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रद करें डाउनलोड शेर

लेखक : जमील मज़हरी

V4EBook_EditionNumber : 001

प्रकाशक : असग़रीया पब्लिकेशंस, इलाहाबाद

प्रकाशन वर्ष : 1979

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शाइरी

उप श्रेणियां : मर्सिया, क़सीदा

पृष्ठ : 185

सहयोगी : जामिया हमदर्द, देहली

irfan-e-jameel
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पुस्तक: परिचय

شاد عظیم آبادی اور یگانہ چنگیزی کے بعد بہار کے ممتاز ترین شعرا میں جمیل مظہری کا شمار ہوتا ہے۔جمیل مظہری کی مرثیہ نگاری منفردگردانی جاتی ہے۔انھوں نے نظم ،غزل ، گیت ،رباعیات ، قطعات اور مراثی میں طبع آزمائی کی بیسویں صدی میں فکری اعتبار سے جدید مرثیہ کی سب سے بڑی اور سب سے سنجیدہ آواز جمیل کی آواز ہے۔زیر نظر کتاب"عرفان جمیل" جمیل مظہری کے مرثیوں اور قصیدوں کا دل کش مجموعہ ہے۔

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लेखक: परिचय

सय्यद काज़िम अली नाम, जमील मज़हरी के नाम से शोहरत पाई। सन्1904 में पटना में पैदा हुए। उनके एक बुज़ुर्ग सय्यद मज़हर हसन अच्छे शायर हुए हैं। उनसे ख़ानदानी ताल्लुक़ पर सय्यद काज़िम अली को फ़ख़्र था। इसलिए जमील तख़ल्लुस इख़्तियार करने के साथ ही उस पर मज़हरी का इज़ाफ़ा किया। आरंभिक शिक्षा मोतिहारी और मुज़फ़्फ़रपुर में हासिल की। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए कलकत्ता चले गए। कलकत्ता में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, आग़ा हश्र, नसीर हुसैन ख़्याल और अल्लामा रज़ा अली वहशत जैसी हस्तीयों से लाभान्वित होने का मौक़ा मिला।

जमील मज़हरी ने 1931ई. में कलकत्ता यूनीवर्सिटी से एम.ए की डिग्री हासिल की। शिक्षा के दौरान ही शे’र कहना आरम्भ कर चुके थे। वहशत से त्रुटियाँ ठीक कराते थे। उस्ताद को अपने शागिर्द की सलाहियत का ज्ञान था। जल्द ही उन्हें स्वीकार करना पड़ा कि अब सुधार की ज़रूरत नहीं। शिक्षा समाप्त करने के बाद जमील मज़हरी ने पत्रकारिता के क्षेत्र में क़दम रखा। यह क्रम लगभग छः साल जारी रहा। इस दौरान उन्हें बहुत कुछ लिखने का मौक़ा मिला और क़लम में प्रवाह आया। इस तरह गद्य लेखन का शौक़ हुआ। राजनीतिक निबंध, विद्वत्तापूर्ण आलेख, उपन्यास और कहानियां ग़रज़ उन्होंने बहुत कुछ लिखा। “फ़र्ज़ की क़ुर्बानगाह पर” एक उपन्यास लिखा जो बहुत लोकप्रिय हुआ।

पत्रकारिता जीवन ने व्यावहारिक राजनीति का मार्ग प्रशस्त किया और 1937 में बिहार की कांग्रेस सरकार में पब्लिसिटी अफ़सर नियुक्त हो गए। सन्1942 में जब कांग्रेस सरकार ने इस्तीफ़ा दिया तो जमील मज़हरी भी पब्लिसिटी अफ़सर की ज़िम्मेदारी से अलग हो गए। आख़िरकार उन्होंने व्यावहारिक राजनीति के अभिशाप से किनारा कर लिया और पटना यूनीवर्सिटी में उर्दू के उस्ताद का पद स्वीकार कर लिया। सन्1964 में वो नौकरी से सेवानिवृत हो कर उर्दू शे’र-ओ-अदब की ख़िदमत के लिए समर्पित हो गए। ग़ज़लों का संग्रह “फ़िक्र-ए-जमील” और नज़्मों का संग्रह “नक़्श-ए-जमील” के नाम से प्रकाशित हुआ।

अल्लामा जमील मज़हरी ने नस्र की तरफ़ भी तवज्जा की और बहुत कुछ लिखा लेकिन उनका असल कारनामा शायरी है। अपने प्राचीन काव्य धरोहर का उन्होंने बहुत ध्यानपूर्वक अध्ययन किया है और अपनी क्लासिकी परम्परा से प्रभावित हुए हैं, इसलिए उनकी शायरी विषयवस्तु और शैली दोनों एतबार से प्राचीन और आधुनिक का संगम है। उनके कुछ शे’र यहाँ पेश किए जाते हैं;
लिखे न क्यों नक़्श पाए हिम्मत क़दम क़दम पर मिरा फ़साना
मैं वो मुसाफ़िर हूँ जिसके पीछे अदब से चलता रहा ज़माना
ये तेज़ गामों से कोई कह दे कि राह अपनी करें न खोटी
सुबुक रवी ने क़दम क़दम पर बना दिया है इक आस्ताना
ये कैसी महफ़िल है जिसमें साक़ी लहू प्यालों में बट रहा है
मुझे भी थोड़ी सी तिश्नगी दे कि तोड़ दूं ये शराबख़ाना

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