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तेग़ रखते हैं न हम तीर-ओ-तबर रखते हैं

आबिद करहानी

तेग़ रखते हैं न हम तीर-ओ-तबर रखते हैं

आबिद करहानी

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    तेग़ रखते हैं हम तीर-ओ-तबर रखते हैं

    हाँ यज़ीदों से झुक पाए वो सर रखते हैं

    बे-ख़बर लोगों को एहसास नहीं है इस का

    जो ख़बर वाले हैं हर शय की ख़बर रखते हैं

    फूटी कौड़ी के नहीं हैं ये मगस जैसे लोग

    सिर्फ़ इंसान के ज़ख़्मों पे नज़र रखते हैं

    कोई यारान-ए-शरी'अत से ये जा कर पूछे

    पहले दिल रखते हैं सज्दे में कि सर रखते हैं

    है कोई हम में जो थकता नहीं चलते चलते

    घर में रह कर भी हम एहसास-ए-सफ़र रखते हैं

    आँधियाँ इस को गले के लगा लें शायद

    इक दिया और सर-ए-राहगुज़र रखते हैं

    बोझ सर पर लिए फिरना नहीं आता हम को

    जो मसाइल हैं हमारे उन्हें घर रखते हैं

    एक पतझड़ सा लगा रहता है हर दम दिल में

    हम जो सीने में ये एहसास-ए-शजर रखते हैं

    नींद जब हम को सताती है बहुत मैदाँ में

    अपनी खींची हुई तलवार पे सर रखते हैं

    आए जो क़त्ल के दरपे है मुक़ाबिल आए

    हम भी सीने को सदा अपने सिपर रखते हैं

    बद-दु’आओं का नहीं होगा असर कुछ 'आबिद'

    हम बुज़ुर्गों की दु'आओं का असर रखते हैं

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