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बोलता दरख़्त

जलील क़िदवई

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    टन-टन... टन-टन... टन-टन...

    स्कूल में छुट्टी का घंटा बजा। उस्तादों ने अपनी-अपनी जमात के बच्चों को क़तार में खड़े होने का हुक्म दिया। बच्चों ने घंटा की आवाज़ के साथ-साथ उस्तादों के हुक्म को इंतिहाई ख़ुशी से सुना और झट-पट मुन्ने-मुन्ने हाथों अपने-अपने बस्ते गले में लटका कर लाइनों में जा लगे। क़ौमी तराना गाया गया और बच्चे प्रिंसिपल को ख़ुदा हाफ़िज़ कह कर क़तार-दर-क़तार स्कूल से बाहर निकलने लगे।

    फाटक से बाहर कुछ ठेले वाले खड़े आलू छोले की चाट, दही बड़े, मूँगफली, अमरूद के कचालू, फ़ालसे की आवाज़ें लगा रहे हैं। बच्चे उनके ठेलों पर टूट पड़े। नन्हा बख़्तियार भी एक हाथ से अपना बस्ता, दूसरे से नेकर सँभाले एक ठेले के पास रुक गया। जेब से इकन्नी निकाली और ठेले वाले से उंगली के इशारे से कहा, “एक आना के फ़ालसे दे दो।”

    फ़ालसे वाले ने जो लहक-लहक कर आवाज़ लगाने में मगन था बख़्तियार के हाथ से इकन्नी ले अपनी गुल्लक में डाली और गाते ही गाते एक पुड़िया मैं फ़ालसे डाले। उन पर नमक छिड़का। दो-चार दफ़ा पुड़िया को उछाला और बख़्तियार को “लो मुन्ने” कह कर पकड़ा दी और फिर गाने में मसरूफ़ हो गया। वो गा रहा था,

    “आओ बच्चो खाओ मेरे काले-काले, ऊदे-ऊदे, मीठे-मीठे फ़ालसे।”

    “आओ बच्चो खाओ मेरे काले-काले...”

    बख़्तियार को उसकी अम्मी स्कूल के लिए एक आना रोज़ देती थीं कि उसका दिल चाहे तो कोई साफ़-सुथरी चीज़ घर पर ला कर खा ले वरना पैसे जमा करके अपने लिए कोई अच्छी सी कहानियों की किताब ख़रीद ले। नन्हा बख़्तियार उसी इकन्नी के फ़ालसे की पुड़िया मुट्ठी में दबा घर की तरफ़ चल दिया। घर जा कर किताबों का बस्ता मुक़र्ररा जगह पर रखा और फ़ालसों की पुड़िया माँ को दी। अपनी यूनीफ़ॉर्म और जूते-मोज़े उतारे। हाथ मुँह धो कर खाना खाने बैठा और बड़े जोश से माँ से कहा, “अम्मी आपने फ़ालसे खाए? कितने मज़ेदार हैं ना?”

    अम्मी ने कहा, “फ़ालसे खाने से पहले मैंने उन्हें धोया और फिर से नमक छिड़का। बाज़ार के खुले हुए फ़ालसे थे, जाने साफ़ थे या नहीं। खाना खा कर मैं भी दो-चार खा लूँगी, बाक़ी तुम खाना। फ़ालसे बहुत फ़ायदा-मंद होते हैं सेहत के लिए, मगर सफ़ाई ज़रूरी है। तुम्हारा जी चाहे तो अपने बाग़ की क्यारियों में इसकी गुठलियाँ बिखेर देना। तुम्हारे घर में फ़ालसे ही फ़ालसे हो जाएँगे।”

    बख़्तियार खाना ख़त्म करके फ़ालसे खाता जाए और गुठलियाँ जमा करता जाए और फिर उस ने वो गुठलियाँ अपनी क्यारी में डाल दीं।

    कुछ दिनों बाद एक नन्हा सा पौदा ज़मीन से निकला। नन्हा बख़्तियार ख़ुशी से उछल पड़ा। दौड़ कर अम्मी को पकड़ कर लाया।

    “अम्मी, देखिए मेरे फ़ालसे का पौदा निकला।”

    “इसे ध्यान से पानी दिया करो। कभी-कभी ज़मीन की गुड़ाई करते रहा करो। मैं खाद और मीठी-मिट्टी मंगा कर डलवाती रहूँगी। बस फिर तुम्हार ये नन्हा पौदा जल्दी से बड़ा और फल-दार दरख़्त बन जाएगा।”

    नन्हा बख़्तियार हर रोज़ स्कूल से कर दोपहर को आराम करने के बाद अपने बाग़ में अपनी माँ के साथ काम करता और फ़ालसे की पत्तियों को मुहब्बत से चूमता और उसे बड़ा होते देख कर जी ही जी में ख़ुश होता।

    एक रोज़ बख़्तियार ने अपने फ़ालसे के दरख़्त में बहुत से पीले-पीले नाज़ुक से फूल लगे हुए देखे। उसने उन फूलों का ज़िक्र अपने स्कूल के दोस्तों से किया। दोस्तों का भी देखने को जी चाहा। वो बख़्तियार के साथ उसके घर आए और फूल देख कर सब बहुत ख़ुश हुए। उन्होंने हाथ बढ़ाए कि फूल तोड़ कर घर ले जाएँ और ख़ुश हों मगर जैसे ही बच्चों के हाथ दरख़्त की तरफ़ बढ़े एक आवाज़ आई जैसे कोई दर्द भरी आवाज़ से कह रहा हो, “हाय ज़ालिम! मार डाला!”

    बच्चों ने डर के मारे अपने हाथ पीछे कर लिए और इधर-उधर देखने लगे कि शायद कोई आदमी बोल रहा हो। मगर जब उन्हें कोई नज़र आया तो दुबारा फूल तोड़ने के लिए अपने हाथ बढ़ाए, मगर फिर वही आवाज़ आई, “हाय ज़ालिम! मार डाला!”

    अब तो सब बच्चे “भूत-भूत” कहते अपने-अपने घरों को भागे। बेचारा बख़्तियार अपने घर के अंदर भागा और जा कर अपनी अम्मी को सब हाल बता दिया।

    अम्मी बाहर आईं कि देखें कौन भूत है जो बच्चों को डरा रहा है। अम्मी ने दरख़्त की तरफ़ हाथ बढ़ाया तो उन्हें वही आवाज़ सुनाई दी। वो समझ गईं कि दरख़्त को अपने फूलों के तोड़े जाने का दर्द है। उन्होंने बख़्तियार को समझाया, “बेटा ये भूत की आवाज़ नहीं है। बल्कि दरख़्त कह रहा है कि मेरे फूल तोड़ो। उनके तोड़ने से मुझे दुख होगा, क्योंकि फूलों से फ़ालसे बनेंगे और अगर उन्हें तोड़ लोगे तो मैं फलदार कैसे बनूँगा।”

    बख़्तियार को फ़ालसे के दरख़्त से बहुत मुहब्बत थी। फ़ौरन एक अच्छे बच्चे की तरह अपनी माँ की बात उसकी समझ में गई और उसने उन फूलों को हाथ लगाया।

    थोड़े दिनों बाद उस दरख़्त में हरी-हरी गुठलियाँ सी लगी हुई देखने में आईं तो बख़्तियार समझा कि यही फ़ालसे हैं। उसने स्कूल में अपने दोस्तों से बताया कि मेरे दरख़्त में बहुत से फ़ालसे रहे हैं। उसके दोस्तों को वो पिछला भूत का वाक़िआ कुछ याद तो था मगर फ़ालसे खाने के शौक़ में स्कूल से वापसी पर वो फिर बख़्तियार के साथ उसके घर पर ही धमके। हाथ बढ़ा कर फ़ालसे तोड़ना ही चाहते थे कि फिर वही दर्दनाक आवाज़ सुनाई दी “हाय ज़ालिम! मार डाला!”

    ओहो! बच्चों को अब पूरी तरह यक़ीन हो गया कि बख़्तियार के फ़ालसे का दरख़्त भूतों का अड्डा है। भागे सब के सब और अपने-अपने घर जा कर ही दम लिया। नन्हा बख़्तियार ये तमाशा देख कर बाहर आया।

    “अम्मी सच कह रहा हूँ फ़ालसे के दरख़्त के अंदर भूत रहता है। अभी फिर उसमें से आवाज़ आई थी।” अम्मी अपनी हंसी रोकती जाएँ और पत्तों को हटा कर देखना चाहती थीं कि कौन भूत है। अम्मी का हाथ बढ़ते देख कर दरख़्त समझा वो भी उसके फ़ालसे तोड़ने गईं। फिर उस में से आवाज़ आई “हाय ज़ालिम! मार डाला!”

    अम्मी समझ गईं और कहने लगीं, “देखो, ये भूत की आवाज़ नहीं है। ये दरख़्त नहीं चाहता कि इसका कच्चा फल तोड़ा जाए। जब पक जाए तो खाना। इसलिए ये बेचारा इस तरह कह रहा है।”

    नन्हा बख़्तियार कुछ समझा कुछ समझा, मगर चुप ज़रूर हो गया।

    कोई पंद्रह दिन के बाद एक सुबह स्कूल जाने से पहले बख़्तियार ने देखा कि उसके फ़ालसे का दरख़्त बड़ा हसीन नज़र रहा है। हरी-हरी पत्तियों की आढ़ से डालियों में लगे हुए ऊदे-ऊदे काले-काले फ़ालसे झाँक रहे थे और फलों से लदी हुई डालियाँ ख़ुशी से झूम रही थीं। उसने सोचा कि बस अपने दोस्तों को फ़ालसे ज़रूर खिलाऊँगा और ख़ुद भी खाऊँगा।

    स्कूल से वापसी पर वो अपने दोस्तों को साथ लाया। बच्चे कहने लगे “भई तुम्हारा दरख़्त तो भूतों का अड्डा है। हाथ नहीं लगाने देता। हम कैसे फ़ालसे खाएँगे।”

    ये कहते गए और हाथ बढ़ा के फ़ालसे तोड़ने लगे, मगर इस बार दरख़्त में से बड़ी प्यार भरी धीमी-धीमी आवाज़ रही थी, “आओ बच्चो... खाओ मेरे काले-काले, ऊदे-ऊदे, मीठे-मीठे फ़ालसे, आओ बच्चो...”

    और डालियाँ थीं कि बच्चों के आगे मुहब्बत से बढ़ी आती थीं, झुकी जाती थीं।

    उस रोज़ सब बच्चों और नन्हे बख़्तियार ने ख़ूब मज़े ले-ले कर अपने दरख़्त से फ़ालसे तोड़-तोड़ कर खाए और थोड़े-थोड़े फ़ालसे जेबों में भर कर अपने-अपने घर ले गए। रास्ते भर एक दूसरे से कहते थे, “बख़्तियार का दरख़्त बोलता दरख़्त है, मगर है बड़े काम का, हम भी उसके फ़ालसे के बीज अपने घर में बोएँगे।”

    स्रोत:

    Kamsin Mujahid Aur Dusri Kahaniyan (Pg. 43)

    • लेखक: जलील क़िदवई
      • प्रकाशक: इदारा निगरिश व मतबूआत, कराची
      • प्रकाशन वर्ष: 1970

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