जल-परी
किसी छोटी सी बस्ती में कोई बुढ़िया रहती थी। उसके आगे-पीछे एक लड़की के सिवा कोई दूसरा न था। बुढ़िया ने लाड-प्यार में उसे ऐसा उठाया था कि वो अपनों को ख़ातिर में लाती न ग़ैरों को।
ज़बान दराज़, फूहड़, काम-चोर... माँ के झोंटे नोचने को तैयार मगर माँ थी कि वारी-सदक़े जाती। उसके नख़रे उठाती।
बुढ़िया ने अपनी मरने वाली बहन की लड़की को भी अपने पास रख लिया था।
बेचारी बे-घर बे-बस... सारे दिन ख़ाला की ख़िदमत में लगी रहती। बहन के नकतोड़े उठाती, जब कहीं रूखी-सूखी मयस्सर आती।
ग़रीब लौंडियों की तरह सुबह से शाम तक टख़र-टख़र करती। अपनी नन्ही सी जान को मारती। लेकिन क्या मजाल जो कभी ख़ाला ने उसके सर पर हाथ फेरा हो या बहन ने मीठी ज़बान से कोई बात की हो। जब देखा, माँ बेटियों को ग़ुर्राते।
मिसल तो ये मशहूर है कि माँ मरे और मौसी जिए। होती होंगी माँ से ज़्यादा चाहने वाली ख़ालाएँ भी। उसके नसीब से तो बुढ़िया जल्लादनी थी।
ईद बक़रईद को भी बेचारी अच्छे खाने अच्छे कपड़ों के लिए तरसती की तरसती ही रह जाती। इस बुरे बरताव पर शाबाश है इस लड़की को कि एक दिन भी उसने किसी से शिकायत नहीं कि। न काम-काज से जी चुराया। जिस हाल में ख़ाला रखती रहती और हंसी ख़ुशी के साथ वक़्त गुज़ारती।
बड़ी-बी अगर अंधी थीं या उनके दिल से तरस उठ गया था तो दूसरे तो अंधे न थे। दोनों लड़कियों का रंग-ढंग सब के सामने था। पास-पड़ोस वालियाँ देखतीं और जलतीं, मगर क्या कर सकती थीं। एक तो पराई-आग में पड़े कौन? दूसरे बुढ़िया चलती हवा से लड़ने वाली, बदमिज़ाज, टर्री। हक़-नाहक़ उल्टी-सीधी बकने लगे। अच्छी कहो बुरी समझे। झाड़ का काँटा हो कर लिपट जाये। पड़ोसनों का और तो क्या बस चलता। बुढ़िया अपने घर की मालिक थी।
एक उसकी बेटी दूसरी भांजी। हाँ उन्होंने अपने दिल के जले फपोले फोड़ने को दोनों लड़कियों के नाम रख दिए। जब आपस में ज़िक्र आता तो बुढ़िया की चहीती को ततैया कहें कि हर वक़्त भिन-भिन... ज़रा छेड़ा और काटा। दूसरी को गो... कि निगोड़ी पिटती है बुरा-भला सुनती है और कान तक नहीं हिलाती।
वो जो मिसल है कि निकली होंटों और चढ़ी कोठों। बस्ती ही कौन सी लंबी चौड़ी थी। दोनों लड़कियों के ये नाम सबको याद हो गए। जहाँ ज़िक्र आता बुढ़िया को ततैया और भांजी को गो कहते।
एक दिन कहीं झल्लो ख़ानम के कानों में भी भनक पड़ गई। वो आए तो जाए कहाँ। पड़ोसनों पर तो दिल ही दिल में ख़ूब बरसी कि जाती कहाँ हैं मेरा मौक़ा आने दो... ऐसी फुलझड़ी छोड़ूँगी कि गाँव भर में नाचती फिरें। ततैय्ये ही न लगा दूँ तो बात ही क्या। हाँ ग़रीब भांजी कि कमबख़्ती आ गई। कहावत सुनी होगी कि...
कुम्हार पर बस न चला तो गधय्या के कान अमेठे...
जब होता उसे गोद-गोद कर खाए जाती कि... “हाँ ये गो है और मेरी बच्ची ततैया? ख़ुदा करे कहने वालों की ज़बान में ततय्ये ही काटें। क्यों री, तू गो है? ये सारे कौतक तेरे ही हैं। मैं सब जानती हूँ। अरे तेरे कहीं उसने डंग मारा होगा? न जाने मेरे घर में सौकन बन कर कहाँ से आ मरी। ये जैसी मिसमिसी है इसे कोई नहीं जानता।”
इस तरह रोज़ बुढ़िया बका करती और लड़की शामत की मारी को सुनना पड़ता। सुनने के सिवा उसे चारा ही क्या था। ख़ुदा किसी को किसी के बस में न डाले। एक दिन बस्ती के बाहर कोई मेला था। बुढ़िया की लाडली अच्छे कपड़े पहन मटकती इतराती अपनी सहेलियों के साथ मेला देखने चली। गो भी आख़िर लड़की ही थी। एक-एक का मुँह देखने लगी। हमसाई ऊपर से झाँक रही थीं। उन्होंने कहा, “बुआ इस बच्ची को भी भेज दो। इसका दिल भी ख़ुश हो जाएगा। देखना बेचारी कैसी चुप-चाप खड़ी है।”
बड़ी बी झल्ला कर बोलीं, “ये मेले में जाने के क़ाबिल है। सर झाड़, मुँह फाड़। न ढंग के कपड़े न कहीं जाने का सलीक़ा। दूसरे, घर का काम कौन करेगा। इसकी लौंडियाँ बैठी हैं जो काम करने आएँगी और लड़की से चिल्ला कर कहने लगी, “चल घड़ा उठा और कुएँ पर से पानी ला।”
इस ग़रीब लड़की ने घड़ा उठाया और आँखों में आँसू डब-डबाए कुएँ पर गई, पानी भरा और दरख़्त की छाओं में पहुँची कि ज़रा दिल ठहर जाए तो घर चलूँ। रात-दिन की मुसीबत पर उसे रोना आ गया। इतने में पीछे से उसको एक आवाज़ सुनाई दी। उसने झट पल्लू से आँसू पोछ कर गर्दन ऊँची की तो देखा एक बुढ़िया खड़ी है। बुढ़िया ने गिड़-गिड़ा कर लड़की से कहा, “बेटी प्यासी हूँ ज़रा सा पानी पिला दे।”
लड़की ने ख़ुशी-ख़ुशी बुढ़िया को पानी पिला दिया।
पानी पी कर बुढ़िया ने लड़की को दुआएँ दीं और बोली, “तुम बड़ी अच्छी लड़की हो। मैं तुम्हारे साथ ऐसा सुलूक करती हूँ कि सारी उम्र याद करोगी। लो आज से जब तुम बात करोगी तुम्हारे मुँह से मोती झड़ेंगे।” ये कहते-कहते बुढ़िया लड़की की आँखों के आगे से ग़ायब हो गई। अस्ल में वो बुढ़िया जल-परी थी।
जल-परी तो चली गई और लड़की भी अपना घड़ा सर पर रख अपने घर की तरफ़ रवाना हुई। लेकिन अब उसे ये फ़िक्र हुआ कि ये बुढ़िया कौन थी और उसने क्या कहा? मैं उसका मतलब नहीं समझी।
घर पहुँची तो ख़ाला ने बेचारी की ख़ूब ख़बर ली... “अब तक कहाँ रही, तेरा काम करने को दिल नहीं चाहता तो कहीं और चली जा।”
लड़की दबी ज़बान से बोली, “ख़ाला जी अब ऐसा नहीं होगा। एक बुढ़िया को पानी पिलाने लगी थी।”
लड़की का मुँह से बात करना था कि आँगन में मोती बिखर गए। जल-परी का कहना सच हुआ। बुढ़िया ने जो चमकते हुए मोती देखे तो दीवानों की तरह झपटी और मोती चुनने लगी। मोती समेट चुकी तो बड़े प्यार से बोली, “चंदा ये कहाँ से लाई?”
लड़की ने कहा, “ख़ाला जी लाई तो कहीं से भी नहीं, मेरे मुँह से झड़े हैं।”
बुढ़िया हंस कर बोली, “चल झूटी, मुँह से भी मोती झड़ा करते हैं। एक वारी सच बता। ज़रूर तुझे कोई ख़ज़ाना मिला है।”
“नहीं ख़ाला अल्लाह जाने मेरे मुँह से झड़े हैं। एक बुढ़िया कुएँ पर मिली थी। उसे मैंने पानी पिलाया। उसने मुझे दुआ दी कि जब तू बात करेगी तेरे मुँह से मोती झड़ेंगे।” लड़की ने जवाब दिया।
“वो ज़रूर कोई परी थी मगर बेटी अब तू दो-चार दिन पानी भरने न जाइयो परियों का क्या भरोसा। आज मेहरबान हैं तो कल क़हरमान। तुझे कहीं कुएँ में न ले जाएँ।”
बड़ी बी बड़ी तेज़ थीं। भांजी से तो ज़ाहिर में ये बातें बनाईं लेकिन दिल में खौल ही तो गई कि परी ने मेरी बच्ची को मोतिया खान न बनाया। बेटी मेले में से आई तो उसे ख़ूब पट्टियाँ पढ़ाईं और बड़ी मुश्किल से दूसरे दिन उसको कुवें पर पानी भरने के लिए भेजा।
ततैया मिर्च अव्वल तो गई बड़े नख़रों से फिर कुएँ पर डोल को झटकती-पटकती रही। झोंक-पीट कर घड़ा भरा और दरख़्त के नीचे जा बैठी। बैठी ही थी कि जल-परी कुभ निकली हुई बुढ़िया के रूप में उसके भी पास आई। बोली, “बेटी ज़रा सा पानी तो पिला दे। कब से प्यासी मर रही हूँ।”
बुढ़िया की लड़की वैसे ही जलातन, फिर जल-परी ने ऐसी घिनौनी सूरत बना रखी थी कि देखे से नफ़रत हो। घुरक कर बोली, “चल-चल, मैंने कोई प्याऊ लगा रखी है।”
जल-परी घिघया कर बोली, “पिला दे बेटी सवाब होगा।”
लड़की ने जवाब दिया, “जाती है या पत्थर मारूँ।”
“अरी मैं बहुत प्यासी हूँ।”
“मेरी जूती से, प्यासी है तो कुएँ में डूब जा।” लड़की ने तेज़ी से जवाब दिया...
जल-परी को पानी की क्या ज़रूरत थी उसे तो इस भेस में अपना करिश्मा दिखाना था। ग़ुस्से में हो कर बोली, “बदतमीज़ लड़की जाती कहाँ है। इतनी आपे से बाहर हो गई। मैं भी तुझे वो मज़ा चखाती हूँ कि याद रखे... जा मैंने कह दिया कि आज से जब तू बात करेगी तेरे मुँह से मेंढक फुदक-फुदक कर बाहर आएँगे।”
लड़की को इस बात पर ग़ुस्सा तो बहुत आया। जूती उठा मारने को खड़ी हुई लेकिन परी कब ठहरने वाली थी वो बददुआ देते ही ग़ायब हो गई। लड़की देर तक दाँत पीसती रही। परी का भी उसे इंतेज़ार था। दोपहर होने आई और परी-वरी कोई नहीं दिखाई दी तो ये दिल ही दिल में बड़बड़ाती अपने घर रवाना हुई।
माँ अपनी चहेती बेटी के इंतिज़ार में दरवाज़े की तरफ़ टिक-टिकी लगाए बैठी थी। देखते ही पूछा, “कहो बेटी, परी मिली? उसने तुझे क्या दिया?”
लड़की जली-भुनी तो पहले ही चली आ रही थी, तरक कर जवाब दिया, “चूल्हे में जाये तुम्हारी परी। निगोड़ी मेरी तो गर्दन भी टूट गई।”
“आख़िर क्या हुआ? परी आज नहीं आई?” माँ ने पूछा...
“कौन सी परी? वहाँ तो एक पगली सी बुढ़िया न जाने कहाँ से आन मरी थी।” लड़की ने जल कर जवाब दिया...
लड़की जब बात करती उसके मुँह से मेंढकियाँ निकल कर ज़मीन पर फुदकने लगतीं। पहले तो बुढ़िया ने अपनी धुन में देखा नहीं। लेकिन जब एक मेंढकी उसकी गोद में जाकर उछलने लगी तो वो उछल पड़ी।
“ओई ये मेंढकी कहाँ से आई?” फिर जो देखती है तो सारे सेहन में मेंढकियाँ ही मेंढकियाँ कूदती फिर रही हैं। “है है! अरी क्या घड़े में भर लाई है?”
“उसी पुच्छल-पाई बुढ़िया ने कोसा था कि तेरे मुँह से मेंढकियाँ बरसेंगी।” बेटी ने बिसूर कर जवाब दिया।
“झुलसा दूँ उसके मुँह को। वो परी नहीं कोई भूतनी होगी।” बुढ़िया बोली...
“अम्माँ ये सब इस कुटनी के करतूत हैं। इसे तुमने घर में क्यों घुसा रखा है?”
“अच्छा अब तो तू मुँह बंद कर पड़ोसनें देख लेंगी तो सारा गाँव तमाशा देखने आ जाएगा। देख मैं इस मुर्दार की ख़बर लेती हूँ।”
ये कह कर बुढ़िया ने फुकनी उठा, बेचारी बे-क़ुसूर भांजी को धुनना शुरू कर दिया।
“क्यों री मुर्दार, प्यारों पीटी। तेरे मुँह से तो मोती झड़ें और मेरी बच्ची के मुँह से मेंढकियाँ। जाती कहाँ है, आज मैं भी तेरी धूल झाड़ कर रहूँगी।”
बुढ़िया अपनी यतीम भांजी पर पिल पड़ी। मारने के बाद भी बुढ़िया को सब्र न आया। हाथ पकड़ घर से बाहर निकाल दिया। लड़की और कहाँ जाती कुँआँ ही पास था। रोती हुई उस दरख़्त के नीचे जा बैठी जहाँ जल-परी मिली थी। कभी ख़्याल करती कि डूब मरूँ। कभी सोचती कि किसी और बस्ती में चली जाऊँ। इतने में जल-परी भी आ गई और उसने लड़की से पूछा। “बेटी रोती क्यों है?”
लड़की ने अपनी बिप्ता सुनाई और कहा, “तुम्हारी बदौलत में घर से निकाली गई हूँ।”
परी क़हक़हा लगा कर बोली, “अच्छी लड़कीयाँ कहीं इस तरह बे-आस हो कर रोया करती हैं। जा ख़ुदा तेरे दिन फेर दे। आज से तू फूलों की सेज पर बादशाही महल में सोएगी।”
अल्लाह को न बिगाड़ते देर लगती है न बनाते। इत्तेफ़ाक़ से इधर तो परी नज़रों से ओझल हुई और एक शहज़ादा शिकार खेलता पानी की तलाश में कुवें के पास आया। डोल उठाते-उठाते लड़की पर नज़र पड़ी। लड़की हक़ीक़त में चाँद का टुकड़ा थी। कैसा पानी और कैसी प्यास डोल-ओ-दिल छोड़ लड़की के पास आया। बात कि तो हा हा हा मुँह से फूल कैसे सच-मुच के मोती झड़ते हैं। इतने में फिर जल-परी सामने आई। अब वो और ही शान से आई थी। शहज़ादा समझा कि ये लड़की की माँ है। उसने परी से लड़की की दरख़्वास्त की। जल-परी ने अहद-ओ-पैमाँ कर के लड़की को शहज़ादे के साथ कर दिया। शहज़ादा अपने माँ-बाप का इकलौता बेटा था। वो लड़की को अपने महल में ले गया। बहू को देखकर सास ससुरे बहुत ख़ुश हुए। बड़ी धूम-धाम से शादी हुई। बे-माँ-बाप की लावारिस लड़की को ख़ुदा ने उसके सब्र का फल दिया। बुढ़िया और बुढ़िया की ततैया सारी उम्र अपने तेहे में खौलती और मेंढकों ही के चक्कर में रही।
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