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घड़ी की चोरी

मोहम्मद असदुल्लाह

घड़ी की चोरी

मोहम्मद असदुल्लाह

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    अंजुम की दसवीं सालगिराह थी। इसी ख़ुशी में शरीक होने के लिए इस बार उसके मामूँ भी वहाँ मौजूद थे। इस मौक़ा पर उन्होंने अंजुम को एक निहायत क़ीमती और ख़ूबसूरत घड़ी तोहफ़े में दी जिसे देख कर वो बाग़-बाग़ हो उठा। उस छोटी सी बस्ती में वैसी घड़ी तो किसी ने कभी देखी होगी। उसमें वक़्त बताने के लिए छोटे बड़े काँटों को घूमने-फिरने की भी ज़रूरत थी। ये काम उसमें मौजूद हिंदसे किया करते थे। घड़ी देख कर किसी ने ये चुभता हुआ सा जुमला जड़ दिया, “ये तो पुरानी घड़ियों से ज़्यादा पढ़ी-लिखी मा’लूम होती है।” मामूँ ने कहा, “आज कल तो लोग इसी क़िस्म की डिजिटल घड़ियों को पसंद करते हैं।”

    अंजुम कभी घड़ी को कलाई पर सजाता कभी दोस्तों को दिखाता। हर आधे घंटे बा'द उसमें अलार्म बज उठता। आवाज़ ऐसी प्यारी कि बार-बार सुनने को जी चाहे। नए लोग उसे सुन कर चौंक उठते तो अंजुम को बड़ा मज़ा आता।

    एक दिन दोपहर में अंजुम को घड़ी का ख़्याल आया। इधर-उधर ढूँडा, घड़ी मिली तो वो घबरा गया। इतनी क़ीमती चीज़ अचानक गुम हो गई। मामूँ पूछेंगे तो क्या जवाब दूँगा। उसे याद आया कि सुबह पड़ोस के जुम्मन मियाँ की बीवी नुसरत ख़ाला और उनके दो बच्चे अंजुम के घर आए थे। वो लोग कभी-कभार दादी-जान की ख़ैरीयत पूछने चले आते थे। जुम्मन मियाँ रिक्शा चला कर किसी तरह गुज़र बसर किया करते। आमदनी बहुत कम थी और घर में छोटे-बड़े आठ बच्चे थे जो एक-एक चीज़ को तरसते रहते। जुम्मन मियाँ भला उन सबकी ख़्वाहिशात कैसे पूरी करते? वो उनकी ता'लीम का भी मुनासिब इंतिज़ाम नहीं कर पाए थे। ढेर सारे लोगों से भरी ज़िंदगी की गाड़ी को भी वो अपनी टूटी-फूटी रिक्शा की तरह किसी तरह ऊँचाई पर चढ़ाए चले जा थे।

    अंजुम को यक़ीन हो गया कि उन्ही बच्चों ने घड़ी पर हाथ साफ़ किया है। उसने इरादा किया कि फ़ौरन नुसरत ख़ाला से जा कर बात करे फिर ख़्याल आया, इस तरह वो लोग घड़ी कहीं छिपा देंगे। ये बात तय थी कि घड़ी चोरी हुई थी वर्ना आधा घंटा गुज़रने के बा'द भी उसकी आवाज़ ज़रूर सुनाई देती। उसने जासूसों की तरह सोचना शुरू किया। अचानक ये ख़्याल आया कि चलो नुसरत ख़ाला के घर कुछ देर रुक जाएँ। आधे घंटे बा'द जब घड़ी का अलार्म सुनाई देगा तो वो लोग रंगे हाथों पकड़े जाएँगे। उनके घर घड़ी होगी तो बच नहीं सकते। अंजुम पूरे जोश के साथ इस मुहिम पर रवाना होने ही वाला था कि उसकी अम्मी की आवाज़ दूसरे कमरे से सुनाई दी, “अंजुम ये देखो तुम्हारी घड़ी यहाँ तकिये के नीचे पड़ी है।”

    अंजुम बुरी तरह चौंका। तकिया उठा कर तो देखा ही नहीं था। उसने अम्मी से पूछा, “अम्मी हर बार तो इसका अलार्म सुनाई देता है इस बार क्यों सुनाई नहीं दिया?”

    अम्मी ने कहा, “अरे इसका कोई बटन दब गया होगा। कभी ऐसा हो जाता है। अब्बू इसे दुबारा सेट कर देंगे।

    अंजुम घड़ी पा कर ख़ुश तो हुआ मगर उसके दिल में एक काँटा सा खटकता रहा कि जुम्मन मियाँ की ग़रीबी ने उसे उनके बारे में क्या-क्या सोचने पर मजबूर किया। कितनी बद-गुमानियाँ कीं। उसे अपने आप पर शर्म आने लगी।

    स्रोत:

    Gup Shup (Pg. 36)

    • लेखक: मोहम्मद असदुल्लाह
      • प्रकाशक: सलमान प्रिंटिंग प्रेस, नागपुर
      • प्रकाशन वर्ष: 2013

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