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रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : अब्दुल माजिद दरियाबादी

प्रकाशक : नसीम बुक डिपो, लखनऊ

प्रकाशन वर्ष : 1962

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : लेख एवं परिचय

उप श्रेणियां : लेख

पृष्ठ : 307

सहयोगी : जामिया हमदर्द, देहली

insha-e-majid
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पुस्तक: परिचय

مو لانا عبدالماجد دریا بادی کا نام اردو ادب اور انشاء پردازی میں محتاج تعارف نہیں۔وہ ایک عظیم ادیب اور صاحب طرز انشاء پرداز ہیں۔ ان کی کوئی بھی تحریر ادب اور زبان کی چاشنی سے خالی نہیں۔مولانا جس موضوع پر لکھتے تھے اپنی انفرادیت برقرار رکھتے تھے،اور موضوع کی مناسبت سےطرز تحریر کا انتخاب کرتے تھے،موضوع کتنا ہی پیچیدہ کیوں نہ ہومولانا کی طرز بیان کی دلآویز ی برقرا رہتی۔ مولانا کی تمام تحریریں اردو ادب میں ادب عالیہ کی حیثیت رکھتی ہیں ، اور ان کاشمار اردو کے بہترین ادیبوں میں کیا جاتا ہے۔زیر نظر کتاب "انشائے ماجدی "ان کے ادبی نوشتوں کا حصہ اول ہے، جس میں ان کے مقالے،مقدمےاور کتابوں پر تبصرے موجود ہیں۔ کتاب میں شامل تمام مضامین پرلطف اور دلچسپ ہیں۔ ان مضامین میں مذکورہ تمام خوبیاں پائی جاتی ہیں۔

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लेखक: परिचय

मौलाना अब्दुल माजिद दरियाबादी हमारे समय के प्रसिद्ध लेखक और पत्रकार गुज़रे हैं। दर्शनशास्त्र उनका प्रिय विषय है। उन्होंने दर्शन से सम्बंधित किताबों के अनुवाद भी किए और ख़ुद भी किताबें लिखीं। उनके लेखन शैली को भी सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था।

अब्दुल माजिद 1892ई. में दरियाबाद ज़िला बाराबंकी में पैदा हुए। यहीं आरंभिक शिक्षा हुई। उर्दू, फ़ारसी और अरबी घर पर ही सीखी। फिर सीतापुर के एक स्कूल में दाख़िला लिया और मैट्रिक का इम्तिहान पास किया। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए लखनऊ गए और बी.ए में कामयाबी हासिल की। उनके पिता डिप्टी कलेक्टर थे। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए वातावरण अनुकूल था। छात्र जीवन के आरंभिक दिनों से ही अध्ययन का शौक़ पैदा हो गया था। किताबें पढ़ने में ऐसा दिल लगता था कि दोस्तों से मिलना-जुलना भी नागवार होता था। अपने छात्र जीवन से ही लेख भी लिखने लगे थे। ये आलेख उस ज़माने की अच्छी पत्रिकाओं में छप कर दाद पाते थे और लेखक को प्रोत्साहित किया जाता था। 
बाप का साया सर से उठ जाने के बाद जीविकोपार्जन की चिंता हुई। पहले तो लेख लिखकर जीविकोपार्जन करना चाहा मगर इसमें पूरी तरह सफलता नहीं मिली। फिर मुलाज़मत की तरफ़ मुतवज्जा हुए मगर कोई नौकरी लम्बे समय तक चलने वाली साबित नहीं हुई। आख़िरकार हैदराबाद चले गए। वहीं अपनी मशहूर किताब “फ़लसफ़-ए-जज़्बात” लिख कर अकादमिक हलकों में प्रसिद्धि और ख्याति प्राप्त की। उस समय तक उर्दू में फ़लसफ़े के विषय पर बहुत कम लिखा गया था। मौलाना ने फ़लसफ़े के विषय पर ख़ुद भी किताबें लिखीं और कुछ महत्वपूर्ण किताबों का अनुवाद भी किया। “मुकालमात-ए-बर्कले” उनकी महत्वपूर्ण उपलब्धि है।

मौलाना का विशेष क्षेत्र पत्रकारिता है। उन्होंने कई उर्दू अख़बारों के संपादन किए। उनमें हमदम, हमदर्द, हक़ीक़त उल्लेखनीय हैं। उन्होंने “सिद्क़” के नाम से अपना अख़बार भी जारी किया।

मौलाना की रचनाओं और अनुवादों का अध्ययन कीजिए तो यह तथ्य स्पष्ट होजाता है कि भाषा पर उन्हें पूरी महारत हासिल है। अनुवाद करते हैं तो इस तरह कि उस पर मूल रचना का भ्रम होता है। यही अनुवाद की विशेषता है। उनकी भाषा सादा, सरल और प्रवाहपूर्ण होती है। इसके बावजूद पूरी कोशिश करते हैं कि भाषा का सौन्दर्य बरक़रार रहे। कहीं बोली ठोली की भाषा इस्तेमाल करते हैं, कहीं पाठ के बीच में ख़ुद ही सवाल करते हैं और ख़ुद ही जवाब देते जाते हैं। विषय के अनुसार शब्दावली बदलती रहती है। दर्शनशास्त्र में विशेष रूचि इसे अधिक सुसंगत और तर्कयुक्त बनाती है।

फ़लसफ़-ए-जज़्बात, फ़लसफ़-ए-इज्तिमा, मुकालमात-ए-बर्कले उनकी यादगार कृतियाँ हैं।

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