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शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी के लेख
शेर, ग़ैर-ए-शेर और नस्र
दर-ए-मकतब नियाज़ च हर्फ़-ओ-कुदाम सौत चूँ नामा सजदा ईस्त कि हर जा नविश्ता ऐम बेदिल नई शायरी की बुनियाद डालने के लिए जिस तरह ये ज़रूरी है कि जहां तक मुम्किन हो सके उस के उम्दा नमूने पब्लिक में शाये किए जाएं, उसी तरह ये भी ज़रूरी है कि शे’र की हक़ीक़त
हमारी क्लासिकी ग़ज़ल की शेअ'रियात: कुछ तंक़ीदी कुछ तारीख़ी बातें
क्लासिकी उर्दू ग़ज़ल की शे’रियात जिन तसव्वुरात पर क़ायम है उन्हें मोटे तौर पर दो अन्वा में तक़सीम किया जा सकता है। एक वो जिनकी नौईयत इल्मियाती (Epistemoological) है, यानी ये तसव्वुरात इस सवाल पर मब्नी हैं कि शे’र से हमें क्या हासिल होता है? दूसरी नौ
अकबर इलाहाबादी, नौ-आबादियाती निज़ाम और अह्द-ए-हाज़िर
अकबर इलाहबादी के बारे में चन्द बातें आ’म हैं। हम इन्हें दो हिस्सों में मुन्क़सिम करके मुख़्तसरन यूँ बयान कर सकते हैं, (1) अकबर तन्ज़-ओ-मज़ाह के बड़े शाइ’र थे। (2) वो हुर्रियत-पसन्द थे। (3) उन्होंने अंग्रेज़ की मुख़ालिफ़त में पर्चम तो नहीं उठाया लेकिन
शायरी का इबतिदाई सबक़
पहला हिस्सा (1) मौज़ूँ, ना-मौज़ूँ से बेहतर है। (1) (अलिफ़) चूँकि नस्री नज़्म में मौज़ूनियत होती है, इसलिए नस्री नज़्म, नस्र से बेहतर है। (2) इंशा, ख़बर से बेहतर है। (3) किनाया, तशरीह से बेहतर है। (4) इबहाम, तौज़ीह से बेहतर है। (5) इज्माल, तफ़्सील
अलामत की पहचान
तख़लीक़ी ज़बान चार चीज़ों से इबारत है, तशबीह, पैकर, इस्तिआरा और अलामत। इस्तिआरा और अलामत से मिलती जुलती और भी चीज़ें हैं, मसलन तमसील Allegory, Sign, निशानी Embelm वग़ैरा। लेकिन ये तख़लीक़ी ज़बान के शराइत नहीं हैं, औसाफ़ हैं। उनका न होना ज़बान के ग़ैर तख़लीक़ी
इंसानी तअ'ल्लुक़ात की शाइ'री
‘मीर’ की ज़बान के इस मुख़्तसर तज्ज़िये और ‘ग़ालिब’ के साथ मुवाज़ने से ये बात ज़ाहिर हो जाती है कि ‘मीर’ और ‘ग़ालिब’ में इश्तिराक-ए-लिसान है और नहीं भी। इस्ति'माल-ए-ज़बान से हट कर देखिए तो भी इश्तिराक के बा'ज़ पहलू नज़र आते हैं। ऊपर मैंने अ'र्ज़ किया है कि
कुछ उर्दू रस्म-उल-ख़त के बारे में
ये हमारी ज़बान की बद-नसीबी ही कही जाएगी कि इसका रस्म-उल-ख़त बदलने की तज्वीज़ें बार-बार उठती हैं, गोया रस्म-उल-ख़त न हुआ, ऐसा दाग़-ए-बदनामी हुआ कि इससे जल्द-अज़-जल्द छुटकारा पाना बहुत ज़रूरी हो। कभी इसके लिए रोमन रस्म-ए-ख़त तजवीज़ होता है, कभी देवनागरी और
ग़ालिब और मीर: मुताले’ के चंद पहलू
‘ग़ालिब’ ने ‘मीर’ से बार-बार इस्तिफ़ादा किया है। ये इस बात की दलील है कि ‘ग़ालिब’ और ‘मीर’ एक ही तरह के शाइ'र थे। या'नी बा'ज़ मज़ाहिर-ए-काएनात और ज़िंदगी के बा'ज़ तजुर्बात को शे'र में ज़ाहिर करने के लिए दोनों एक ही तरह के वसाइल इस्ति'माल करना पसंद करते थे।
मीर की शख़्सियत: उनके कलाम में
शाइ'री के बारे में हमारे यहाँ ये ख़याल आ'म है कि ये शाइ'र की शख़्सियत का इज़हार करती है। इसे तरह-तरह से बयान किया गया है। मसलन नूर-उल-हसन हाश्मी ने कहा कि शाइ'री या कम से कम “सच्ची” शाइ'री “दाख़िली” शय है। लिहाज़ा जिस शाइ'री में शाइ'र की “दाख़िली शख़्सियत”
साहेब-ए-ज़ौक़ क़ारी और शे'र की समझ
क्या कोई क़ारी सही मअनी में साहिब-ए-ज़ौक़ हो सकता है? मुझे अफ़सोस है कि इस सवाल का जवाब नफ़ी में है। क्या किसी ऐसे क़ारी का वुजूद मुम्किन है जिसकी शे’र फ़हमी पर हम सबको, या अगर हम सबको नहीं तो हम में से बेशतर लोगों को एतमाद हो? मुझे अफ़सोस है कि इस सवाल का भी
जदीद शेरी जमालियात
ख़ाली मैदान में अगर कुत्ता भी गुज़रे तो लोग उसकी तरफ़ मुतवज्जेह हो जाते हैं। (वालेरी) अगर क़दीम शे'री जमालियात मंसूख़ हो चुकी है तो मैदान ख़ाली है। ऐसी सूरत में इसका इम्कान बढ़ जाता है कि हर वो चीज़ जो उसकी जगह भरने के लिए मैदान में आएगी, जाली होगी और अगर
मीर साहब का ज़िंदा अजाइब घर, कुछ ताज्जुब नहीं ख़ुदाई है
मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने ‘मीर’ के बारे में एक वाक़िआ' लिखा है कि उन्होंने अपने घर के बारे में एक दोस्त से कहा कि मुझे ख़बर नहीं कि इसमें कोई पाईं-बाग़ भी है। वाक़िआ' निहायत मशहूर है लेकिन उसे मुहम्मद हुसैन आज़ाद के गुल-ओ-गुलज़ार अल्फ़ाज़ में सुना जाए तो लुत्फ़
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