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एक थी बुढ़िया

मिर्ज़ा हामिद बेग

एक थी बुढ़िया

मिर्ज़ा हामिद बेग

MORE BYमिर्ज़ा हामिद बेग

    एक थी बुढ़िया और उसका एक बेटा भी था।

    बेटा बहुत दूर रहता था। बुढ़िया अकेली थी और बीमार रहती थी।

    बुढ़िया ने सोचा, चलूँ अपने बेटे के घर। लेकिन वो अपने बेटे के घर कैसे जाती। उसका घोड़ा भी नहीं था और कोई संगी-साथी।

    वो क्या करती। अपने बेटे के घर कैसे जाती।

    बढ़िया ने सोचा...

    मैं क्या करूँ... अपने बेटे के घर कैसे जाऊँ।

    बुढ़िया के घर में एक बड़ा सा मटका था। मटके ने कहा,

    “क्यों फ़िक्र करती हो। मैं ले जाऊँगा तुम्हें, तुम्हारे बेटे के घर।”

    बुढ़िया ख़ुश हो गई।

    उस रात बहुत बारिश हुई। नदी नालों में पानी गया। चारों तरफ़ पानी ही पानी। गलियाँ और बाज़ार पानी से भर गए।

    मटके ने कहा,

    “जल्दी कर, चलें।”

    बुढ़िया मटके में बैठ गई। मटका पानी में उतर गया और तैरने लगा।

    बढ़िया बोली,

    “चल मेरे मटके टुम्मक-टुम

    कहाँ की बुढ़िया? कहा के तुम?”

    मटका चल पड़ा, गलियों और बाज़ारों से होता हुआ।

    रास्ते में जंगल था। जंगल में जानवर थे।

    जानवरों को देख कर बुढ़िया डर गई। कहने लगी,

    “हाय मुझे जानवर खा जाएँगे।”

    मटका बोला,

    “डर काहे का?”

    बुढ़िया ने कहा,

    “जंगल में शेर भी होगा।”

    मटका बोला,

    “फिर क्या हुआ?”

    बुढ़िया बोली,

    “जंगल में लकड़बग्गा भी होगा।”

    मटके ने कहा,

    “होता रहे।”

    बुढ़िया बोली,

    “जंगल में रीछ भी होगा।”

    मटके ने कहा,

    “शेर, लकड़बग्गा, रीछ जंगल में हैं तो आते क्यों नहीं।”

    ये सुन कर शेर, लकड़बग्गा और रीछ गए।

    शेर बोला,

    “हाम हाम हाम बुढ़िया को मैं खाऊँगा।”

    लकड़बग्गा बोला,

    “ख़ी ख़ी ख़ी... बुढ़िया को मैं खाऊँगा।”

    रीछ कहने लगा,

    “मुझे बहुत भूक लगी है। बुढ़िया को मुझे खाने दो।”

    बुढ़िया बोली,

    “क्यों खाते हो मुझे? मैं तो कमज़ोर सी हूँ। मुझे बेटे के घर जाने दो। बेटे के घर अच्छे-अच्छे खाने खाऊँगी तो मोटी हो जाऊँगी। जब बेटे के घर से वापिस आऊँगी तब खा लेना।”

    शेर बोला, “हूँ।”

    लकड़बग्गा और रीछ बोले, “हूँ।”

    बुढ़िया की जान में जान आई तो बोली,

    “चल मेरे मटके टुम्मक-टुम

    कहाँ की बढ़िया, कहाँ के तुम?”

    मटका चल पड़ा।

    बुढ़िया, जंगल से निकल कर अपने बेटे के घर पहुँची। वो बहुत ख़ुश थी। बेटे ने उसे अच्छे-अच्छे खाने खिलाए बुढ़िया ने जी भर कर खाया।

    बुढ़िया, खा खा कर ख़ूब मोटी-ताज़ी हो गई।

    एक दिन बुढ़िया कहने लगी, “बेटा, अब मैं अपने घर जाऊँगी।”

    बेटा बोला, “ख़ैर से जाएँ।”

    बुढ़िया मटके में बैठ गई।

    “चल मेरे मटके टुम्मक-टुम

    कहाँ की बुढ़िया, कहाँ के तुम?”

    मटका चल पड़ा।

    रास्ते में जंगल था।

    जंगल में शेर, लकड़बग्गा और रीछ थे।

    शेर ने मटके में बैठी बुढ़िया को देख लिया। कहने लगा,

    “बुढ़िया तो ख़ूब मोटी-ताज़ी हो कर आई है।”

    लकड़बग्गा बोला, “ख़ी ख़ी ख़ी... मुझे तो भूक लग गई।”

    रीछ ने कहा, “आओ अब बुढ़िया को खा लें।”

    जंगल के सारे जानवर मिल कर बोले, “अच्छा, तो अब हम बुढ़िया को खाएँगे।”

    ये सुन कर बुढ़िया बोली,

    “पहले मुझे दो-दो मुट्ठी रेत ला दो, तब खाना।”

    वो मान गए।

    दो मुट्ठी रेत शेर लाया। दो मुट्ठी लकड़बग्गा और दो मुट्ठी रीछ लाया।

    बुढ़िया अपने हाथों में रेत ले कर बैठ गई और बोली।

    “आओ, अब मुझे खाओ।”

    जब वो उसे खाने को आगे बढ़े तो बुढ़िया ने मुट्ठी भर-भर कर रेत उनकी आँखों में झोंक दी।

    अब जानवर उसे कैसे खाते।

    बुढ़िया बोली,

    “चल मेरे मटके टुम्मक-टुम

    कहाँ की बुढ़िया, कहाँ के तुम?”

    मटका चल पड़ा।

    जंगल के जानवर पीछे रह गए और बुढ़िया अपने घर पहुँच गई।

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