बख़्त-ए-सियह की नक़्ल करें किस से चाल हम
बख़्त-ए-सियह की नक़्ल करें किस से चाल हम
मेहंदी लगी क़दम से हुए पाएमाल हम
क्यूँकर न इस चमन में हों इतने निढाल हम
याँ फूल सूँघ सूँघ रहे माह-ओ-साल हम
या हर गली में सैंकड़ों जिस जा मलीह थे
या ज़ुल्फ़-ओ-ख़त को देखते हैं ख़ाल-ख़ाल हम
गुज़रे है जी में गह वो दहन गाह वो कमर
क्या जानें लोग रखते हैं क्या क्या ख़याल हम
जातीं नहीं उठाई ये अब सरगिरानियाँ
मक़्दूर तक तो अपने गए टाल टाल हम
लोहू कहाँ है गिर्या-ए-ख़ूनीं से तन के बीच
करते हैं मुँह को अपने तमांचों से लाल हम
वो तू ही है कि मरते हैं सब तेरे तौर पर
हूर-ओ-परी को जान के कब हैं दवाल हम
गुज़रे है बस-कि उस की जुदाई दिलों पे शाक़
मुँह नोच नोच ले हैं 'अलल-इत्तिसाल हम
मंज़ूर सज्दा है हमें उस आफ़्ताब का
ज़ाहिर में यूँ करें हैं नमाज़-ए-ज़वाल हम
ज़ाहिर हुए तुम्हें भी हमारे दम और होश
आए न फिर तुम्हारे गए टुक बहाल हम
मुतलक़ जहाँ में रहने को जी चाहता नहीं
अब तुम बग़ैर इतने हुए हैं वबाल हम
नुक़सान होगा उस में न ज़ाहिर कहाँ तलक
होवेंगे जिस ज़माने के साहिब-कमाल हम
था कब गुमाँ मिलेगा वो दामन-सवार 'मीर'
कल राह जाते मुफ़्त हुए पाएमाल हम
- पुस्तक : मीरियात - दीवान नंo- 2, ग़ज़ल नंo- 0860
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