कशफ़ी मुल्तानी के शेर
थक थक के तिरी राह में यूँ बैठ गया हूँ
गोया कि बस अब मुझ से सफ़र हो नहीं सकता
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तेरी आँखें हैं कि आहू-ए-ख़ुतन की आँखें
महव-ए-हैरत थीं जवानान-ए-चमन की आँखें
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आब-ए-हैवाँ को मय से क्या निस्बत
पानी पानी है और शराब शराब
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'कशफ़ी' को कोई पूछने आए तो दोस्तो
कहना कि चंद शेर सुना कर चले गए
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नाचती है जब तू अपने दिलरुबा अंदाज़ से
आफ़रीं के नग़्मे उठते हैं दिलों के साज़ से
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ज़माना आया कुछ ऐसा कि अब तो हर घर में
लटक रही है मसर्रत नज़ीर की तस्वीर
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इक 'मुज़फ़्फ़र'-गढ़ी के हाथों से कार-नामा हुआ है ला-सानी
जिस की तख़्लीक़ नग़मा-ए-सहरा नाम 'कशफ़ी' ब-उर्फ़ 'मुल्तानी'
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