- पुस्तक सूची 186001
-
-
पुस्तकें विषयानुसार
-
बाल-साहित्य1991
जीवन शैली22 औषधि925 आंदोलन299 नॉवेल / उपन्यास4835 -
पुस्तकें विषयानुसार
- बैत-बाज़ी13
- अनुक्रमणिका / सूची5
- अशआर64
- दीवान1459
- दोहा48
- महा-काव्य107
- व्याख्या200
- गीत60
- ग़ज़ल1186
- हाइकु12
- हम्द46
- हास्य-व्यंग36
- संकलन1597
- कह-मुकरनी6
- कुल्लियात693
- माहिया19
- काव्य संग्रह5046
- मर्सिया384
- मसनवी841
- मुसद्दस58
- नात562
- नज़्म1244
- अन्य77
- पहेली16
- क़सीदा189
- क़व्वाली17
- क़ित'अ63
- रुबाई296
- मुख़म्मस17
- रेख़्ती13
- शेष-रचनाएं27
- सलाम33
- सेहरा9
- शहर आशोब, हज्व, ज़टल नामा13
- तारीख-गोई30
- अनुवाद74
- वासोख़्त26
सय्यद एहतिशाम हुसैन के उद्धरण
तन्हाई का एहसास अगर बीमारी न बन जाये तो उसी तरह आरज़ी है जैसे मौत का ख़ौफ़।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
ग़ज़ल अपने मिज़ाज के एतबार से ऊँचे और मुहज़्ज़ब तबक़े की चीज़ है। इसमें आम इन्सान नहीं आते।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
समाजी कश्मकश से पैदा होने वाले अदब का जितना ज़ख़ीरा उर्दू में फ़राहम हो गया है, उतना शायद हिन्दुस्तान की किसी दूसरी ज़बान में नहीं है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
अदब की समाजी अहमियत उस वक़्त तक समझ में नहीं आ सकती, जब तक हम अदीब को बा-शऊर न मानें।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
सबसे ज़्यादा जो बुत इन्सान की राह में हायल होता है वो आबा-ओ-अज्दाद की तक़लीद और रस्म-ओ-रिवाज की पैरवी का बुत है। जिसने उसे तोड़ लिया उसके लिए आगे रास्ता साफ़ हो जाता है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
समाजी कश्मकश से पैदा होने वाले अदब का जितना ज़ख़ीरा उर्दू में फ़राहम हो गया है उतना शायद हिन्दुस्तान की किसी दूसरी ज़बान में नहीं है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
ज़िंदगी को नए तजुर्बों की राह पर डालना, बंधे-टके उसूलों से इन्हिराफ़ कर के ज़िंदगी में नई क़दरों की जुस्तजू करना बुत-शिकनी है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
शायद यह बहस कभी ख़त्म न होगी कि नक़्क़ाद की ज़रूरत है भी या नहीं। बहस ख़त्म हो या न हो, दुनिया में अदीब भी हैं और नक़्क़ाद भी।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
शायर और अदीब नक़्क़ाद की उंगली पकड़ कर नहीं चल सकता और न नक़्क़ाद का यह काम है कि वे अदीब की आज़ादी में रुकावट डाले।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
ज़बान पहले पैदा हुई और रस्म-ए-ख़त बाद में। मैं इससे यह नतीजा निकालता हूँ कि ज़बान और रस्म-ए-ख़त में कोई बातिनी ताल्लुक़ नहीं है, बल्कि रस्मी है और अगर यह बात तस्लीम कर ली जाये तो ज़बान और रस्म-ए-ख़त के मुताल्लिक़ जो बहस जारी है वो महदूद हो सकती है।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
मुशायरा सदियों से बाज़ मुल्कों की अदबी ज़िंदगी का जुज़ रहा है, जो एक ख़ास मंज़िल पर पहुंच कर एक तहज़ीबी इदारे की शक्ल इख़्तियार कर गया।
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
join rekhta family!
-
बाल-साहित्य1991
-