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मीठे दो लफ़्ज़ों को हम प्यार समझ लेते हैं

लईक़ अकबर सहाब

मीठे दो लफ़्ज़ों को हम प्यार समझ लेते हैं

लईक़ अकबर सहाब

MORE BYलईक़ अकबर सहाब

    मीठे दो लफ़्ज़ों को हम प्यार समझ लेते हैं

    'इश्क़ में ख़ुद को गिरफ़्तार समझ लेते हैं

    ताइर-ए-'इश्क़ असीरी को समझते हैं बहार

    क़फ़स-ए-'इश्क़ को गुलज़ार समझ लेते हैं

    क़िस्सा-ए-'इश्क़ के आग़ाज़ से पहले जानाँ

    आओ इक दूजे के किरदार समझ लेते हैं

    हीर राँझे की तरह हम भी धोका खाएँ

    कौन है सच्चा तरफ़-दार समझ लेते हैं

    शीरीं फ़रहाद सा अंजाम होने पाए

    तोड़ना कैसे है कोहसार समझ लेते हैं

    बीच दरिया में नहीं कच्चे घड़े पर मरना

    कैसे लगना है हमें पार समझ लेते हैं

    संग-बारी की सज़ा लैला-ओ-मजनूँ ने सही

    हम ठहरेंगे सज़ा-वार समझ लेते हैं

    'इश्क़-ए-पाकीज़ा को रखना है बचा कर उन से

    वो जो यूसुफ़ को गुनहगार समझ लेते हैं

    ख़ुद-ग़रज़ लोग जहाँ 'इश्क़ से उक्ता जाएँ

    'इश्क़ को जान का आज़ार समझ लेते हैं

    रिफ़'अत-ए-फ़न उन्हें क़दमों में पड़ी मिलती है

    अपना किरदार जो फ़नकार समझ लेते हैं

    हुस्न की देवी का बे-वज्ह मेहरबाँ होना

    किसी साधू का चमत्कार समझ लेते हैं

    शा'इरी मेरी कहाँ उन को समझ आएगी

    ये भला कम है कि अख़बार समझ लेते हैं

    दाद देते हैं वही खुल के सुख़नवर को 'सहाब'

    जो सुख़न-फ़हमी से अश'आर समझ लेते हैं

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