इत्तिफ़ाक़ ऐसा है कुढ़ते ही सदा रहते हैं
इत्तिफ़ाक़ ऐसा है कुढ़ते ही सदा रहते हैं
एक आलम में हैं हम वे पे जुदा रहते हैं
बरसे तलवार कि हाइल हो कोई सैल-ए-बला
पेश कुछ आओ हम उस कूचे में जा रहते हैं
काम आता है मयस्सर किसे उन होंटों से
बाबत-ए-बोसा हैं पर सब को चुमा रहते हैं
दश्त में गर्द-ए-रह उस की उठे है जीधर से
वहश-ओ-तैर आँखें उधर ही को लगा रहते हैं
क्या तिरी गर्मी-ए-बाज़ार कहें ख़ूबी की
सैंकड़ों आन के यूसुफ़ से बिका रहते हैं
बिस्तरा ख़ाक-ए-रह उस की तो है अपना लेकिन
गिर्या-ए-ख़ूनीं से लोहू में नहा रहते हैं
क्यों उड़ाते हो बुलाया हमें कब कब हम आप
जैसे गर्दान-कबूतर यहीं आ रहते हैं
हक़-तलफ़-कुन हैं बुताँ याद दिलाऊँ कब तक
हर सहर सोहबत-ए-दोशीं को भुला रहते हैं
याद में उस के क़द-ओ-क़ामत-ए-दिलकश की 'मीर'
अपने सर एक क़यामत नई ला रहते हैं
- पुस्तक : मीरियात - दीवान नंo- 2, ग़ज़ल नंo- 0895
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