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मेरे खिलौने

इशरत मोईन सीमा

मेरे खिलौने

इशरत मोईन सीमा

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    आज नन्ही की चौथी सालगिरह थी। नानी अम्माँ नन्ही के लिए एक कपड़े की गुड़िया ख़ुद अपने हाथों से सी कर लाईं थीं। नन्ही को वो सुर्ख़ जोड़ा पहने हुई गुड़िया बहुत प्यारी लगी। उसने अपनी नानी अम्माँ को गले लगा कर शुक्रिया अदा किया और कहा, “नानी अम्माँ, बहुत शुक्रिया... आपका तोहफ़ा बहुत ख़ूबसूरत है।”

    नानी अम्माँ ने उसको ढेरों दुआएँ देते हुए कहा, “नन्ही बिटिया, इस गुड़िया को सँभाल कर रखना। ये गुड़िया तुम्हारी दोस्त है।”

    “ऐसा कैसे हो सकता है नानी अम्माँ? ये तो एक बे-जान खिलौना है और ये कैसे मेरी दोस्त हो सकती है? ये तो बे-जान है और बे-जान चीज़ें दोस्त कैसे हो सकती हैं?” नन्ही ने कहा।

    “तुम भूल रही हो बेटी कि बे-जान चीज़ें भी तवज्जो चाहती हैं। हम जिन चीज़ों के साथ अपना दिल बहलाने के लिए वक़्त गुज़ारते हैं उन्हें अगर सँभाल कर रखा जाए तो वो नाराज़ भी हो जाती हैं। ये चीज़ें बिलकुल ऐसी ही हैं जैसे तुम्हारे दोस्त होते हैं। जैसे तुम्हारी सहेली मुन्नी... वैसे वो आज मुझे सालगिरह पर दिखाई नहीं दे रही।” नानी ने नन्ही को अपनी गोद में बिठाया और अपनी नज़रें इधर-उधर घुमाते हुए बोलीं।

    नन्ही अपनी नानी अम्माँ की बातें ग़ौर से सुन कर बोली, “मेरी सहेली मुन्नी मुझसे नाराज़ नहीं है वो आज अपने दादा-दादी से मिलने गई हुई है। मैं कभी भी अपनी दोस्त को नाराज़ नहीं करूँगी और हमेशा अपनी नानी का तोहफ़ा सँभाल कर रखूँगी।”

    नानी अम्माँ नन्ही की बातें सुन कर ख़ुश हो गईं और उसको प्यार करते हुए ढेरों दुआएं देने लगीं।

    नन्ही ने मगर दिल में सोचा कि भला ये गुड़िया मेरी सहेली मुन्नी जैसी कैसे हो सकती है, मेरी दोस्त तो मेरे साथ दौड़ती भागती बातें करती और खेलती है लेकिन ये कपड़े की गुड़िया तो कुछ भी नहीं करती। ये भला मेरी सहेली कैसे बन सकती है। ये ही सोचते हुए उसने गुड़िया को उठा कर अपने कमरे में खिलौनों के एक रेक पर सजा दिया। कुछ ही देर में नन्ही के अब्बू भी केक ले कर गए। नन्ही ने केक काटा और उसकी अम्मी, अब्बू और नानी ने मिल कर सालगिरह का गाना नन्ही के लिए गाया। नन्ही बहुत ख़ुश थी कि अगरचे उसकी पक्की सहेली मुन्नी उसके साथ आज नहीं है लेकिन फिर भी उसकी नानी, अब्बू और अम्मी ने उसके साथ सालगिरह बहुत अच्छी मनाई।

    नन्ही के अम्मी और अब्बू ने एक बहुत प्यारा फ़्रॉक और चाबी से चलने वाला बंदर उसे तोहफ़े में दिया था। नानी ने उसके लिए उसका पसंदीदा हलवा भी पकाया था और साथ ही एक लाल लिबास में कपड़े की प्यारी गुड़िया सी कर दी थी। नन्ही को ये सारे तोहफ़े बहुत अच्छे लगे थे लेकिन चाबी से चलने वाला और ढोल बजाने वाला बंदर उसको बहुत पसंद आया। वो हर-रोज़ किंडर-गार्डन जाने से पहले, आने के बाद अपने बंदर से खेलती रहती और घर में हर जगह बार-बार चाबी चला कर उसको नाचने और ढोल बजाने में मसरूफ़ रखती। कभी वो बंदर को ज़ोर से उछाल कर नाचते-नाचते ज़मीन पे गिरा देती लेकिन बंदर फिर भी ढोल बजाता रहता और कभी वॉश-बेसिन में मुँह धोते वक़्त उसे बाथ-टब में डाल देती।

    उसकी गुड़िया मगर वैसे ही खिलौने की रेक पर सजी रहती। जब वो गुड़िया से खेलने का सोचती तो उसे ये एहसास होता कि ये गुड़िया नाच सकती है और ही कोई हरकत करती है, कम अज़ कम आँखें बंद और खोल लेती तो वो उसके साथ सोने-जागने का ही कोई खेल खेलती। नानी अम्माँ का दूसरा तोहफ़ा यानी वो हलवा तो उसने दो दिन ही में खा कर ख़त्म कर दिया था और अम्मी-अब्बू की लाई उसकी प्यारी फ़्रॉक उसे अलमारी में हैंगर में लगा कर लटका कर दी थी. और दिन गिन रही थी कि उसकी सहेली मिनी अपने दादा दादी से मिल कर वापिस अपने घर आए तो वो उसे पहन कर उसके घर जाए और अपना नाचने वाला बंदर उसको दिखाए।

    हाँ गुड़िया के बारे में वो सोचती थी कि मुन्नी मेरी नानी के इस तोहफ़े का मज़ाक़ बनाएगी इसलिए उसके बारे में वो मनि को कुछ नहीं बताएगी।

    नन्ही के चाबी वाले बंदर ने एक दिन अचानक चलना और नाचना बंद कर दिया। हुआ कुछ यूँ कि नन्ही ने अपना बंदर सीढ़ियों पे चाबी दे कर ज़ीना उतरने के लिए रखा तो वो लुढ़कता हुआ सीढ़ियों से नीचे गिरा शायद इसी में उस नाचने और ढोल बजाने वाले बंदर की चाबी ख़राब हो गई थी और उसकी कमर से बंधा ढोल निकल कर बाहर गया और उस का सर भी धड़ से अलग हो गया।

    नन्ही के अब्बू ने उस बंदर की चाबी ठीक करने और बंदर के सर को जोड़ने की कोशिश की लेकिन बंदर नहीं नाचा और ही ढोल बजा सका और उसका सर भी दुबारा उसके जिस्म से जुड़ सका। उन्होंने नन्ही से कहा कि ये खिलौना तो टूट गया वो उसे नया खिलौना ला देंगे अभी वो अपनी गुड़िया ही से खेले। नन्ही को अपने खिलौने के टूटने पर दुख भी था और ग़ुस्सा भी। उसने वो बंदर अपने घर के कूड़ेदान में फेंक दिया और मजबूरन गुड़िया से खेलने के लिए उसे रेक से निकाला। लेकिन कपड़े की गुड़िया बोलती थी, नाचती थी और ना ही चलती थी। बंदर के मुक़ाबले में गुड़िया के साथ खेलना नन्ही को ज़्यादा नहीं भाया। कपड़े की उस गुड़िया के साथ खेलने में नन्ही को मज़ा नहीं रहा था। उसने ग़ुस्से में गुड़िया को भी एक थैली में डाल कर कमरे के अंदर ज़ोर से हवा में उछाल कर फेंका। वो खिड़की से टकराती हुई शायद वहीं कहीं कमरे में ज़मीन पे गिर गई।

    नन्ही बहुत उदास हो गई थी। लेकिन एक दो दिन बाद जैसे ही उसको ख़बर मिली कि मुन्नी वापिस अपने घर गई है तो उसने झट अलमारी से अपना लाल फ़्रॉक निकाल कर पहना और पड़ोस में अपनी सहेली मुन्नी के यहाँ खेलने और उससे मिलने चली गई।

    दोनों सहेलियाँ बहुत दिनों के बाद मिलीं थीं और शाम को इकट्ठे खेल रही थीं। मुन्नी के पास बहुत से खिलौने थे। उसने अपनी खिलौनों की अलमारी से कुछ पुराने खिलौने निकाले, जैसे गेंद, छोटी-छोटी चाय की प्यालियाँ और प्लेटें और अपना टेडी बियर, कुछ देर वो दोनों गेंद से बाग़ीचे में खेलती रहीं। फिर कमरे में कर झूट-मूट की चाय बनाई और टेडी के साथ नन्ही और मुन्नी ने मेहमान-मेज़बान का खेल खेला।

    शाम को जब नन्ही अपने घर जाने के लिए अपने जूते पहनने लगी तो मुन्नी ने उससे कहा, “नन्ही आओ पहले हम अपने खिलौने उठा कर उन्हें साफ़ कर के वापस खिलौनों की अलमारी में रख दें ताकि जब हम दुबारा खेलें तो चाय की प्यालियाँ भी साफ़ हों और गेंद पर भी बाहर की मिट्टी लगी हो... अगर हमने अपने खिलौनों को सँभाल कर और साफ़ करके नहीं रखा तो वो हमसे नाराज़ हो जाएँगे और हमसे दूर चले जाएँगे।”

    नन्ही ने मुन्नी की बात सुन कर हंसते हुए कहा, “अरे ये बे-जान खिलौने कैसे नाराज़ हो सकते हैं? और ख़ुद से कहाँ जा सकते हैं? लेकिन मैं फिर भी तुम्हारी मदद करती हूँ खिलौनों को वापस उनकी जगह पर साफ़ करके रखने के लिए।”

    ये कह कर नन्ही जो अपने घर जाने के लिए निकलने वाली थी रुक गई और अपने जूते उतारे और घर की चप्पल पहन कर मुन्नी के साथ उसके खिलौने समेट कर और साफ़ कर के अलमारी में रखने लगी। कुछ देर बाद दोनों सहेलियों ने एक दूसरे को ख़ुदा-हाफ़िज़ कहा और नन्ही अपने घर चली गई।

    नन्ही घर कर बहुत देर तक मुन्नी की बातें याद करती रही। उसे ऐसा लगा कि मुन्नी ठीक ही कह रही थी। शायद उसने अपना बंदर सँभाल कर नहीं रखा था तब ही वो नाराज़ हो कर टूट गया। नन्ही को याद आने लगा कि उसने बंदर को कभी खाने की मेज़ के नीचे, कभी सीढ़ियों पे और कभी ग़ुस्ल-ख़ाने में ख़ूब चलाया और वहीं छोड़ दिया। शायद ग़ुस्ल-ख़ाने में उसमें पानी चला गया हो। उसने बंदर की कभी सफ़ाई नहीं की, साथ ही वो याद करने लगी कि उसने ख़ुद ही बंदर को चाबी लगा कर सीढ़ियों से नीचे गिराया था। जिसके नतीजे में वो टूट-फूट कर कई टुकड़ों में बट गया।

    नन्ही को अचानक अपनी गुड़िया का ख़्याल आया वो भाग कर अपने कमरे में गई। कमरा साफ़-सुथरा था और उसके कमरे का डस्ट-बिन भी साफ़ था। उसने बिस्तर के पास, अलमारी के नीचे और अपनी मेज़ के पास गुड़िया की थैली तलाश की। लेकिन वो थैली उसको कहीं नज़र नहीं आई जिसमें उसने अपनी गुड़िया को डाल कर ज़ोर से ज़मीन पे फेंक दिया था। वो तक़रीबन भागती हुई अपनी अम्मी-अब्बू के कमरे में आई। उसकी अम्मी कमरे में नहीं थीं। नन्ही ने अपने अब्बू से पूछा कि, “अम्मी कहाँ हैं अब्बू? मेरे कमरे में एक थैली पड़ी थी वो कहाँ गई?”

    उसके अब्बू ने कंधे उचकाते हुए कहा, “कैसी थैली? मुझे तो नहीं मालूम लेकिन अभी तुम्हारी अम्मी घर भर की सफ़ाई करने के बाद सारा कूड़ा-करकट कूड़े उठाने वाली गाड़ी में डालने गई हैं।”

    नन्ही ने जैसे ही ये सुना तो तेज़ी से बाहर जाने वाले दरवाज़े की सिम्त दौड़ी। उसकी अम्मी उसी वक़्त हाथ झाड़ते हुए घर में दाख़िल हो रही थीं। उनके हाथ में एक वैसी ही ख़ाली थैली थी जैसी उसने सुबह दराज़ से निकाली थी और उसमें अपनी कपड़े की गुड़िया को लपेट कर अपने कमरे के कोने में डाल दिया था। वो रुहाँसी हो कर बोली, “अम्मी आपने मेरी गुड़िया भी ट्रक कूड़ेदान में फेंक दी?”

    इसकी अम्मी ने कहा, “गुड़िया! कौन सी गुड़िया? मैंने तो तुम्हारे कमरे की ज़मीन पे फैले हुए टूटे खिलौने और थैलियाँ जमा करके कूड़े वाले ट्रक में डाली हैं। तुम अपनी चीज़ों को सँभाल कर क्यों नहीं रखतीं? अब शाम हो रही है हम सुबह तुम्हारी गुड़िया तलाश करेंगे।”

    अगला दिन इतवार का था। नन्ही की नानी हर इतवार की सुबह नन्ही के घर आया करती थीं। नन्ही नानी के आने से बहुत ख़ुश थी। हर इतवार को नन्ही अपनी नानी के साथ ख़ूब बातें करती, खेलती और उनके हाथ के पके हलवे खाती।

    हर इतवार की शाम को जब मुन्नी और नन्ही के वालदैन एक साथ चहल-क़दमी के लिए जाते तो मुन्नी और नन्ही दोनों मिल कर नानी के पास बैठ जातीं और उनसे कहानियाँ सुनतीं।

    नन्ही सारे हफ़्ते इतवार का ख़ूब इंतिज़ार करती। ये दिन उसका पसंदीदा दिन था। लेकिन इस इतवार को नन्ही दुआ कर रही थी कि नानी आएं। वो उन्हें कैसे बताएगी कि उनका तोहफ़ा मैंने कूड़ेदान में फेंक दिया।

    उस इतवार को नन्ही और मुन्नी के वालदैन चहल-क़दमी के लिए भी इकट्ठे नहीं गए। अलबत्ता मुन्नी नन्ही के पास खेलने के लिए सुबह ही से गई।

    मुन्नी को भी नन्ही की नानी अम्माँ का इंतिज़ार था। क्योंकि वो उन दोनों को मज़े-मज़े की कहानियाँ सुनाती थीं। मुन्नी अपना टेडी-बियर अपने साथ लाई थी। वो अपने टेडी-बियर को गोद में सँभालते हुए नन्ही से बोली, “तुमने बताया था कि सालगिरह पर तुम्हें तुम्हारी नानी ने एक गुड़िया भी दी थी वो कहाँ है? और तुम्हारा बंदर जो चाबी से चलता है वो भी लाओ ताकि हम दोनों अपने-अपने खिलौनों से खेल सकें।”

    नन्ही ने उदासी से जवाब दिया, “मेरा बंदर तो सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए टूट गया और वो कपड़े की गुड़िया बोलती चलती है और आँखें झपकती है। उससे खेलने में क्या मज़ा आएगा। चलो हम तुम्हारे टेडी बियर से खेलते हैं।” नन्ही ने सिटपिटा कर जवाब दिया।

    “कोई बात नहीं मेरा टेडी-बियर कौन सा बोलता है और चलता है। लेकिन मैं हर वक़्त उसको अपने साथ रखती हूँ, जब तुम मेरे साथ नहीं होती हो तो उसके साथ खेलने में मुझे बहुत मज़ा आता है। ये भी मेरा पक्का दोस्त है।” मुन्नी ने अपने टेडी-बियर को प्यार से गोद में सँभालते हुए कहा।

    नन्ही को अपनी गुड़िया याद आने लगी। सच कहा था नानी अम्माँ ने कि अगर अपने खिलौनों को सँभाल कर रखो तो वो रूठ जाते हैं। नन्ही की आँखों में पछतावे से आँसू गए। मुन्नी उसको ग़ौर से देख रही थी कि इतनी देर में दरवाज़े पर घंटी बजी और नन्ही की अम्मी ने दरवाज़ा खोला तो नानी अम्माँ अपना बड़ा सा बैग सँभाले सलाम करती हुई अंदर दाख़िल हुईं।

    “क्या हाल है नन्ही का और मेरी मुन्नी का?” नानी अम्माँ ने दोनों बच्चियों को गले लगाते हुए कहा।

    मुन्नी अभी कुछ कहना चाहती ही थी कि नन्ही नदामत और अफ़सोस के एहसास से रो पड़ी और कहने लगी, “मुझे माफ़ कर दें नानी अम्माँ मैंने अपनी गुड़िया की हिफ़ाज़त नहीं की उसको सँभाला भी नहीं... बल्कि उसको शायद कूड़ेदान में फेंक दिया... मेरी पक्की दोस्त, मेरी गुड़िया उऊँ... ऊऊँ...”

    नन्ही अपनी दोनों मुट्ठियों से आँखें मल कर रोने लगी। नानी अम्माँ इस सूरत-ए-हाल से घबरा कर उसे चुम्कारते हुए बोलीं, “कोई बात नहीं मेरी नन्ही बेटी अब तुम्हें पता चल गया है कि तोहफ़े चाहे मन-पसंद हों या नहीं वो मुहब्बत का इज़हार होते हैं उन्हें सँभाल कर रखना चाहिए... और वो कपड़े की गुड़िया जो बोलती, नाचती और चलती है, वो तुम्हारी हर वक़्त की साथी है और पक्की दोस्त है। लेकिन तुम्हारी एक दोस्त मुन्नी भी है जो तुम्हारे साथ खेलती है नाचती है और बोलती है। ये दोस्त ख़ुदा का तोहफ़ा होते हैं उनको भी सँभाल कर रखना ज़रूरी होता है।”

    ये कहते हुए नानी अम्माँ ने अपना बैग खोला और अंदर से नन्ही की लाल फ़्रॉक पहनी कपड़े की गुड़िया निकाल कर नन्ही को दी।

    “ये आपके पास कैसे आई?” नन्ही ने अपनी गुड़िया को गोद में लेते हुए ख़ुशी से पूछा।

    “ये गुड़िया बाहर लॉन में एक थैली से आधी निकली हुई पड़ी थी... शायद तुमने अपने कमरे की खिड़की से इसे बाहर फेंका था। मुझे अभी घर में दाख़िल होते हुए नज़र आई तो मैं इसे साफ़ करती हुई ले आई। सोचा था कि तुमसे पूछूँगी और समझाऊँगी कि अपनी चीज़ें यूँ नहीं फेंकते और तोहफ़े तो यूँ भी सँभाल कर रखते हैं। लेकिन तुम अब अपनी हरकत पे ख़ुद ही नादिम हो तो चलो इस बात को भूल जाते हैं और तुम को माफ़ करते हैं।”

    नानी अम्माँ की बात सुन कर नन्ही उनके गले लग गई और वादा किया कि अब हमेशा अपने खिलौनों की हिफ़ाज़त मुन्नी की तरह करेगी और बे-जान खिलौनों और तोहफ़े की भी क़द्र हमेशा करेगी।

    नन्ही, मुन्नी, गुड़िया और टेडी अब पक्के दोस्त हैं और सब मिल कर नानी अम्माँ से कहानियाँ सुनते हैं।

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