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आग़ा हश्र

चराग़ हसन हसरत

आग़ा हश्र

चराग़ हसन हसरत

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    मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने पहली मर्तबा आग़ा हश्र का नाम कब सुना? सिर्फ़ इतना याद है कि “ड्रामा” का नाम सुनने से पहले इस नाम से मेरी कान आश्ना हो चुके थे। कुछ दिनों के बाद मेरी मालूमात में इतना इज़ाफ़ा और हुआ कि आग़ा हश्र जो कुछ कहता है उसका नाम ड्रामा है। ड्रामा की असल के मुताल्लिक़ मुझे कुछ मालूम नहीं था। हाँ, कभी कभी ये ख़्याल आता था कि ड्रामा और डराना के मअनी में बहुत थोड़ा फ़र्क़ होगा।

    हमारे पड़ोस में एक अफ़ग़ान सरदार रहते थे। उनका एक नौकर था जिसे सब “आग़ा आग़ा” कह के पुकारते थे। बड़े कल्ले ठल्ले का दीदा रू जवान था। स्याह गुनजान दाढ़ी, ज़ुल्फ़ें छटी हुईं। वो जिधर से गुज़रता था, लड़के “आग़ा आग़ा” कह के उसके पीछे दौड़ पड़ते थे। वो अक्सर औक़ात तो हँसता हुआ गुज़र जाता। लेकिन कभी कभी जब वो चरस के नशे में होता। लड़कों के नारे सुनके चलते चलते रुक जाता। अपनी ज़बान में चिल्ला चिल्ला के कुछ कहता और सुर्ख़ सुर्ख़ आँखें निकाल के हमारी तरफ़ इस तरह देखता कि सब सहम जाते।

    उन्हें दिनों हमारे क़स्बे में एक और आग़ा वारिद हुए। ये हींग बेचने आए थे। लम्बी दाढ़ी, बाल शानों पर बिखरे हुए, सदरी पर मैल की तह जमी हुई। वो एक हाथ से गठड़ी संभाले सड़क पर खड़े रहते और “ईंग ले लो। ईंग ले लो।” पुकारा करते थे। लेकिन मैंने कभी किसी शख़्स को उनसे हींग ख़रीदते नहीं देखा, कभी कभी वो झुँझला के चिल्ला चिल्ला कर कुछ कहते। ग़ालिबन बस्ती के लोगों को जिनमें कोई हींग का क़द्रशनास नहीं था, गालियाँ देते होंगे। इस आलम में कोई शख़्स निकलता तो उसे पुकार के कहते “खू ईंग ले लो” अगर वो चुपचाप गुज़र जाता तो कुछ देर बक झक कर ख़ामोश हो रहते। वरना अगर वो जवाब में कहता कि मुझे हींग की ज़रूरत नहीं, तो चिल्ला के फ़रमाते, “खू अम तुम्हारे बाप का नौकर है, कि तुम्हारा वास्ते इतनी दूर से ईंग लाया। ईंग लो, अम से मस्ख़री मत करो।”

    हमारी पड़ोसन बी... का ख़्याल था कि ये मुआ बर्दाफ़रोश है। नन्हे नन्हे बच्चों को चुरा के ले जाता है और बाबा ख़लील जू जो मोचियों के पीर थे, इस बाब में उसके हम-ख़्याल थे।

    ग़रज़ आग़ा हश्र (लफ़्ज़ “हश्र” से जिस क़िस्म के तसव्वुरात वाबस्ता हैं उनके मुताल्लिक़ मैंने कुछ कहना मुनासिब नहीं समझा क्योंकि कश्मीरी ज़बान में “हश्र” गाली है।)और ड्रामा तीनों लफ़्ज़ मेरे नज़दीक बहुत डरावने और भयानक थे और उन्होंने मेरे ज़ेहन पर कोई ख़ुशगवार असर नहीं छोड़ा।

    फिर जब हमारे हाँ एक “ड्रामेटिक क्लब” की बुनियाद पड़ी और असीर-ए-हिर्स, सफ़ेद ख़ून, ख़्वाब-ए-हस्ती, हमलेट के नाम हर शख़्स की ज़बान से सुनाई देने लगे, तो आग़ा हश्र का नाम भी बार-बार ज़बानों पर आने लगा। उस दूर उफ़्तादा मक़ाम में ले दे के यही एक तफ़रीह थी। इसलिए बूढ़े बच्चे, जवान सब थेटर देखने जाते थे। मिस्त्री ख़ुदाबख़्श से जो थियेटर के पर्दे भी बनाते थे और मेलों में अपना हिंडोला लेकर भी पहुँच जाते थे। सहेलियों तक जिनमें अक्सर स्कूल के भागे हुए लड़के थे। मैं सबको जानता था लेकिन उनमें आग़ा हश्र कोई भी नहीं था। मुझे यक़ीन था कि आग़ा हश्र पर्दों के पीछे खड़ा है, उसका सर छत से लगा हुआ है, लम्बी दाढ़ी है, गेसू कमर तक पहुँचते हैं, एक हाथ में हींग की गठड़ी है, दूसरे में जादू का डंडा। उसी के हुक्म से पर्दे उठते और गिरते और ऐक्टर भेस बदल बदल कर निकलते हैं। एक-आध मर्तबा ख़्याल आया कि किसी तरह पर्दे के पीछे जाकर उसकी एक झलक देख लूँ। लेकिन फिर हिम्मत पड़ी।

    मैंने जिस ज़माने का ज़िक्र किया है। अभी हिंदुस्तान में फिल्मों का रिवाज नहीं था। जो कुछ था थियेटर ही थियेटर था और उस दुनिया में आग़ा हश्र का तूती बोल रहा था। यूँ तो और भी अच्छे अच्छे ड्रामाटिस्ट मौजूद थे। अहसन, बेताब, तालिब, माइल सब के सब नाटक की लंका के बावन गज़े थे। लेकिन आग़ा के सामने बौने मालूम होते थे। और सच तो ये है कि आग़ा से पहले उस फ़न की क़द्र भी क्या थी? बेचारे ड्रामाटिस्ट थियेटर के “मुंशी” कहलाते थे और ये लक़ब इतना ज़लील हो चुका था कि थाना के मुहर्रिर, नहर के पटवारी, साहूकारों और ताजिरों के गुमाशते भी उसे अपने नाम के साथ लिखते हिचकिचाते थे।

    पंजाब में अगरचे थियेटर ने चंदाँ तरक़्क़ी नहीं की और यहाँ मुंशी ग़ुलाम अली दीवाना और मास्टर रहमत के केंडे के लोग इस फ़न में सनद उल-वक़्त समझे जाते थे। लेकिन 1921ई. में जब मुझे पहली मर्तबा लाहौर आने का इत्तफ़ाक़ हुआ तो यहाँ आग़ा हश्र की शायरी की धूम थी। जिन लोगों ने उन्हें अंजुमन हिमायत इस्लाम में नज़्में पढ़ते देखा था, वो उनके अंजुमन के जलसे में आने और नज़्म सुनाने की कैफ़ियत इस ज़ौक़-ओ-शौक़ से बयान करते थे गोया करबलाए मुअल्ला के मुहर्रम का हाल बयान कर रहे हैं। “मौज-ए-ज़मज़म” और “शुक्रिया यूरोप” के अक्सर अशआर लोगों को ज़बानी याद थे और उन्हें आग़ा की तरह मुट्ठियाँ भींच कर गूंजीली आवाज़ में पढ़ने की कोशिश भी करते थे।

    अगरचे आग़ा अपने उरूज-ए-शबाब के ज़माने में सिर्फ़ एक मर्तबा पंजाब आए। लेकिन उनका ये आना अवाम-ओ-ख़वास दोनों के हक़ में क़यामत था। यानी जो सिक्क़ा हज़रात ड्रामा को बदवजे़ और आवारा लोगों से मख़सूस समझते थे, उनकी राय इस फ़न के मुताल्लिक़ बदल गई। और क्यों बदलती? उसी गिरोह के एक शख़्स ने अंजुमन हिमायत इस्लाम के जलसे में जो उन दिनों एक क़ौमी मेला समझा जाता था, ऐसी नज़्म पढ़ी कि रुपये पैसे का मेंह बरस गया और जो काम बड़े बड़े आलिमों से हो सका, उसने कर दिखाया।

    ये तो ख़वास का हाल था। आग़ा के लाहौर आने ने अवाम के मज़ाक़ पर भी असर डाला और जो लोग मास्टर रहमत की ग़ज़लों पर सर धुनते और उनके ड्रामों को उस फ़न की मेराज समझते थे वो भी यक-ब-यक चौंक पड़े और उन्होंने जान लिया कि इस फ़न में इससे ऊंचा कोई मक़ाम भी है। और मास्टर रहमत से बेहतर ड्रामाटिस्ट भी दुनिया में मौजूद हैं।

    मैं 1925ई. में कलकत्ता गया तो आग़ा साहब कलकत्ता छोड़ कर महाराजा टिकारी के हाँ जा चुके थे। लेकिन उनके हज़ारों मद्दाह, उनके साथ उठने बैठने वाले कलकत्ता में मौजूद थे। उनकी ज़बानी आग़ा की ज़िन्दगी के अक्सर वाक़ियात, उनके लतीफ़े, अशआर, फब्तियां सुनीं। कोई साल भर के बाद एक दिन किसी ने आकर कहा, कि आग़ा आए हैं। फाइन आर्ट प्रेस वाले लाला बृजलाल अरोड़ा आग़ा के बड़े अक़ीदतमंद थे। मैंने उनसे पूछा कि “आग़ा गए, उनसे कब मिलवाइएगा?” वो कहने लगा, अभी चलो, नेकी और पूछ पूछ। मैंने रिसाला आफ़ताब के कुछ पर्चे बग़ल में दबाए। लाला बृजलाल ने टोपी टेढ़ी करके सर पर रखी और बख़्त मुस्तक़ीम आग़ा के हाँ पहुँचे। वो उन दिनों सकी स्ट्रीट में रहते थे। बड़ा वसीअ मकान था। डेयुढ़ी से दाख़िल होते ही सहन था। उसके दाहिने बाएं कमरे। लाला बृजलाल ने उनके नौकर से पूछा, ‘‘आग़ा साहब कहाँ हैं?” उसने बाएं हाथ की तरफ़ इशारा किया। सहन से मिला हुआ एक वसीअ कमरा था। उसमें एक चारपाई और दो तीन कुर्सियाँ पड़ी थीं। चारपाई पर आग़ा साहब सिर्फ लुंगी बाँधे और एक कुर्ता पहने लेटे थे। हमें देखते ही उठ बैठे। अब जो देखता हूँ तो हींग वाले आग़ा और इस आग़ा में ज़मीन-ओ-आसमान का फ़र्क़ है। सर पर अंग्रेज़ी फ़ैशन के बाल, दाढ़ी मुंडी हुई, छोटी छोटी मूँछें, दोहरा जिस्म, सुर्ख़-ओ-सपेद रंग, मियाना क़द, एक आँख में नुक़्स था। महफ़िल में बैठे हुए हर शख़्स ये समझता था कि मेरी तरफ़ ही देख रहे हैं। बड़े तपाक से मिले। पहले लाला बृजलाल से ख़ैर-ओ-आफ़ियत पूछी। फिर मेरी तरफ़ मुतवज्जा हुए और अदबी ज़िक्र-ओ-अफ़्क़ार छिड़ गए।

    आग़ा साहब ने अगरचे हज़ारों कमाए और लाखों उड़ाए लेकिन उनकी मुआशरत हमेशा सीधी-सादी रही। मकान में नफ़ीस क़ालीन थे, सोफ़े, कोच, रेशमी पर्दे, ग़ालीचे। नफ़ीस कपड़े पहनने का भी शौक़ था। घर में हैं तो लुंगी बाँधे, एक बनियान पहने। खरी चारपाई पर बैठे हैं। बाहर निकले हैं तो रेशमी लुंगी और लम्बा कुर्ता पहन लिया। मैंने पहली मर्तबा उन्हें इसी वज़ा में देखा और ज़िन्दगी के आख़िरी अय्याम में जब लाहौर आए उनकी यही वज़ा थी। हाँ, अक्सर लोगों से इतना सुना है कि लाहौर आने से पहले वो कलकत्ता में बड़े ठाठ से रहते थे। लेकिन उसकी वजह ग़ालिबन ये थी कि उस ज़माने में उन्होंने शराब छोड़ दी थी और घर की आराइश और ठाठ बाठ में तबीयत के हौसले निकाल के इस कमी की तलाफ़ी करना चाहते थे।

    आग़ा बड़े हाज़िर जवाब और बज़्लासंज शख़्स थे। जिस महफ़िल में जा बैठे थे सब पर छा जाते थे। उनके मिलने वालों में अक्सर लोग ज़िला जगत में ताक़ और फबती में मश्शाक़ थे और जब शाम को सोहबत गर्म होती, तीन-तीन, चार-चार आदमी मिल के आग़ा पर फबतियों का झाड़ बाँध दिया करते थे। लेकिन आग़ा चौमुखी लड़ना जानते थे। हरीफ़ दमभर में हथियार डाल देता लेकिन आग़ा की ज़बान रुकती थी। उस वक़्त ऐसा मालूम होता था कि एक बांका फिकैत सर्दही के हाथ फेंकता चला जा रहा है। कभी कमर को बता के सर पर वार किया, कभी पालट का हाथ मारा, कभी दाहिने से कभी बाएं से। इस फ़न में उनका कोई हरीफ़ नहीं था। अलबत्ता हकीम साहब (शिफ़ा-ए-उल-मुल्क हकीम फ़िक्री मुहम्मद साहब चिशती निज़ामी मरहूम जो आग़ा मरहूम के जिगरी दोस्त थे) से आग़ा की भी कोर दबती थी।

    जिस शख़्स से बेतकल्लुफ़ी बढ़ाना मंज़ूर होता, उसे इस बेसाख़्तगी से गाली दे बैठते थे कि बेचारा हैरान रह जाता था। “गाली” का नाम सुनकर कुछ लोग कहेंगे कि गाली देना कहाँ का अख़लाक़? लेकिन आग़ा कुंजड़े क़स्साबों जैसी गलियां थोड़े ही देते थे। उन्होंने “गाली” को अदब-ओ-शे’र से तड़का देकर एक ख़ुशनुमा चीज़ बना दिया था कि मरहूम अगर कुछ दिनों और ज़िन्दा रहते तो इसका शुमार फ़ुनून-ए-लतीफ़ा में होने लगता। असल में आग़ा एक तो यूँ भी बड़े ज़हीन और तिबा शख़्स थे। फिर उन्होंने जवानी में ही थियेटर की तरफ़ तवज्जो की जहाँ दुनियाभर के बिगड़े दिल जमा थे। रातभर नोक झोंक का बाज़ार गर्म रहता था। कुछ तो उन सोहबतों में उनकी तबीयत ने जिला पाई। इस पर मुताले का शौक़ सोने पर सुहागा हो गया।

    वो हर क़िस्म की किताबें पढ़ते थे। अदना क़िस्म के बाज़ारी नाविलों, अख़बारों, रिसालों से लेकर फ़लसफ़ा और माबाद उल तबीआत की आला तसानीफ़ तक सब पर उनकी नज़र थी। और फ़ज़ल बुक डिपो से दारुल मुसन्निफ़ीन तक वो सारे इदारों की सरपरस्ती फ़रमाते थे। कलकत्ता में उनका मामूल ये था कि सह पहर को घर से निकले और बख़्त मुस्तक़ीम अख़बार अस्र जदीद के दफ़्तर में पहुँचे। पहले सारे अख़बार पढ़े, फिर रिसालों की नौबत आई। कभी रिव्यू के लिए कोई किताब आगई तो वो भी आग़ा साहब की नज़र हुई। कुछ अख़बार और रिसाले तो वहीं बैठे-बैठे देख लिये, जो बच रहे उन्हें घर ले गए। बाज़ार में चलते चलते किताबों की दुकान नज़र आगई, खड़े हो गए। अच्छी अच्छी किताबें छांट के बग़ल में दबाईं और चल खड़े हुए। रास्ते में किसी किताब का कोई गिरा पड़ा वर्क़ दिखाई दिया तो उसे उठा लिया और वहीं खड़े खड़े पढ़ डाला। नौकर बाज़ार से सौदा सलफ़ लेकर आया है, बनिए ने अख़बारों और किताबों के औराक़ में पुड़ियाँ बाँध के दी हैं। यकायक आग़ा साहब की नज़र पड़ गई। नौकर से पूछ रहे हैं इस पुड़िया में क्या है? शक्कर, अच्छा शक्कर डिब्बे में डालो। पुड़िया ख़ाली करके लाओ। उसे कहीं फेंक दीजियो, ये बड़े काम की चीज़ मालूम होती है। ख़ुदा जाने किसी अख़बार के वर्क़ हैं या किताब के, बहरहाल मुझे उन पर शिबली का नाम लिखा नज़र आया है।

    मुताले से उनके इस शग़फ़ का हाल सुनकर शायद बा’ज़ लोगों का ख़्याल हो कि आग़ा ने बहुत बड़ा कुतुबख़ाना जमा कर लिया होगा। लेकिन वाक़िया ये है कि कुतुबख़ाना छोड़ उनके हाँ दस पांच किताबें भी नहीं थीं। एक तो उनका हाफ़िज़ा बहुत अच्छा था। एक मर्तबा कोई किताब पढ़ लेते थे तो उसे दूसरी मर्तबा देखने की ज़रूरत नहीं रहती थी। दूसरे उनकी तबीयत अलाइक़ से घबराती थी। किताबें सैंत संभाल के रखने के झंझट में कौन पड़े। उनका तो बस ये हाल था कि किताब आई, पढ़ के मकान के किसी गोशे में डाल दी। कोई मिलने वाला आया और उठा के ले गया।

    ये उसी मुताले की बरकत थी कि उनकी मालूमात पर लोगों को हैरत होती थी। तिब्ब हो या फ़लसफ़ा, शायरी हो या अदब, किसी मौज़ू में बंद नहीं थे। और जहाँ इल्म साथ नहीं देता था वहाँ उनकी ज़हानत आड़े आजाती थी। बाज़ार से नई जूती मंगवाई है, किसी ने पूछा आग़ा साहब कितने की मोल ली है? बस आग़ा साहब ने जूती के फ़ज़ाइल और मुहासिन पर तक़रीर शुरू कर दी। चमड़े की मुख़्तलिफ़ क़िस्मों, दबाग़त के तरीक़ों, जूती की वज़ा क़ता, एक एक चीज़ पर इस तफ़सील से बेहस कर रहे हैं गोया किसी निहायत अहम मसले पर गुफ़्तगू हो रही है। घंटा डेढ़ घंटा के बाद जब उनकी तक़रीर ख़त्म हुई तो सुनने वालों को ये एहसास था कि आग़ा साहब की जूती को सचमुच तारीख़ी हैसियत हासिल है।

    एक दिन आग़ा अस्र-ए-जदीद के दफ़्तर में बैठे थे, कुछ और लोग भी जमा थे। आग़ा बातें कर रहे थे। हम सब बुत बने बैठे सुन रह थे। इतने में सय्यद ज़ाकिर अली जो उन दिनों कलकत्ता ख़िलाफ़त कमेटी के सेक्रेटरी थे और आजकल मुस्लिम लीग के जॉइंट सेक्रेटरी हैं, फिरते फिराते निकले। थोड़ी देर वो चुपके बैठे आग़ा की बातें सुना किए। लेकिन फिर उनके चेहरे से बेचैनी के आसार ज़ाहिर होने लगे। कुछ तो उन्हें ये बात नागवार गुज़री कि एक शख़्स बैठा बातें किए जा रहा है और किसी दूसरे को बात नहीं करने देता। क्योंकि सय्यद साहब ख़ुद भी बड़े बज़्लासंज और लतीफ़ा गो बुजु़र्गवार हैं और उन्होंने अगले पिछले हज़ारों लतीफ़े याद कर रखे हैं और ग़ालिबन उस वक़्त उन्हें कोई नया लतीफ़ा याद आगया जिसे सुनाने के लिए वो बेक़रार थे। दूसरे आग़ा की गुफ़्तगू मैं ख़ुद सताई का उन्सुर बहुत ज़्यादा था। और वो अपनी शायरी का तज़्किरा कर रहे थे और अपने बा’ज़ हमअस्र शो’रा पर चोटें भी करते जाते थे। सय्यद ज़ाकिर अली को उनकी बातों पर ग़ुस्सा भी था और हैरत भी। जी ही जी में कह रहे थे कि ख़ुदा जाने ये कौन शख़्स है जो इक़बाल, अबुल कलाम, ज़फ़र अली ख़ां का ज़िक्र इस अंदाज़ में कर रहा है गोया सब साथ के खेले हुए दोस्त और बचपन के रफ़ीक़ हैं। आख़िर उनसे ज़ब्त हो सका और कहने लगे, “ये कौन बुजु़र्गवार हैं, ज़रा इनसे मेरा तआरुफ़ तो करा दीजिए।” मौलाना शाइक़ बोले, “आप इन्हें नहीं जानते। आग़ा हश्र यही हैं। आग़ा साहब ये सय्यद ज़ाकिर अली हैं। कलकत्ता ख़िलाफ़त कमेटी के नए सेक्रेटरी। मौलाना शौकत अली ने इन्हें बम्बई से भेजा है।”

    हम समझते थे कि इस मार्फ़ी के बाद सय्यद ज़ाकिर अली का इस्तेजाब दूर हो जाएगा लेकिन वो बड़ी सादगी से कहने लगे, “आग़ा हश्र? कौन आग़ा हश्र?” बस उनका ये कहना क़यामत हो गया। आग़ा साहब कड़क कर बोले, ‘‘आपने आग़ा हश्र का नाम नहीं सुना।” सय्यद ज़ाकिर अली ने जवाब दिया, “नहीं साहब, मैंने आज पहली मर्तबा जनाब का नाम सुना है।” फिर पलट के मौलाना शाइक़ से पूछने लगे, “आग़ा साहब का शुग़्ल क्या है?” मौलाना शाइक़ ने फ़रमाया, ‘‘हाएं सय्यद ज़ाकिर अली साहब आपने वाक़ई आग़ा हश्र का नाम नहीं सुना। आप किस दुनिया में रहते हैं?” उन्होंने बड़ी मुसम्मा सूरत बनाके कहा, “मुझसे क़सम ले लीजिए, मैंने आज तक ये नाम नहीं सुना।” ख़ुदा जाने वो बन रहे थे या वाक़ई उन्होंने आग़ा का नाम नहीं सुना था। हम सबको हैरत थी कि ये शख़्स कलकत्ता ख़िलाफ़त कमेटी का सेक्रेटरी मुद्दतों अह्ल-ए-ज़ौक़ की सोहबत में रह चुका है। शे’र-ओ-शायरी का भी मज़ाक़ रखता है लेकिन आग़ा हश्र को नहीं जानता। ख़ैर मौलाना शाइक़ अहमद ने उन्हें समझाया कि देखिए ये आग़ा हश्र हैं। बहुत बड़े शायर, बहुत बड़े ड्रामाटिस्ट, लोग इन्हें हिंदुस्तान का शेक्सपियर कहते हैं, तो उनकी समझ में बात आगई और कहने लगे, “अच्छा, तो आप शायर हैं। मैं अब समझा। ख़ैर अब इस बहस को जाने दीजिए, अपना कोई शे’र सुनाइए।” आग़ा भरे बैठे थे। ये सुनके आग बगूला हो गए, और कहने लगे, “सुनिए जनाब, आपको शे’र सुनना है तो ख़िलाफ़त कमेटी के लौंडों से सुनिए। मैं ऐसा वैसा शायर नहीं कि हर ऐरे ग़ैरे पच कल्यान को शे’र सुनाता फिरूँ।” फिर जो उन्होंने तक़रीर शुरू की तो अल्लाह दे और बंदा ले। हमारा ये हाल था कि काटो तो लहू नहीं बदन में और सय्यद ज़ाकिर अली पर तो सैंकड़ों घड़े पानी के पड़ गए।

    एक सय्यद ज़ाकिर अली पर क्या मौक़ूफ़ है। आग़ा मुनाज़रा के मैदान के शे’र थे। जिस महफ़िल में जा बैठते थे, सब पर छा जाते थे। बाक़ायदा तालीम तो वाजिबी थी लेकिन मुताला ने उन्हें कहीं से कहीं पहुँचा दिया था। एक दिन मैंने कहा, आग़ा साहब जी चाहता है आपके सवानेह हयात लिख डालूं। कहने लगे, “मेरे सवानेह हयात में क्या पड़ा है?”

    हासिल-ए-उमरम् सेह हर्फ़ अस्त-ओ-बस

    ख़ाम बूदम पुख़्ता शुदम सूख़त्म

    बुज़ुर्गों का वतन कश्मीर है। वतन में उन पर कुछ ऐसी उफ़्ताद पड़ी कि अमृतसर उठ आए। वहाँ से वालिद मरहूम शालों की तिजारत के सिलसिले में बनारस पहुँचे और वहीं डेरे डाल दिए। हर-चंद उन्होंने मेरी तालीम में सई की लेकिन जी लगा। फ़ारसी की चंद किताबें पढ़ कर छोड़ दीं। वो पुरानी वज़ा के आदमी थे और मुझे मुल्लाए मकतबी बनाना चाहते थे। लेकिन मुझे मुल्लाइयत से नफ़रत थी। अभी मसें भी नहीं भीगी थीं कि बनारस से भाग कर बम्बई पहुँचा। वहाँ पारसियों ने थियेटर का ऐसा तिलिस्म बाँध रखा था कि अदना-ओ-आला सब उस पर ग़श थे। मैंने भी ड्रामा लिखने को ज़रिया मआश बनाया और एक दो ड्रामे लिख कर शेक्सपियर पर हाथ साफ़ किया। अगरचे उन दिनों बम्बई में बड़े बड़े इंशा पर्दाज़ और शायर मौजूद थे। लेकिन ख़ुदा की क़ुदरत कि थोड़े दिनों में सब गर्द हो गए। लो मेरे सवानेह हयात का बहुत बड़ा हिस्सा तो चंद लफ़्ज़ों में ख़त्म हो गया।”

    एक दिन कहने लगे, “तुम्हें मालूम है, जवानी के ज़माने में हमारे दोस्त कौन कौन लोग थे?” मैंने कहा, “नहीं।” कहने लगे, ‘‘बुज़ुर्गों में मौलाना शिबली मरहूम, नौजवानों में अबू नस्र ग़ुलाम यासीन आह, ये तुम्हारा अबुल कलाम और हकीम फ़क़ीर मुहम्मद चिशती। लेकिन भाई मैंने अबू नस्र आह जैसा ज़हीन आदमी नहीं देखा। जानते हो आह कौन था? अबुल कलाम का बड़ा भाई। बेचारे ने जवानी में इंतिक़ाल किया। ज़िंदा रहता तो लोग अबुल कलाम को भूल जाते। आह ने वफ़ात पाई। अबुल कलाम और मैं दोनों बरसों से एक ही शहर में रहते हैं लेकिन सलाम-ओ-कलाम तक तर्क है।”

    फिर कुछ देर ख़ामोश रह के बोले, “वो ज़माना भी अजीब था। मैं ड्रामे भी लिखता था, शराब मैं पीता था, कभी नमाज़ पढ़ी रोज़ा रखा, लेकिन दीनी हरारत से दिल गुदाज़ था। आर्य और ईसाई इस्लाम पर एतराज़ करते थे और मैं और अबुल कलाम उन्हें जवाब देते थे। इसी शौक़ में मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब की किताबें पढ़ीं। आर्यों और ईसाईयों के रद्द में रिसाले लिखे, मुनाज़रे किए और जिस दंगल में उतरा फ़तह पाई। उन दिनों पादरी अहमद मसीह का बड़ा ज़ोर था। एक तो अँधा दूसरे हाफ़िज़-ए-क़ुरआन। कतरनी की तरह ज़बान चलती थी। वो दिल्ली में फ़व्वारा पर अक्सर तक़रीरें किया करता था। मेरे और उसके कई मार्के हुए और हमेशा मैदान मेरे ही हाथ रहा। वो किसी दूसरे को ख़ातिर में नहीं लाता था सिर्फ़ मुझसे उसकी कोर दबती थी। अक्सर मुनाज़रों में तू तकार तक नौबत पहुँच जाती थी। मैं उस पर फब्तियां कहता था वो मुझ पर एक दफ़ा पादरी अहमद मसीह बम्बई आया और एक दो मार्के की तक़रीरें कीं। उन दिनों मेरे क़ियाम का कुछ ठीक नहीं था। कभी कलकत्ता कभी दिल्ली, लेकिन इत्तफ़ाक़ ये हुआ कि अहमद मसीह को बम्बई आए सिर्फ़ दो दिन हुए थे कि मैं भी पहुँचा। लोगों ने मुझे मुनाज़रा के लिए कहा, मैंने कहा मैं चलने को तो तैयार हूँ लेकिन उसे मेरा नाम बताना। ग़रज़ वो मुझे ले गए और अहमद मसीह से सिर्फ़ इतना कहा कि एक मौलवी साहब मुनाज़रा करने आए हैं। लेकिन मैंने तक़रीर शुरू की तो वो आवाज़ पहचान कर बोला, “आग़ा साहब हैं।” मैंने कहा, “जी हाँ।” वो कहने लगा, “अरे किसी मौलवी को लाए होते, इस भाँड को क्यों ले आए?” मैं बोला, “पादरी साहब किसी भले मानुस के हाँ कुत्ता घुस आए तो ख़ुद उठ के उसे नहीं धुतकारता, बल्कि नौकर से कहता है कि उसे निकाल दो। फिर तुम्हारे मुक़ाबले पर कोई मौलवी क्यों आए?” पादरी चीख़ के बोला, “ये मजलिस-ए-मुनाज़रा है या भांडों की मंडली?” मैंने कहा, “भांडों की मंडली सही लेकिन उनमें चित्त ख़ोरे तुम हो।” पादरी ने कहा, “अरे तू तो थियेटर का नचनिया है। तुझसे कौन ज़बान लड़ाए?” मैंने कहा, “अब तुम्हें थियेटर में नचाऊँगा।” ग़रज़ मैंने मारे फबतियों के उल्लू कर दिया और वो साफ़ इनकार कर गया कि मैं आग़ा से बहस नहीं करता।

    अक्सर लोगों को ये बात बहुत नागवार गुज़रती थी कि आग़ा ख़ुद अपनी तारीफ़ें करते हैं और अपने सामने सबको हेच समझते हैं। लेकिन आग़ा साहब का ख़्याल था कि दुनिया में कामयाबी हासिल करने के लिए अपनी तारीफ़ करना बहुत ज़रूरी है। एक मर्तबा किसी अख़बार में मेरी एक नज़्म जो ग़ालिबन ईद के मुताल्लिक़ थी, शाए हुई। आग़ा ने अख़बार देखा तो नज़्म की बड़ी तारीफ़ की। ख़ुसूसन आख़िरी शे’र कई मर्तबा पढ़ा और फिर बोले, “अमां, तुम बहुत ख़ूब कहते हो। इससे अच्छा कोई क्या कहेगा?” मैंने कहा, “आग़ा साहब आप तो कांटों में घसीटते हैं। मैं क्या और मेरी नज़्म क्या?” कहने लगे, “क्या कहा? हम तारीफ़ करते हैं और तुम अपनी मज़म्मत सुनना चाहते हो। अच्छा साहब यूँही सही। नज़्म बहुत बुरी है। तुमने झक मारी जो ये नज़्म लिखी और हमने झक मारी जो तुम्हारी तारीफ़ की। कहो कहो। इस हेच मदान, पुंबा दहान, कज-मज ज़बां, हक़ीर फ़क़ीर सरापा तक़सीर को क्या शऊर है कि नज़्म लिख सके। हुज़ूर की ज़र्रा नवाज़ी है और सीधी-सादी ज़बान में ये मज़मून अदा करना चाहो तो कहो मैंने ये नज़्म नहीं लिखी और तुम झूटे जो उसकी तारीफ़ कर रहे हो। अरे भाई, मैं तो समझता हूँ कि अगर तुम्हारे इन्किसार का यही हाल रहा तो फ़ाक़े करोगे। सीना तान के क्यों नहीं कहते कि जी हाँ, मेरी नज़्म तारीफ़ के क़ाबिल है। मैं तो यही करता हूँ। तुर्की हूर लिख के रुस्तम जी को सुनाया। सबने वाह वाह की। लेकिन सरगोशियाँ भी बराबर हो रही थीं। हरीफ़ इस ताक में थे कि मौक़ा मिले तो ऐसी उखेड़ मारें कि आग़ा चारों शाने चित्त जा गिरे। इतने में कड़क के कहा, कौन है जो आज ऐसा ड्रामा लिख सके? ये सुनके सब के सर झुक गए और हर तरफ़ से आवाज़ें आईं, पीर-ओ-मुर्शिद बजा-ओ-दरुस्त।”

    आग़ा से ये बात सुनके मुझे हमेशा के लिए कान हो गए। अगरचे मैं उनकी तरह अपनी तारीफ़ें आप नहीं करता। लेकिन कोई तारीफ़ करे तो ये भी नहीं कहता कि हज़रत में तो बिल्कुल जाहिल हूँ।

    आग़ा जवानी से शराब के आदी और रोज़ के पीने वाले थे। दिन ढलते ही पीना शुरू कर देते थे और बहुत मुद्दत गए तक ये महफ़िल जमी रहती थी। इन महफ़िलों में जब कहीं कोई थियेटर और ड्रामे का ज़िक्र छेड़ देता था तो बेचारे शेक्सपियर की शामत आजाती थी। लेकिन शेक्सपियर ग़रीब की गत सिर्फ़ उन्हीं महफ़िलों में बनती थी वरना आम तौर पर आग़ा उसका ज़िक्र हमेशा इज़्ज़त-ओ-एहतिराम से करते थे।

    वो छुप के पीने के क़ाइल नहीं थे। सब के सामने बल्कि यूँ कहना चाहिए कि बीच खेत पीते थे और बोतलों की बोतलें ख़ाली कर देते थे, लेकिन मौत से कोई तीन साल पेशतर शराब तर्क कर दी। यूँ दफ़अतन शराब छोड़ देने से उनकी सेहत पर बहुत बुरा असर पड़ा। रंगत साँवला गई, आँखों के गिर्द हलक़े पड़ गए, हड्डियाँ निकल आईं और ऐसा रोग लगा जो आख़िर उनकी जान लेकर ही टला। डाक्टरों ने हर-चंद कहा कि इस हालत में आपके लिए शराब का इस्तेल मुफ़ीद है। थोड़ी मिक़दार में रोज़ पी लिया करें लेकिन उन्होंने माना और मरते मर गए, शराब पी। हाँ ये ज़रूर था कि इस हालत में भी उनका कोई पुराना दोस्त आजाता था तो उसे शराब मंगवा के अपने सामने पिलवाते। उसकी बातें सन सुनकर हंसते।

    आग़ा हाथ के सख़ी थे और दिल के साफ़। उनके मिलने वालों में हर क़िस्म के लोग थे। थियेटर के एक्टरों मैं डोम ढाड़ीयों से लेकर बड़े बड़े आलिम तक सबसे उनकी बेतकल्लुफ़ी थी और वो उन सबसे बड़े ख़ल्क़ और मुरव्वत के साथ पेश आते थे। उनके छोटे भाई आग़ा महमूद को ये बात नागवार थी कि आग़ा छोटी उम्मत के लोगों से क्यों बेतकल्लुफ़ी से मिलते हैं। लेकिन उनके जिन लोगों से जिस क़िस्म के ताल्लुक़ात थे उन्हें मरते दम तक निभाए चले गए और वज़्अ-दारी में फ़र्क़ आने दिया। वो हर शख़्स से उसकी लियाक़त और मज़ाक़ के मुताबिक़ गुफ़्तगू करते थे। आलिमों में बैठे हैं तो हुदूस-ओ-क़दम माद्दा के मुताल्लिक़ गुफ़्तगू हो रही है। या अहादीस की हैसियत पर बहस कर रहे हैं। इस्लाम, ईसाईयत और आर्य समाज के उसूलों पर तक़रीरें की जा रही हैं। एक्टरों में जा पहुँचे तो ज़िला जगत शुरू हो गई। फब्तियां कही जा रही हैं, क़हक़हे उड़ रहे हैं।

    आग़ा ने अगरचे लाखों कमाए और लाखों ही उड़ाए लेकिन वो तन्हा ख़ोरी के आदी नहीं थे। जब रुपया आता था उसमें सब अज़ीज़ों के हिस्से लगाए जाते थे। क़रीब के रिश्तेदारों को तो उन्होंने हज़ारों लाखों दे डाले। वालिदा की ऐसी ख़िदमत की कि कोई क्या करेगा। लेकिन दूर के रिश्तेदारों को भी वो कभी भूले। उनके अज़ीज़ों में कई बेवा औरतें और यतीम बच्चे थे। उन सब के दरमाहे मुक़र्रर थे। रुपया आता था तो जिसका जो हिस्सा मुक़र्रर था उसे घर बैठे पहुँच जाता था। ग़रज़ आग़ा की ज़ात कई बेकसों की ज़िन्दगी का सहारा बनी हुई थी। उनके उठते ही ये सहारा मिट गया।

    आग़ा के वालिद एक सूफ़ी मनिश बुज़ुर्ग थे। वो अक्सर बेटे की बेक़ैदी और आज़ादा रवी देख देख के बहुत कुढ़ते थे। शिफ़ा-उल-मुल्क हकीम फ़क़ीर मुहम्मद चिशती मरहूम फ़रमाते थे कि जब आग़ा लाहौर आए। मौलाना ज़फ़र अली ख़ां के हफ़्तावार अख़बार सितार-ए-सुबह में उनकी एक नज़्म छपी। जिसका रू-ए-सुख़न अगरचे ख्वाजा हसन निज़ामी की तरफ़ था लेकिन जगह जगह तमाम सूफ़ियों पर चोटें की गई थीं। हकीम साहब मरहूम तो एक ही ज़िंदा दिल बुज़ुर्ग थे। उन्होंने आग़ा को दिक़ करने के लिए उनके वालिद को ये नज़्म पढ़ कर सुनाई और कहा कि देखिए आपका साहबज़ादा अब सूफ़ियों पर तान करने लगा। वो ये नज़्म सुनकर बेटे पर बहुत बिगड़े फिर कहने लगे, देख लेना बुढ़ापे में ये इन तमाम हरकतों से तौबा करलेगा। मालूम नहीं आख़िरी उम्र में सूफ़ियों के मुताल्लिक़ आग़ा साहब का क्या अक़ीदा था। अलबत्ता इतना तो हमने भी देखा कि मौत से पहले उन्होंने शराब से तौबा करली।

    आग़ा के कलाम और उनके ड्रामों पर तब्सिरा करना मेरा फ़र्ज़ नहीं। अलबत्ता इतना ज़रूर कहूँगा कि वो शे’र बहुत जल्द कहते थे। मौलाना ज़फ़र अली ख़ां के बाद अगर मैंने किसी को इस क़दर जल्द शे’र कहते देखा तो वो आग़ा थे। शे’र ख़ुद नहीं लिखते थे बल्कि दूसरों को लिखवा देते थे। ड्रामों का भी यही हाल था। असल में उन्हें लिखने से नफ़रत सी थी। उम्रभर कभी किसी को ख़त का जवाब नहीं दिया और जवाब दिया भी तो अपने हाथ से नहीं लिखा।

    कई मौक़ों पर ऐसा हुआ कि मैंने एक मिसरा पढ़ा। उन्होंने बरजस्ता दूसरा मिसरा कह दिया और चंद मिनटों में ग़ज़ल हो गई। उनकी ग़ज़लों में एक सरमस्ती और जोश है जो उर्दू में उनके सिवा किसी के हाँ नज़र नहीं आता। मालूम होता है कि ग़ज़लगोई का असर उनके ड्रामों पर भी पड़ा है। यानी जिस तरह ग़ज़ल में हर शे’र मुस्तक़िल हैसियत रखता है। उसी तरह उनके ड्रामों के मुख़्तलिफ़ अजज़ा तो अपनी अपनी जगह ख़ूब हैं लेकिन आपस में मिलकर वो अपना हुस्न किसी हद तक खो बैठे हैं। गोया यूँ कहना चाहिये कि आग़ा के ड्रामों का हुस्न अज्ज़ा में है कुल में नहीं। इसी मफ़हूम को यूँ बयान किया जा सकता है कि मकान का गारा, चूना, ईंट और लकड़ी तो अपनी अपनी जगह बहुत अच्छे हैं। लेकिन जब उनसे मिलकर मकान बनता है तो उसमें बहुत से नुक़्स नज़र आते हैं। फिर भी ये कहना पड़ता है कि उन्होंने उर्दू ड्रामे को बहुत ऊँचे मर्तबे पर पहुँचा दिया और इस मुआमले में उनका कोई हरीफ़ नहीं था।

    वो ख़ुद भी अक्सर कहा करते थे कि मैं लोगों के मज़ाक़ को मलहूज़ रखकर ड्रामे लिखता हूँ। वरना अगर मैं अवाम के मज़ाक़ की पर्वा करके अपने असली रुजहान तबीयत के मुताबिक़ कुछ लिखूं तो और ही आम नज़र आए। मैंने एक मर्तबा कहा कि आग़ा साहब आप अपनी तबियत के हक़ीक़ी जोश को ज़ाहिर क्यों होने देते और अवाम के मज़ाक़ का इतना ख़्याल क्यों रखते हैं? ये सुनकर आग़ा के अब्रू पर बल पड़ गए और कहने लगे कि अगर मैं अपनी तबियत के सही रुजहान की पैरवी करता तो जूता चटख़ाता फिरता। वो तो बड़ी ख़ैर गुज़री कि मैंने ज़माने की नब्ज़ को पहचान लिया। लोगों के मज़ाक़ के मुताबिक़ ड्रामे लिखता हूँ और मोटरों में उड़ा फिरता हूँ।

    सन् 1928 के अवाख़िर में आग़ा हश्र टिकारी से कलकत्ता आए हुए थे कि एक दिन मैं उनसे मिलने गया। पहले थोड़ी देर इधर उधर की बातें करते रहे फिर कहने लगे, “अरे मियां, इस अख़बार नवीसी में क्या पड़ा है। उसे छोड़ो और मेरे साथ टिकारी चलो। ड्रामा लिखने में बर्क़ करदूँ तो मेरा ज़िम्मा।” मैंने उस वक़्त तो कह दिया कि अच्छा आग़ा साहब यूँही सही। मगर घर आके सोचा तो ख़्याल आया कि अब तो आग़ा साहब से नियाज़मंदाना ताल्लुक़ है। मुलाज़मत का क़िस्सा होगा तो और बात हो जाएगी। क्या अजब कि किसी बात पर उनसे बिगड़ जाए और जो साहब सलामत आज है ये भी रहे। लेकिन मुश्किल ये थी कि आग़ा से इक़रार कर चुका था। अब इनकार करने की हिम्मत नहीं पड़ती। इत्तफ़ाक़न उसी दरमियान कुछ ऐसे पेच पड़े कि मैंने कलकत्ता छोड़ लाहौर आने का तहय्या कर लिया। चलने से पहले एक दिन आग़ा से मिलने गया। मुझे देखते ही बोले टिकारी चलते होना? मैंने कहा, मैं तो लाहौर जाने का इरादा कर चुका हूँ। वो ये सुनकर बहुत नाराज़ हुए। मेरे साथ लाहौर और लाहौर के अख़बारों और अख़बारनवीसों को भी ले डाला। मैं थोड़ी देर बैठा उनकी बातें सुनता रहा फिर उठकर चला आया। दूसरे तीसरे दिन मालूम हुआ कि आग़ा टिकारी चले गए।

    कोई सात साल के बाद फिर आग़ा से लाहौर में मुलाक़ात हुई। मैं हकीम फ़क़ीर मुहम्मद मरहूम के हाँ मिलने गया तो वो छः सात आदमियों में घिरे बैठे थे। लेकिन मैंने बिल्कुल उन्हें नहीं पहचाना। आँखों के गिर्द स्याह हलक़े पड़े थे, गालों में गड्ढे, हड्डियाँ निकली हुईं, गर्दन का गोश्त लटका हुआ। पहले कुछ दिन हकीम साहब के हाँ ठहरे फिर शहर के बाहर एक कोठी किराए पर ली और वहाँ उठ गए। मैं कभी कभी वहाँ जाता था। अगरचे अब भी उनकी तबीयत और वज़ादारी का वही आलम था लेकिन यकलख़्त शराब छोड़ देने से जहाँ उन्हें अमराज़ ने घेरा था वहाँ तबीयत में वो अगली सी जौदत भी नहीं रही थी। अलबत्ता वो कभी नहीं मानते थे कि शराब छोड़ देने से उनके दिमाग़ पर कोई असर पड़ा है। मैंने इस बात का ज़िक्र किया तो कहने लगे कि तुम ग़लत कहते हो। मैंने जब से शराब छोड़ी है मेरी तबीयत ज़्यादा रवां हो गई है।

    एक दिन में मैकलोड रोड से गुज़र रहा था कि किसी ने आवाज़ दी। मुड़ कर क्या देखता हूँ कि आग़ा साहब एक दुकान के सामने बैठे हैं। मैंने पूछा, “आप यहाँ कहाँ?” फ़रमाने लगे, “आज मुझे अमृतसर जाना है और मोटर ख़राब हो गई है, इसकी मरम्मत कराने यहाँ बैठा हूँ।” फिर बोले, “ये क्या हरकत है, तुम हमारे हाँ आते क्यों नहीं?” मैंने कहा, “आग़ा साहब, फ़ुर्सत नहीं मिलती।” बोले, “चल-चलाव लग रहा है हम मर जाएंगे तो अफ़सोस करोगे कि आग़ा से उसकी ज़िन्दगी के आख़िरी दिनों में भी मिले।” मैंने कहा, “आग़ा साहब कल ज़रूर हाज़िर हूँगा।” फ़रमाने लगे, “आज तो मैं अमृतसर जा रहा हूँ, परसों वापस आऊँगा। मुझे फ़ोन कर लेना।”

    दूसरे दिन फ़ोन किया तो मालूम हुआ कि आग़ा साहब अभी नहीं आए। तीसरे दिन रात के वक़्त किसी ने कहा कि आग़ा साहब सख़्त बीमार हैं। मैंने सोचा कि इस वक़्त तो उनसे मिलना मुनासिब नहीं, सुबह चलेंगे। सुबह मैं उठकर कपड़े पहन रहा था। इतने में ख़बर मिली कि आग़ा का इंतिक़ाल हो गया। इन्ना लिल्लाह इन्ना एलैहे राजेऊन।

    लोगों को ख़्याल था कि जनाज़ा शहर में लाया जाएगा। अख़बारों में ये ख़बर भी छपी कि नीले गुम्बद में नमाज़-ए-जनाज़ा होगी लेकिन फिर ख़ुदा जाने क्या हुआ कि ये इरादा तर्क कर दिया गया। जनाज़ा के साथ सिर्फ़ सौ, सवा सौ आदमी थे। उनमें भी या तो उनकी फ़िल्म कंपनी के लोग थे या बा’ज़ बा’ज़ ख़ास ख़ास नियाज़मंद। कोई दस बजे जनाज़ा उठा और ग्यारह साढे़ ग्यारह बजे उन्हें मियानी साहब के क़ब्रिस्तान में सपुर्द-ए-ख़ाक कर दिया गया। अफ़सोस कि आज तक किसी को उनकी क़ब्र पुख़्ता बनवाने या लौह-ए-मज़ार तक नस्ब करने की तौफ़ीक़ भी नहीं हुई।

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