तुझ चेहरा-ए-गुल-रंग नीं ख़ूबाँ को गुल-गूनी दिया
तुझ चेहरा-ए-गुल-रंग नीं ख़ूबाँ को गुल-गूनी दिया
उबैदुल्लाह ख़ाँ मुब्तला
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तुझ चेहरा-ए-गुल-रंग नीं ख़ूबाँ को गुल-गूनी दिया
तेरे लब याक़ूत ने मुझ दिल कूँ पुर-ख़ूनी दिया
दीवाना हो घर छोड़ कर जाता रहा सहरा तरफ़
ऐ रश्क-ए-लैला तू ने जब 'आशिक़ को मजनूनी दिया
मज़मून 'आली बाँधता हूँ तेरे क़द की वस्फ़ में
मुझ तब्अ कूँ सोहबत ने तेरी जब से मौज़ूनी दिया
बरजा है गर मग़रूर हूँ अपने दिलाँ में शाइराँ
निर्ख़-ए-सुख़न कूँ तुझ सुख़न-फ़हमी ने अफ़्ज़ूनी दिया
फ़रहत की सूरत नीं नज़र आई मुझे ऐ नूर-ए-चश्म
तेरी जुदाई में मगर 'आलम को महज़ूनी दिया
दीदार की है इश्तिहा साफ़ ऐ तबीब-ए-मेहरबाँ
तुझ शौक़ ने गोया मुझे मा'जून-ज़रऊ'नी दिया
कहते हैं सारे बरहमन मुझ 'मुबतला' सूँ ऐ सनम
ज़ुन्नार-ए-गेसू खोल तूँ हर दिल कूँ बफ़्तूनी दिया
स्रोत:
Dewan-e-mubtalaáEk Eham Go Shayar-Muqallid Waliâ (Pg. B18 E19)
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- संस्करण: 1996
- प्रकाशक: नूरुल हसन हाशमी
- प्रकाशन वर्ष: 1996
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