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रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : अब्दुल हलीम शरर

प्रकाशक : दिलगुदाज़ प्रेस, लख़नऊ

प्रकाशन वर्ष : 1916

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : व्याख्यान, संगीत

पृष्ठ : 37

सहयोगी : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द), देहली

हिन्दुस्तान की माैसीक़ी
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पुस्तक: परिचय

فنون لطیفہ سے عبد الحلیم شرر کو گہرا ربط تھا ، انھوں نے رقص ، موسیقی اور ٹھیٹر کے حوالے سے دل گداز میں کافی مضامین بھی لکھے تھے ، زیر نظر کتاب "ہندوستان کی موسیقی" شرر کا وہ خطبہ ہے جو انھوں نے مہاراجہ بڑودہ کی فرمائش پر ایک میوزک کانفرنس میں پڑھا تھا ، اس خطبے میں انھوں نے موسیقی کی اصلیت ہیئت ، ہندی ومسیقی ، ظہور اسلام سے قبل اور بعد عربی موسیقی ، اور ایرانی ومسیقی پر مختصر لیکن مدلل انداز مین لکھا ہے۔ وہ اس خظبے میں عربی و عجمی موسیقی کے نغمات کی ایک جامع فہرست دیتے ہیں اور ایسی دھنوں کے ترک کرنے کے حق میں ہیں جو ہندوتانی نظام موسیقی سے ہم آہنگ نہیں ، پارسی تھیٹریکل کمپنیوں اور مغربی موسیقی کے تحت رائج ہونے والی دھنوں کے وہ شدیدی مخالف ہیں ، حکومت کے زیر سر پرستی وہ ایک اعلی درجے کے "کانسرٹ" کے قیام کی سفارش کرتے ہیں ، انھوں اس خطبہ میں اپنا خیال ظاہر کیا کہ اس کانسرٹ کی نگرانی میں موسیقی کی عام معیار بندی اور خط موسیقی مرتب کیے جا سکیں گے۔

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लेखक: परिचय

उर्दू ज़बान का ऑस्कर वाइल्ड
 
“अगर आप उर्दू ज़बान के सच्चे हमदर्द हैं तो हिंदू-मुसलमानों में इत्तफ़ाक़ पैदा करने की कोशिश कीजिए वर्ना वही अंजाम होगा जो माँ-बाप की आपसी लड़ाई और झगड़े फ़साद से उनके बच्चों का होता है।”
 अब्दुल हलीम शरर (ख़ुतबा)

अब्दुल हलीम शरर उर्दू के उन अदीबों में हैं जिन्होंने उर्दू शे’र-ओ-अदब में अनगिनत नए और कारा॓मद रूपों से या तो परिचय कराया या विश्वसनीयता और विशेषाधिकार प्रदान किया। उन्होंने अपनी अदबी ज़िंदगी के आग़ाज़ में ही दो ड्रामे “मेवा-ए-तल्ख़”(1889) और “शहीद-ए-वफ़ा”(1890) लिखे। उनके जैसे छन्दोबद्ध ड्रामे उनसे पहले नहीं लिखे गए थे। शरर ने अपने नाविलों “फ़तह ए अंदलुस” और “रोमत उल कुबरा” पर भी दो संक्षिप्त छन्दोबद्ध ड्रामे लिखे। छन्दोबद्ध नाट्य लेखन और आज़ाद (बिना क़ाफ़िया) नज़्म के पुरजोश प्रचारक उर्दू में शरर हैं। उनका ख़्याल था कि जो काम छंद हीन कविता से लिया जा सकता है वो ग़ज़ल समेत किसी अन्य काव्य रूप से नहीं लिया जा सकता। उनके नज़दीक रदीफ़ तो शायर के पैर की बेड़ी है ही, क़ाफ़िया भी उसकी सोच पर पाबंदियां लगाता है। उनकी ये सोच अपने ज़माने से बहुत आगे की सोच थी। शरर उर्दू की ''उर्दू वियत” पर-ज़ोर देते थे। उनका कहना था कि जो लोग उर्दू व्याकरण और वाक्यविन्यास का संकलन करते हैं वो अरबी नियमों से मदद लेते हैं लेकिन वो बड़ी ग़लती करते हैं, अरबी के व्याकरण हमारी ज़बान पर हरगिज़ पूरे नहीं उतरते। शरर बहुत ही विपुल लेखक थे। सामाजिक और ऐतिहासिक उपन्यास, हर प्रकार के निबंध, आत्मकथाएँ, नाटक, शायरी, पत्रकारिता और अनुवाद, अर्थात कोई भी मैदान उनके लिए बंद नहीं था। लेकिन उनका असल जौहर ऐतिहासिक उपन्यासों और आलेख में खुला है। आज़ाद नज़्म का इतिहास भी उनकी मौलिकता और दूरदर्शिता को स्वीकार किए बिना पूरा नहीं होगा।

अब्दुल हलीम शरर 1860 में लखनऊ में पैदा हुए। उनके वालिद का नाम तफ़ज़्ज़ुल हुसैन था और वो हकीम थे। शरर के नाना वाजिद अली शाह की सरकार में मुलाज़िम थे और वाजिद अली के अपदस्थ होने के बाद उनके साथ मटिया बुर्ज चले गए थे। बाद में उन्होंने शरर के वालिद को भी कलकत्ता बुला लिया। शरर लखनऊ में रहे और पढ़ाई की तरफ़ मुतवज्जा नहीं हुए तो उनको भी मटिया बुर्ज बुला लिया गया जहां उन्होंने वालिद और कुछ दूसरे विद्वानों से अरबी, फ़ारसी और तिब्ब पढ़ी। शरर ज़हीन और बेहद तेज़ तर्रार थे, जल्द ही उन्होंने शहज़ादों की महफ़िलों में रसाई हासिल कर ली और उन ही के रंग में रंग गए। मटिया बुर्ज के प्रवास के दौरान उन्होंने बटेर बाज़ी से लेकर जितनी “बाज़ियां” होती हैं सब खेल डालीं। जब मुआमला बदनामी की हद तक पहुंचा तो वालिद ने उनको लखनऊ वापस भेज दिया। लखनऊ में उन्होंने अपनी रंगीन मिज़ाजियों के साथ शिक्षा का सिलसिला जारी रखा। उनका कुछ झुकाओ अहल-ए-हदीस की तरफ़ था। लखनऊ में उस ज़माने में शास्त्रार्थों का ज़ोर था। ज़रा ज़रा सी बात पर कोई एक समुदाय दूसरे को शास्त्रार्थ की दावत दे बैठता था। शरर भी उन शास्त्रार्थों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने लगे और उन पर मज़हबीयत सवार होने लगी। वो हदीस की और तालीम हासिल करने के लिए दिल्ली जाना चाहते थे। वहां मियां नज़ीर हुसैन मुहद्दिस की शोहरत थी। घर वालों ने उन्हें रोकने के लिए 18 साल की उम्र में ही उनकी शादी करा दी लेकिन वो अगले ही साल दिल्ली जा कर नज़ीर हुसैन के शिक्षण मंडली में शामिल हो गए। दिल्ली में उन्होंने स्वयं से अंग्रेज़ी भी पढ़ी। 1880 में दिल्ली से वो बिल्कुल ज़ाहिद-ए-ख़ुश्क बन कर लौटे। लखनऊ में वो मुंशी नवल किशोर के “अवध अख़बार” के पत्रकार कर्मियों में शामिल हो गए। यहां उन्होंने अनगिनत लेख लिखे। “रूह” विषय पर उनके एक लेख के विचारों को अपनी व्याख्या में शामिल करने के लिए सर सय्यद अहमद ख़ान ने उनकी अनुमति मांगी। “अवध अख़बार” की मुलाज़मत के दौरान ही उन्होंने एक दोस्त के नाम से एक पाक्षिक “मह्शर” जारी किया जो बहुत लोकप्रिय हुआ तो नवलकिशोर ने उनको “अवध अख़बार” का विशेष प्रतिनिधि बना कर हैदराबाद भेज दिया। इस तरह “मह्शर” बंद हो गया। शरर ने लगभग 6 महीने हैदराबाद में गुज़ारने के बाद इस्तीफ़ा दे दिया और लखनऊ वापस आ गए। 1886 में शरर ने बंकिमचन्द्र चटर्जी के मशहूर उपन्यास “दुर्गेश नंदिनी” के अंग्रेज़ी अनुवाद को उर्दू में रूपांतरित किया और इसके साथ ही अपना रिसाला “दिलगुदाज़” जारी किया जिसमें उनका पहला ऐतिहासिक उपन्यास “मलिक उल-अज़ीज़ वर्जना” क़िस्तवार प्रकाशित हुआ। उसके बाद उन्होंने “हुस्न अंजलीना” और “मंसूर मोहना” प्रकाशित किए जो बहुत लोकप्रिय हुए। 1892 में शरर नवाब वक़ार उल-मलिक के बेटे के शिक्षक बन कर इंग्लिस्तान चले गए। इंग्लिस्तान से वापसी के बाद उन्होंने हैदराबाद से ही “दिलगुदाज़” दुबारा जारी किया और यहीं उन्होंने अपनी अमर कृति “फ़िरदौस-ए-बरीं” लिखा। फिर जब उन्होंने अपनी ऐतिहासिक किताब “सकीना बिंत हुसैन” लिखी तो हैदराबाद में उनका बहुत विरोध हुआ और उनको वहां से निकलना पड़ा। लखनऊ वापस आकर उन्होंने “दिलगुदाज़” के साथ साथ एक पाक्षिक “पर्दा-ए-इस्मत” भी जारी किया। 1901 में शरर को एक बार फिर हैदराबाद तलब किया गया लेकिन जब वो इस बार हैदराबाद पहुंचे तो उनके सितारे अच्छे नहीं थे। उनके विशेष संरक्षक वक़ार उल-मलिक कोप भाजन का शिकार हो कर बरतरफ़ कर दिए गए और फिर उनका देहांत हो गया।1903 में शरर को भी मुलाज़मत से बरतरफ़ कर दिया गया। इस तरह 1904 में एकबार फिर “दिलगुदाज़” लखनऊ से जारी हुआ। लखनऊ आकर वो पूरी तन्मयता के साथ उपन्यास और आलेख लिखने में मसरूफ़ हो गए। उसी ज़माने में चकबस्त के साथ उनकी नोक झोंक हुई। चकबस्त ने दयाशंकर नसीम की मसनवी “ज़हर-ए-इश्क़” को नये सिरे से संपादित कर के प्रकाशित कराई थी। उस पर “दिलगुदाज़” में समीक्षा करते हुए शरर ने लिखा कि इस मसनवी में जो भी अच्छा है उसका क्रेडिट नसीम के उस्ताद आतिश को जाता है और ज़बान की जो ख़राबी और मसनवी में जो अश्लीलता है उसके लिए नसीम ज़िम्मेदार हैं। इस पर दोनों तरफ़ से गर्मा गर्म बहसें हुईं। “अवध पंच” मैं शरर का मज़ाक़ उड़ाया गया लेकिन मुआमला इंशा और मुसहफ़ी या आतिश व नासिख़ के नोक झोंक की हद तक नहीं पहुंचा। “दिलगुदाज़” में शरर ने पहली बार आज़ाद नज़्म के नमूने भी पेश किए और उर्दू जाननेवाले लोगों को अंग्रेज़ी शे’र-ओ-अदब के नए रुझानात से परिचय कराया। दिसंबर 1926 को उनका स्वर्गवास हो गया।

इतिहास के बारे में शरर की अवधारणा पुनरुत्थानवादी थी। वाल्टर स्काट की तरह उन्होंने भी अपने ऐतिहासिक उपन्यासों में क़ौम के सांस्कृतिक व राजनीतिक उत्थान की दास्तानें सुना कर उसे जागृति और कर्म का संदेश दिया और अच्छे मूल्यों पर जीवन स्थापित करने का प्रयास किया। शरर ने ऐतिहासिक उपन्यास और हर प्रकार के विषयों पर एक हज़ार से अधिक आलेख लिख कर साबित किया कि वो उर्दू के दामन को मालामाल करने की भावना से कितने परिपूर्ण थे। नए हालात और पढ़ने वालों के मिज़ाज में तबदीली के साथ उनकी तहरीरें अब पहली जैसी ताज़गी से महरूम हो गई हैं लेकिन उनकी कम से कम दो किताबें “फ़िरदौस-ए-बरीं” और “गुज़िश्ता लखनऊ” की ऊर्जा और सौंदर्य में कोई कमी नहीं आई है। दो किताबों की नित्यता किसी भी लेखक के लिए काबिल रश्क हो सकती है।

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