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आइशा अय्यूब

1983 | लखनऊ, भारत

आइशा अय्यूब

ग़ज़ल 28

अशआर 14

इतना मसरूफ़ कर लिया ख़ुद को

ग़म भी कर ख़ुशी से लौट गए

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तुम्हारी ख़ुश-नसीबी है कि तुम समझे नहीं अब तक

अकेले-पन में और तन्हाई में जो फ़र्क़ होता है

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कुछ उम्र अपनी ज़ात का दुख झेलते रहे

कुछ उम्र काएनात का दुख झेलना पड़ा

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पर समेटे ख़ुद ही बैठा है परिंदा इक तरफ़

जो क़फ़स में ही नहीं उस को रिहा कैसे करूँ

यही सबब है कि अक्सर उदास रहते हैं

जो हम से दूर हैं वो आस पास रहते हैं

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