ग़म-ए-'फ़ैज़'
महफ़िल-ए-शे'र-ओ-सुख़न दोस्तो बे-फ़ैज़ हुई
गुल करो शम'एँ चराग़ों की लवें ज़ख़्मी करो
रेत बालों में भरो
चाक गरेबाँ कर लो
रात ढलने लगी
तारों के बदन दिखने लगे
सुब्ह की आँखों से रिसने लगा
सूरज का लहू
आहटें खो गईं
धुँदला गए क़दमों के निशाँ
अजनबी ख़ाक में गुम हो गया तारों का जहाँ
आ के मंज़िल पे बहकने लगे रहरौ के क़दम
लड़खड़ाने लगे उम्मीदों के ख़्वाबीदा सनम
रास्ते सो गए महरूमियाँ आँखों में लिए
टिमटिमाने लगे होंटों पे दु'आओं के दिये
बुझ गया आज वही शे'र-ओ-सुख़न का महताब
तीसरी दुनिया में थी रौशनी जिस के दम से
जिस ने बख़्शे थे ग़रीबों को
नए 'अज़्म नए हौसले जीने के लिए
जिस ने मेहनत-कशों मज़दूरों के ग़म को समझा
जिस ने कुचले हुए इंसानों के दुख को जाना
जिस ने इंसाँ की बक़ा के लिए
जेलें काटीं
जिस ने आवाज़ उठाई थी तशद्दुद के ख़िलाफ़
जिस ने इज़हार किया अम्न का सच्चाई का
जिस ने पैग़ाम दिया हुस्न का इंसाफ़ का
रा'नाई का
जिस के अश'आर में थी फ़िक्र-ओ-‘अमल की तल्क़ीन
जिस के अश'आर में थी शिद्दत-ए-एहसास-ए-जमाल
जिस के किरदार में आफ़ाक़ियत
और लहजे में
रिजाइयत थी
जिस के होंटों पे मोहब्बत के तराने गूँजे
जिस के अश'आर में मुफ़्लिस के फ़साने गूँजे
हैफ़-सद-हैफ़ वो शा'इर-ओ-मुफ़क्किर न रहा
आज बेरूत के मज़लूमों का ज़ाकिर न रहा
दोस्तो आओ चलो सूनी हुई बज़्म-ए-सुख़न
'उम्र भर एक यही ग़म हमें तड़पाएगा
अपने बे-ख़्वाब किवाड़ों को मुक़फ़्फ़ल कर लो
अब यहाँ कोई नहीं कोई आए आएगा
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