घने अँधेरों से फूटा सपीदा-ए-सहरी
ज़मीर-ए-ख़ाक में जागा मज़ाक़-ए-दीदा-वरी
ग़मों से दूर मसर्रत की शाह-राहों में
हयात ढूँड रही है निशान-ए-इस्तिक़बाल
तहों में डूब के उभरी है फ़िक्र-ए-इंसानी
निकल रहा है सियाही से आफ़्ताब-ए-कमाल
लहू के छींटों से बदली है क़िस्मत-ए-आदम
ज़माना नाप रहा है जुनूँ के पैमाने
ख़िरद की मय से कहीं सैर हो सकी है तलब
सुरूर-ए-अक़्ल के वा हों हज़ार मय-ख़ाने
ये ज़िंदगी है बहर-हाल ज़िंदगी की तलब
तलब न हो तो जवाँ-साल हौसले न रहें
हयात-ओ-मौत नहीं जुज़ तसादुम-ए-नागाह
तलब न हो तो जुनूँ-कार वलवले न रहें
फ़ज़ा में कैफ़ कली पर शबाब गुल पे निखार
अभी तो जश्न-ए-बहाराँ को आम करना है
अभी फ़रोग़-ए-मह-ओ-मेहर की ज़रूरत है
निगार-ए-शब की सितारों से माँग भरता है
यक़ीन-ए-अज़्म-ओ-अमल इश्तिराक-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र
इन्हीं से दर्स-ए-तपिश ले रही है रूह-ए-बशर
हयात ले के चलो काएनात ले के चलो
चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो
स्रोत:
Sahba Lakhnavi : Shakhsiyat Aur Adabi Khidmaat (Pg. 279)
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- प्रकाशक: इरतिक़ा मतबूआत, कराची
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