अपनी तबी’अतों में न ग़ुस्सा न ताव था
अपनी तबी’अतों में न ग़ुस्सा न ताव था
बे-इल्तिफ़ातियों के सबब ये स्वभाव था
आ'साब में तनाव दिलों में खिंचाव था
मौज़ू'-ए-गुफ़्तुगू यही बाज़ार भाव था
अपना वजूद भी कोई काग़ज़ की नाव था
बहता चला गया है जहाँ तक बहाव था
सादा थे ऐसे हम कि समझ ही नहीं सके
बातों में कैसा फेर था कैसा घुमाव था
गलियाँ वहीं हैं शहर वही रास्ते वही
वो लोग ही नहीं रहे जिन से लगाव था
अपने लिए सुने हुए क़िस्सों में था मज़ा
अहबाब के ख़ुलूस में ऐसा दबाव था
दुश्मन भी दुश्मनों की तरह मिल नहीं सका
अपने मिज़ाज में भी बड़ा रख-रखाव था
मजबूर यूँ हुए कि हमें याद ही नहीं
मैलान किस तरफ़ था किधर को झुकाव था
तारीख़ लिखने वालों से 'इक़बाल' पूछिए
अपने वतन में पहले भी क्या भेद-भाव था
स्रोत:
Beesvin Sadi Ke Shora-e-Dehli (Pg. 226)
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- प्रकाशक: उर्दू अकादमी, दिल्ली
- प्रकाशन वर्ष: 2005
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