जन्म : 11 Sep 1905 | बटाला, पंजाब
निधन : 27 Oct 1995
मुमताज़ मुफ़्ती उर्दू अफ़साने की परम्परा के एक अहम कहानीकार के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने विषय, शिल्प और तकनीक की सतह पर कई प्रयोग किए। उनके अफ़साने खासतौर पर गंभीर नफ़सियाती मसाइल को मौज़ू बनाते हैं। मुमताज़ मुफ़्ती ने ‘अलीपुर का एली’ के नाम से एक बड़ा उपन्यास भी लिखा। प्रकाशन के बाद इसकी गिनती उर्दू के बेहतरीन नाविलों में की जाती है।
मुमताज़ मुफ़्ती का जन्म 11 सितंबर 1905 को बटाला ज़िला गुरदासपुर, पूर्वी पंजाब में हुआ। अमृतसर, मियांवाली और डेरा ग़ाज़ी में आरम्भिक शिक्षा प्राप्त की फिर 1929 में इस्लामिया कॉलेज लाहौर से बी.ए. और 1933 में सेंट्रल कॉलेज लाहौर से एस.ए.वी. का इम्तिहान पास किया। ऑल इंडिया रेडियो और मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री में मुलाज़िम रहे। 1947 में पाकिस्तान चले गये। वहां हकूमत-ए-पाकिस्तान के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएँ दीं। 27अक्तूबर 1955 को इंतिक़ाल हुआ।
मुमताज़ मुफ़्ती के कहानी संग्रह; अन-कही, गहमागहमी,चुप, गुड़ियाघर,रोग़नी पुतले, के नाम से शाया हुए। उन्होंने इनशाईये भी लिखे जो बहुत मशहूर हुए और शौक़ से पढ़े गए । ‘गुब्बारे’ के नाम से इन्शाईयों का मज्मुआ शाया हुआ। ‘कैसे-कैसे लोग’ और ‘प्याज़ के छिलके’ के नाम से रेखाचित्रों के दो संग्रह प्रकाशित हुए। उम्र के आख़िरी बरसों में मुमताज़ मुफ़्ती हज के सफ़र पर गये और वापसी पर ‘लब्बैक’ के नाम से ‘सफ़र-ए-हज’ नाम से यात्रावृतांत लिखा जिसे बहुत शोहरत मिली और उनकी कहानियों की तरह दिलचस्पी के साथ पढ़ी गई।