रफ़्ता-ए-इश्क़ क्या हूँ मैं अब का
रफ़्ता-ए-इश्क़ क्या हूँ मैं अब का
जा चुका हूँ जहान से कब का
लोग जब ज़िक्र-ए-यार करते हैं
देख रहता हूँ देर मुँह सब का
मस्त रहता हूँ जब से होश आया
मैं भी आशिक़ हूँ अपने मशरब का
हम तो नाकाम ही चले याँ से
तुम को होगा वसूल मतलब का
दर्स कहिए जुनूँ का तो मजनूँ
अपने आगे है तिफ़्ल मकतब का
ला'ल की बात कौन सुनता है
शोर है ज़ोर यार के लब का
ज़ुल्फ़ सा पेचदार है हर शे'र
है सुख़न 'मीर' का अजब ढब का
- पुस्तक : मीरियात - दीवान नंo- 4, ग़ज़ल नंo- 1316
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