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फ़रहान सालिम के शेर

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यूँ भी किया है हम ने हक़-ए-दिलबरी अदा

अपनी ही जीत अपने ही हाथों से हार दी

हैं इन में बंद किसी अहद-ए-रस्त-ख़ेज़ के अक्स

ये मेरी आँखें अजाइब-घरों में रख आना

शौक़-ए-बेहद ने किसी गाम ठहरने दिया

वर्ना किस गाम मिरा ख़ून-ए-तमन्ना हुआ

मता-ए-दर्द मआल-ए-हयात है शायद

दिल-ए-शिकस्ता मिरी काएनात है शायद

उन्हें गुमाँ कि मुझे उन से रब्त है 'सालिम'

मुझे ये वहम उन्हें इल्तिफ़ात है शायद

अक्स कुछ बदलेगा आइनों को धोने से

आज़री नहीं आती पत्थरों पे रोने से

अब मुझ से सँभलती नहीं ये दर्द की सौग़ात

ले तुझ को मुबारक हो सँभाल अपनी ये दुनिया

अब उस मक़ाम पे है मौसमों का सर्द मिज़ाज

कि दिल सुलगने लगे और दिमाग़ जलने लगे

आम है इज़्न कि जो चाहो हवा पर लिख दो

इश्क़ ज़िंदा है ज़रा दस्त-ए-सबा पर लिख दो

हौसला सब ने बढ़ाया है मिरे मुंसिफ़ का

तुम भी इनआम कोई मेरी सज़ा पर लिख दो

तुझे ख़बर ही नहीं है ये क़िस्सा-ए-कोताह

जहाँ पे बुत गिरे कब वहाँ हरम उतरा

है मेरी आँखों में अक्स-ए-नविश्ता-ए-दीवार

समझ सको तो मिरा नुत्क़-ए-बे-ए-ज़बाँ ले लो

हूँ वारदात का ऐनी गवाह मैं मुझ से

ये मेरी मौत से पहले मिरा बयाँ ले लो

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