सर-ए-महफ़िल तख़ातुब मोहतरम करना पड़ेगा
सर-ए-महफ़िल तख़ातुब मोहतरम करना पड़ेगा
ये मैं तू का त'अल्लुक़ आप हम करना पड़ेगा
रहेंगे इस तरह लुटने पे हम तय्यार कब तक
हमें कुछ जज़्बा-ए-ईसार कम करना पड़ेगा
मिरे ख़ालिक़ सफ़र तेरी तरफ़ की वापसी का
मुझे बे-जिस्म हो कर बे-क़दम करना पड़ेगा
ज़मीं पर आसमाँ का इस जगह मेहवर है शायद
सितारों की तरह तौफ़-ए-हरम करना पड़ेगा
मोहब्बत में हमारा दिल बिखरता जा रहा है
किसी सूरत हमें इस को बहम करना पड़ेगा
कई दिन तक रवा रखनी पड़ेगी सुस्त-कारी
किसी दिन काम कोई एक दम करना पड़ेगा
बहुत ग़ाफ़िल है पानी बिलबिलाती तिश्नगी से
समुंदर अब हमें सहरा में ज़म करना पड़ेगा
मिरे अन्दर किए जा दम-ब-दम सरशार मुझ को
तुझे मुझ पर मुसलसल ये करम करना पड़ेगा
यहाँ जो मा'बद-ए-हक़ में शराकत चाहता है
हमें बे-दख़्ल हर ऐसा सनम करना पड़ेगा
अगर तारीख़ लिखनी है सिमटते जंगलों की
तो कोई इक शजर 'आसिम' क़लम करना पड़ेगा
- पुस्तक : लफ़्ज़ महफ़ूज़ कर लिए जाएँ (पृष्ठ 171)
- रचनाकार :आसिम वास्ती
- प्रकाशन : रेख़्ता पब्लिकेशंस (2020)
- संस्करण : 2nd
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.