अनवर ताबाँ के शेर
ख़ुशी की बात और है ग़मों की बात और
तुम्हारी बात और है हमारी बात और
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हर एक शख़्स मिरा शहर में शनासा था
मगर जो ग़ौर से देखा तो मैं अकेला था
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इस ख़ौफ़ में कि खुद न भटक जाएँ राह में
भटके हुओं को राह दिखाता नहीं कोई
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सुकून क़ल्ब को जिस से मिल जाए 'ताबाँ'
ग़ज़ल कोई ऐसी सुना दीजिएगा
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आएगा वो दिन हमारी ज़िंदगी में भी ज़रूर
जो अँधेरों को मिटा कर रौशनी दे जाएगा
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तू उस निगाह से पी वक़्त-ए-मय-कशी 'ताबाँ'
की जिस निगाह पे क़ुर्बान पारसाई हो
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तुम्हें दिल दे तो दे 'ताबाँ' ये डर है
हमेशा को तुम्हारा हो न जाए
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शायद आ जाए कभी देखने वो रश्क-ए-मसीह
मैं किसी और से इस वास्ते अच्छा न हुआ
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हरीम-ए-नाज़ के पर्दे में जो निहाँ था कभी
उसी ने शोख़ अदाएँ दिखा के लूट लिया
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सितम भी मुझ पे वो करता रहा करम की तरह
वो मेहरबाँ तो न था मेहरबान जैसा था
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किसी की बर्क़-ए-नज़र से न बिजलियों से जले
कुछ इस तरह की हो ता'मीर आशियाने की
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समझ से काम जो लेता हर एक बशर 'ताबाँ'
न हाहा-कार ही मचते न घर जला करते
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शग़्ल था दश्त-नवर्दी का कभी ऐ 'ताबाँ'
अब गुलिस्ताँ में भी जाते हुए डर लगता है
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