आँखों की तरफ़ गोश की दर-पर्दा नज़र है
आँखों की तरफ़ गोश की दर-पर्दा नज़र है
कुछ यार के आने की मगर गर्म ख़बर है
ये राह-ओ-रविश सर्व-ए-गुलिस्ताँ में न होगी
इस क़ामत-ए-दिलचस्प का अंदाज़ दिगर है
ये बादिया-ए-इशक़ है अलबत्ता इधर से
बच कर निकल ऐ सैल कि याँ शेर का डर है
वो नावक-ए-दिल-दोज़ है लागू मिरे जी का
तू सामने हो हमदम अगर तुझ को जिगर है
क्या फैल पड़ी मुद्दत-ए-हिज्राँ को न पूछो
मह साल हुआ हम को घड़ी एक पहर है
क्या जान कि जिस के लिए मुँह मोड़िए तुम से
तुम आओ चले दाइ’या कुछ तुम को अगर है
तुझ सा तो सवार एक भी महबूब न निकला
जिस दिलबर-ए-ख़ुद-काम को देखा सो नफ़र है
शब शोर-ओ-फ़ुग़ाँ करते गई मुझ को तू अब तो
दम-कश हो टुक ऐ मुर्ग़-ए-चमन वक़्त-ए-सहर है
सोचे थे कि सौदा-ए-मोहब्बत में है कुछ सूद
अब देखते हैं उस में तो जी ही का ज़रर है
शाने पे रखा हार जो फूलों का तो लचकी
क्या साथ नज़ाकत के रग-ए-गुल सी कमर है
कर काम किसू दिल में गई अर्श पे तो क्या
ऐ आह-ए-सहर-गाह अगर तुझ में असर है
पैग़ाम भी क्या करिए कि औबाश है ज़ालिम
हर हर्फ़ मियाँ दार पे शमशीर-ओ-सिपर है
हर बैत में क्या 'मीर' तिरी बातें गुथी हैं
कुछ और सुख़न कर कि ग़ज़ल सिल्क-ए-गुहर है
- पुस्तक : मीरियात - दीवान नंo- 5, ग़ज़ल नंo- 1726
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