कि दर गुफ़्तन नमी आयद
मिरी जाँ गो तुझे दिल से भुलाया जा नहीं सकता
मगर ये बात मैं अपनी ज़बाँ पर ला नहीं सकता
तुझे अपना बनाना मोजिब-ए-राहत समझ कर भी
तुझे अपना बना लूँ ये तसव्वुर ला नहीं सकता
हुआ है बार-हा एहसास मुझ को इस हक़ीक़त का
तिरे नज़दीक रह कर भी मैं तुझ को पा नहीं सकता
मिरे दस्त-ए-हवस की दस्तरस है जिस्म तक तेरे
समझता हूँ कि तेरे दिल पे क़ब्ज़ा पा नहीं सकता
तिरे दिल की तमन्ना भी करूँ तो किस भरोसे पर
मैं ख़ुद दरगाह में तेरी ये तोहफ़ा ला नहीं सकता
मिरी मजबूरियों को भी बहुत कुछ दख़्ल है इस में
तुझी को मोरीद-ए-इल्ज़ाम मैं ठहरा नहीं सकता
मैं तुझ से बढ़ के अपनी आबरू को प्यार करता हूँ
मैं अपने इज़्ज़त-ओ-नामूस को ठुकरा नहीं सकता
तिरे माहौल की पस्ती का तअ'ना दूँ तुझे क्यूँ कर
मैं ख़ुद माहौल से अपने रिहाई पा नहीं सकता
स्रोत:
Kulliyat Gopal Mittal (Pg. 70)
- लेखक: Praim Gopal Mittal
-
- संस्करण: 1994
- प्रकाशक: Modern Publishing House, New Delhi
- प्रकाशन वर्ष: 1994
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.