रूह पर जिस्म कोई बार न समझा जाए
रूह पर जिस्म कोई बार न समझा जाए
ये हवस है सो इसे प्यार न समझा जाए
कोई ख़्वाबों में भी खोया हुआ हो सकता है
हर खुली आँख को बेदार न समझा जाए
कितनी बातें हमें समझाई गई होती हैं
जैसे दीवार को दीवार न समझा जाए
जब हिदायत नहीं मिलती तिरी जानिब से मुझे
मुझ अदाकार से किरदार न समझा जाए
कितने परवाने बचाता हूँ बुझा कर मैं शम'
मुझ को ज़ुल्मत का तरफ़-दार न समझा जाए
मैं समझने से नहीं रोक रहा हूँ लेकिन
ख़ुद को इतना भी समझदार न समझा जाए
- पुस्तक : उदास लोगों का होना बहुत ज़रूरी है (पृष्ठ 89)
- रचनाकार : तर्कश प्रदीप
- प्रकाशन : रेख़्ता पब्लिकेशंस (2023)
- संस्करण : 2nd
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