अकमल इमाम
ग़ज़ल 8
अशआर 10
'अकमल' आज का इंसाँ कितना बे-तहम्मुल है
दिल में कुछ ख़लिश उभरी और दाग़ दी साज़िश
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आरज़ू टीस कर्ब तन्हाई
ख़ुद में कितना सिमट गया हूँ मैं
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उँगलियों के हुनर से ऐ 'अकमल'
शक्ल पाती है चाक पर मिट्टी
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ज़ेहन में अजनबी सम्तों के हैं पैकर लेकिन
दिल के आईने में सब अक्स पुराने निकले
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नई तहक़ीक़ ने क़तरों से निकाले दरिया
हम ने देखा है कि ज़र्रों से ज़माने निकले
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