ये ग़लत कि मैं पिया हूँ क़दह-ए-शराब तुझ बिन
ये ग़लत कि मैं पिया हूँ क़दह-ए-शराब तुझ बिन
न गले से मेरे उतरा कभू क़तरा-ए-आब तुझ बिन
यही बस्ती आशिक़ों की कभू सैर करने चल तू
कि महल्ले के महल्ले पड़े हैं ख़राब तुझ बिन
मैं लहू पियूँ हूँ ग़म में एवज़-ए-शराब साक़ी
शब-ए-मेग़ हो गई है शब-ए-माहताब तुझ बिन
गई उम्र मेरी सारी जैसे शम्अ' बाव के बीच
यही रोना जलना गलना यही इज़्तिराब तुझ बिन
सभी आतिशीं हैं नाले सभी ज़महरीरी आहें
मिरी जान पर रहा है ग़रज़ इक अज़ाब तुझ बिन
तिरे ग़म का शुक्र-ए-नेअमत करूँ क्या ऐ मुग़बचे मैं
न हुआ कि मैं न खाया जिगर-ए-कबाब तुझ बिन
नहीं जीते जी तो मुमकिन हमें तुझ बग़ैर सोना
मगर आँ-कि मर के कीजे तह-ए-ख़ाक ख़्वाब तुझ बिन
बुरे हाल हो के मरता जो दिरंग 'मीर' करता
ये भला हुआ सितमगर कि मुआ शिताब तुझ बिन
- पुस्तक : मीरियात - दीवान नंo- 1, ग़ज़ल नंo- 0357
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