विकास शर्मा राज़ के शेर
मुझ को अक्सर उदास करती है
एक तस्वीर मुस्कुराती हुई
इरादा तो नहीं है ख़ुद-कुशी का
मगर मैं ज़िंदगी से ख़ुश नहीं हूँ
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एक बरस और बीत गया
कब तक ख़ाक उड़ानी है
मुद्दतें हो गईं हिसाब किए
क्या पता कितने रह गए हैं हम
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कौन तहलील हुआ है मुझ में
मुंतशिर क्यूँ हैं अनासिर मेरे
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टैग : अनासिर
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मेरी कोशिश तो यही है कि ये मा'सूम रहे
और दिल है कि समझदार हुआ जाता है
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ऐसी प्यास और ऐसा सब्र
दरिया पानी पानी है
रफ़्ता रफ़्ता क़ुबूल होंगे उसे
रौशनी के लिए नए हैं हम
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ये सदा काश उसी ने दी हो
इस तरह वो ही बुलाता है मुझे
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तू भी नाराज़ बहुत है मुझ से
ज़िंदगी तुझ से ख़फ़ा हूँ मैं भी
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मोहब्बत के आदाब सीखो ज़रा
उसे जान कह कर पुकारा करो
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टैग : इश्क़
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फ़क़त ज़ंजीर बदली जा रही थी
मैं समझा था रिहाई हो गई है
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यहाँ तक कर लिया मसरूफ़ ख़ुद को
अकेली हो गई तन्हाई मेरी
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देखना चाहता हूँ गुम हो कर
क्या कोई ढूँड के लाता है मुझे
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जिन का सूझा न कुछ जवाब हमें
उन सवालों पे हँस दिए हम लोग
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इश्क़ बीनाई बढ़ा देता है
जाने क्या क्या नज़र आता है मुझे
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टैग : बीनाई
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तन्हा होता हूँ तो मर जाता हूँ मैं
मेरे अंदर तू ज़िंदा हो जाता है
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मिरी उरूज की लिक्खी थी दास्ताँ जिस में
मिरे ज़वाल का क़िस्सा भी उस किताब में था
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मैं तो किसी जुलूस में गया नहीं
मिरा मकान क्यूँ जला दिया गया
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असर है ये हमारी दस्तकों का
जहाँ दीवार थी दर हो गया है
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हमारे दरमियाँ जो उठ रही थी
वो इक दीवार पूरी हो गई है
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उसे छुआ ही नहीं जो मिरी किताब में था
वही पढ़ाया गया मुझ को जो निसाब में था
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मेरी कोशिश तो यही है कि ये मासूम रहे
और दिल है कि समझदार हुआ जाता है
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टैग : व्हाट्सऐप
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घर से निकला था ख़ुद-कुशी करने
रेल के डब्बे गिन रहा हूँ मैं
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टैग : ख़ुदकुशी
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जिसे देखो ग़ज़ल पहने हुए है
बहुत सस्ता ये ज़ेवर गया है
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ज़िंदगी की हँसी उड़ाती हुई
ख़्वाहिश-ए-मर्ग सर उठाती हुई
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लफ़्ज़ की क़ैद-ओ-रिहाई का हुनर
काम आ ही गया आख़िर मेरे
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दश्त की ख़ाक भी छानी है
घर सी कहाँ वीरानी है
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एक किरन फिर मुझ को वापस खींच गई
में बस जिस्म से बाहर आने वाला था
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घर में वही पीली तन्हाई रहती है
दीवारों के रंग बदलते रहते हैं
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रोज़ ये ख़्वाब डराता है मुझे
कोई साया लिए जाता है मुझे
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में अदम की पनाह-गाह में हूँ
छू भी सकती नहीं हयात मुझे
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ज़मीन बेच के ख़ुश हो रहे हो तुम जिस को
वो सारे गाँव को बाज़ार करने वाला है
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हवा के वार पर अब वार करने वाला है
चराग़ बुझने से इंकार करने वाला है
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बला का हब्स था पर नींद टूटती ही न थी
न कोई दर न दरीचा फ़सील-ए-ख़्वाब में था
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ज़रा सा ध्यान क्या भटका हमारा
हमीं पर आ गिरा मलबा हमारा
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सभी को रास्ता बता दिया गया
यूँ मंज़िलों का क़द घटा दिया गया
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बिछड़ने का हमें इम्कान तो था
मगर अब दिन मुक़र्रर हो गया है
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मैं तो किसी जुलूस मैं गया नहीं
मिरा मकान क्यों जला दिया गया
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पुजारी हैं अज़ल से 'मीर'-जी के
वही हम हैं वही क़श्क़ा हमारा
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टैग : मीर तक़ी मीर
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कोई उस के बराबर हो गया है
ये सुनते ही वो पत्थर हो गया है
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