम का ख़्वाब (यानी अदम मनाज़िर) या अदम वुजूद के मनाज़िर, यानी कुछ भी नहीं।

    वो तमाशा जो ख़्वाब-ए-अदम में मसरूफ़ आँख से देखा जाये या तो अपना वुजूद अदम में मिस्ल –ए-ख़्वाब रखता है या रखता ही नहीं। अगर ख़्वाब है तो फ़रेब है, अगर ख़्वाब नहीं है तो अदम वुजूद है। इस तरह बज़्म-ए-हस्ती का वुजूद नहीं है। तमाशा की सिफ़त मकान है, ग़ालिब ने इस मकान को ज़ाहिर करने के या उसकी असलियत बयान करने के लिए ज़मान का इस्तिआरा तराशा है, क्योंकि अदम वुजूद का कोई मकान Space नहीं होता, अदम वुजूद सिर्फ़ वक़्त में हो सकता है। लिहाज़ा ग़ालिब ने ये न कह कर कि बज़्म-ए-हस्ती का वुजूद मिस्ल-ए-ख़्वाब है, ये कहा है कि इसका वुजूद अगर है तो ख़्वाब में है (बेअसल है) या अदम में है (यानी नहीं है)। बज़्म-ए-हस्ती का वुजूद इसलिए है कि बज़्म-ए-हस्ती है ही नहीं।

    इस तिलिस्मी माहौल में भी मीर का शे’र अपनी जगह पर क़ायम रहता है, क्योंकि इसके इबहाम का हवाला वाक़ई दुनिया के ख़वास से बनता है। मुजर्रिद इबहाम की बिना पर मीर और ग़ालिब के शे’र हमपल्ला हैं लेकिन ग़ालिब ने मुरक्कब को पैकर और इस्तिआरे में बंद कर के जो दुनिया ख़ल्क़ की है वो मीर से बालातर है। चश्म अज़ ख़्वाब-ए-अदम नक्शादा का पैकर किस क़दर लर्ज़ा ख़ेज़ पुरअसरारियत का हामिल है, जिसके सामने हाथार्न का “अज़ीम संगीन चेहरा” भी यक-रंग मालूम होता है। बेदिल का शे’र देखिए,

    दीगर नक़्श नामा-ए-आमाल मामपर्स
    नज़ारा ब लौह-ए-तमाशा नविश्ता एम

    चौथी मिसाल में मीर ने उसे रोशनी तबा तू बरमन बला शुदी का ग़ैर शऊरी या शऊरी ततब्बो कर के शे’र की मत बिगाड़ दी है। दूसरा मिसरा अपनी जगह पर मुकम्मल था। मैं वो निहाल था कि उगा और जल गया। “निहाल” ब मअनी ख़ुश भी सादिक़ आता है। ख़ुशी की अलामत हंसी है और हंसी की अलामत बर्क़-ओ-शरर। इस तरह ये मअनी भी निकलते हैं कि ज़िंदगी ग़ैरमामूली मसर्रत को बर्दाश्त नहीं कर सकती। “उगा और जल गया” का पैकर भी मुकम्मल था। “और” के लफ़्ज़ ने ग़ैरमामूली तेज़ी-ए-रफ़्तारी का तसव्वुर जिस तरह पैदा किया है वो किसी और लफ़्ज़ से मुम्किन न था। मसलन ये मिसरा अगर यूं होता, मैं वो निहाल था कि बस उगते ही जल गया... तो “उगा” के बाद ड्रामाई वक़फ़ा “गा और जल गया” ग़ायब हो जाता।

    जलने की वजह बयान करने की ज़रूरत न थी, क्योंकि इसके ज़रिए शे’र इश्क़ और उसके तलाज़ुमात तक महदूद हो कर रुक गया है। कोई ऐसा सवाल नहीं जिसका जवाब शे’र की सतह पर मौजूद न हो। ग़ालिब ने भी वजह बयान की है, लेकिन वो उगते ही जल जाने के पुरअसरार अमल ही की तरह मुब्हम है। मिरी तामीर में मुज़मिर है एक सूरत ख़राबी की। क्यों? इसलिए कि ज़िंदगी, मौत की एक शक्ल है। इसलिए कि तख़्लीक़ का मक़्सद-ए-हयात ही ये है कि वो तख़रीब को दावत दे। इसलिए कि हम एक जाबिर-ओ-क़ादिर क़ुव्वत के मह्कूम हैं, जब हम बन चुकते हैं तो वो बिगाड़ने में लुत्फ़ हासिल करती है। (शेक्सपियर का मशहूर जुमला अगर आपको याद हो तो इस जवाब की मानवियत दो-चंद हो जाएगी।) 9

    इसलिए कि तख़रीब के लिए भी दुनिया में कुछ काम होना चाहिए, वर्ना उसका मक़सद-ए-तख़्लीक़ क्या है? इसलिए कि तामीर में ख़राबी की सूरत न हो तो नई तामीर कैसे हो? इसलिए की तामीर की क़दर मालूम हो। इसलिए कि तामीर, तख़रीब को दावत-ए-मुबाज़रत देती है और ज़िंदगी इन दोनों की अरबदाजूई से इबारत है वग़ैरा। फिर ख़ून-ए-गर्म दहक़ाँ जो किशत रेज़ी के लिए धूप में तप कर बर्क़-ए-ख़िर्मन की शक्ल इख़्तियार करता है, उस निहाल से ज़्यादा पुर-असरार और पुर क़ुव्वत है जो उगते ही जल जाता है। क्योंकि नौरस्ता निहाल को जलाने वाली कोई और क़ुव्वत है जो उसके बाहर है, लेकिन ख़ून-ए-गर्म दहक़ाँ तो दहक़ाँ के ही रग-ओ-पै में रवां व जौलां है। मीर के शे’र में दाख़िल, ख़ारिज से मुतहारिब है। ग़ालिब के यहां दाख़िल ही ख़ारिज भी है। वो बिजली जो ख़िर्मन पर गिरती है और वो ख़ून जो ज़िंदगी देता है, एक ही हैं। मीर का शे’र उन हलाकत ख़ेज़ियों से आरी है, क्योंकि मुब्हम नहीं है।

    पांचवें मिसाल को तीसरी के सामने रखिए। दोनों शे’रों में दोनों शायरों ने तमसीली अंदाज़-ए-बयान इख़्तियार किया है। मीर का मिसरा मूंद रखना चश्म का हस्ती में ऐन दीद है, बज़ाहिर तो चश्म वागर दीदा आग़ोश-ए-विदा जलवा है का आसान Version है लेकिन मीर का अपना दूसरा मिसरा क़ाबिल-ए-लिहाज़ है। बुलबुला जब फूटता है (यानी जब उसकी आँख खुलती है) तो उसे कुछ भी नहीं नज़र आता। या जब उसकी आँख खुलती है तो बुलबुला कुछ भी नहीं नज़र आता (ख़त्म हो जाता है) दूसरा मफ़हूम मिसरा-ए-ऊला से मुतसादिम है, इसलिए कि इसमें ऐन दीद की बात की जारही है, जिसमें मालूम होता है कि बुलबुला को कोरी ज़ेर-ए-बहस है, न कि उसका वुजूद। 

    इस को अगर यूं कहा जाये कि बुलबुला जब आँख खोलता है तो उसे कुछ भी नहीं नज़र आता (यानी वो देख लेता है कि दुनिया माया है, मौहूम है, है ही नहीं।) तो मुश्किल ये आ पड़ती है कि जब वो आँख बंद किए हुए था और समझ रहा था कि दुनिया असली और वाक़ई है तो मुब्तलाए फ़रेब था। क्या मीर का मुद्दआ ये है कि वुजूद-ए-हस्ती के फ़रेब में मुब्तला रहना ही ऐन दीद है? अगर ये मफ़हूम है तो कोई झगड़ा नहीं लेकिन शे’र में सिर्फ़ दो ही मफ़हूम नज़र आते हैं, पहला और तीसरा। दूसरा मफ़हूम इस तरह खींच-तान कर लाया जा सकता है कि आँख खुलते ही बुलबुले की ज़िंदगी ख़त्म हो जाती है। अगर वो आँख बंद रखता तो ज़िंदा रहता। देखना ज़िंदा रहने की अलामत है, लिहाज़ा जब वो ज़िंदा था तो देख रहा था, अगरचे उसकी आँख बंद थी। इन तमाम सूरतों में बुलबुले का इस्तिआरा नामौज़ूं रहता है, क्योंकि बुलबुले तो बहरहाल बसारत से आरी हैं।

    फिर भी ये मानना पड़ता है कि बुलबुले का इस्तिआरा (आदमी बुलबुला पानी का, दरिया ब मअनी दरयाए हयात, बुलबुले की कम सबाती और बेमानवीयत का तसव्वुर) अपने माबाद उल मअनी मआनी की वजह से भला मालूम होता है। ग़ालिब ने “जलवा” का लफ़्ज़ रखा है, बजाय “ऐन दीद” के जो यक मअनी है। जलवा मोज़ूई मंज़र को कहते हैं जो ग़ैर हक़ीक़ी होता है। जलवा किसी शैय के मारुज़ी ज़हूर को भी कहते हैं। “रंग बाख़्तन” बमअनी ज़ाए करना, आगही बमअनी अक़ल व होश। आगही मुझसे कह रही है कि ये दुनिया तो धोका है। इसका तमाशा क्या देखता है। खुली आँख को वहम है कि वो देख रही है, हालाँकि दरअसल वो कुछ देखती नहीं। असल तमाशा तो बंद आँखें देखती हैं। ये कह कर आगही मेरे तमाशे को ज़ाए कर रही है (मुझे देखने देती।) हालांकि मुझे मालूम है कि जब मैं आँख खोलूँगा (वाक़ई देखना शुरू करूँगा) तो जलवा (मोज़ूई मंज़र) रुख़सत हो जाएगा, और मैं वो शैय देख लूँगा जो इस जलवे की असल है। इस तरह शे’र कुछ नव अफ़लातूनी सा मालूम होता है। 10

    लेकिन “तमाशा बाख़्तन” बमअनी तमाशे का खेल खेलना, यानी स्वाँग रचाना भी हो सकता है। इस तरह मतलब बज़ाहिर उल्टा निकलता है। जलवा बमअनी मारुज़ी मंज़र हो जाता है। आगही (बमअनी अक़ल या Reason) मेरे सामने तमाशे का स्वाँग रचा रही है। असल तमाशा तो आँख बंद कर के ही नज़र आ सकता है। आँख खुली नहीं कि मंज़र ग़ायब हुआ। लेकिन “चश्म वागर दीदा” के मअनी वो आँख भी लिए जा सकते हैं जो पहले बंद थी लेकिन अब खुल गई है। अगर ऐसा है तो मफ़हूम ये भी निकल सकता है जो आँख बंद थी उसे बंद ही रहना चाहिए, लेकिन जो पहले से खुली हुई थी, वो कुछ और मंज़र देख रही थी। इस मंज़र का यहां ज़िक्र नहीं, उसे मुतसव्वर ही किया जा सकता है। वो आँख जो बंद थी (चश्म अज़ ख़्वाब नक्शादा) उसका बंद रहना बेहतर था, क्योंकि इस तरह वो ख़्वाब-ए-अदम के तमाशे में मह्व थी। जो आँख पहले से खुली हुई है (मुम्किन है वो ख़ुदा की आँख हो जो अज़ल से वा है, (मुम्किन है वो आरिफ़-ए-कामिल की आँख हो, जो ख़्वाब-ए-अदम में भी वुजूद का तमाशा देखती थी, अब वुजूद में आई है तो आगही से बेनयाज़ व मुबर्रा है। उसको कुछ मुश्किल नहीं।

    लेकिन जब ख़्वाब-ए-अदम में मसरूफ़ आँख, या किसी भी बंद आँख को (जो मुशाहिद-ए-बातिन में मस्रूफ़ है) आगही का रोग लग जाता है तो उसे ये धोका होने लगता है कि असल मुशाहिदा तो मुशाहिद-ए-ख़ारिज है, इसलिए वो खुल जाती है, जब खुलती है तो मालूम होता है कि जलवा बाक़ी ही नहीं है, या कभी था ही नहीं। इस तशरीह की रोशनी में आगही, ज़ाती आगही नहीं बल्कि आगही का माबाद उल तबीअयाती तसव्वुर बन जाती है जो रोज़-ए-अज़ल से इंसान को ये फ़रेब देता रहा है कि कुछ हक़ाइक़ मारुज़ी भी होते हैं। मुम्किन है आप इस पेचीदा ख़्याली का जवाज़ भी तलब करें। मेरा कहना ये है कि पेचीदा ख़्याली ख़ुद अपना जवाज़ होती है और अपनी क़ीमत रखती है, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह सादा ख़्याली भी अपना जवाज़ ख़ुद होती है, लेकिन इसको क्या किया जाये कि शायरी अक्सर यही कहती है कि नुकता-ए-चन्द ज़ पेचीदा बयाने ब मन आर।

    इस की वजह ये है कि शायरी अगर सिर्फ़ उन हक़ाइक़ के इज़हार-ओ-इर्फ़ान का नाम है जिन तक हमारी आपकी दस्तरस पहले से है तो मुजर्रिद ख़ूबी-ए-इज़हार के फ़र्ज़ी तसव्वुर से आप अपने को कब तक ख़ुश रख सकेंगे? एक बार चबाया हुआ निवाला सौ-बार चबाया जा सकता है, पत्थर तो थूकना ही पड़ेगा। झाक मारीतेन को सुनिए, अगरचे उसका तास्सुब ये था कि अफ़लातूनी ऐनियत को रोमन कैथलिक तसव्वुफ़ से हम-आहंग साबित कर दिया जाये, लेकिन शे’र की माबाद उल तबीअयाती पेचीदगियों के बारे में उसने ख़ूब कहा है,

    “[फ़न] जो कुछ बताता है उसे अश्या की माद्दी सूरत से नहीं बल्कि उस मख़्फ़ी मानवियत और क़द्र-ओ-क़ीमत से मुशाबेह होना चाहिए जिसके चेहरा-ए-ज़ेबा पर चमकती हुई आँख सिर्फ़ ख़ुदा को नज़र आती है... आप चाहें तो इसे वाक़इयत कह लें, लेकिन ये वाक़इयत मावराई होगी, माद्दी नहीं।” 

    अगर मुझे ये मालूम हो कि लफ़्ज़ के अलामती किरदार के बारे में कैसेरर ने अपने अफ़्क़ार में मारीतेन से इस्तिफ़ादा किया है तो मुझे हैरत न होगी क्योंकि कैसेरर ने लफ़्ज़ का तफ़ाउल यही क़रार दिया है कि वो क़ब्ल अज़ लफ़्ज़ी Preverbal फ़िक्र का इन्इकास होता है। बहरहाल मैंने अभी तक ग़ालिब के शे’र ज़ेर-ए-बहस में जो बातें धूंडी हैं वो ग़ालिब ने इरादतन रखी थीं या ग़ैर शऊरी तौर पर पैदा हो गई हैं, इस बहस में उलझने की ज़रूरत यूं नहीं है कि उसका शे’र  फ़हमी से कोई ताल्लुक़ नहीं है।

    बुनियादी बात ये है कि जब कोई भी शायर शे’र कहते वक़्त पूरी तरह इस बात से बाख़बर नहीं होता कि वो क्या कह रहा है और क्यों कह रहा है, तो ये फ़र्ज़ करना ग़लत होगा कि शे’र से वही निकात बरामद हो सकते हैं जो शायर के शऊर में थे। इबहाम शे’र की ज़ाती और फ़ित्री सिफ़त होता है। अगर आपके अलफ़ाज़ इबहाम के हामिल हैं तो वो अक्सर आपकी वजह से नहीं, बल्कि आपके बावजूद ऐसे होते हैं। उनसे इस बात पर झगड़ना गोया अपनी क़ब्ल अज़ लफ़्ज़ फ़िक्र से झगड़ना है।

    ग़ालिब के छटे और सातवें शे’रों पर इज़हार-ए-ख़्याल मैं और मौक़ों पर कर चुका हूँ। यहां इआदे की ज़रूरत नहीं। इसके अलावा ऊपर की बहसूँ से अगर आप कुछ मुतमइन हुए हैं तो देख ही लेंगे कि मीर के मिसरे आशिक़ की भी याँ गुज़र गई रात/ और कोई तो आबला पा दश्त-ए-जुनूँ से गुज़रा या तौज़ीही अमल करते हैं (कोई तो आबला पा गुज़रा) या मअनी को महदूद करते हैं (आशिक़ की भी याँ गुज़र गई रात) इसके बरख़िलाफ़ ग़ालिब ने पहले शे’र में अंदेश हाय दूर दराज़ को आज़ाद छोड़कर मअनी को तक़रीबन लामहदूद कर दिया है और दूसरे शे’र में गुज़रने के अमल का नतीजा तो ज़ाहिर कर दिया है लेकिन कौन गुज़रा है, ये नहीं खुलता। ग़ालिब के दोनों मिसरे गर्मी और रोशनी के पैकरों के हामिल हैं, मीर का पहला मिसरा पैकर से आरी है।

    ग़ालिब का आठवां शे’र एक मख़सूस इबहाम का हामिल है जो मराआतुन्नज़ीर से पैदा हुआ है। सौदा, ज़ुल्फ़, वहशत, शब, आबनूसी, चाक। इस शे’र में ये तअय्युन करना मुश्किल है कि “सौदा” बमअनी स्याही है या बमअनी जुनूँ। “सौदाए ख़याल-ए-ज़ुल्फ़” बमअनी ख़याल-ए-ज़ुल्फ़ का सौदा (जुनून) है, या ज़ुल्फ़ का ख़्याल सौदा (स्याह ख़्याल) है। “दिल-ए-शब, आबनूसी शाना आसा” पढ़ें या “दिल-ए-शब आबनूसी” (यानी रात का आबनूसी दिल) कहें? “ता दिल-ए-शब” के मअनी “रात के दिल तक” समझें या “इस हद तक कि रात का दिल” निकालें? ये सब उलझावे सिर्फ़ क़िरअत के नहीं हैं, उनको मुनासिब अलफ़ाज़ ने शह दी है। सारे शे’र पर स्याही का मंज़र छाया हुआ है लेकिन किसी इरादे का इज़हार नहीं है। इस वजह से शे’र में वो ग़ैर ज़रूरी इरादियत नहीं है जो मीर के यहां है।

    सिनान आह को दिल शब के पार कर देना बतौर जवाबी कार्रवाई के है। इसलिए कि शब ही इन हादिसात का सबब बनती है जो मीर पर हर रोज़ वार करते हैं। या शायद दिन पर इख़्तियार नहीं है इसलिए रात को कमज़ोर समझ कर उससे बदला लिया जा रहा है। इबहाम की ये कैफ़ियत ख़ूब है, लेकिन इरादे का इज़हार शे’र को एक मख़सूस सयाक़-ओ-सबाक दे देता है। हम पर ऐसा हो रहा है इसलिए हम वैसा करेंगे के बजाय हम पर ऐसा हो रहा है, हम ऐसा कर रहे हैं, कहा जाये तो मफ़हूम को आज़ाद होने में मदद मिलती है। क्योंकि फिर ये नहीं कहा जा सकता कि हमारी कार्रवाई बदले के तौर पर है या शुक्रिये के तौर पर या दोनों में कोई रब्त है भी नहीं।

    जैसा कि अब तक की गुफ़्तगु से वाज़ेह हुआ होगा, शे’र में इबहाम कई वजहों से आ सकता है। उनमें ताक़ीद-ए-लफ़्ज़ी या नशिस्त अलफ़ाज़ की तरफ़ लोगों का ध्यान कम गया है। ग़ालिब के कलाम ने जदीद शारहीन की वजह इस नुक्ते पर मुनातिफ़ की है लेकिन इबहाम की सबसे बड़ी पहचान अलामत है क्योंकि अलामत का वस्फ़ ही यही है कि वो मुब्हम तसव्वुरात को नाम दे देती है। शायर की आँख के इस अमल का इस्तिनाद अगर दरकार हो तो शेक्सपियर से रुजू किया जा सकता है। 11

    अलामत की असमियत और शीअत उसे इस्तिआरे से मुमताज़ करती है, जो मुशाहिदे पर मब्नी होता है और बयान पर इकतिफ़ा करता है। गोया अलामत वहबी इल्म का इज़हार करती है और इस्तिआरा इकतिसाबी इल्म का। मीर के यहां “में” और “हम” इस कुल्लिया की अच्छी मिसाल हैं क्योंकि मीर के कलाम में ये ज़मायर शख़्स वाहिद (चाहे वो मीर हों या कोई और) के बदल की तरह नहीं इस्तेमाल हुए हैं, बल्कि इस ग़ैर मरई इंसानियत का बदल हैं जो ख़ुद को एक बेगाना कायनात से (जो असलन ग़ैर इंसानी) मुतसादिम पाती है।

    “में” और “हम” का ये तसव्वुर मीर की शायरी की मुसलसल कामयाबी और क़ुव्वत का राज़ है। वर्ना अगर सतही मुमासिलतों को देखिए तो मुहम्मद हुसैन आज़ाद से लेकर आज तक तमाम नक़्क़ाद क़ायम और दर्द की बेहतरीन ग़ज़लों को मीर के बेहतरीन कलाम का हमपल्ला बताते रहे हैं और इसमें कोई शक नहीं कि इन्फ़िरादी तौर पर दर्द और क़ायम दोनों के यहां फ़र्द-फ़र्द अशआर मीर से बेहतर निकल सकते हैं बल्कि बा’ज़ पहलू तो ऐसे हैं (मस्लन दर्द के हाँ तश्कीक की कसक और क़ायम के यहां मुरक्कब इज़ाफ़ी का आहंग) जो मीर की पहुंच से आम तौर पर दूर रहे हैं।

    लेकिन इस नन्ही सी अलामत की कारफ़रमाई ने मीर को जो मानवी वुसअत दे दी है वो दर्द और क़ायम के हिस्से में नहीं है। कहा गया है कि मीर ने अपने अह्द के इंतिशार, अफ़रातफ़री, बे इत्मीनानी और इक़दार की शिकस्त-ओ-रेख़्त का दर्द अपने कलाम में भर लिया है। मुम्किन है दुरुस्त हो लेकिन सौदा, सोज़, क़ायम, दर्द के यहां ये बात क्यों नहीं? ये लोग भी तो उसी ज़माने में थे और मीर ही की तरह आशुफ़्ता हाल रहे। अगर ये सब सिर्फ़ उनके माहौल और वक़्त का खेल है तो क्या वजह है कि मीर को ही ये बात नसीब हुई? ज़ाहिर है कि एक ही अह्द में मुख़्तलिफ़ शायरों का वुजूद इस बात की दलील है कि हर शख़्स का शायराना इज़हार उसका अपना होता है। मीर ने अपने लिए ये अलामतें ढूंढ लीं, लिहाज़ा रतब-ओ-याबिस (बल्कि रतब कम और याबिस ज़्यादा) के होते हुए भी उनके कलाम में शायरी का उन्सुर ज़्यादा ज़्यादा रहा।

    अगर ये सवाल उठे कि “हम” और “मैं” को अलामत क्यों फ़र्ज़ किया जाये तो कहा जा सकता है कि इन ज़मायर की जो ग़ैरमामूली तकरार मीर के यहां मिलती है और जिस तरह से वो हर सबब-ओ-इल्लत को ‘मैं” और “हम” के हवाले से परखते हैं, वो इस बात की दलील है कि ये अलफ़ाज़ किसी एक शख़्स की सूरत-ए-हाल से बहुत ज़्यादा वसीअ सूरत-ए-हाल की निशानदेही करते हैं। मिसाल के तौर पर ग़ालिब के यहां ये अलफ़ाज़ इस क़दर ख़ाल-ख़ाल क्यों मिलते हैं? ख़ुद दर्द, सौदा, क़ायम और मीर की हमतरह ग़ज़लों का मुताला इस सिलसिले में दिलचस्पी से ख़ाली न होगा। हमारे अह्द में ख़लील उर्रहमान आज़मी की ग़ज़ल भी “मैं” और “हम” को अलामती अंदाज़ में इस्तेमाल करती है, और यही ख़ुसूसियत, न कि उनका उस्लूब, उनको मीर के नज़दीक लाती है।

    ऊपर जो मिसालें ज़ेर-ए-बहस आईं उनकी रोशनी में ये नतीजा निकालना बहुत आसान हो गया होगा कि सिर्फ़ वही शे’र मुब्हम नहीं है जिसको समझने के लिए मामूल से ज़्यादा ग़ौर-ओ-फ़िक्र की ज़रूरत पड़े। ये मल्हूज़-ए-ख़ातिर रहे कि समझने से मेरी मुराद शायर का इंदिया समझना नहीं है, बल्कि ख़ुद अपने जमालियाती तजुर्बे का तज्ज़िया और तफ़सीर है। मुम्किन है कि जो मतलब मैंने निकाला हो वो शायर का न हो, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। अगर मेरा मतलब अलफ़ाज़ में मौजूद है तो ज़ाहिर है कि वो इसी शे’र का है, कोई मेरा ईजाद किया हुआ नहीं है।

    एक साहिब ने इबहाम की मुख़ालिफ़त करते हुए ये मिसाल दी कि एक जदीद शायर के किसी शे’र का वो निहायत पेचीदा मफ़हूम निकाल रहे थे लेकिन ख़ुद शायर से रुजू किया तो उसने निहायत सामने के और सादा मअनी बयान किए। उन साहिब को ये मिसाल अपनी सुख़न-फ़हमी की दलील के तौर पर देनी चाहिए थी, न कि इबहाम की मुख़ालिफ़त में। बक़ौल इफ़्तिख़ार जालिब, “अगर हर कोई नज़्म में अपनी पसंद के मफ़ाहीम उंडेलने लगे तो आप एहतिजाज भी नहीं कर सकते कि सुख़न फ़हमी की रविश भी यही है। ऐसे एक से ज़ाइद मअनी में से कोई मअनी हक़ीक़ी-ओ-वाक़ई होने की सनद ले सकता है न मस्नूई क़रार दिया जा सकता है। बस इतना ही कहा जा सकता है कि इन मअनों में शे’र के कोई मअनी होते ही नहीं।” 

    ज्ञान चंद जैन लिखते हैं कि सौग़ात के जदीद नज़्म नंबर की नज़्में पढ़ कर उन्हें महसूस तो हुआ कि कोई बात है लेकिन अहमियत रोशन न हुई। उसी पर्चे में बा’ज़ नज़्मों की तशरीहें भी थीं, जब उनकी रोशनी में पढ़ा तो अनोखा लुत्फ़ महसूस हुआ और ये भी ख़्याल आया कि यही बातें अगर वज़ाहत से कह दी जातीं तो वो बात न रहती। ये तास्सुर अदब के एक ऐसे तालिब-इल्म का है जो नई शायरी न पढ़े तो उसका कुछ बिगड़ता नहीं, क्योंकि उसका मैदान कुछ और है और उसका वो मर्द है तो फिर हम आप जो अभी तिफ़्ल-ए-मकतब हैं क्या इतनी भी ईमानदारी नहीं बरत सकते? बहरहाल इबहाम का मसला इशकाल से मुख़्तलिफ़ है। इशकाल का हल लुग़त, हवाले की किताबों, पस मंज़री मालूमात वग़ैरा की मदद से हो सकता है लेकिन शे’र  जो लुग़त की मदद से न समझा जा सके, मुब्हम होगा।

    इसीलिए मैं कहता हूँ कि सहल मुम्तना का शे’र भी मुब्हम हो सकता है और निहायत फ़ारसी अरबी आमेज़ शे’र(जैसे इंशा का क़सीदा) भी इबहाम से आरी हो सकता है। ऐसे हज़ारों शे’र हैं जिनको देखकर हम सरसरी गुज़र जाते हैं, समझते हैं कि जो कुछ उनमें कहा गया है, सामने है लेकिन जब उनसे सवाल जवाब शुरू होता है तो मालूम होता है कि शे’र में तो बहुत कुछ था। ख़ाक़ानी, मीर हसन और मीर के जो शे’र मैंने नक़ल किए हैं, इस उसूल को अच्छी तरह साबित करते हैं। मीर और दर्द के यहां तो इबहाम की ये कैफ़ियत क़दम क़दम पर मिल जाएगी।

    इबहाम की दूसरी शक्ल ये होती है कि शे’र पहली नज़र में ऐसे मुतालिब का हामिल नज़र आए जो नीम रोशन हों, लेकिन ग़ौर-ओ-फ़िक्र और हर लफ़्ज़ के तफ़ाउल को जांचने परखने के बाद उसके तमाम निकात वाज़ेह हो जाएं, और ये महसूस हो कि हम इस शे’र से इससे ज़्यादा हासिल नहीं कर सकते, हमने हर लफ़्ज़ की तवजीहा-ओ-तशरीह अपने इत्मीनान की हद तक कर ली है। ग़ालिब के यहां अक्सर और मीर के यहां वाफ़र तादाद में ऐसे शे’र मिलते हैं। ऊपर की मिसालें भी इसको वाज़ेह करती हैं। इबहाम की आख़िरी मंज़िल ये है कि पूरे ग़ौर-ओ-फ़िक्र और तमाम अलफ़ाज़ की तवजीहा के बाद भी ये महसूस हो कि अभी इस कुँवें को खंगालें तो कई डोल पानी है। ऐसा इबहाम ज़्यादातर अलामती इस्तिआरे और अलामत का मर्हूने मिन्नत होता है। इसकी बेहतरीन मिसाल ख़ुद ग़ालिब का शे’र है जिसमें उन्होंने शायरी के पर्दे में गोया शायराना इबहाम की तारीफ़ की है,

    शोखी-ए-इज़हार ग़ैर अज़ वहशत-ए-मजनूं नहीं
    लैला-ए-मअनी असद महमिल नशीन राज़ है

    बेदिल का एक शे’र मैं एक और मौके़ पर नक़ल कर चुका हूँ,

    ऐ बसा मअनी कि अज़ ना महरमी हाय ज़बां
    बाहमा शोख़ी मुक़ीम पर्दा हा-ए-राज़ मांद

    इन दोनों अशआर के बाद इबहाम की तौज़ीह-ओ-तहमीद में सफ़े स्याह करना काग़ज़ का मुँह पर कालिक मलना है।

    तो क्या एहमाल कोई चीज़ नहीं? क्या ये शे’र भी मुहमल नहीं है जिसे नासिख़ नाफ़हमों के इम्तिहान के लिए सुनाया करते थे?

    टूटी दरिया की कलाई ज़ुल्फ़ उलझी बाम में
    मोरचा मख़मल में देखा आदमी बादाम में

    इसका जवाब ये है कि मुम्किन है किसी मख़सूस सयाक़-ओ-सबाक में ये शे’र भी मुहमल न रह जाये। फ़र्ज़ कीजिए मैं किसी ख़्वाब का मंज़र बयान कर रहा हूँ। ख़्वाब हमारी आपकी अक़ल का तो पाबंद होता नहीं, लोग बे मफ़हूम मनाज़िर ख़्वाब में देखते ही रहते हैं। अगर शे’र ऐसी सूरत-ए-हाल का इज़हार कर रहा है तो क़तअन बामअनी है, क्योंकि उसका एहमाल ही उसकी मानवियत की दलील है, बसूरत दीगर ज़ाहिर है कि ये शे’र मुहमल है।

    इबहाम की तारीफ़ मैंने यूं की थी कि ऐसी सूरत जो सवाल की मुतक़ाज़ी हो और उन सवालों के जो भी जवाब मिलें वो शे’र के ही महाज़ से उठें और शे’र की बाबत हमारे तजुर्बे को वसीअ करें, मुब्हम सूरत है। इस तरह ये कहा जा सकता है कि जिस सूरत में से ऐसे सवाल उठें जिसका जवाब शे’र में न हो, मुहमल है। मैं किसी शे’र को उस वक़्त तक मुहमल नहीं कहता जब तक ये इत्मीनान न हो जाये कि जवाब ढ़ूढ़ने में नाकामी मेरी अपनी कोताही की वजह से नहीं है, बल्कि शे’र जवाबों से वाक़ई आरी है। मैं ज़्यादा से ज़्यादा ये कह सकता हूँ कि ये शे’र या नज़्म   मेरे लिए मानी-ख़ेज़ नहीं है लेकिन ऐसे लोगों का जवाब मेरे पास नहीं है जो शे’र में सिर्फ़ मोटे मोटे इशारे ढूंडते हैं। बहुत से लोग ऐनक लगा कर भी चालीस फ़ीट लंबा साइनबोर्ड नहीं देख पाते और बहुत से लोग चांदनी में भी बिला ऐनक लगाए बारीक हर्फ़ पढ़ लेते हैं, इसको क्या किया जाये, ये दुनिया का दस्तूर है, ऐसी ऊंच-नीच होती ही रहती है।

    क्या शे’र में ऐसी खूबियां नहीं होतीं जो नस्र में भी हो सकती हैं? यक़ीनन ऐसा हो सकता है और होता है। आख़िर रिआयत-ए-लफ़्ज़ी, क़ौल मुहाल, ज़िला, तंज़, हजो मलीह बरजस्तगी, सफ़ाई, बलाग़त (बमअनी इख़्तिसार अलफ़ाज़) शे’र की मिल्कियत तो हैं नहीं, असलन ये नस्र की मुमलिकत हैं लेकिन शे’र में भी दर आई हैं। अब सवाल ये उठता है कि अगर किसी कलाम में मौज़ूनियत और इजमाल के सिवा कुछ न हो लेकिन कोई नस्री ख़ूबी मसलन तंज़ हो, तो उसे क्या कहा जाएगा? मैं चूँकि “ख़ालिस शायरी” की तारीफ़ मुतअय्यन करने की कोशिश कर रहा हूँ, इसलिए ऐसे कलाम को शायरी का दर्जा (दर्जा “बुलंदी” और “पस्ती” के मअनी में नहीं है बल्कि Category के मअनी में) नहीं देता। मैं उसे ग़ैर शे’र कहता हूँ, लेकिन ये भी तस्लीम करता हूँ कि मेरी तारीफ़ पर पूरे उतरने वाले ग़ैर अशआर से दुनिया की शायरी और अलल-ख़ुसूस उर्दू फ़ारसी शायरी भरी पड़ी है।

    मैं ऐसे कलाम से लुत्फ़ अंदोज़ होता हूँ। उसे नस्र से अलग और मुख़्तलिफ़ समझता हूँ। ये भी नहीं कि उसे मुस्तहसिन नहीं समझता, लेकिन नज़रिया-ए-शे’र को अफ़रातफ़री, घुसपैठियों और ज़मियों से महफ़ूज़ रखने के लिए उसे ग़ैर शे’र ही की काबुक से गुटरगूं करता हुआ सुनना पसंद करता हूँ। मादा-ए-तारीख़ हज़ार बरजस्ता सही लेकिन महज़ बरजस्तगी उसे शायरी नहीं बनाती, और न तारीख़ गो को आप शायर मानते हैं। हाली (जो बहुत सारी जदीद तन्क़ीद के पेश इमाम हैं, ख़ासकर जहां शे’र फ़हमी का मुआमला है) भी इस हक़ीक़त से बाख़बर थे लेकिन वो इस्तिआरे 12 और पैकर की गहराईयों में न उतरने की वजह से मज़मून की ख़ूबी के उलझावे में पड़ गए हैं। कहते हैं,

    “बा’ज़ मज़ामीन फ़ी नफ्सही ऐसे दिलचस्प और दिलकश होते हैं कि उनका महज़ सफ़ाई और सादगी के लिहाज़ से बयान कर देना काफ़ी होता है। मगर बहुत से ख़्यालात ऐसे होते हैं कि मामूली ज़बान उनको अदा करते वक़्त रो देती है और मामूली उस्लूब उनमें असर पैदा करने से क़ासिर होते हैं। ऐसे मुक़ाम पर अगर इस्तिआरा और किनाया तमसील वग़ैरा से मदद न ली जाये तो शे’र शे’र नहीं रहता बल्कि मामूली बातचीत हो जाती है। मसलन दाग़ कहते हैं,

    गया था कह के अब आता हूँ क़ासिद को मौत आई
    दिल-ए-बेताब वां जा कर कहीं तू भी न मर जाना

    इस शे’र में देर लगाने को मौत आने और मर रहने से ताबीर किया है। अगर ये दोनों लफ़्ज़ न हों बल्कि इस तरह बयान किया जाये कि क़ासिद ने तो बहुत देर लगाई, ऐ दिल कहीं तू भी देर न लगा देना तो शे’र में कुछ जान बाक़ी नहीं रहती।” 

    इसमें कोई शक नहीं कि मामूली ख़्याल, मामूली ज़बान में और ग़ैरमामूली ख़्याल, ग़ैरमामूली ज़बान ही में अदा हो सकता है, लेकिन हाली ने दाग़ के शे’र की मिसाल ग़लत दी है, क्योंकि दोनों मिसरों में ख़फ़ीफ़ सा इस्तिआरा (मौत आई और मर रहना) मौजूद है। मगर बात उसूलन सही है कि सादा रोज़मर्रा में काम आने वाला ख़्याल अगर मौज़ूं ज़बान में नस्र की सी ख़ूबी से बयान किया जाये तो जमालियाती तजुर्बा बन जाता है, क्योंकि उसमें इजमाल के अलावा कोलरिज की ज़बान में “मूसीक़ीयत” का इंबिसात भी शामिल हो जाता है। इसके बाद हाली ने अच्छी मिसाल दी है। ग़ालिब के शे’र में तंज़िया इस्तिआरे का ज़िक्र करके मीर का शे’र नक़ल किया है,

    कहते हो इत्तिहाद है हमको
    हाँ कहो एतमाद है हमको

    और लिखा है, “यहां भी एतमाद नहीं है, की जगह तंज़न एतमाद है कहा गया है।” चंद सफ़े बाद फिर मीर का शे’र नक़ल किया है,

    ये जो चश्म-ए-पुर आब हैं दोनों
    एक ख़ाना-ख़राब हैं दोनों

    लिखते हैं, “इसमें “एक” का लफ़्ज़ ऐसा बेसाख़्ता और बेतकल्लुफ़ वाक़े हुआ है कि गोया शायर ने इसका क़सद ही नहीं किया... “दोनों” के मुक़ाबले में “एक” के लफ़्ज़ ने आकर शे’र को निहायत बुलंद कर दिया है, वर्ना नफ़स-ए-मज़मून के लिहाज़ से इसकी कुछ भी हक़ीक़त न थी।” बात बिल्कुल सही है लेकिन इस रिआयत के साथ कि शे’र निहायत बुलंद हो गया होगा, लेकिन शायरी नहीं हुई है। बेसाख़्तगी और बेतकल्लुफ़ी (अगरचे इन इस्तलाहों की कोई मारुज़ी हैसियत नहीं है) शायरी की खूबियां नहीं हैं, क्योंकि अगर ऐसा होता तो जहां-जहां वारिद होतीं शे’र को बुलंद कर देतीं (यानी शायरी बना देतीं) और उनकी बरअकस अश्या (मसलन ताक़ीद और इस्तिआरा) जहां-जहां वारिद होतीं शे’र को पस्त कर देतीं। अगर बेसाख़्तगी, बेतकल्लुफ़ी, सलासत, सफ़ाई, सादगी वग़ैरा का यही अमल है तो मुंदरजा ज़ैल शे’र क्या बुरे हैं,

    तजाहुल तग़ाफ़ुल तबस्सुम तकल्लुम
    यहां तक वो पहुंचे हैं मजबूर हो कर
    जिगर

    वहां देखे कई तिफ़्ल-ए-परी रु
    अरे रे रे अरे रे रे अरे रे
    सोज़

    लड़कपन में उलफ़त का हम खेल खेले
    वो बतला के कहना अले ले अले ले
    महज़ूब 

    सरसरी उनसे मुलाक़ात है गाहे-गाहे
    सोहबत-ए-ग़ैर में गाहे सर राहे गाहे
    जुर्रत

    यारगर साहिब-ए-वफ़ा होता
    क्यों मियां जान क्या मज़ा होता
    सोज़

    जुर्म है उसकी जफ़ा का कि वफ़ा की तक़सीर
    कोई तो बोलो मियां मुँह में ज़बां है कि नहीं
    सौदा

    ज़ोर ज़र कुछ न था तो बारे मीर
    किस भरोसे आश्नाई की
    मीर

    ग़ैर उसके कि ख़ूब रोये और
    ग़म-ए-दिल का कोई इलाज नहीं
    क़ायम

    जैसा कि मैं कह चुका हूँ, उर्दू शायरी ऐसे कलाम से भरी हुई है। 13 उनके ग़ैर शे’र होने की आख़िरी दलील मैं ये दे सकता हूँ कि उन पर आप चाहे कितना ही सर धुन लें, वाह वाह कर लें, मौके़ मौके़ से तहरीर में लिख दें, गुफ़्तगु में पढ़ लें, नौजवान उन्हें महबूबाओं के नाम ख़तों में दर्ज करें, लेकिन उनकी तरह के ग्यारह शे’रों की ग़ज़ल या बाईस मिसरों की नज़्म मानवी दुनिया में इतनी दूर तक आपका साथ नहीं दे सकती जितनी दूर तक ग़ालिब का एक ख़त आपके हमराह चल सकता है और इसी लिए उनकी तरह के अशआर की एक उम्र मीर के इस शे’र के बराबर नहीं हो सकती,

    यक-बयाबाँ ब रंग सौत-ए-जरस
    मुझपे है बेकसी-ओ-तन्हाई

    इस सारी बहस का नतीजा ये निकला कि शायरी की मारुज़ी पहचान मुम्किन है और यही पहचान अच्छी शायरी और ख़राब शायरी (या कम शायरी और ज़्यादा शायरी) नस्र और शे’र  और ग़ैर शे’र, तख़्लीक़ी नस्र और शे’र, बामानी और मुहमल में फ़र्क़ करने में हमारे काम आ सकती है। साहिबान-ए-ज़ौक़-ओ-विजदान कुछ भी कहें लेकिन जिस तहरीर में मौज़ूनियत और इजमाल के साथ साथ जदलियाती लफ़्ज़ और या इबहाम होगा, वही शायरी होगी। मौज़ूनियत और जमाल मनफ़ी लेकिन मुस्तक़िल ख़वास हैं, यानी इनका न होना शायरी के अदम वुजूद की दलील है, लेकिन सिर्फ़ उन्हीं का होना शायरी के वुजूद की दलील नहीं। कोई तहरीर शायरी उसी वक़्त बन सकती है जब उसमें मौज़ूनियत और इजमाल के साथ साथ जदलियाती लफ़्ज़ हो या इबहाम, या दोनों हों।

    आख़िरी नतीजा ये है कि वो ख़वास जो नस्र के हैं, यानी बंदिश की चुस्ती, बरजस्तगी, सलासत, रवानी, ईजाज़, ज़ोर-ए-बयान, वज़ाहत वग़ैरा, वो अपनी जगह पर निहायत मुस्तहसिन हैं लेकिन वो शायरी के ख़वास नहीं हैं, और उनका होना किसी मौज़ूं-ओ-मुजमल तहरीर को शायरी नहीं बना सकता, उसे नस्र से मुमताज़ और बरतर ज़रूर बना सकता है। शायरी या तो शायरी होगी या न होगी। वो ब-यक वक़्त शायरी और नस्र नहीं हो सकती है। अब वक़्त आ गया है कि हम नस्री ख़वास वाली शायरी पर ईमान लाने से इनकार और शे’र की सालमियत का ऐलान करें।

    शायरी के ख़वास का बयान आपने पढ़ लिया। जहां-जहां आप मुत्तफ़िक़ न हों, उन शे’रों से बहस करें। हमारा आपका सफ़र शुरू होता है, ज़ाद-ए-राह के तौर पर कोलरिज का ये क़ौल साथ लेते चलें, “हर वो शख़्स जो हक़ की बनिस्बत अपने ही मसलक व मज़हब के साथ ज़्यादा मुहब्बत रखते हुए आग़ाज़ कार करता है, आगे बढ़कर अपने मज़हब से ज़्यादा अपने फ़िरक़े या जमात से मुहब्बत करने लगता है, और अंजामकार उसे अपने अलावा किसी और से मुहब्बत नहीं रह जाती।”


    हाशीए
    (1) ये मलहूज़ रहे कि ख़ुदसाख़्ता बेमानी मिसरा इस वजह से भी बेमानी है कि अकेला है। वर्ना अगर ये किसी नज़्म में आए तो मुम्किन है कि सयाक़-ओ-सबाक की रोशनी उसे कोई तमसीली (Emblematic) या इसतिआराती (Metaphorical) या अलामती(Symbolical) मअनी बख़्श दे, जैसे शाह लियर और मसखरे की गुफ़्तगु। या अगर पूरी नज़्म या नज़्म का बेशतर हिस्सा इसी तरह के अलफ़ाज़ पर मुश्तमिल हो तो मुम्किन है कि शायर ने ऐसे अलफ़ाज़ के ज़रिए कोई मख़सूस आहंग और उस आहंग के ज़रिए कोई मख़सूस नफ़सियाती तास्सुर ख़ल्क़ करना चाहा हो। वेचल लिंडसे (Vachel Lindsay) की मज़हबी नज़्मों का मुताला इस सिलसिले में दिलचस्पी से ख़ाली न होगा लेकिन ये भी मलहूज़ रहे कि ऐसे अलफ़ाज़ गढ़ना जो क़तअन बेमानी हों, तक़रीबन नामुम्किन है।
    (2) मसलन वो शे’र के साथ इरादे की शर्त के मुनकिर हैं।
    (3) कांट के मबाहिस में मैंने उन दोनों के मज़ामीन से भी तफ़सीली इस्तिफ़ादा किया है।
    (4) ख़्याल अलफ़ाज़ में बंद होता है, आप जितने लफ़्ज़ जानते हैं, उतने ही ख़्यालात आपके पास हैं। ये नज़रिया मग़रिब में विट गंसटाइन ने पेश किया है और चंद दूसरों ने भी, मसलन कार्ल क्रास, “गुफ़्तगु फ़िक्र की माँ है, उसकी ख़ादिमा है।” और लश्तन बर्ग, “मैंने ज़बान के कुँवें से ऐसे बहुत से ख़्यालात निकाले हैं जो मेरे पास नहीं थे और जिन्हें मैं अलफ़ाज़ में अदा नहीं कर सकता था।” रिचर्ड्स ने भी इस हक़ीक़त की तरफ़ हल्का सा इशारा किया है।
    (5) That which must be said cannot be said in poetry ये क़ौल आडन ने नक़ल किया है।
    (6) और पिछले अह्द में हाली ने, हमारे अह्द में सलीम अहमद, वारिस अलवी, वज़ीर आग़ा और महमूद हाश्मी ने तख़्लीक़ी और तौज़ीही नस्र के इम्तिज़ाज के अच्छे नमूने पेश किए हैं।
    (7) हाफ़िज़ का शे’र नक़ल कर के अपनी “फ़ारसी दानी का मुज़ाहरा नहीं बल्कि सिर्फ़ मजबूरी का इज़हार मक़सूद है कि उर्दू के शे’र नहीं मिल सके। यूं भी फ़ारसी के कई शे’र, जिनका ज़िक्र मैंने किया है नय्यर मसऊद के अता करदा हैं, बल्कि इस पूरी काविश में उनका बड़ा हिस्सा है, क्योंकि इन सवालों पर मैं और वो मुद्दतों बहस करते रहे हैं और जो नताइज मैंने निकाले हैं उनमें से बेशतर हम दोनों में इत्तिफ़ाक़ राय है।
    (8) हालांकि ख़ुद नवीसी के बारे में हरबर्ट रेड कहता है, ख़ुद नवीसी और इत्तिफ़ाक़ एक ही चीज़ नहीं है। इलहाम कोई अंधा तहर्रुक नहीं हो सकता।
    (9) मुसहफ़ी के शे’र की निशानदेही मसऊद हसन रिज़वी अदीब ने की है। हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ है कि चारों शोअरा (या ख़ाक़ानी के तीनों ख़ोशा चीनों) ने ख़ाक़ानी की तरह ये ख़्याल मक़्ते में ही बाँधा।
    (10) We are such stuff as dreams are made on and our little life is rounded with a sleep… The Tempest
    (11) As flies to wanton boys are we to Gods, They kill us for their sport.
    (12) इसके बरअकस भी हो सकता है, ग़ालिब, आलम-ए-आईना राज़ अस्त, चे पैदा चे निहां ताब अंदेशा न वारी ब निगाहे। 
    (13) शायर की आँख... इन चीज़ों को भी एक मुक़ामी अता पता और नाम अता कर देती है जो हवा की तरह बेवुजूद होती हैं। A Midsummer Night’s Dream
    (14) दिन ढलते ढलते सही लेकिन इस बात की वज़ाहत कर दूं कि मैं तमसील Allegory आयत Emblem निशानी Sign को इस्तिआरे ही का ताबे मौज़ूं मानता हूँ, इसलिए उनमें ब तौर जद लियाती लफ़्ज़ के कोई फ़र्क़ नहीं करता। सिवाए इसके कि अपने तफ़ाउल के लिहाज़ से इस्तिआरा इन सबसे ज़्यादा तीरामंद होता है।
    (15) जदीद अमरीकन नक़्क़ादों ने तंज़ Irony क़ौल मुहाल दाख़िली कशाकश वग़ैरा पर जो बहसें की हैं वो इंतिहाई काबिल-ए-क़दर और शे’र फ़हमी में बहुत मुआविन हैं लेकिन उनसे ये साबित नहीं होता कि चूँकि इन तहरीरों में ये कैफ़ियात (तंज़ वग़ैरा) पाए जाते हैं इसलिए ये शे’र हैं।

     

    स्रोत:

    शेर, ग़ैर शेर और नस्र (Pg. 24)

    • लेखक: शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
      • प्रकाशक: डायरेक्टर क़ौमी कौंसिल बरा-ए-फ़रोग़-ए-उर्दू ज़बान, नई दिल्ली
      • प्रकाशन वर्ष: 2005

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