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आओ कटहल खाएँ

इशरत रहमानी

आओ कटहल खाएँ

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    बंगाल का एक ख़ास फल कटहल है। ये इतना बड़ा होता है कि कोई फल तो क्या सब्ज़ी की कोई चीज़ भी इसका मुक़ाबला नहीं करती। एक कटहल कम से कम दस बारह सेर का होता है। खाने में बेहद मीठा और ज़ायक़े-दार होता है। लेकिन इसका शीरा बहुत लेस-दार होता है। आम तौर पर इसे खाने के लिए एक ख़ास तरकीब करनी पड़ती है। हाथों और मुँह और होंटों पर नारियल का तेल मल लिया जाता है इससे हाथ और मुँह चिपकने से बच जाते हैं। वर्ना इसके लेस से निजात मिलना मुश्किल होता है।

    बंगला ज़बान की एक दिलचस्प कहानी इस फल के बारे में मशहूर है। कहते हैं एक मर्तबा एक पठान भाई अपना काबुली मेवा बेचते-बेचते बंगाल के किसी शह्र में जा निकले। वो बाज़ार से गुज़र रहे थे कि रास्ते में उन्हें एक शख़्स कटहल बेचता मिला। ख़ान साहब ने जो ऐसी भारी भरकम चीज़ देखी तो पूछा कि इसका क्या करते हैं?

    उन्हें बताया गया, “ये एक मज़ेदार फल है। इसे खाते हैं।”

    क़ीमत पूछी तो मा’लूम हुआ, पाँच रुपय।

    ख़ान साहब बहुत ख़ुश हुए कि ऐसी उम्दा और भारी खाने की चीज़ पाँच रुपय की मिल रही है। पेट भर कर मज़े से खाएँगे, फिर भी बच रहेगी। उन्होंने जल्दी से पाँच रुपय दिए और कटहल उठा कर कंधे पर रख लिया। चलते-चलते वो सड़क के किनारे एक जगह बैठ गए और अपना चमक-दार लंबा, तेज़ धार चाक़ू निकाल कर कटहल के टुकड़े कर के खाने लगे। वो तो था ही मीठा। ख़ान साहब बहुत ख़ुश हुए। जी भर के खाया और जो बच रहा उसे रूमाल में बाँध कर चलने का इरादा किया। मगर कटहल खाने की तरकीब तो ख़ान साहब को किसी ने बताई थी। उनके हाथ-मुँह और ठोड़ी चिपक कर रह गई। उन्होंने एक नल पर जा कर अपने हाथ और मुँह को धोया। लेकिन कटहल के लेस की ख़ुसूसियत ये भी है कि वो पानी से और ज़्यादा चिपकता है। ख़ान साहब जितना हाथों और मुँह को धोते थे उतना ही उसके लेस में चिपकते थे। देर तक रगड़-रगड़ कर धोने के बा-वुजूद लेस से छुटकारा नहीं हुआ।

    अब तो ख़ान साहब सख़्त परेशान हुए। रास्ते से जो भी राहगीर गुज़रा उससे पूछने लगे। “भाई... बताओ मैं अपना मुँह और हाथ कैसे साफ़ करूँ?”

    किसी ने कहा, साबुन से धो लो, किसी ने कुछ, किसी ने कुछ। दर-अस्ल हर एक को ख़ान साहब का ये हाल ये देख कर दिल-लगी सूझने लगी थी और जिस-जिस ने जो तरकीब बताई वो ऐसी थी जिससे लेस साफ़ होने की बजाय हाथ और मुँह ज़्यादा ही चिपकते थे।

    होते-होते ख़ान साहब बेचारे का ये हाल हुआ कि होंट चिपक कर जैसे सिल गए। बात करनी दुशवार हो गया और मूंछों के बाल ऐसे चिपके थे कि अकड़ कर रह गए और चेहरा जकड़ने से बेचारे को सख़्त तकलीफ़ होने लगी।

    ख़ान साहब उसी हालत में लोगों को अपना चेहरा दिखाते और इशारे से पूछते फिरते थे कि इस मुसीबत से कैसे छुटकारा पाउँ।

    आख़िर एक शख़्स ने उनको बताया कि इसका आसान ईलाज ये है कि आप अपनी दाढ़ी मुंडवाएँ... ख़ान साहब ने एक नाई के पास जा कर दाढ़ी-मूँछें साफ़ कराईं और उस नाई ने नारियल के तेल से उनके हाथों और मुँह को साफ़ भी कर दिया। फिर उसने ख़ान साहब को कटहल खाने की तरकीब भी समझा दी। वो ख़ुश-ख़ुश वहाँ से चल दिए। कुछ देर बा'द उन्होंने अपना बचा हुआ कटहल खा कर पैसे वसूल होने पर ख़ुदा का शुक्र अदा किया।

    इसके बाद जब भी ख़ान साहब को उनके इलाक़े का कोई शख़्स मिलता और वो उसकी दाढ़ी मुंडी हुई देखते तो फ़ौरन उसे गले लगा कर हंसते हुए कहते, “हम समझ गए... तुमने कटहल खाया है।”

    वो शख़्स हैरान हो कर उनसे कटहल का माजरा दरयाफ़्त करता। फिर वो उसे अपनी सारी कहानी सुनाते और बाज़ार ले जा कर कटहल खरीदवा कर नाई की बताई हुई तरकीब से कटहल खा कर ख़ुश होते।

    स्रोत:

    Khilauna,New Delhi (Pg. 120)

      • प्रकाशक: मोहम्मद यूनुस देहलवी
      • प्रकाशन वर्ष: 1969

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