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न कुछ आलिम समझते हैं न कुछ जाहिल समझते हैं

अमजद नजमी

न कुछ आलिम समझते हैं न कुछ जाहिल समझते हैं

अमजद नजमी

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    कुछ आलिम समझते हैं कुछ जाहिल समझते हैं

    मोहब्बत की हक़ीक़त को बस अहल-ए-दिल समझते हैं

    निशान-ए-मंज़िल-ए-मक़्सूद पा कर भी जो ठहरे

    उसी रहरव को हम आसूदा-ए-मंज़िल समझते हैं

    तिरे सहरा-नवर्दों का मज़ाक़-ए-जुस्तुजू तौबा

    ग़ुबार-ए-राह को ये पर्दा-ए-महमिल समझते हैं

    तुम्हीं से है ये नूर-ए-शम्अ' और ये सोज़-ए-परवाना

    तुम्हीं को अहल-ए-महफ़िल रौनक़-ए-महफ़िल समझते हैं

    दुनिया बाइ'स-ए-ग़फ़लत उक़्बा वज्ह-ए-हुश्यारी

    रहे जो तुझ से ग़ाफ़िल हम उसे ग़ाफ़िल समझते हैं

    यहाँ तो क़ाब़िल-ए-अफ़सोस हैं दुश्वारियाँ उन की

    तुम्हारी राह में मुश्किल को जो मुश्किल समझते हैं

    उन्हीं को तेरे तीर-ए-नीम-कश का लुत्फ़ आता है

    सीने को जो सीना और दिल को दिल समझते हैं

    गुल-ए-मक़्सूद से फिर क्यूँ उसे वो भर नहीं देते

    मिरे दामन को जब वो कासा-ए-साइल समझते हैं

    कोई समझे समझे इस हक़ीक़त को मगर 'नजमी'

    हम अपने दर्द-ए-दिल को इश्क़ का हासिल समझते हैं

    स्रोत:

    Joye Kahkashan (Pg. 141)

    • लेखक: अमजद नजमी
      • संस्करण: 1969
      • प्रकाशक: उड़ीसा साहित्य अकाडेमी, भुवनेश्वर
      • प्रकाशन वर्ष: 1969

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