अहमद सग़ीर की कहानियाँ
तअफ़्फ़ुन
ग़ुरूब होते हुए सूरज की ज़र निगार शुआएँ जब गाँव के ख़लत-मलत मकानों की मुंडेरों को चूमते हुए मग़रिब की सम्त झुकने लगीं और कुछ ही लम्हों में नज़रों से ओझल हो गईं तो ख़िलाफ़-ए-दस्तूर यकायक फ़िज़ा पर एक दबीज़ उदास अफ़सुरदा सी कैफ़ियत मुसल्लत हो गई। उस वक़्त